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नवरात्रि

शक्ति -उपासना से ही राष्ट्र समर्थ−सशक्त हो सकेगा
देवभूमि भारत में आदिशक्ति के प्रति आस्था अत्यंत प्राचीन है। भारत में पूर्वपाषाणकाल और नवपाषाणकाल में शक्ति −उपासना के संकेत मिलते हैं। इतिहासविदों के अनुसार नवपाषाणकाल में कृषि−क्राँति के साथ न केवल साँस्कृतिक प्रगति हुई, वरन् समाज में नारियों का स्थान और धर्म में शक्ति −सिद्धाँत का महत्त्व बढ़ा, परंतु काँस्य−काल में सभ्यता के उदय के साथ ही प्राचीन भारत में शक्ति −उपासना को, शक्ति वाद को व्यापक लोकप्रियता मिली। अन्य देशों में भी शक्ति वाद का प्रमाण मिलता है, जो भारत के शक्ति वाद से मिलता प्रतीत होता है। इतिहासकार आर. पी. चंद्रा की मान्यता है कि भारतीय शक्ति−उपासना एवं सामीजनों की अस्तार्त, मिस्रियों की आइसिस और फ्रीगियनों की साइबिल की परिकल्पना में गहरी समानता है। प्राचीन भारत में शक्ति−उपास...
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नवरात्रि की पूर्णाहुति इस प्रकार सम्पन्न हो- इस अवसर पर नव सृजन की गतिविधियाँ उभरें, इस अवसर पर किये गये शुभारम्भों का भविष्य उज्ज्वल होगा
इस अवसर पर नव सृजन की गतिविधियाँ उभरें इस अवसर पर किये गये शुभारम्भों का भविष्य उज्जवल होगा।   जप, यज्ञ और ज्ञान यज्ञ का उपक्रम आठ दिन तक चलने के उपरान्त नौवें दिन नवरात्रि साधना की पूर्णाहुति होती है। पूर्णाहुति की विशेष परम्परा में दो बातें अनिवार्य रुप से सम्मिलित हैं-एस यज्ञ दूसरा ब्रह्मभोज। इनके न करने पर मात्र जप भर करने की प्रक्रिया को अनुष्ठान संज्ञा नहीं मिल सकती। अधूरे-उपक्रम का प्रतिफल भी अधूरा ही रहता है। अस्तु जहाँ भी अनुष्ठानों का व्यक्तिगत एवं सामूहित आयोजन होता हैं वहा इन दोनों की व्यवस्था किसी न किसी रुप में की ही जाती है, चाहे वह संक्षेप में छोटे स्तर की ही क्यों न हो।   प्रत्येक कर्म काण्ड के पीछे एक दूरदर्शिता पूर्ण उद्देश्य छिपा हुआ है उसे न समझने पर वह प्रक्रिया मात्र ल...
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नवरात्रि साधना के संदर्भ में विशेष - उपासनाएँ सफल क्यों नहीं होतीं?
उपासना देवी - देवताओं की की जाती है। स्वयं भगवान अथवा उनके समाज-परिवार के देवी-देवता ही आमतौर से जनसाधारण की उपासना के केन्द्र होते हैं विश्वास यह किया जाता है कि पूजा, अर्चा, जप, स्तुति दर्शन, प्रसाद आदि धर्मकृत्यों के माध्यम से भगवान अथवा देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है और जब वे प्रसन्न हो जाते हैं, तो उनसे इच्छानुसार वरदान प्राप्त करके अभीष्ट सुख-सुविधाओं से लाभान्वित हुआ जा सकता है। यह मान्यता कई बार सही साबित होती है, कई बार गलत। प्राचीनकाल के इतिहास पुराण देखने से पता चलता है कि कितने ही साधकों और तपस्वियों ने कठिन उपासनाएँ करके अभिभूत शक्तियाँ-विभूतियाँ एवं उपलब्धियाँ प्राप्त कीं। स्वयं भी इतने समर्थ हुए कि दूसरों को अपनी साधना का अंश देकर वरदान-आशीर्वाद से लाभान्वित कर सके। भारत ह...
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आश्विन नवरात्रि पर सामयिक संदर्भ:- - आत्मिक शक्ति संवर्धन हेतु विशिष्ट अवसर
ईश्वरोपासना-आराधना के लिए किसी मुहूर्त विशेष की प्रतीक्षा नहीं की जाती। सारा समय भगवान का है, सभी दिन पवित्र हैं। शुभ कर्म करने के लिए हर घड़ी शुभ मुहूर्त है, इतने पर भी प्रकृति जगत में कुछ विशिष्ट अवसर ऐसे आते हैं कि कालचक्र की उस प्रतिक्रिया से मनुष्य सहज ही लाभ उठा सकता है। उन दिनों किये गये साधनात्मक प्रयास संकल्प बल के सहारे शीघ्र ही गति पाते व साधक का वर्चस् बढ़ाते चले जाते हैं। ऐसे अवसरों पर बिना किसी अतिरिक्त पुरुषार्थ के अधिक लाभान्वित होने का अवसर मिल जाता है। उस काल विशेष में किया गया संकल्प, अनुष्ठान, जप, तप, योगाभ्यास आदि साधक को सफलता के अभीष्ट द्वार तक घसीट ले जाता है। कालचक्र के सूक्ष्म ज्ञाता ऋषियों ने प्रकृति के अन्तराल में चल रहे विशिष्ट उभारों को दृष्टिगत रखकर ही ऋतुओं के...
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अनेकों सत्प्रवृत्तियों का उभार नवरात्रि आयोजनों मे
नवरात्रि आयोजनों के साथ कई प्रकार की सत्प्रवृत्तियों को उभारने को अवसर मिलता है। इस दिशा में समुचित सतर्कता बरती जाय तैयारी की जाय तो आशाजनक सत्परिणाम सामने होंगे और यह साधना पर्व सच्चे अर्थों में सृजन पर्व बनकर रहेगा। अपने क्षेत्र में रूचि कहाँ- कहाँ है? किन- किन में इस स्तर की सुसंस्कारिता के बीजांकुर मौजूद है। उसकी तलाश इस बहाने सहज ही हो सकती है। उपासना में सम्मिलित करने के लिए जन सम्पर्क अभियान चलाया जाय और घर- घर जाकर जन- जन को इस पुण्य प्रक्रिया का महत्व समझाया जाय तो जहां भी आध्यात्मिक रूचि का अस्तित्व मौजूद होगा वहां उसे खोजा और उभारा जा सकेगा। यह अपने आप में एक बहुत बड़ा काम है। दूब की जड़ें कड़ी धूप पड़ने पर सूख जाती हैं। पर वर्षा पड़ते ही उनमें फिर सजीवता उत्पन्न हो जाती हैं और देखते-...
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नवरात्रि पर्व पर भाव श्रद्धा की परिणति उदार अनुदानों में है
प्रस्तुत आश्विन नवरात्रियाँ हर वर्ष मनाये जाने वाले साधना पर्व जैसी सामान्य नहीं वरन् आसाधारण स्तर की हैं। उनमें युगसंधि के बीजारोपण वर्ष की विशेष प्रयोजन भी जुड़ गया है। अमावश्या, पूर्णिमा को यों सदा ही पर्व माना जाता है। और शुभ कर्मों के लिए उनहं विशेष अवसर या उपयुक्त मुहूर्त माना जाता है। किन्तु जब उनके साथ कुछ विशिष्टता जुड़ जाती है तो स्थिति और भी उच्चस्तरीय हो जाती हैं। सोमवती अमावश्या हरियाली अमावश्या को अतिरिक्त पर्व माना जाता है। शरद पूर्णिमा, गुरुपूर्णिमा आदि का महत्व भी बढ़ जाता है। चन्द्र ग्रहण वाली पूर्णिमा और सूर्य ग्रहण वाली अमावस्या की स्थिति भी असामान्य होती है। इन पर्व अवसरों पर श्रद्धालुओं को कुछ अतिरिक्त योजना बनाते देखा जाता है। इस बार का नवरात्रि पर्व भी ऐसी ही अतिरिक्त...
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नवरात्रि अनुशासन का तत्व दर्शन
नवरात्रि की अनुष्ठान साधना का अत्यधिक महत्व माना गया है। इसमें पूजा अर्चा की निर्धारित विधि व्यवस्था का अपना महत्व हैं और ऋतु सन्धि के अवसर पर इस बेला की समयपरक विशेषता है। इतने पर भी इस रहस्य को भली प्रकार हृदयंगम किया जाना चाहिए कि आत्मिक प्रगति के साथ जुड़ी रहने वाली सिद्धियों की दृष्टि से इन अनुष्ठानों का मर्म उस अवसर पर पालन किये जाने वाले अनुबन्ध, अनुशासनों के साथ जुड़ा हुआ है। वे नियम सामान्य व्यवहार में कुछ कठिन तो पड़ते है, पर ऐसे नहीं है जिन्हें सच्ची इच्छा के रहते व्यस्त समझे जाने वाले व्यक्ति भी पालन न कर सकें। समझे जाने योग्य तयि यह है कि इन अनुशासनों का इन दिनों अभ्यास करने के उपरान्त जीवन दर्शन में स्थायी रुप से सम्मिलित करने की जो प्रेरणा है उसी को अपनाने पर प्रगति एवं सिऋि क...
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यह नवरात्रियाँ असामान्य हैं
नवरात्रि को देवत्व के र्स्वग से धरती पर उतरने का विशेष पर्व माना जाता हैं। उस अवसर पर सुसंकारी आत्माएँ अपने भीतर समुद्र मंथन जैसी हलचलें उभरती देखते हैं। जो उन्हं सुनियोजित कर सकें वे वैसी ही रत्न राशि उपलब्ध करते हैं जैसी कि पौराणिक काल में उपलबध हुई मानी जाती है। इन दिनों परिष्कृत अन्तराल में ऐसी उमंगे भी उठती हैं जिनका अनुसरण सम्भव हो सकें तो देवी अनुग्रह पाने का ही नहीं देवोपम बनने का अवसर भी मिलता है यों ईश्वरीय अनुग्रह सत्पात्रों पर सदा ही बरसता है, पर ऐसे कुछ विशेष अवसर भी आते हैं जिनमें अधिक लाभान्वित होने का अवसर मिल सके। इन अवसरों को पावन पर्व कहते हैं। नव रात्रियों का पर्व मुहूतों में विशेष स्थान है। उस अवसर पर देव प्रकृत की आत्माएँ किसी अदृश्य प्रेरणा से प्रेरित होकर आत्म कल्याण ...
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नवरात्रि पर्व और गायत्री की विशेष तप−साधना
सर्दी और गर्मी की ऋतु के मिलन काल को अश्विन और चैत्र की नवरात्रि कहा जाता है। रात्रि और दिन का मिलन प्रातःकालीन और सायंकालीन संध्या के नाम से प्रख्यात है। इस मिलन बेला का विशेष महत्व कालचक्र के अनुसार आँका गया है। प्राणायाम में रेचक और पूरक का अपना स्थान है, पर चमत्कार कुम्भक में ही देखे जाते हैं। मिलन की बेला हर क्षेत्र में उल्लास भरी होती है। मित्रों का मिलन, प्रणय मिलन, आकाँक्षाओं का सफलता के साथ मिलन, कितना सुखद होता है, उसी आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि आत्मा और परमात्मा का मिलन कितना सुखदायक होना चाहिए। पुराने वर्ष की विदाई और नये वर्ष का आगमन वाला दिन नव−वर्षोत्सव के रूप में मनाया जाता है। कृष्ण−पक्ष और शुक्ल−पक्ष के परिवर्तन के दो दिन अमावस्या, पूर्णिमा पर्व के नाम से जाने जाते ...
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नवरात्रि अनुष्ठान का विधि विधान
नवरात्रि साधना को दो भागों में बाँटा जा सकता है। एक उन दिनों की जाने वाली जप संख्या एवं विधान प्रक्रिया। दूसरे आहार−विहार सम्बन्धी प्रतिबन्धों की तपश्चर्या। दोनों को मिलाकर ही अनुष्ठान पुरश्चरणों की विशेष साधना सम्पन्न होती है।   जप संख्या के बारे में विधान यह है कि 9 दिनों में 24 हजार गायत्री मन्त्रों का जप पूरा होना चाहिए। चूँकि उसमें संख्या विधान मुख्य है इसलिए गणना के लिए माला का उपयोग आवश्यक है। सामान्य उपासना में घड़ी की सहायता से 45 मिनट का पता चल सकता है, पर जप में गति की न्यूनाधिकता रहने से संख्या की जानकारी बिना माला के नहीं हो सकती। वस्तु नवरात्रि साधना में गणना की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए माला का उपयोग आवश्यक माना गया है।   आज कल हर बात में नकलीपन की भरमार है मालाएँ भी बाजा...
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