
धारावाहिक लेखमाला-1 - आपका स्वास्थ्य आयुर्वेद के मतानुसार
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आयुर्वेद एक विज्ञानसम्मत चिकित्साशास्त्र होने के साथ-साथ संपूर्ण जीवन विज्ञान भी है, जो प्राचीन-काल से इस देश में मानवजीवन को अधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक रूप से आरोग्य प्रदान करना आ रहा है। चिकित्साविज्ञान के रूप में आयुर्वेद की जड़ें कितनी गहरी फैली हुई हैं, उतनी किसी अन्य चिकित्साविज्ञान की नहीं हैं। वस्तुतः सच कहा जाए तो आयुर्वेद एवं यशस्वी बनाने वाला शास्त्र है। यह चिकित्सापद्धति मानवजीवन की सर्वविध समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करती है।
आज के परिप्रेक्ष्य में आयुर्वेद की भूमिका महत्वपूर्ण है, क्योंकि आयुर्वेद सभी देशों की चिकित्सापद्धतियों में अग्रणी तथा सबसे जीवंत पद्धति है। आयुर्वेद की परिभाषा से हमें यह ज्ञात होता है-
हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्।
मानव ततव यत्रोक्तमायुर्वेदः सउच्यते॥
अर्थात् जिस ग्रंथ में हितायु, अहितायु, सुखायु एवं दुखायु इन चारों प्रकार की आयु के लिए हित (पथ्य), अहित (अपथ्य), इस आयु का मान (प्रमाण और अप्रमाण) तथा आयु का स्वरूप बताया गया हो, उसे आयुर्वेद कहते हैं।
आयुर्वेद का मूल उद्देश्य यदि जानने का प्रयास करते हैं, तो शास्त्र कहता है-”स्वस्थस्य स्वास्थरक्षणमा-तुरस्य विकार प्रषमनंच।” अर्थात् स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य का प्रशमन करना ही आयुर्वेद का मूल उद्देश्य है। आयुर्वेद के अनुसार स्वस्थ व्यक्ति के लक्षण हैं-समदोषः समाग्निष्च समधातुमल क्रियः।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते॥
जिस पुरुष के दोष, धातुमल तथा अग्निव्यापार सम हों अर्थात् सामान्य (विकास-रहित) हों तथा जिसकी इंद्रियाँ, मन तथा आत्मा प्रसन्न हों, वहीं स्वस्थ है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि कितनी सर्वांगपूर्ण दृष्टि हमारे ऋषिगणों की इस विधा के पीछे रही है।
आयुर्वेद में वात, पित्त और कफ इन तीनों का बड़ा महत्व है। इनकी साम्यावस्था में व्यक्ति निरोग रहता है और इसमें दोष उत्पन्न हो जाने से रस, धातु आदि का निर्माण ठीक से नहीं हो पाता तथा मल का निष्कासन पूर्ण रूप से नहीं हो पाता, जिससे रोग उत्पन्न हो जाता है। दिनचर्या, रात्रिचर्या एवं ऋतुचर्या के नियमों का विधिवत पालन करने से व्यक्ति निरोग रहता है। वर्तमान समय में अस्त-व्यस्त दिनचर्या, रात्रिचर्या एवं ऋतु के अनुसार आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य आदि के नियमों का ठीक तरीके पालन न करने से अनेकानेक रोग उत्पन्न हो रहे हैं।
सर्वप्रथम दिनचर्या को लें। दिनचर्या के अंतर्गत ब्रह्ममुहूर्त में उठना, आत्मबोध की साधना, पृथ्वी माँ को नमस्कार, ऊषापान, शौच, दंतधावन, अभ्यंग (तैल मालिश) प्रातःभ्रमण, व्यायाम, क्षौरकर्म, स्नान, वस्त्रधारण, संध्योपासना, स्वाध्याय, भोजन आदि कर्म आते हैं।
दिनचर्या या ‘डेलीरूटीन’ ऋषियों की दृष्टि में क्या हो, इसे समझने का प्रयास करें।
ब्रह्मे मुहूर्ते हृयुत्तिष्ठेज्जीर्णां निरुपयन
रक्षार्थ मायुषः स्वस्थो।”(अ.सू. 3)
ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत स्वस्थो रक्षार्थमायुषः॥
(भा. प्र. 1/24)
स्वस्थ मनुष्य आयु की रक्षा के लिए रात के भोजन के पचने न पचने का विचार करता हुआ ब्रह्ममुहूर्त में उठे।
महर्षि मनु ने कहा है-
ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थांचानुचिंतयेत।
कायक्लेषाँष्च तन्मूलान्वेदतत्तवार्थमेव च॥ (मनु. 4/92)
प्रत्येक मनुष्य को ब्रह्ममुहूर्त में उठकर धर्म और अर्थ का चिंतन करना तथा शरीर के रोग और उनके कारणों का विचार करना एवं वेद के रहस्यों का भी विचार-चिंतन करना चाहिए।
आज प्रचलन है-देर रात्रि तक भोजन करने का, टेलीविजन फिल्में देखने का। ऐसे में सुबह कौन जल्दी उठता है, पर रोगों से दूर रह प्रसन्नता पानी है, तो इस क्रम को बदलना ही होगा। प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में शय्या अवश्य छोड़ देनी चाहिए। चौबीस घंटों में ब्रह्ममुहूर्त ही सर्वश्रेष्ठ है। मानवजीवन बड़े भाग्य से प्राप्त होता है। इसका प्रत्येक क्षण बहुमूल्य है, यह मानते हुए “हर दिन नया जन्म” का भाव लेकर दिनभर के जीवनक्रम निर्धारण करना चाहिए
प्रातःकाल सूर्योदय के साथ ही कमल खिल जाते हैं, पक्षी मधुर गान करने लगते हैं, समीर मंद-मंद गति से बहने लगता है। सृष्टि में एक नवजीवन, नवचेतन-स्फूर्ति दिखाई देने लगती है। ऐसे सुअवसर की उपेक्षा तो नादानी ही कही जाएगी। शारीरिक स्वास्थ्य-मन बुद्धि, आत्मा के बहुमुखी विकास-सभी की दृष्टि से ब्रह्म-मुहूर्त में उठना चाहिए। इस समय प्रकृति मुक्तहस्त से स्वास्थ्य, प्रसन्नता, मेधा-बुद्धि एवं आत्मिक अनुदानों की वर्षा करती है।
आयुर्वेद के ग्रंथों में एक कथन आता है-
वर्णकीर्ति मति लक्ष्मीं स्वास्थ्य मायुष्च विंदति।
ब्राह्मो मुहूर्ते संजाग्राच्छियं व पंकजं यथा॥
अर्थात् प्रातः उठने से सौंदर्य, यश, बुद्धि, धन-धान्य, स्वास्थ्य और दीर्घायु की प्राप्ति होती है, शरीर कमल के समान खिल जाता है। प्रातः उठकर ईश्वर-चिंतन व आत्मबोध की साधना के साथ हमें जन्म देने वाली पृथ्वी माँ को नमस्कार करना चाहिए
आत्मबोध की साधना प्रातः जागरण के साथ ही संपन्न की जाती है। रात्रि में नींद आते ही यह दृश्यजगत समाप्त हो जाता है। मनुष्य स्वप्न-सुषुप्ति के किसी अन्य जगत में रहता है। इस जगत में पड़े हुए स्थूलशरीर से उसका संपर्क नाममात्र का कामचलाऊ भर रह जाता है। जागते ही चेतना का शरीर से सघन संपर्क बनता है, यही नये जन्म जैसी स्थिति है।
जागते ही पालथी मारकर बैठ जाएँ, ठंडक हो तो वस्त्र ओढ़े रहें। दोनों हाथ गोदी में रखें, सर्वप्रथम लंबी श्वास लें, नीलवर्ण प्रकाश का ध्यान करें। नाक से ही श्वास छोड़ें, दूसरी श्वास में पीले प्रकाश का ध्यान करते हुए पूर्ववत क्रिया दोहराएँ। तीसरी बार फिर रक्तवर्ण प्रकाश का ध्यान करते हुए गहरी श्वास छोड़ दें। स्वस्थ-प्रसन्नचित्त हो अनुभव करें कि परमात्मा ने कृपा करके हमें आज नया जन्म दिया है। इसकी अवधि पुनः निद्रा की गोद में जाने तक की है। दाता की दृष्टि हम पर है कि हम उनके पुत्र उसकी दी विभूतियों का-इस जीवन का कैसा उपयोग कर रहे हैं।
इसके पश्चात् पृथ्वी माँ को नमस्कार किया जाता है। भाव इस समय मातृभूमि के प्रति गौरव का व उनके गुणों को धारण करने का हो। श्लोक है-
समुद्र मेखले देवि पर्वतस्न मंडले।
विष्णु पत्नीं नमस्तुभ्यं पादर्स्पष क्षमस्व मे॥
मेखला (तागड़ी) की तरह सब ओर समुद्र से घिरी हुई, पर्वत रूपी स्तनों से सुशोभित, विष्णु पत्नी-पृथ्वी माता आपको नमस्कार है। मुझे पैरों से स्पर्श करने की धृष्टता के लिए (आप पर पैर रखकर मैं अपनी जीवन-यात्रा आरंभ कर रहा हूँ) मुझे आप क्षमा करें।
दिनचर्या में इसके पश्चात ऊषापान का क्रम आता है। ऊषापान शौच जाने से पूर्व ही किया जाना चाहिए। आयुर्वेद में ऊषापान का विधान है। कहा है-”प्रातः उठकर नित्य जो ऊषापान करता है, निज शरीर को स्वस्थ बना रोगों से अपनी रक्षा करता है।” ऊषापान में शीतल जल का ही सेवन करना सर्वोत्तम है। दुर्भाग्य से आज भारतवर्ष में अधिकांश व्यक्तियों की ‘बेड टी’ अथवा काफी पीने की आदत पड़ गयी है, जो कि हमारे स्वास्थ्य के नियमों के प्रतिकूल है एवं किसी दृष्टि से भी हितकारी नहीं। शीतल जल हमारे दाँतों के लिए भी लाभकारी है तथा पाचन-संस्थान को बल प्रदान करता है। हमारे अंदर की पाचकाग्नि शीतल वस्तु को तो उष्ण बना लेती है परंतु उष्ण पदार्थ को अंदर ठंडा करने की कोई प्रक्रिया नहीं है। अत्यधिक उष्ण पदार्थ लेने से तो हमारे मुख अन्ननली आदि में विद्यमान नाजुक झिल्लियाँ जल जाती हैं। इसके परिणामस्वरूप वर्ण बन सकते हैं, जो अधिक दिन बने रहने से कैंसर का रूप धारण कर लेते हैं।
शीतल जल के सेवन से रात्रि के भोजन के कारण पैदा बेवजह बदहजमी व अपच भी ठीक हो जाती है। भावप्रकाश में लिखा है-
स्वितुः समुदय काले प्रसृति सलिलस्य विवेदष्टौ।
श्रोग जरा परिमुक्तो जीवेद वत्सरषतं साग्रम।
अर्थात् “सूर्योदय के समय जो व्यक्ति प्रतिदिन आठ अंजलि जलपान करता है, वह रोग से मुक्त हो जाता है। बुढ़ापा उसके पास नहीं आता और वह सौ वर्ष से अधिक आयु प्राप्त करता है।” वस्तुतः ऋषियुग में ऐसा ही होता भी होगा।
ऊषापान से मल की अच्छी तरह शुद्धि होती है। शरीर व मन में उत्साह की वृद्धि होती है तथा वीर्य संबंधी रोग दूर हो जाते हैं। नित्य सेवन करने से काम विकार, शारीरिक उष्णता, बवासीर, उदर रोग, विबंध, सिर-दर्द, नेत्र विकार दूर हो जाते हैं।
यह जल यदि मुख के बजाय नासिका से पीने का अभ्यास कर सकें, तो अति उत्तम है। प्रतिदिन एक पाव जल नासिका से पीने से अति उत्तम है। प्रतिदिन एक पाव जल नासिका से पीने से अत्यधिक लाभ होता है। नासिका द्वारा जलपान के गुणों का वर्णन करते हुए आयुर्वेद के ग्रंथों में कहा है-
विगत घन निषीथे प्रातरुत्थाय नित्यम्,
पिवति खलु नरो यो घ्राणरन्ध्रेण वारि।
स भवति मति पूर्णष्च क्षुषाः ताक्ष्यतुल्यों,
वलि पलित विहीना सर्वरोगेर्विमुक्तः।
अर्थात् “ रात्रि का अंधकार दूर हो जाने पर जो मनुष्य प्रातः उठकर नासिका द्वारा जलपान करता है, वह बुद्धिमान बन जाता है, उसकी नेत्रज्योति तेज हो जाती है, उसके बाल असमय में श्वेत नहीं होते तथा संपूर्ण रोगों से मुक्त रहता है।” नासिका से जलपान करने वालों को शीतकाल में गुनगुना उष्ण करके पानी की ठंडक छुड़ा लेनी चाहिए।
ऊषापान के पश्चात् दिनचर्या के क्रम में शौच की बारी आती है। सुश्रुत लिखते हैं-
आयुष्यमुषसि प्रोक्तं मलादीनाँ विसर्जनम्।
प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व मल-त्याग करना दीर्घायु प्रदान करता है। शौच में बैठने की भारतीय विधि ही सर्वोत्तम है। सही समय पर मल-विसर्जन का जो लोग ध्यान नहीं रखते, उनके शरीर में विकार-संग्रह होकर, रोग उत्पन्न होने लगते हैं। प्रतिदिन प्रत्येक व्यक्ति को दो बार शौच अवश्य जाना चाहिए, प्रातः आत्मबोध साधना के बाद तथा सायंकाल एक बार। बहुत से लोग मल-मूत्रों के वेगों को रोक लेते हैं, ऐसा करना शरीर के लिए बहुत हानिकारक है, इससे रोग उत्पन्न होते हैं।
बहुत से लोगों को प्रातः शौच साफ नहीं होता अथवा प्रातः दो या तीन बार जाना पड़ता है। जिन लोगों को कब्ज रहता है, उन्हें नियमित व्यायाम तथा आँतों को ठीक रखने के लिए योगासन करना लाभदायक है। भोजन में मोटे आटे की चोकर सहित रोटी एवं हरी सब्जी का अधिक प्रयोग करना चाहिए। दाल (सदैव छिलके वाली) तथा अंकुरित अन्न का प्रयोग करने से कब्ज नहीं रहता।
यदि फिर भी कब्ज रहता है, तो उनको नियमित ऊषापान करना लाभकारी होगा। कब्ज को दूर करने के लिए सप्ताह में एक दिन एनीमा का प्रयोग भी किया जा सकता है अथवा रात्रि को सोने से पूर्व हरीतकी चूर्ण एक चम्मच अथवा त्रिफला चूर्ण एक चम्मच उष्ण जल के साथ लेने से भी शौच साफ हो जाता है। शौच के बार आकर हाथ-पैर-मुख धोना चाहिए। ऐसा करने से शुचिता के अतिरिक्त थकावट दूर होती है और नेत्रज्योति बढ़ती है।
दिनचर्या में ‘दंतधावन’ को बड़ा महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ऋषिगण जानते थे कि बीमारी की जड़ें इस नियम की उपेक्षा-अवहेलना में ही छिपी हैं। दाँतों की उपमा मोतियों से दी जाती है। मोतियों का सौंदर्य, उनकी चमक-दमक आभा एवं लावण्य अपनी ओर आकर्षित करते हैं। दाँत शरीर के निर्माता और रक्षक रूपी द्वार पर स्थित हैं। दाँतों के स्वस्थ रहने पर शरीर स्वस्थ रहता है। दाँतों के बिना मुख की शोभा एवं सुँदरता विलीन होकर व्यक्ति सौंदर्यविहीन हो जाता है। दाँत हमारे शरीर में पैदा होने के कुछ माह बाद आते हैं और खान-पान, सफाई, स्वच्छता का पूरा ध्यान न रखने से असमय में खराब हो जाते हैं। दाँत और मसूड़ों के रोग ठीक से दाँतों की सफाई न होने के कारण ही उत्पन्न होते हैं। दाँतों को स्वस्थ बनाये रखने के लिए कुछ नियमों का पालन किया जाना आवश्यक है। यदि प्रतिदिन हम दाँतों का ध्यान रखें, तो दाँतों के हिलने और गिरने का प्रश्न ही नहीं उठता।
हमारे प्राचीन आयुर्वेदाचार्यों ने दातुन की बहुत ही प्रशंसा की है। दातुन प्रयोग में लाने के लिए नीम, बबूल, सिहोरा, खदिर, कनेर, महुआ, अर्जुन, बादाम, अकरंदा आदि को अच्छा माना जाता है। मौलश्री की दातुन करने से दाँत दृढ़ होते चले जाते हैं। शास्त्र कहता है-
अवेक्ष्यर्तुंच दोषं च रसं वीर्य च योजयते।
कषायं मधुरं तिक्तं कटुकं प्रातरुत्थितः॥
निम्बष्च तिक्तके श्रेष्ठः कषाये खदिरस्तथा।
मधूको मधुरे श्रेष्ठः करन्जः कटुके तथा॥
(सु. चि. अ. 24)
सर्वदा कृत, दोष, रस और वीर्य को देखकर कसैली, मीठी तीती, कड़वी यथोचित दंतुवन करनी चाहिए। तीती में नीम, कसैली में खदिर, मधुर में महुआ और कड़वी में कर×ञ की दंतुवन श्रेष्ठ है। दाँत मोती के समान सुँदर तथा वज्र के तुल्य दृढ़ हो जाते हैं।
सुश्रुत के अनुसार, कड़वे वृक्षों में नीम, कसैले में खैर, मीठे में कनेर की दातुन करना अच्छा है। नीम के दातुन से कीड़े नहीं लगते, मुख की दुर्गंध दाँतों का मैल और कफ का नाश हो जाता है।
दातुन करना भी एक कला है। दातुन सदैव बैठकर करनी चाहिए। दातुन करते समय लोगों से बातचीत करना व इधर-उधर थूकना रहना अच्छा नहीं है। दातुन बारह अंगुल लंबी कनिष्ठिका उँगली के समान मोटी होनी चाहिए। दाँतों से बचाकर अच्छी तरह कूँची बना लेवें, कूँची से ऊपर-नीचे दाँतों की सफाई करने के बाद दातुन को धोकर बीच से फाड़ लेना चाहिए एवं इसी से जिह्वा के पिछले हिस्से में जमा मैल की सफाई की जानी चाहिए। इसके बाद दाहिने हाथ के अँगूठे से ताले में घर्षण करने से तालू की सफाई हो जाती है। जिह्वा तथा तालू की सफाई का महत्व उतना ही है, जितना दाँतों और मसूड़ों का। जिàवानिर्लेखनं रौप्यं सौवर्णं वार्क्षमेव च।
तन्मलापहरंषस्तं मुदुष्लक्षणं दषाड्.ग्लम॥
अर्थात् “जीभ के मैल को दूर करने वाली जीभ-छोलनी चाँदी, सोना या लकड़ी की टेढ़ी, मुलायम, चिकनी और दस अँगुल लंबी होना चाहिए।” जिन लोगों को दातुन उपलब्ध न हो, वे मंजन और पेस्ट का प्रयोग कर सकते हैं, पर करें उसी तरह जैसे दातुन की जाती है। मात्र जिह्वा पूजा न हो।
मंजन में प्रयुक्त होने वाली कई औषधियाँ हैं, जैसे सेंधा नमक व सरसों को तेल, सोंठ और नौसादर, मौल श्री की छाल का चूर्ण, जायफल चूर्ण, अमरूद की हरी पत्ती का चूर्ण, त्रिफला चूर्ण आदि। मंजन सदैव बीच वाली उँगली (मध्यमा) से ही करना चाहिए। ब्रुश को नीचे-ऊपर की दिशा में चलाना चाहिए। पेस्ट करने वाले व्यक्ति स्टील की बनी जीभी से जिह्वा की सफाई कर सकते हैं। दाँतों से जितनी बार कुछ खाया-पीया जाए उतनी बार दाँतों की सफाई उँगली से करनी चाहिए। कभी-कभी दाँतों के मध्य में अन्न के कण फँस जाते हैं, उसे नीम की सींक से, टूथ प्रिक की सहायता से निकालकर अच्छी तरह कुल्ला करना चाहिए। रात्रि को सोने से पूर्व अधिकांश लोगों को दुग्ध पीकर साने का अभ्यास है, दुग्ध पीकर दाँतों की सफाई न करने से दाँतों में कीड़े लग जाते हैं। अतः सोने से पहले दाँतों की सफाई दातुन या ब्रुश आदि से नियमित होती रहे, तो नीरोगता वरदान रूप में मिलती है।