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Magazine - Year 1999 - Version 2

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इनसान के लिए दैवी वरदान है संगीत

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संगीत आत्मा का स्वर है। गायन आत्मा की कला है। गायन आत्मा की कला है। इतना ही नहीं, यह परमात्मोपासना का दिव्य माध्यम है। शुद्ध एवं पवित्र संगीत में प्रचंड क्षमता भरी होती है। यह तन-मन को झंकृत कर उसमें आशा, उत्साह एवं उमंग की नूतन धाराएँ संचरित करता है। इससे साँस्कृतिक चेतना, सामाजिक समरसता एवं वैयक्तिक सद्भावना एवं संवेदना जाग्रत होती है। आज के वैज्ञानिक युग में ‘म्यूजिकल थेरेपी’ द्वारा उपचार प्रक्रिया बड़ी तेजी से चल पड़ी है। मनोवैज्ञानिक इसे तनाव एवं अवसार के समाधान हेतु प्रस्तुत करते हैं। इसीलिए तो गीताकार ने “वेदानाँ सामवेदोऽस्मि” कहकर इसकी महत्ता प्रतिपादित की है।

शब्दब्रह्म है। लय इसकी आत्मा है और उसे ही नाद कहते हैं। नाद का व्यक्त रूप आहदनाद है। आहद और अनहद नाद की संधि में ही सामवेद का स्वर स्फुरित हुआ। गंधर्ववेद सामवेद का उपवेद है, इसलिए आहद होते हुए भी उसमें अनाहद का स्वर सन्निहित है। संगीत की सुरधारा सामगान के दिव्यदर्शियों से लेकर देवर्षि नारद तक एवं हरिदास और तानसेन से लेकर प्रचलित गीतों तक प्रवाहित हुई है। संगीत में अपूर्व सम्मोहक शक्ति है, इसीलिए तो हिरन और साँप भी दौड़े चले आते हैं। तानसेन के दीपक-राग से दीप जल उठता था और आसमान में छितराए बादल जुड़कर मेघ-मल्हार के स्वर में सुर देने लगते थे। संगीत की इसी विशेषता के कारण जेम्स वाट्सन ने संगीत को पाषाण हृदय को मोम बनाने वाली जादुईशक्ति माना है। शास्त्रीय संगीत के सम्मोहन से मुग्ध होकर महात्मा गाँधी ने कहा था, संगीत आत्मा के ताप को शांत एवं शीतल कर सकता है। यह आत्मा की मलीनता को धोकर पवित्र कर देता है।

आज संगीत के दो रूप मिलते हैं,शास्त्रीय संगीत एवं सुगम संगीत। गीत के चार अंग माने जाते हैं- स्वर, पद, लय और मार्ग। संगीत रत्नाकर में नाद को बाईस श्रुतियों में विभाजित किया गया है। ये श्रुतियाँ कान से अनुभव की जाने वाली विशिष्ट शक्तियां हैं। संगत की इन शक्तियों का प्रभाव स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों रूपों में देखा जा सकता है। म्यूजिक थेरेपी का सिद्धाँत इसी पर आधारित है। सच्चिदानंद वात्स्यायन ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय कला दृष्टि’ में संगीत को संस्कृति की पहचान एवं अभिज्ञान कहा है। इनके अनुसार संगीत साँस्कृतिक विचारधारा को अत्यंत प्रभावित करता है। अगर संगीत बदले, तो यह इस बात का संकेत होगा कि संस्कृति बदल गई है। अगर संगीत नहीं बदला है तो इसका मतलब है कि कहीं मर्म में हम भी नहीं बदले हैं।

पाश्चात्य जगत के विद्वानों ने भी संगीत को सामाजिक चेतना की प्रेरकशक्ति के रूप में निरूपित किया है। मार्क्स के अनुसार, यह सामाजिक एवं साँस्कृतिक स्वर को झंकृत करता है। संगीत से व्यक्ति ही नहीं समस्त समुदाय पर असर पड़ता है। चार्ल्सरोजेन ने स्पष्ट रूप से स्वीकारा है कि संगीत समाज में सौंदर्य एवं नैतिकता का प्रतिनिधित्व करता है। व्यक्ति और समाज का परिचय वहाँ के प्रचलित संगीत के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। मार्क्सस्लोबिन ने अपनी चर्चित रचना ‘सब कल्चर साउंड’ में संगीत के साँस्कृतिक पहलुओं का रोचक वर्णन किया है। इनके अनुसार संगीत व्यक्ति में गत्यात्मक भाव उत्पन्न करता है तथा निष्क्रियता को सक्रियता में परिवर्तित कर देता है। संगीत रूपी सुपर कल्चर से व्यक्ति, परिवार, आयु, वर्ग एवं जाति सभी प्रभावित होते हैं। इसकी सुरलहरी सीधे व्यक्ति की अंतर संवेदना को स्पर्श कर उसे एक नए लोक में पहुँचा देती है। संगीत के सुर-सागर में मानव की सभी इच्छाएँ, आकाँक्षाएँ, एकाकार होकर आनंद की अनुभूति प्राप्त करती है। इस तरह संगीत जहाँ व्यक्ति के अंतःकरण को झकझोरता है, वहीं उसे सामाजिक परिवेश से भी जोड़ता है।

यह तो मानव मन की वह सुरीली अभिव्यक्ति है, जो संस्कृति के स्वरों में फूटती है। जॉनमिलर चेर्नफ ने उल्लेख किया है कि अफ्रीका का संगीत साँस्कृतिक गतिविधियों की देन है। यहाँ वे व्यक्ति अपने साँप्रदायिक सद्भाव और सामंजस्य को और अधिक सुहृद करने के लिए विभिन्न प्रकार के संगीत का सृजन करते हैं। इनके गीतों में, प्रचलित परंपरा की छाप मिलती है। ये आनंद और सस्ती के लिए इसे गाते हैं। संभवतः लोकसंगीत के पीछे यही भाव छिपा है। इस विषय पर फिलिप वी. वोलमैन ने और भी स्पष्ट करते हुए लिखा है कि अफ्रीका का संगीत आज के आधुनिक परिवेश में बदलता जा रहा है। जाहिर है इससे वहाँ की संस्कृति भी प्रभावित हो रही है। संगीत में इस तरह का बदलाव पीढ़ी-दर-पीढ़ी होता है, परंतु उसका मूलभाव, अनुभव, सत्य एवं सार्वभौमिकता का प्रभाव यथावत बना रहता है।

कोगन और और सैण्डो के संगीत सर्वेक्षण से पता चलता है कि पाश्चात्य जगत में पाँप संस्कृति से क्लासिकल म्यूजिक की ओर अभिरुचि बढ़ी है। आज के पाँपस्टारो के बदले पोस्ट माडर्न संगीतकार जैसे लारी एंडरसन डेविड बर्न और ब्रॉयनइनो आदि फिर से प्रचलित होते जा रहे हैं। अठारहवीं सदी में पाश्चात्य जगत का संगीत आज के रुझान से संबंधित माना जा रहा है। इन दिनों वह सत्य उभरकर आया है कि संगीत वर्गभेद की सीमाओं को भेदकर व्यक्ति के अनुभव एवं अनुभूति को प्रभावित करता है। इससे बिखरता हुआ समाज एकता की ओर उन्मुख होता प्रतीत होता है। वर्तमान डिजिटल युग में संगीत परिशुद्ध रूप से मानसिक हो गया है। आज का तनावग्रस्त समाज संगीत को तनावमुक्ति के साधन के रूप में देखता है।

वाटरमैन क्रिस्टोफर ने योरुबा संगीत एवं जूजू संगीत का अध्ययन करने के पश्चात बतलाया है कि यह व्यक्ति के आत्मविश्वास को बढ़ा देता है। इस संगीत से कार्यक्षमता में वृद्धि होती है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि जूजू संगीत ने नाइजीरिया के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, व्यावहारिक एवं भाषागत क्षेत्र के परिदृश्य को परिवर्तित कर दिया है। गाँव, शहर, शिक्षित, अशिक्षित सभी लोग इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहे। नाइजीरिया का यह स्वर अमेरिका में भी सुनाई देने लगा है। पॉलगिलराय ने कहा है कि संगीत में जादुई क्षमता होती है, यह व्यक्ति को किसी ओर मोड़ सकता है। इनके अनुसार श्रेष्ठ संगीत व्यक्ति को तनाव एवं संघर्ष से जूझने की क्षमता प्रदान करता है। यह उमंग एवं उत्साह को बढ़ाता है, समाज के अंदर की गहरी खाई को पाटने का प्रयत्न करता है। इन दिनों दक्षिण अफ्रीका की बहुत सारी संगीत धुनों ने पाश्चात्य जगत पर अपना प्रभाव जमा लिया है। सन् 1960 में एक संगीत क्लब में ब्रॉयन जैक्सन ने कहा था- “संगीत मानवी चेतना को ऊर्ध्वमुखी करने का सुँदर एवं सरल साधन है।” संगीत के इस जादुई चमत्कार से इजराइल भी सराबोर है।

संगीत की सुरलहरी अंग-अंग में थिरकन भर देती है। नृत्य से भी इसका अटूट संबंध है। पाश्चात्य संगीत में इन दोनों का सम्मिश्रण मिलता है। भारतीय कला में संगीत एवं नृत्य का संबंध होने के बावजूद ये दोनों भिन्न विधाएँ हैं। स्टुअर्ट हाल ने अपने शोधग्रंथ ‘कल्चरल आइडेन्टिटी’ में उल्लेख किया है कि संगीत से मानवीय चेतना एकाकार हो जाती है और वह उन सुरलहरियों के संग बरबस थिरकने लगता है। आगे इन्होंने स्पष्ट किया है कि संगीत का प्रभाव त्वरित होता है। इससे सामूहिक चेतना भी प्रभावित होती है। परिणामस्वरूप किसी गतिविशेष से सारा समाज लहराने लगता है। इस तरह श्रेष्ठ एवं भावपूर्ण संगीत सामाजिक एवं साँस्कृतिक स्वर को बदलने की क्षमता रखता है। उन्नीसवीं सदी में चैम्बर म्यूजिक तथा अफ्रीका एवं अमेरिका में ‘इंडियन म्यूजिक इन फेलेसिटी’ में भारतीय संगीत की विशेषता का विस्तार से वर्णन किया है। इन्होंने भारतीय संगीत को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ संगीत बताया है। इनके अनुसार गीतों के सरगम में दिव्यता का भाव रहता है, जो व्यक्ति के आँतरिक भावों को सक्रिय एवं जाग्रत करता है। इस मामले में केवल शास्त्रीय गायन ही समर्थ है। इसमें गूढ़ दर्शन छिपा हुआ है। हेलन मेयर स्वयं भी भारतीय गीतों से अभिभूत थे। उन्होंने एक स्थान पर स्पष्ट किया है कि भारत का सामान्य-सा लोकसंगीत किसी भी रेप, पाँप आदि गीतों से श्रेयस्कर है। इन गीतों में ताल, लय और छंद व्यक्ति के भावों को झंकृत करता है और उसे दिव्य अनुभूति रसास्वादन कराता है।

नाद के आत्मानुभूति शास्त्र को अब आधुनिक विज्ञान की क्वाँटम भौतिकी, जीवविज्ञान एवं ध्वनिविज्ञान की शाखाएं भी बड़ी तेजी से अपनाती जा रही हैं। आधुनिक ध्वनिविज्ञान ने अब अश्रव्य तरंगों जैसे अल्ट्रासोनिक एवं सुपरसोनिक तरंगों का पता लगा लिया है, जिस पर किसी भी शब्द, नाद या संगीत की तरंगें रिकॉर्ड हो सकती हैं। संगीत के माध्यम से उपचार संबंधी प्रयोग तीव्रता से किया जाने लगा है। आयुर्वेद में जहाँ मंत्रोपचार का विस्तृत वर्णन मिलता है, वहीं शास्त्रीय संगीत एक गूढ़ विज्ञान है। स्वास्थ्य पर इसका प्रभाव अक्षुण्ण है। इस तथ्य को यूनानी शास्त्र, फारसी

एवं हिब्रू के अनेक स्वास्थ्य ग्रंथ स्वीकार करते हैं। इन ग्रंथों में संगीत के माध्यम से नींद, पाचन एवं रक्तदाब आदि के उपचार वर्णित हैं। स्वास्थ्य एवं सरगम के बीच संबंध की नींव इस शताब्दी के मध्य में पड़ी। आजकल तो म्यूजिक थेरेपी से रोगों का उपचार काफी प्रचलित होने लगा है। प्रोफेसर रेहलाँक ने पदार्थ को ऊर्जा का एक रूप मानते हुए इनके तरंगों एवं कम्पनों की व्याख्या की है। हर पदार्थ तरंग की एक विशेष आवृत्ति होती है। यह आवृत्ति ही व्यक्ति पर अच्छा या बुरा प्रभाव डालती है। भावपूर्ण गीतों की आवृत्ति व्यक्ति को संवेदना से ओत−प्रोत कर देती है, तो देषभक्तिपूर्ण

गीतों से नसें फड़कने लगती है, यह सब उन विशिष्ट तरंगों का कमाल है। मुनरों, माउण्ट लक्सिन, कनिंघम आदि शरीर-विज्ञानियों ने स्पष्ट किया है कि संगीत मानसिक एवं भावनात्मक स्तर पर भी अपनी छाप छोड़ता है। प्रो. एल्विन और डॉ. ब्राडी के अनुसार संगीत का असर मस्तिष्क स्थित ‘लिंबिक सिस्टम’ पर पड़ता है, जिसका संबंध आनंद, उत्साह एवं उमंग से होता है। उनके अनुसार संगीत की स्वर-लहरियों से भावनात्मक अनुभूति उद्दीप्त हो जाती है।

संगीत-चिकित्सा का मुख्य कार्य है-स्नायुसमूह के प्राण को प्रोत्साहित करना। इससे मांसपेशियां सक्रिय हो उठती हैं। संगीत में विद्यमान सूक्ष्म ध्वनि-तरंगें मनोदशा पर गहरा असर डालती है। इसके इस गुण के कारण ही इसे वैज्ञानिक-चिकित्सापद्धति के रूप में विकसित किया जा रहा है। शास्त्रीय संगीत से लेकर बाख, बलूज, मोजार्ट, जाज, राँक, रेप तक सभी तन-मन पर अपना जादुई प्रभाव छोड़ते हैं। इसीलिए चिकित्सक ईसा पूर्व चौथी शताब्दी से लेकर अब तक संगीतोपचार का प्रयोग करते चले आ रहे हैं। हालाँकि बीच में इसकी कड़ियाँ लुप्त हो गयीं थी, जो अब आधुनिक विज्ञान ने पुनर्जीवित कर दी हैं। राग रिसर्च सेंटर चेन्नई ने शास्त्रीय रागों पर रोगोपचार की विधि खोज निकाली है, इनके अनुसार प्रत्येक राग का प्रभाव भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। राग आनंद-भैरवी हाइपरटेंशन को कम करता है। इसी तरह राग शंकरमरणम् मानसिक रोगियों को राहत पहुँचाता है। रागसेंटर के प्रमुख के. विद्यानाथन का कहना है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत में चमत्कारिक शक्ति भरी पड़ी है। आवश्यकता है, तो इसकी समुचित जानकारी एवं प्रयोग की।

राग रिसर्च सेंटर में रागशंकरमरणम् का प्रयोग करने के लिए 90 भावनात्मक तनाव के रोगियों को लिया गया। इनको तीन समूहों में बाँटा गया। प्रथम समूह को 20 मिनट तक प्रतिदिन दो बार दो सप्ताह तक शंकरमरणम् राग सुनाया गया। दूसरे वर्ग को इसी अवधि में संगीत की फिल्म दिखाई गयी। तीसरे वर्ग को ऐसे ही छोड़ दिया गया। प्रयोगोपराँत जब इन रोगियों का स्वास्थ्य-परीक्षण किया गया तो प्रथम वर्ग के 30 में से 22 रोगियों का तनाव घट गया था, जबकि दूसरे वर्ग के मात्र आठ रोगी ही कम तनावग्रस्त पाए गए। तीसरा दल ही इस मामले में अप्रभावित रहा। अपने देश के प्रसिद्ध केंद्र ‘नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एण्ड न्यूरोसाइंस बैंगलोर’ में भी संगीत द्वारा उपचार की

प्रक्रिया चलाई जा रही है। यहीं के साइकिएट्री प्रोफेसर डॉ. बी. एन. मंजुला की मान्यता है कि संगीत थेरेपी साइकोसिस की अपेक्षा न्यूरोसिस में अधिक लाभकारी होती है। डॉ. मंजुला ने आगे स्पष्ट किया है कि गुनगुनाने से भी अवसाद में कमी आती है। भावपूर्ण एवं मोहक गीत एंक्जाइटीन्यूरोसिस को दूर करते हैं। जबकि मानिया में तीव्र संगीत की आवश्यकता महसूस की जाती है। डॉ. राल्फ स्पीजे ने जर्मनी के पेन क्लीनिक में 90 हजार रोगियों पर संगीत का प्रयोग किया है। इसमें इन्हें 69 प्रतिशत सफलता मिली है। प्रयोग की

इस सफलता को देखकर वहाँ न्यूरोलॉजिस्टों ने संगीत उपचार को वैज्ञानिक चमत्कार कहा है।

न्यूरोलॉजिस्टों के अनुसार मस्तिष्क के दायें भाग से सम्बन्धित है। संगीत के सुरों में पिट्यूटरी ग्रन्थि एण्डोफीन हार्मोन्स का स्राव होता है। श्रेष्ठ संगीत के सुरों में मैटाकोला और एण्ड्रेलीन का स्तर कम हो। इससे बढ़ी हृदय गति रक्त दाब तथा संगठित फैटी एसिड लैक्टेट नामक विष का स्तर घटा है। अच्छा संगीत सुनने से माइग्रेन तनाव कम हो जाता है। अर्ध वाहनीय मस्तिष्क सीफ्रोनिया एवं हिस्टीरिया के रोगियों पर इसका आश्चर्यजनक प्रभाव होता है। संगीत का सर्वाकिधक अंतर्मुखी व्यक्तियों पर होता है। म्यूजिक थेरेपी प्रसव पीड़ा में अत्यधिक लाभ लाती है। इसके माध्यम से उदर व नेत्र एवं हृदय रोग पर तत्काल प्रभाव पड़ता है। साउंड थेरेपी विशेषज्ञों के बिना किसी रुधिर स्राव के मोतियाबिन्द का सफल आप्रेशन किया है। ध्वनि विशेषज्ञों ने ओरोटोन नामक एक ध्वनि यंत्र आविष्कृत किया है। सप्तस्वरों के साथ रंग भी उत्सर्जित करता है इन सब स्वरों की तरंगें व विशिष्ट रंगों के साथ व्यक्ति तन-मन पर विशिष्ट प्रभाव डालता है। रोगपरक व्यक्ति को आवश्यकतानुसार इन रंगों एवं स्वर का संगीत सुनाया जाता है।

अत्यंत आशाजनक परिणाम प्रस्तुत कर रहा है। म्यूनिख के ग्रास के ग्रास हैडर्न अस्पताल में वैज्ञानिकों ने पाया है कि कीमोथेरेपी के दौरान संगीत सुनने से कैंसर रोगियों का डर कम होता है। रूसी अनुसंधानकर्ता कुद्रयावल्सेव ने अपने शोध के आधार पर बताया है कि संगीत की तरंगें अंतःस्रावी ग्रंथियों को सक्रिय कर देती है। इसी तरह रसायनशास्त्रियों ने तो ध्वनिरसायन नामक विज्ञान की एक नई शाखा का विकास किया है। इसके माध्यम से संगीत के मधुर, कर्कश एवं कोलाहल मुक्त स्वरों का परीक्षण किया जाता है। बताया गया है कि अच्छे गीतों की तरंगें अधिक प्रभावशाली होती हैं। िग्सटन यूनिवर्सिटी के म्यूजिक एवं साइकिएट्री प्रोफेसर पाल राबर्टसन का कहना है कि संगीत से मस्तिष्क का बड़ा गहरा संबंध है। इन्होंने संगीत को मस्तिष्क के न्यूरॉन की अभिव्यक्ति कहा है। इसी तथ्य को डॉ. एन्थेनीस्टार ने ‘म्यूजिक एण्ड माइण्ड’ में लिखा है कि जब व्यक्ति भावुक होता है, तो स्वतः ही गीत गुनगुनाने लगता है। इससे मस्तिष्क का बायाँ हेमिस्फीयर सक्रिय होता है। भावपूर्ण गीत मस्तिष्कीय स्नायुकोषों को को सक्रिय एवं मजबूत करते हैं।

विज्ञान की प्रसिद्ध पत्रिका ‘न्यू साइंटिस्ट’ पत्रिका के शोधपत्र में संगीत को मानसिक विकास का सर्वोत्कृष्ट माध्यम माना है। विशेषज्ञों के अनुसार इससे बच्चों के बौद्धिक विकास एवं तार्किक क्षमता में वृद्धि होती है। पीडमेंट अस्पताल जार्जिया के डॉक्टर फेड स्वार्ज ने जन्म पूर्व या जन्मोत्तर शिशुओं के लिए गर्भाशय संगीत आविष्कृत किया है। इनके अनुसार गर्भाशय के अंदर 80 से 95 डेसीबल के बराबर ध्वनि उत्पन्न होती है, तो किसी मंदिर के अंदर हो रहे संकीर्तन की ध्वनि के स्तर के बराबर होती है। इस संगीत का परिणाम जानने के लिए स्वार्ज ने सर्वप्रथम अपने ही बच्चों पर इसका प्रयोग किया। इस संगीत को सुनकर बच्चे शीघ्र सो जाते हैं। इसके पश्चात समय से पूर्व जन्मे 17 बच्चों को इसे सुनाया गया। प्रयोगोपराँत प्राप्त निष्कर्ष चौंकाने वाला था। इससे बच्चों की थकान दूर हो गयी। वे पहले से अधिकांश हो गए और अपेक्षाकृत अधिक देर तक सोए। बच्चों की साँसों की दर में वृद्धि हुई तथा रक्तचाप एवं हृदय की धड़कनों की दर घटी। यह इनके विकास में बहुत सहायक सिद्ध हुआ है।

प्रोफेसर हरिषर्मा तथा उनके सहयोगी काफमैन एवं एलन एल. स्टीफन के अनुसंधान से पता चलता है कि और अच्छे गीतों से जहाँ लाभ होते हैं, वहीं कर्णकटु गीतों से नुकसान भी हो सकता है। इनके अनुसार रॉक संगीत से हृदय एवं कैंसर आदि रोगों को बढ़ावा मिल सकता है। लेकाशयर हॉस्पिटल तथा महर्षि आयुर्वेद फाउंडेशन के संयुक्त प्रयासों द्वारा सामवेद के गायन मंत्र ब्लैक एण्ड ब्लैक संगीत का तुलनात्मक अध्ययन अध्ययन किया गया। इस शोध निष्कर्ष ने पश्चिमी जगत के वैज्ञानिकों की नींद उड़ा दी। ब्लैक संगीत मस्तिष्क, स्तन, आंतें, फेफड़े और त्वचा की कैंसर कोशिकाओं में 25 प्रतिशत की वृद्धि कर देता है। जबकि सामवेद का गायन ठीक इसके विपरीत 65 रोगों में 25 प्रतिशत की कमी करता है एवं मन में उमंग एवं शांति लाता है। कर्णकटु संगीत म्यूजिकोजेनिक मिर्गी के लिए जानलेवा सिद्ध हो सकता है। न्यूयार्क में स्थित में स्थित माउण्ट सिनाय अस्पताल के डॉ. जान डायमंड की मान्यता है कि तेज एवं हाईबीट के संगीत स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डालते हैं, जबकि लो बीट एवं अच्छे गीत शरीर एवं मन पर हर तरह से लाभप्रद होते हैं।

कुछ भी हो, यह एक निर्विवाद सच है कि संगीत इनसान के लिए दैवीय वरदान है। इसका सदा श्रेष्ठ साधन के रूप में सदुपयोग करना चाहिए। इससे अनेक सामाजिक, साँस्कृतिक एवं वैयक्तिक लाभ प्राप्त हो सकते हैं। हमें ऐसे संगीत का चुनाव करना चाहिए, जिससे मानसिक कुँठा एवं उत्तेजना न बढ़ सके एवं आशा, उत्साह एवं उमंग में अभिवृद्धि हो। सदैव भावपूर्ण एवं सुँदर गीतों का यचन करना ही श्रेयस्कर है, यही शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य का परिचायक है।

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