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Magazine - Year 1975 - Version 2

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क्या नर और नारी एक दूसरे के बिना अपूर्ण हैं।

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First 9 11 Last
यह कहा जाता है कि नर−नारी एक दूसरे के पूरक हैं, एक के बिना दूसरे का काम नहीं चलता। दोनों के बीच का आकर्षण उन्हें घनिष्ठता के सूत्र में बाँधता है इसलिए उन्हें एक दूसरे से पृथक न रहकर साथ−साथ रहना चाहिए।

यह प्रतिपादन एक सीमा तक ही ठीक है। माता−पिता की सहायता के बिना पुत्र या पुत्री का काम नहीं चलता। बहन−भाई के दुलार के बिना घर में उदासी रहती। परिवार में चाची−ताई, बुआ, भाभी, बहिन, बेटी आदि का अपना पक्ष है, और बेटे, पोते, भाई, चाचा, ताऊ आदि−आदि का अपना। दोनों पक्ष साथ−साथ मिल जुल कर एक घर में रहते हैं तो उससे नर−नारी के समन्वय से उत्पन्न एक पूरक स्थिति बनती है और उस द्विपक्षीय स्नेह, सहयोग से परिवार का वातावरण खिल पड़ता है। यह तथ्य ऐसा है जिससे इनकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। सहयोग हर क्षेत्र में सुखद होता है नर−नारी का सहयोग भी इस दृष्टि से उचित भी है−आवश्यक भी और श्रेयस्कर भी।

पर इस प्रतिपादन में कोई सार नहीं कि यौनाचार के लिए नर−नारी का सम्मिश्रण हुए बिना− विवाह बन्धन में बंधे बिना कोई अपूर्णता रहती है। मनुष्य की क्या सभी प्राणियों की रचना इस प्रकार हुई है कि वह अपने आप में पूर्ण हैं। उनके भीतर ‘रयि’ और प्राण दोनों ही तत्व विद्यमान हैं और वे अपने भीतर ही नर−नारी मिलन से जो शक्ति उत्पन्न होने की बात कही जाती है उसे अनायास ही पूरा करते रहते हैं। नारी पक्ष और नर पक्ष दोनों ही उसके भीतर विद्यमान है। उसमें से जो अधिक विकसित हो जाता है प्रधानता अवश्य उसी स्तर की होती है पर इसका अर्थ यह नहीं कि किसी तत्व को ऐसी कमी होती हैं जिसकी प्राप्ति के लिए नर को नारी से या नारी को नर से कामुक सम्बन्ध बनाये बिना काम ही न चले।

छोटी जातियों के प्राणी प्रत्यक्षतः उभयलिंगी होते हैं। वे अपने आप में ही नर और नारी की दोनों ही विशेषताओं युक्त होते हैं। उन्हें किसी एक जाति का घोषित नहीं किया जा सकता। वनस्पतियों में यही बात होती हैं, पुष्पों के माध्यम से उनका रजोधर्म होता है। खिलने का अर्थ है गर्भ धारण करने योग्य यौवन का उभार। हवा के साथ उड़कर या मक्खी, तितली आदि कीड़ों के सहारे पुष्पों का पराग एक दूसरे तक पहुँचता है। उससे उनका निषेचन होता है और गर्भ धारण करके फल देने लगते हैं। फूलों में उभयपक्षीय पराग पाया जाता है। गर्भ धारण करने की और गर्भ धारण कराने की भी दोनों ही क्षमताएँ उनमें पाई जाती हैं। न्यूनाधिक मात्रा होने की बात दूसरी है, पर सभी पुष्प होते उभयलिंगी हैं उनके परागों में दोनों लक्षण पाये जाते हैं। प्रयत्न पूर्वक उनके किसी भी पक्ष को उभारा जा सकता है। जिसे आज नारी जाति का पराग कहते हैं उसमें थोड़ा सा प्रयत्न करके उन्हें नर जाति का बना दिया जाता है। अधिकाँश वनस्पतियों में तो दूसरे पौधों का पराग पाने की आवश्यकता ही नहीं होती, उनके भीतर अपने आप ही अंतर्मिलन का उपक्रम बनता रहता है और फूल, फल, बीज उत्पन्न होते रहने की प्रक्रिया चलती रहती है। दूब जैसी घास अपने आप में वंश वृद्धि की दृष्टि से पूर्ण है। उसे इसके लिए किसी बाहरी सहयोग की जरूरत नहीं पड़ती।

बहुत से पौधे ऐसे हैं जिनकी लकड़ी काटकर अन्यत्र गाड़ देने पर नया पौधा उग आता है। गन्ना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। उसकी हर गाँठ में नर−नारी के उभयपक्षीय चिन्ह होते हैं और वे अपने पेड़ से अलग होने पर स्वतन्त्र वंश वृद्धि करने लगते हैं। गुलाब आदि कितने ही पुष्प जाति के पेड़−पौधे इसी प्रकार के है। बरगद, गूलर जैसे वृक्षों की डाली काट कर अन्यत्र लगा देने से नया पेड़ उत्पन्न होने लगता है। वनस्पति जगत प्रायः पूरा ही इस प्रकार का है कि प्रजनन की उभयपक्षीय आवश्यकताएँ अपने भीतर से ही उत्पन्न कर लें।

एक कोषीय ‘अमीबा’ जीवधारियों में सबसे पुरातन है। वह अपने शरीर के टुकड़े काट−काट कर पृथक करता रहता है और वे स्वयमेव एक स्वतन्त्र जीव बनते रहते हैं।

यौन आकर्षण को प्रजनन प्रेरणा के नाम से वैज्ञानिक जगत में पुकारा जाता है। उनका कहना है कि स्त्री और पुरुष के बीच जो भावनात्मक आकर्षण पाया जाता है उसके पीछे प्रकृति की प्रजनन प्रेरणा ही काम करती है। उनकी बात इस सीमा तक ही ठीक है। इन दो वर्गों में एक में वामपक्षीय और दूसरे में दक्षिण पक्षीय विद्युत शक्ति काम करती है और वे परस्पर मिलकर वंश वृद्धि का सरंजाम जुटाते हैं। इससे आगे बढ़कर यह कहना गलत है कि एक के बिना दूसरा अपूर्ण है। दोनों जब तक कामुक उद्देश्य से मिलेंगे नहीं तब तक उनमें अभाव बना रहेगा एवं अतृप्ति अनुभव होगी। यह कहना इसलिए गलत है कि तृप्ति, उल्लास एवं अपूर्णता को पूर्णता में विकसित करने वाले आवश्यक तत्व हर प्राणी में मौजूद है। उनमें विकास की समस्त आवश्यकताएँ पूरी की जाती है, कि जा सकती है। मनुष्य भी इनका अपवाद नहीं हैं।

छोटी जाति के जीवधारियों में अधिकाँश उभयलिंगी होते हैं और वे अपनी प्रजनन आवश्यकता आत्मरति से ही पूर्ण कर लेते हैं। इनमें डिम्ब कीट भी होते हैं और शुक्र कीट भी। एक स्थान से दूसरे स्थान तक रेंग कर वे भीतर ही भीतर निषेचन एवं गर्भ धारण का कार्य पूरा कर लेते हैं और वे जीव बिना दूसरे साथी की सहायता के अपनी वंश वृद्धि एकाकी पुरुषार्थ से करते रहते हैं।

कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के शोध विभाग ने छोटे जलचरों की ऐसी 300 से अधिक जातियाँ ढूँढ़ निकाली है जो प्रजनन के मामले में पूर्णतया आत्म−निर्भर है। जमीन पर रेंगने वाले और उड़ने वाले कीड़ों में भी हजारों ऐसे है जिनमें काम सेवन के योग्य अवयव नहीं होते उनका अपना यौवन ही उन्हें जनक एवं जननी दोनों का श्रेय प्रदान करने लायक रासायनिक द्रव्य अपने भीतर से ही उत्पन्न कर लेता है और वे स्वतन्त्र रूप से एकाकी संतानोत्पादन करते रहते हैं।

‘आर्कोपोडा’ कीड़ा का ‘इनसेक्टा’ वर्ग में आता है उसकी बिरादरी आये दिन अपना लिंग परिवर्तन करती रहती हैं। कभी नर कभी नारी के अवयव विकसित होते और बदलते रहते हैं। कहा नहीं जा सकता कि वह कब तक नर रहेगा और कब नारी बन जायगा। कब उसे पिता कहा जायगा और कब उसे माता की श्रेणी में गिना जायगा। उसके साथी ऐसे ही उलट−पुलट करते रहते हैं। पति कभी पत्नी बन जाता है और कभी पत्नी पति बनकर अकड़ती फिरती है। यह परिवर्तन कुछ अद्भुत नहीं है क्योंकि उनके भीतर दो ही तत्व रहते हैं। थोड़ी प्रतिशत का ही अन्तर रहता है जिस प्रकृति की छोटी सी हलचल ज्वार−भाटे की तरह घटा−बढ़ा देती है और वे कभी इधर कभी उधर लुढ़कते बदलते रहते हैं।

बड़ी जाति की मछलियों में यौन परिवर्तन तो नहीं पर प्रजनन तत्व आसानी से घटाये बढ़ाये जा सकते हैं। बर्लिन के जल जीव शोध संस्थान ने मछलियों में कई प्रकार के विशिष्ट विद्युत प्रकाश देकर उनकी पिट्यूटरी ग्रन्थि में पाये जाने वाले स्टियुलिंटिंग और लूटिनाइजिंग हारमोनों की मात्रा बढ़ाने में सफलता प्राप्त कर ली हैं। इस प्रयोग से उन मछलियों में चार गुनी प्रजनन क्षमता बढ़ी और उनने उसी अनुपात में अण्डे दिये। कैटफिश आमतौर से जुलाई और सितम्बर के बीच केवल एक बार पर किया है, वे भी लिंग परिवर्तन के अपने प्रयोगों में पूर्ण सफल रहे हैं।

मनुष्यों में इस प्रकार के प्रत्यक्ष परिवर्तन अब बहुत बड़ी संख्या में प्रायः हर देश में सामने आ रहे हैं। नर में नारी के और नारी में नर के यौन चिन्हों का प्रकट, विकसित और परिपुष्ट होना−अस्पतालों में शल्य चिकित्सा द्वारा उनका पूर्णरूपेण लिंग परिवर्तन होना अब आश्चर्य कौतूहल का विषय नहीं रहा। ऐसी घटनाएं आये दिन समाचार पत्रों में छपती रहती हैं। अब यह मान लिया गया है कि ऐसा होना शरीर विकास का एक छोटा सा दिशा परिवर्तन मात्र है कोई असम्भव या प्रकृति क्रम का व्यतिरेक या विपर्यय नहीं। अब ऐसी घटनाएँ जो अस्पतालों के रिकार्डों में दर्ज हैं हजारों की परिधि को लाँघ चली हैं।

जोर्डन लेग्ले हाल तीस वर्ष की आयु तक एक प्रसिद्ध अँग्रेज लेखक रूप में विख्यात थे। उनकी अमेरिका में धाक थी। सम्मानित पत्र−पत्रिकाओं में उनके लेख छपते थे और उसी आधार पर वे अच्छी आजीविका उपार्जित करते थे। रहस्य प्रकट होने से पूर्व कई वर्ष से वे अनुभव कर रहे थे कि उनका सैक्स बदल रहा है। वे नर से नारी के रूप में क्रमशः परिवर्तित हो रहे है। मूँछों पर पहले सामान्य लोगों की तरह बाल आते थे पीछे वे उगने बन्द हो गये। वक्षस्थल पर स्तन उभरने लगे और जननेन्द्रिय छोटी होते−होते मात्र मूत्र विसर्जन का माध्यम रह गई। उन्हें लगने लगा कि भीतर ही भीतर एक नई जननेन्द्रिय उभर रही है जो नारी जैसी है।

कुछ समय ऐसे ही छिपाये रहने के पश्चात् उन्होंने अपनी डाक्टरी परीक्षा कराई तो विदित हुआ कि वे लगभग पूर्ण नारी की स्थिति में पहुँच चुके। इसके लिए एक छोटा आपरेशन कराना मात्र शेष है। वह कराया गया और वे सचमुच ही नारी बन गये। अमेरिका के चार्त्सटन नगर के लोगों ने कौतूहल पूर्वक इस समाचार को सुना और समाचार पत्रों में उनकी चर्चा हुई। बात इतने तक ही समाप्त नहीं हुई। उन्होंने अपना नाम बदला और एक नीग्रो युवक जानपाल सिमोन्स से अपना विवाह कर लिया यह विवाह भी बहुत चर्चा का विषय रहा और उसका भरपूर विरोध हुआ क्योंकि दक्षिणी अमेरिका अपेक्षाकृत रंग भेद की नीति में अधिक कट्टर है और वहाँ गोरी लड़की का काले लोगों के साथ विवाह करने को सामाजिक अपराध माना जाता है। इतने पर भी वह विवाह हुआ और उन्होंने सफल दाम्पत्य जीवन निवाहा।

इन लिंग परिवर्तित व्यक्तियों के स्वभाव में तो बहुत पहले से ही अन्तर आ गया था पर परिवर्तित यौन उभार पीछे दिखाई पड़े। शल्य क्रिया के पश्चात् उनकी स्थिति परिपक्व होती चली गई और वे पिछली आदतों का भूल कर पूर्णतया नर से नारी की आकृति एवं प्रकृति में बदल गये। उनने अपने विवाह किये और सुखी गृहस्थ भोगा। पिछले दिनों एक कमी थी कि ऐसे परिवर्तित लिंग वाले विवाह जोड़े सन्तानोत्पादन नहीं कर पा रहे थे अब यह बाँध भी टूट गया। कुछ समय पूर्व चार्ल्सटन (दक्षिणी कैलीफोर्निया) में जान लेगलेपाल साइमन्स नामक महिला, नर–यौन परिवर्तन कराकर नारी बनी थी। उनने विवाह किया−गर्भिणी बनीं और सन्तान को जन्म दिया। इस प्रकार की संसार में यद्यपि यह पहली घटना है तो भी यह सिद्ध तो हो ही गया कि परिवर्तन उस सीमा तक भी सम्भव है।

यह परिवर्तन क्रम यों रिकार्ड में पिछले पचास वर्ष से ही आया है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि भूतकाल में ऐसा होता नहीं रहा होगा। चूँकि यह विषय गोपनीय एवं लज्जास्पद माना जाता है इसलिए जहाँ ऐसे परिवर्तन हुए होंगे वहाँ छिपा कर रखा जाता रहा होगा। जनखे तो अभी भी हर देश में पाये जाते हैं। भारत में तो उनकी एक बिरादरी ही बन गई हैं। अरब देशों में भी वे इसी तरह होते हैं। अन्य देशों में वे विन्यास तो नहीं बदलते पर मनःस्थिति एवं आदतें तो अक्सर विपरीत लिंग वालों की तरह होती हैं। नपुँसकों का वर्ग ऐसा ही है। स्त्रियों जैसे वस्त्र, आभूषण एवँ श्रृंगार किये नाचने, गाने का पेशा करने वाले उसी प्रकार के हाव−भाव व्यक्त करने वाले जनखे कहीं भी पाये जा सकते हैं। इनमें से अधिकाँश ऐसे होते हैं जो पुरुष वर्ग के थे पर यौन व्यवधान ने उन्हें स्त्री बना दिया। मुगल काल में उनके बहुत बड़े हरम जिनमें सैकड़ों बीवियाँ रहती थीं, यह जनखे उनकी पहरेदारी करते थे।

नारियों में भी हर क्षेत्र में ऐसी अनेकों पाई जाती हैं जिनकी अधिकाँश चेष्टाएँ पुरुषों जैसी होती है उनमें से कितनी ही तो मर्दों जैसी पोशाक भी पहनती हैं और उसी ठसक से चलती, बोलती है। इनमें से कितनों के दाढ़ी, मूँछ भी निकलती है।

समलिंगी मैथुन एवं विपरीत रति का प्रकरण लज्जास्पद एवं अवाँछनीय होने के कारण प्रायः पर्दे के पीछे ही छिपा रहता है पर यदि पर्दे को उघाड़ा जाय तो प्रतीत होगा कि ऐसे नर−नारी भी कम नहीं जिनकी यौन तृप्ति अपने वर्तमान लिंग से भिन्न प्रकार की चेष्टाओं से ही होती है। उनके कामुक चिन्तन की धुरी प्रायः भिन्न वर्ग के अनुरूप होती है। ऐसे व्यक्तियों के बारे में यह अनुमान लगाया जाता रहा है कि वे पिछले जन्म में दूसरे लिंग के रहे होंगे अथवा जिस दिशा में उनकी मनोभूमि चल रही हैं उसे देखते हुए वे अगले जन्म तक अपना लिंग बदल लेंगे। वैज्ञानिक विश्लेषण इस स्थिति का यह है कि हर मनुष्य में उभयलिंगी के तत्व रहते हैं। सामान्यतया स्वाभाविक रूप में जो जिस संज्ञा का है उसमें उसी प्रकार की आकृति−प्रकृति पाई जाती है पर सम्भव यह भी है कि भिन्न स्थिति जो प्रायः सुप्त स्थिति में पड़ी होती है क्रमशः जागती और प्रबल होती चली जाय। दोनों तत्वों में से जो बढ़ेगा वह दूसरे को झीना करेगा। लिंग भेद की स्थिति में जो विपरीत कामुक विचारणाएँ एवं चेष्टाएँ पार्ट जाती है उनका यही कारण है। यह सब अनायास आन्तरिक परिवर्तनों एवं उभारों के कारण भी होता है किन्तु यदि कोई चाहे तो संकल्प पूर्वक भी ऐसी विपरीत स्थिति में अपने को ढाल सकता है। क्योंकि मूलतः हर प्राणी में, हर मनुष्य में दोनों स्तर के तत्व मौजूद हैं। नारी तत्व को ‘रयि’ और नर तत्व का ‘प्राण’ कहते हैं। एक में ए. सी.करेंट की दूसरे में डी. सी. करेंट की प्रधानता है पर जिस प्रकार विद्युत यन्त्रों में परिवर्तन किया जा सकता है उसी प्रकार प्राणियों की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति भी हेर−फेर सम्भव है।

उपरोक्त विवेचन विश्लेषण के आधार पर पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रत्येक प्राणी विशेषतया मनुष्य अपने आप में न केवल अन्य सभी दृष्टियों से वरन् लिंग भेद की दृष्टि से भी पूर्ण है। आत्मा पूर्ण से पैदा होती हैं इसलिए पूर्ण है। “पूर्ण मदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदध्यते” वाले श्रुति वचन में जिस तथ्य का प्रतिपादन किया गया है वह हर कसौटी पर खरा है। मनुष्य पूर्ण है उसकी दोना इकाइयाँ नर और नारी के रूप में भिन्नता युक्त तो हैं, एक दूसरे के लिए आवश्यक उपयोगी एवं सहयोगी भी पर यह कहना उचित नहीं कि एक के बिना दूसरा अपूर्ण है। दूसरे पक्ष की सहायता बिना उसकी आत्मिक या भौतिक प्रगति रुकी पड़ी रहेगी। नारी कला, कोमलता का और नर शौर्य साहस का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनकी विशेषता अधिकता जरूर रहती है पर इसका अर्थ वह नहीं कि दोनों पक्षों में से कोई ऐसी विशेषताओं से रहित है जो उसकी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक पूर्णता में बाधा पहुँचती है। नर और नारी तथा नारी और नर परस्पर स्नेह सहयोग से रहें यह सब प्रकार उचित सराहनीय और मानवी गरिमा के उपयुक्त हैं पर किसी को किसी की अनिवार्य रूप से ऐसी आवश्यकता है जिसके बिना गुजारा ही नहीं यह सोचना व्यर्थ है। यह तर्क उन कामुक लोगों का है जो यौनाचार को अत्यधिक महत्व देते हैं। वस्तुतः वह तर्क एक सीमा तक ही सही हैं उसमें उतना तथ्य नहीं जैसा कि इन दिनों कहा बताया जा रहा है।

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