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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 121): चौथा और अंतिम निर्देशन
‘‘इसके लिए जो करना होगा, समय-समय पर बताते रहेंगे। योजना को असफल बनाने के लिए— इस शरीर को समाप्त करने के लिए जो दानवी प्रहार होंगे, उससे बचाते चलेंगे। पूर्व में हुए आसुरी आक्रमण की पुनरावृत्ति कभी भी, किसी भी रूप में सज्जनों-परिजनों पर प्रहार आदि के रूप में हो सकती है। पहले की तरह सबमें हमारा संरक्षण साथ रहेगा। अब तक जो काम तुम्हारे जिम्मे दिया है, उन्हें अपने समर्थ-सुयोग्य परिजनों के सुपुर्द करते चलना, ताकि मिशन के किसी काम की चिंता या जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर न रहे। जिस महापरिवर्तन का ढाँचा हमारे मन में है, उसे पूरा तो नहीं बताते, पर उसे समयानुसार प्रकट करते रहेंगे। ऐसे विषम समय में उस रणनीति को समय से पूर्व प्रकट करने से उद्देश्य की हानि होगी।’’ इस बार हमें अधिक समय रोका नहीं गया। बैटरी चार...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 120): चौथा और अंतिम निर्देशन
बात जो विवेचना स्तर की चल रही थी, सो समाप्त हो गई और सार-संकेत के रूप में जो करना था, सो कहा जाने लगा। ‘‘तुम्हें एक से पाँच बनना है। पाँच रामदूतों की तरह, पाँच पांडवों की तरह काम पाँच तरह से करने हैं, इसलिए इसी शरीर को पाँच बनाना है। एक पेड़ पर पाँच पक्षी रह सकते हैं। तुम अपने को पाँच बना लो। इसे ‘सूक्ष्मीकरण’ कहते हैं। पाँच शरीर सूक्ष्म रहेंगे; क्योंकि व्यापक क्षेत्र को सँभालना सूक्ष्मसत्ता से ही बन पड़ता है। जब तक पाँचों परिपक्व होकर अपने स्वतंत्र काम न सँभाल सकें, तब तक इसी शरीर से उनका परिपोषण करते रहो। इसमें एक वर्ष भी लग सकता है एवं अधिक समय भी। जब वे समर्थ हो जाएँ, तो उन्हें अपना काम करने हेतु मुक्त कर देना। समय आने पर तुम्हारे दृश्यमान स्थूलशरीर की छुट्टी हो जाएगी।’’ यह दिशा-निर्देशन ह...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 119): चौथा और अंतिम निर्देशन
“इसके लिए तुम्हें एक से पाँच बनकर पाँच मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा। कुंती के समान अपनी एकाकी सत्ता को निचोड़कर पाँच देवपुत्रों को जन्म देना होगा, जिन्हें भिन्न-भिन्न मोर्चों पर भिन्न-भिन्न भूमिका प्रस्तुत करनी पड़ेंगी।’’ मैंने बात के बीच में विक्षेप करते हुए कहा— ‘‘यह तो आपने परिस्थितियों की बात कही। इतना सोचना और समस्या का समाधान खोजना आप बड़ों का काम है। मुझ बालक को तो काम बता दीजिए और सदा की तरह कठपुतली के तारों को अपनी उँगलियों में बाँधकर नाच नचाते रहिए। परामर्श मत कीजिए। समर्पित को तो केवल आदेश चाहिए। पहले भी आपने जब कोई मूक आदेश स्थूलतः या सूक्ष्म संदेश के रूप में भेजा है, उसमें हमने अपनी ओर से कोई ननुनच नहीं की। गायत्री के चौबीस महापुरश्चरणों के संपादन से लेकर स्वतंत्रता-संग्राम में भाग लेने त...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 118): चौथा और अंतिम निर्देशन
गुरुदेव ने कहा— ‘‘अब तक जो बताया और कराया गया है, वह नितांत स्थानीय था और सामान्य भी। ऐसा जिसे वरिष्ठ मानव कर सकते हैं। भूतकाल में करते भी रहे हैं। तुम अगला काम सँभालोगे, तो यह सारे कार्य दूसरे तुम्हारे अनुवर्ती लोग आसानी से करते रहेंगे। जो प्रथम कदम बढ़ाता है, उसे अग्रणी होने का श्रेय मिलता है। पीछे तो ग्रह-नक्षत्र भी— सौरमंडल के सदस्य भी अपनी-अपनी कक्षा पर बिना किसी कठिनाई के ढर्रा चला ही रहे हैं।” “अगला काम इससे भी बड़ा है। स्थूल वायुमंडल और सूक्ष्म वातावरण इन दिनों इतने विषाक्त हो गए हैं, जिससे मानवी गरिमा ही नहीं, सत्ता भी संकट में पड़ गई है। भविष्य बहुत भयानक दीखता है। इससे परोक्षतः लड़ने के लिए हमें-तुम्हें वह सब कुछ करना पड़ेगा, जिसे अद्भुत एवं अलौकिक कहा जा सके।” “धरती का घेरा— वायु, जल ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 117): चौथा और अंतिम निर्देशन
चौथी बार गत वर्ष पुनः हमें एक सप्ताह के लिए हिमालय बुलाया गया। संदेश पूर्ववत् संदेश रूप में आया। आज्ञा के परिपालन में विलंब कहाँ होना था। हमारा शरीर सौंपे हुए कार्यक्रमों में खटता रहा है, किंतु मन सदैव दुर्गम हिमालय में अपने गुरु के पास रहा है। कहने में संकोच होता है, पर प्रतीत ऐसा भी होता है कि गुरुदेव का शरीर हिमालय रहता है और मन हमारे इर्द-गिर्द मँडराता रहता है। उनकी वाणी अंतराल में प्रेरणा बनकर गूँजती रहती है। उसी चाबी के कसे जाने पर हृदय और मस्तिष्क का पेंडुलम धड़कता और उछलता रहता है। यात्रा पहली तीनों बार की ही तरह कठिन रही। इस बार साधक की परिपक्वता के कारण सूक्ष्मशरीर को आने का निर्देश मिला था। उसी काया को एक साथ तीन परीक्षाओं को पुनः देना था। साधना-क्षेत्र में एक बार उत्तीर्ण हो जाने ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 116): हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ
पिछले दिनों बार-बार हिमालय जाने और एकांत साधना करने का निर्देश निबाहना पड़ा। इसमें क्या देखा? इसकी जिज्ञासा बड़ी आतुरतापूर्वक सभी करते हैं। उनका तात्पर्य, किन्हीं यक्ष, गंधर्व, राक्षस, वेताल, सिद्धपुरुष से भेंट-वार्त्ता रही हो। उनकी उछल-कूद देखी हो। अदृश्य और प्रकट होने वाले कुछ जादुई गुटके लिए हों। इन जैसी घटनाएँ सुनाने का मन होता है। वे समझते हैं कि हिमालय माने जादू का पिटारा। वहाँ जाते ही कोई करामाती बाबा डिब्बे में से भूत की तरह उछल पड़ते होंगे और जो कोई उस क्षेत्र में जाता है, उसे उन कौतूहलों— करतूतों को दिखाकर मुग्ध करते रहते होंगे। वस्तुतः हिमालय हमें अधिक अंतर्मुखी होने के लिए जाना पड़ा। बहिरंग जीवन पर घटनाएँ छाई रहती हैं और अंतःक्षेत्र पर भावनाएँ। भावनाओं का वर्चस्व ही अध्यात्मवाद है। क...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 115): हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ
उपरोक्त प्रमुख कार्यों और निर्धारणों को देखकर सहज बुद्धि यह अनुमान लगा सकती है कि इनके लिए कितने श्रम, मनोयोग, साधन— कितनी बड़ी संख्या में— कितने लोगों के लगे होंगे, इसकी कल्पना करने पर प्रतीत होता है कि सब सरंजाम पहाड़ जितना होना चाहिए। उसे उठाने, आमंत्रित, एकत्रित करने में एक व्यक्ति की अदृश्य शक्ति भर काम करती रही है। प्रत्यक्ष याचना की— अपील की— चंदा जमा करने की प्रक्रिया कभी अपनाई नहीं गई। जो कुछ चला है, स्वेच्छा-सहयोग से चला है। सभी जानते हैं कि आजकल धन जमा करने के लिए कितने दबाव, आकर्षण और तरीके काम में लाने पड़ते हैं, पर मात्र यही एक ऐसा मिशन है, जो दस पैसा प्रतिदिन के ज्ञानघट और एक मुट्ठी अनाज वाले धर्मघट स्थापित करके अपना काम भली प्रकार चला लेता है। जो इतनी छोटी राशि देता है, वह यह भी...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 114): हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ
8. अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय की शोध के लिए ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान की स्थापना। इसमें यज्ञ विज्ञान एवं गायत्री महाशक्ति का उच्चस्तरीय अनुसंधान चलता है। इसी उपक्रम को आगे बढ़ाकर जड़ी-बूटी विज्ञान की ‘चरककालीन-प्रक्रिया’ का अभिनव अनुसंधान हाथ में लिया गया है। इसके साथ ही खगोल विद्या की टूटी हुई कड़ियों को नए सिरे से जोड़ा जा रहा है। 9. देश के कोने-कोने में 2400 निजी इमारत वाली प्रज्ञापीठ और बिना इमारत वाले 7500 प्रज्ञा-संस्थानों की स्थापना करके नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक पुनर्निर्माण की युगांतरीय चेतना को व्यापक बनाने का सफल प्रयत्न। इस प्रयास को 74 देशों के प्रवासी भारतीयों में भी विस्तृत किया गया है। 10. देश की समस्त भाषाओं तथा संस्कृतियों के अध्ययन-अध्यापन का एक अभिनव केंद्र स्थापित किया गया...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 113): हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ
3. गायत्री तपोभूमि मथुरा के भव्य भवन का निर्माण— शुभारंभ अपनी पैतृक संपत्ति बेचकर किया। पीछे लोगों की अयाचित सहायता से उसका ‘धर्मतंत्र से लोक-शिक्षण’ का उत्तरदायित्व सँभालने वाले केंद्र के रूप में विशालकाय ढाँचा खड़ा हुआ। 4. ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका का सन् 1937 से अनवरत प्रकाशन। बिना विज्ञापन और बिना चंदा माँगे, लागत मूल्य पर निकलने वाली गांधी की हरिजन पत्रिका जबकि घाटे के कारण बंद करनी पड़ी थी, तब अखण्ड ज्योति अनेक मुसीबतों का सामना करती हुई निकलती रही और अभी एक लाख पचास हजार की संख्या में छपती है। एक अंक को कई पढ़ते हैं। इस दृष्टि से पाठक दस लाख से कम नहीं हैं। 5. साहित्य-सृजन। आर्षग्रंथों का अनुवाद तथा व्यावहारिक जीवन में अध्यात्म सिद्धांतों का सफल समावेश करने वाली नितांत सस्ती, किंतु अत्यंत उ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 112): हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ
हमारी जीवन-साधना की परिणतियाँ यदि कोई सिद्धि स्तर पर ढूँढ़ना चाहे तो उसे निराश नहीं होना पड़ेगा। हर कदम अपने कौशल और उपलब्ध साधनों की सीमा से बहुत ऊँचे स्तर का उठा है। आरंभ करते समय सिद्धि का पर्यवेक्षण करने वालों ने इसे मूर्खता कहा और पीछे उपहासास्पद बनते फिरने की चेतावनी भी दी, किंतु मन में इस ईश्वर के साथ रहने का अटूट विश्वास रहा, जिसकी प्रेरणा उसे हाथ में लेने को उठ रही थी। लिप्सारहित अंतःकरणों में प्रायः ऐसे ही संकल्प उठते हैं, जो सीधे लोक-मंगल से संबंधित हों और जिनके पीछे दिव्य सहयोग मिलने का विश्वास हो। साधना की ऊर्जा सिद्धि के रूप में परिपक्व हुई, तो उसने सामयिक आवश्यकताएँ पूरी करने वाले किसी कार्य में उसे खपा देने का निश्चय किया। कार्य आरंभ हुआ और आश्चर्य इस बात का है कि सहयोग का साध...
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प्रज्ञा पुराण (भाग 1)1
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