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यह नवरात्रियाँ असामान्य हैं

Oct. 7, 2024, 10:28 a.m.

नवरात्रि को देवत्व के र्स्वग से धरती पर उतरने का विशेष पर्व माना जाता हैं। उस अवसर पर सुसंकारी आत्माएँ अपने भीतर समुद्र मंथन जैसी हलचलें उभरती देखते हैं। जो उन्हं सुनियोजित कर सकें वे वैसी ही रत्न राशि उपलब्ध करते हैं जैसी कि पौराणिक काल में उपलबध हुई मानी जाती है। इन दिनों परिष्कृत अन्तराल में ऐसी उमंगे भी उठती हैं जिनका अनुसरण सम्भव हो सकें तो देवी अनुग्रह पाने का ही नहीं देवोपम बनने का अवसर भी मिलता है यों ईश्वरीय अनुग्रह सत्पात्रों पर सदा ही बरसता है, पर ऐसे कुछ विशेष अवसर भी आते हैं जिनमें अधिक लाभान्वित होने का अवसर मिल सके। इन अवसरों को पावन पर्व कहते हैं। नव रात्रियों का पर्व मुहूतों में विशेष स्थान है। उस अवसर पर देव प्रकृत की आत्माएँ किसी अदृश्य प्रेरणा से प्रेरित होकर आत्म कल्याण एवं लोक मुँगल के क्रिया कलापों में अनायास ही रस लेने लगती हैं।

 

बसन्त आते ही कोयल कूकती और तितलियाँ फुदकती दृष्टिगोचर होती है। भोरे गूँजते हैं जबकि अन्य ऋतुओं में उनके दर्शन भी दुर्लभ रहते हैं। वर्षा आते ही मेंढ़क बोलते और मोर नाचने लगते हैं जबकि साल के अन्य महिनों में उनकी गतिविधियाँ कदाचित ही दृष्टिगोचर होती है। आँधी तूफान और चक्रवातों का दौर गर्मी के दिनों में रहता है। ग्रीष्म का तापमान वदलते ही उनमें से किसी का पता नहीं चलता। ठीक यही बात नवरात्रियों के समय पर भी लागू होती है। प्रातः काल और सायं काल की तरह इन दिनों की भी विशेष परिस्थितियाँ होती हैं उनसे सूक्ष्म जगत के दिव्य प्रवाह उभरते और मानवी चेतना को प्रभावित करते हैं। न केवल प्रभावित करने वाली वरन् अनुमूलन उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ भी अनायास ही बनती है। इसे समय की विशेषता कह सकते हैं। जीवधारियों में से अधिकाशं को इन्ही दिनों प्रजनन की उत्तेजना सताती हैं और वे गर्भाधान सम्पन्न कर लेते हैं। इसमें प्राणी तो कठपुतली की तरह अपना रौल पूरा करते हैं-सूत्र संचालन तो किसी ऐसे अविज्ञात मर्मस्थल से होता है जिसे सूक्ष्म जगत या अर्न्तजगत के नाम से मनीषी व्याख्या-विवेचना करते रहते है। नवरात्रियों में कुछ ऐसा वातावरण रहता है जिसमें आत्मिक प्रगति के लिए प्रेरणा और अनुकूलता की सहज शुभेच्छा बनते देखी जाती हैं।

 

सूर्य के उदय और अस्त होते समय आकाश में लालिमा छाई रहती है और उस अवधि के समाप्त होते ही वह दृश्य भी तिरोहित होते दिखता है। इसे काल प्रवाह का उत्पादन कह सकते हैं। ज्वार भाटे हर रोज नहीं अमावस्या पूर्णमासी को ही आते हैं। उमंगों के संबंध में भी ऐसी ही बात है कि वे मनुष्य की स्व उपार्जित ही नहीं होतीं वरन् कभी-कभी उनके पीछे किसी अविज्ञात उभार का ऐसा दौर काम करता पाया गया है कि चित्न ही नहीं कर्म भी किसी ऐसी दिशा में बहने बढ़ने लगता है जिसकी इससे पूर्व वैसी आशा या तैयारी जैसी कोई बात नहीं थी। ऐस अप्रत्याशित अवसर तो यदा-कदा ही आते हैं पर नवरात्रि के दिनों अनायास ही अन्तराल में ऐसी हलचलें उठती हैं जिनका अनुसरण करने पर आत्मिक प्रगति की व्यवस्था बनने में ही नहीं सफलता मिलने में भी ऐसा कुछ बन पड़ता है मानो अदृश्य से अप्रत्याशित अनुदान बरसा हो।

 

ऐसे ही अनेक तथ्यों को ध्यान में रखते हुए तत्वदर्शि ऋषियों, मनीषियों ने नवरात्रि में साधना का अधिक माहात्म्य बताया है और इस बात पर जोर दिया है कि अन्य अवसरों पर न बन पड़े सही पर नवरात्रि में आध्यात्मिक तप साधना का सुयोग बिठाने का प्रयत्न तो करना ही चाहिए। तंत्र विज्ञान के अधिकाँश कौलकर्म इन्हीं दिनों सम्पन्न होते हैं। वाम मार्गी साधक अभीष्ट मन्त्र सिद्ध करने के लिए इस अवसर की ही प्रतीक्षा करते रहते हैं।

 

नवरात्रि देव पर्व है। उसमें देवत्व की प्रेरणा और देवी अनुकम्पा बरसती है। उसमें देवत्व की प्रेरणा और देवी अनुकम्पा बरसती है। जो उस अवसर पर सतर्कता बरतते औ प्रयत्नरत होते है, व अन्य अवसरों की अपेक्षा इस शुभ मुहूर्त का लाभ ही अधिक उठाते हैं, भौतिक लाभों को सिद्धियों के नाम से जाना जाता है। संकटों के निवारण और प्रगति के अनुकूलन में सिद्धियें की आवश्यकता पड़ती है। उस आधार पर जो मिलता है उसे वरदान कहा जाता हैं। नवरात्रियाँ वरदानों की अधिष्ठात्री कही जाती है, पर इस शुभावसर का वास्तविक लाभ है देवत्व की विभूतियों का जीवनचर्या में समावेश। वह जिसे जितनी मात्रा में मिलता हैं वह उतनी ही कला क्षमता का नर देव कहलाता हैं। देवता र्स्वग में ही नहीं रहते अपितु महामानवों के रुप में इस धरती पर विचरते हैं।

 

नवयुग देवत्व प्रधान होगा। उसमें वे प्रयत्न चलेंगे जो मनुष्य में देवतव का उदय कर सकेंगे। जहाँ देवता बसते हैं वहाँ र्स्वग होता है। जहाँ र्स्वग होगा वहाँ देवता ही बसते होंगे। इसी तथ्य के आधर पर यह अपेक्षा की गई है कि उत्कृष्ट व्यक्तियों द्वारा जो सुखद वातावरण बनेगा उसे धरती पर र्स्वग के अवतरण की उपमा दी जा सकेगी।

 

युग सन्धि की नवरात्रियों में विशेष सम्भावना इस बात की हैं कि उनमें अदृश्य लोकों में देवत्व की अतिरिक्त वर्षा हो और उस अनुदान को पाकर देव मानवों का समुदाय अधिक प्रखरता सम्पन्न होता हुआ दृष्टिगोचर होने लगे। युग परिवर्तन की अवतार प्रक्रिया को गतिशील बनाने में इन देव मानवों का ही योगदान प्रमुख रहा हैं। तत्वदर्शी कहते हैं कि अवतार अकेले ही अपना प्रयोजन पूरा नहीं कर लेते उनके साथ-साथ अनेक सह-योगी भी होते हैं और वे भी देवलोक से उसी प्रयोजन के लिए शरीर धारण करते हैं। पाँचों पाण्डव पाँच देवताओं के अनुसार थं। अनुमान-अंगद आदि के बारे में भी ऐसी ही मान्यता हैं। इन दिनों सृजन योजनाओं में देव मानवों का यह साहस एवं प्रयास ही अग्रिम मोर्चा संभालते दिखाई देगा। नवयुग सृजन की प्रेरणाओं को क्रियान्वित करने तथा उस दिशा में कदम बढ़ानें का यही शुभ मुहूर्त हैं। प्रज्ञा युग की प्रेरण को अपनाने और विधि व्यवस्ि को चरित्र करने के लिए योंह्र घड़ी पवित्र और महत्वपूर्ण है, पर इस प्रयोजन के लिए नवरात्रि पर्व की अत्यधिक गरिमा मानी गई हैं। यों उपासना की चिन्ह पूजा भी बीजारोपण की दृष्टि से उपयोगी मानी गई है और उसे किसी भी रुप में किसी भी मनःस्थिति में अपनाये रहने पर जोर दिया गया है। फिर भीउसे निष्ठापूर्वक अपनाने की प्रौढ़ता का स्तर सदा ऊँचा ही रहता है। उच्चस्तरीय कर की जाने वाली साधाना के साथ अविच्छिन्न रुप से सम्बन्धित हैं।

 

नवरात्रि पर्व का ऋतु संध्या मुहूर्त विज्ञान की दृष्टि से ही नहीं विशिष्ट साधना पद्धति के कारण भी महत्व पूर्ण माना गया हैं। नैष्ठिक साधकों के लिए आश्विन और चैत्र की नवरात्रियों में अनुष्ठान साधना एक अत्यावश्यक पुण्ड परम्परा के रुप में सदा सर्वदा से अपनाई जाती रही हैं।

 

सर्दी और गर्मी दो ही प्रधान ऋतुएं है उनका मिलन एक प्रकार से वैसा ही सन्धि काल है जैसा कि रात्रि के अन्त और दिन के प्रारम्भ मं प्रभातकाल के रुप में उपस्थित होता है। सन्धियाँ सदा मार्मिक होती है। शरीर में अस्थिपिंचर से बने हुए जोड़ों को भी सन्धियाँ कहते है। इन्हीं के यथावत् रहने पर काया की विभित्र क्रिया-प्रक्रियाओं गतिशील रहती है। यह जोड़ यदि जकड़ने लगें तो फिर चलना फिरना तो दूर मुड़ना भी सम्भव न रहेगा। मशीनों के सम्बन्ध में भी यही बात हैं। उनकी क्षमता एवं गतिशीलता उनकी सन्धियों के सही गलत होने पर ही निर्भर रहती है। इन दिनों युग सन्धि चल रही है अतएव जागृत आत्माओं को अपील कालीन व्यवस्था की तरह युग धर्म के निर्वाह में जुटना पड़ रहा है। ऋतु संध्या आश्विन और चैत्र में जिन दिनों आती है उन नौ-नौ दिनों की अवधि को नवरात्रि कहते है। ऋतुओं में ऋतुमती होने और वातावरण में नये-नये अनुदान भर देने का दृश्य सूक्ष्म जगत में इन्हीं दिनों दृष्टिगोचर होता है। ऐसे-ऐसे अनेकों कारण हैं जिनके कारण अध्यात्म क्षेत्र में साधना प्रयोजनों के लिए यह समय विशेष रुप से उपयुक्त माना गया है। जिस प्रकार प्रभात काल की उपासना अधिक फलवती होती और संध्या के नाम से पुकारी जाती है। उसी प्रकार नवरात्रियों का समय भी दोनों सन्ध्याओं के समतुल्य माना गया है।

 

सबंविदित है कि युग सन्धि की इस परिवर्तन बेला में अनिष्ट के परिमार्जन तथा सृजन के सर्म्बधन को लक्ष्य रखकर जो बीस बर्षीय योजना बनी है उसमें नैष्ठिक महापुरुश्चरण को विशेष महत्व दिया गया है। एक लाख नैष्ठिक उपासकों द्वारा बीस वर्षीय संकल्प लेकर इतिहास काल के इस अभूतपूर्व धर्मानुष्ठान का नियोजन हुआ है। उसकी भागीदारी लेने वाले साधकों को आधा घन्टें में सम्पन्न हो सकने वाली पाँच मालाओं का नित्य जप करना होता है। साथ ही गुरुवार के दिन अस्वाद ब्रह्मचर्य एवं मौन व्रत साधना का भी अनुशासन जुड़ा है। इसके अतिरिक्त सामूहिक रुप में मासिक यज्ञ करने की व्यवस्था उन्हें बनाये रखनी होती है। सामान्यतया चलने वाले यही अनुबन्ध है जिनका परिचालन करते हुए युग सन्धि महापुरश्चरण की भागीदारी को गतिशील रखा जाता है।

 

इन सामान्य नियमों के अतिरिक्त असामान्य तप साधना के रुप में वर्ष की दोनों नवरात्रियों में उन्हें 24 हजार के गायत्री अनुष्ठान भी करने होते हैं। उस समय वे नहीं कर सकते तो आगे पीछे हटकर भी उसकी पूर्ति करनी होती हैं। यह अनिवार्यता इस लिए रखी गई है कि इन नौ दिनों के साधना सत्रों में वे सभी प्रयोजन पूरे होते हैं जो जन मानस के परिष्कार एवं सत्प्रंवृति सर्म्वधन की उभयपक्षीय युग चेतना के अग्रगणी बनाने के लिए नितान्त आवश्यक हैं।

 

गायत्री अनुष्ठानों के नवरात्रि परम्परा के पीछे ऐसे ऐसे अनेको कारण सन्निहित हैं इसलिए उपासना में अभिरुचि रखने वाले इन दिनों की प्रतीक्षा करते रहते हैं और उस अवसर पर कुछ न कुछ व्रत पालन निश्चित रुप से करते हैं।

 

जो साधारणतया दैनिक उपासना के अभ्यस्त नहीं हैं और यदा-कदा ही कभी कुछ पूजा पाठ करते हैं ऐसे लोगों पर भी जोर दिया जाता हैं कि वे कम से कम उन दिनों तो कुछ नियम निवाहें और निश्चित साधना की बात सोंचे। इन अभ्यासो के लिए भी कई प्रकार की सरल साधनाओं की विशेष व्यवस्थ की जाती है ताकि बोझ लगने और मन उचटने की कठिनाई का सामना न करना पड़े। मन्त्र लेखन गायत्री चालीसा पाठ, पंचाक्षरी जप आदि की सरल व्यवस्थाएँ उसी आधार पर बनी हैं। और 24 हजार वाली संख्या को घआ कर 10 हजार तक हलका कर दिया गा है। नौ दिन में दस हजार जप करने का तार्त्पय मात्र हर रोज एक घण्टा समय लगाना भर होता है। यह किसी के लिए भी भारी नहीं पड़ना चाहिए। मन्त्र लेखन हर रोज 112 करने में नौ दिन में एक हजार लिख जाते हैं यह भी एक अनुष्ठान है। गायत्री चालीसा के हर दिन बारह पाठ करने से नवरात्रि में 108 हो जाते है। ‘ऊँ भूभुर्वः स्वः’ यह पंचाक्षरी गायत्री है। इतना तो अशिक्षित एवं बालक भी याद कर सकते हें और सुविधानुसार संख्या निर्धारित करके उसकी पूर्ति कर सकते हैं। प्रमुख तथ्य नियमितता है, न्यूनाधिकता नहीं। नियमित साधना को अनुष्ठान कहते हैं। उसके साथ तपश्चयाओं का अनुशासन जुड़ जाने से उनकी संज्ञा पुरश्चरण हो जाती है अनुष्ठान पुरश्चरण हलके भारी स्तर के भी होते हैं।

 

अनभ्यस्त लोगों के लिए उपासना क्रम में सरलता उत्पन्न करने तरह व्रत अनुशासनों में भी ढील देकर उन्हं मनीषियों ने बाल सुलभ बना दिया हैं। भूमिशयन, स्वयं सेवा, उनके लिए अनिवार्य नहीं। ब्रह्मचर्य तो आवश्यक है। पर उपवास में भी ढील की काफी गुँजायश बना दी गई है। रोटी-शाक, दाल-चावल जैसे दो वस्तओं के युग्म अपना कर नौ दिन काट लेने में मात्र पदार्थो का सीमा बन्धन ही हैं भूखा रहने जैसी कोई कठिनाई नहीं है। जो इसमें आगे बढ़ सकते हैं वे बिना नमक शक्कर का अस्वाद व्रत पालने की हिम्मत भी दिखा लेते हैं। एक समय पूरा भोजन एक समय फल दूध जैसी सरलता उन्हीं लोगों के लिए बनाई गई हैं, जो उपवास करना चाहते हैं पर ऐसी सरलता ढूँढ़ते हैं जिसमें भूखा न रहना पड़े। ऐसे लोगों को निराश न होने देने और न कुछ से कुछ! अच्छा की सरलता की गई है। इस आधार पर बाल-वृद्ध और व्यस्त लोग भी नवरात्रि में कुछ न कुछ निर्धारित नियमित साधना का सुयोग बना सकते हैं।

 

गायत्री परिवार का जहाँ भी छोटा बड़ा संगठन है वहाँ नवरात्रि पर्व मनाने का प्रयत्न निश्चित रुप से किया जाता हैं। यो व्यक्तिगत एकाकी साधना करने पर भी कोई रोक नहीं है, पर प्रयत्न यही किया जाता हैं कि सामूहिक उपासना का उपक्रम बने और उसे एक उत्साह आयोजन का स्वरुप मिले। ऐसी व्यवस्था बनाने में उत्साही लोगों को स्वयं आगे रहने, थोड़ी दौड़ धूप करने साधन जुटानें एवं जन-सर्म्पक साधकर उत्साह दिलाने जैसे प्रयत्न करने होते हैं। ऐसा कुछ कर पाने वाले उत्साही जहाँ एक दो भी हों वहाँ नवरात्रि आयोजन की व्यवस्था सहज ही बन जाती हैं। वह न तो मँहगी है और न कठिन कष्ट साध्य। जो इसके लिए आगे बढ़कर साहस दिखाते है उन्हं अनुभव से इस निर्ष्कष पर पहूँचना होता है कि भारत जैसे धर्म प्रकृति वाले देश में नवरात्रि आयोजनों को साधना सत्रों के रुप में विकसित और व्यापक बना सकने में अनुत्साह के अतिरिक्त और कोई भी कठिनाई नहीं हैं जो हँसते-हँसातें हल न की जा सकं।

 

युग सृजन अभियान में नवरात्रि पर्व को साधना सत्र आयोजन के रुप में नियोजित करने और सफल बनाने पर आरम्भ से ही बहुत जोर दिया जाता रहा हैं। इसमें उपासना और साधना के उभयपक्षीय प्रयोजन पूरे होते हैं। प्रातः काल सामूहिक जप, हवन-पूजन का औ सायं काल संगीत प्रवचन के ज्ञान यज्ञ की व्यवस्था रहती हैं। उपासना से आत्म कल्याण की और जीवन साधना की प्रगति भी सदा उसी के सहारे सम्पन्न होती रही हैं। भविष्य निर्माण में सज्जनों की संगठित सृजन चेतना की ही प्रमुख भूमिका होगी। राम काल के रीछ बानर, कृष्ण काल के ग्वाल-बाल, बुद्ध के भिक्षु सहयोगी, गाँधी के सत्याग्रही इसी तथ्य को प्रामाणित करते हैं कि महान दित किये बिना और कोई चारा नहीं। देवताओं की संयुक्त शक्ति दुर्गा ने ही उन्हें असुरों के त्रास से छुड़ाया था। ऋषियों का संचित रक्त घट ही सीमा को जन्म देने और दानवी विभीषिकाओं को निरस्त करने में आधारभूत कारण बना था। इन पुराण गाथाओं से सृजन शिल्पियों को भी यहीं प्रेरणा मिलती है कि वे जागरुकों को तलाश करें और उनकी आन्तरिक प्रखरता जगाने के भाव भरे प्रयास करें। इस प्रयोजन के लिए नवरात्रि के नौ दिन तक चलने वाले साधना सत्रों से बढ़द्यकर अधिक उपयोगी एवं अधिक सरल व्यवस्था अन्य कदाचित ही कोई बन पड़े। महान साँस्कृतिक परम्पराओं का पुनर्जीवन नव सृजन के अभीष्ट आत्म-ऊर्जा का अभिवर्धन तथा जन जीवन में उत्कृष्टता के समावेश का जैसा र्स्वण सुयोग इन साधना सत्रों में मिल सकता हैं। उसकी तुलना का उपाय उपचार कदाचित ही कोई खोजा जा सके। रात्रि के ज्ञान यज्ञ में वह सब कुछ कहा जा सकता हैं जो प्रज्ञावतार की युगान्तरीय चेतना को जन-मानस में प्रतिष्ठापित करने के लिए आवश्यक हैं। इस अवसर पर ऐसे संगठित प्रयासों के लिए उपयुक्त वातावरण भी रहता हैं जिससे साधकों को भी व्रतशील जीवन जीने के अतिरिक्त सृजन प्रयोजनों में सहयोग देने के लिए भी तत्पर किया जा सकें।

 

 

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