
बुरे आदमी के पास अहंकार दीन होता है (Kahani)
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एक संत ने अपने संस्मरण में लिखा है कि उन्होंने अपने सब पाप, अपराध बुरे कर्म, अचिन्त्य छोड़ दिए और सब प्रकार की अनीति से अपने को बचा लिया, तब उन्हें लगने लगा कि अब उसमें गुण-ही-गुण बचे हैं। किंतु यह बचा? अब उन्हें लगने लगा कि उन्हें गुणों का अहंकार हो गया है। अब तो बेचैनी और बढ़ गई। यह अहंकार ही तो सब पापों का मूल है। यदि यही न छूटा तो न जाने क्या दुर्दशा होगी। यह भलाई नया कारागृह बनकर जीवन में खड़ी हो गई।
ध्यान रहे बुरे आदमी के पास अहंकार दीन होता है, किंतु भले आदमी का अहंकार सबल होता है। इसीलिए बुरे आदमी की बुराइयां बाहर होती हैं किंतु भले आदमी की बुराई भीतर छिपी रहती है, जो अधिक घातक सिद्ध होती है।
किया-महाराज मैं कितने ही वर्षों से सेवा, पूजा आराधना, उपासना में लगा हूँ। सरल, सादा जीवन भी जी रहा हूँ, पूजा, आराधना, उपासना में लगा हूँ। सरल, जीवन भी जी रहा हूँ, किंतु मुझे ऐसा कभी लगता ही नहीं कि मुझ पर कुछ भगवान की विशेष कृपा हो रही है। भक्त की निराशा देखकर रामकृष्ण मुस्कराए। उन्होंने खेतों में काम कर रहे किसानों की ओर संकेत किया ओर बोल-किसान दो तरह के होते हैं, जिन्हें खेतों में काम करना सहज भला लगाता है, उन्हें नफा-नुकसान से कोई तात्पर्य नहीं, उन्हें खेती करनी है। एक वे भी किसान हैं, जो लाभ-हानि सामने रखकर खेती करते हैं। लाभ होता है, तो खुश होते हैं। हानि होने पर मुँह लटका लेते हैं। शिष्य महापुरुष का संकेत समझ चुका था और आशा की नवीन-किरण उसके दिल में उग रही थी। संदेह दूर हो रहा था।
दो मित्र गुरु की तलाश में निकले। एक संत के पास पहुँचे और निवेदन किया कि उन्हें सत्य की खोज है, कोई रास्ता बताएँ। वह संत चुपचाप बैठा रहा। जैसे उसने सुना ही न हो। एक मित्र ने सोचा। इस आदमी से क्या मिलेगा। यह तो बहरा मालूम देता है, अन्यथा निपट अहंकारी है। हम सत्य की खोज में इतनी दूर से आए हैं और यह आदमी अकड़कर बैठा है, ध्यान भी नहीं देता। जैसे हम कोई कीड़े-मकोड़े हैं, किंतु दूसरे मित्र ने कुछ इस तरह सोचा शायद हमसे ही कोई भूल हो गई हो। पूछने का ढंग ही अनुचित हो। शायद सत्य की जिज्ञासा प्रकट करने का ढंग ही दूसरा हो या हमने अधीरता और उतावलापन ही बरता हो। दोनों विदा हो गए। जिसने सोचा कि संत अहंकारी है। वह वर्षों बाद भी वैसा ही बना रहा। किंतु जिसने अपनी भूल पर खेद व्यक्त किया। वह आदमी बदलता चला गया। नम्र बनता चला गया। शिष्ट बनता चला गया।
दूसरा मित्र वर्षों बाद महात्मा के पास गया और बोला-आपने बढ़ी कृपा की जो उस आप मुझ से नहीं बोले और आपके न बोलने का मैंने यही अनुमान लगाया कि शायद हम उतने शिष्ट न हों, नम्र न हों। जिससे आपने हमें योग्य न समझा हो। निश्चय ही मेरी पात्रता उस समय कम थी। मैंने उस दिन से अपने को पात्र बनाने का प्रयत्न किया और मैं अब आपको धन्यवाद करने आया हूँ कि आपने बड़ी कृपा की, जो आप नहीं बोले अन्यथा आपका मैं पात्र न बन पाता।