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Magazine - Year 1975 - Version 2

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सम्पत्ति की खोज में जल−थल और नभ का मानवी मंथन

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धरती की खोज भी अभी जारी है और वह तलाशा जा रहा है कि भू−गर्भ की−सम्पत्ति को कहाँ तक और किस हद तक मनुष्य की सुख−सुविधा के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। धरती की ऊपरी सतह वनस्पतियाँ उगाने एवं मिट्टी, पत्थरों के अनुदानों तक सीमित हैं। मूल्यवान धातुएँ, रसायन, तेल, गैस, कोयला आदि गहराई में उतरने पर निकलते हैं। इसलिए भूतल की मोटी जानकारियाँ प्राप्त कर लेने के उपरांत अधिक ध्यान इस ओर दिया जा रहा है कि भू−गर्भ में दबी सम्पदा को उखाड़ कर ऊपर लाया जाय और उससे मानवी समृद्धि का भण्डार बढ़ाया जाय।

मनुष्य की क्षुधा बहुत अधिक है धरती की सम्पत्ति उसकी तुलना कम पड़ती हैं। इसलिए समुद्र की खोज गहराई तक की जा रही है। समुद्र मंथन द्वारा 14 रत्न प्राप्त करने के लिए विज्ञान अब फिर तुल गया है। अनुमान है कि जो कुछ धरती पर है उससे बहुत अधिक समुद्र में है। कुछ समय पहले तक नौकानयन और मत्स्यचयन के दो ही काम समुद्र से लिये जाते थे अब खाद्य, धातुएँ, रसायन, निवास आदि अनेक प्रयोजनों के लिए समुद्र को टटोलने, खोजने, खखोरने का निश्चय किया गया है। यह कार्य पिछले दिनों जिस उत्साह और संकल्प के साथ आरम्भ किया गया था अब उसमें और भी अधिक वृद्धि कर दी गई हैं।

25 अगस्त 1934 का दिन समुद्री शोध के इतिहास में एक अविस्मरणीय दिन माना जायगा। उस दिन वरमूधा द्वीप के नाँसच बन्दरगाह के समीप खड़े एक जलयान से हो वैज्ञानिक समुद्र−तल में उतरे और महत्वपूर्ण दृश्य आँखों देखकर आये। यह वैज्ञानिक थे, डाक्टर बीच और डाक्टर र्टन। उनका वाहन एक दस फुट ऊँचा और प्रायः उतना लम्बा−चौड़ा फौलाद का बना सन्दूक था जिसमें पारदर्शी खिड़कियां लगी थीं। इसके भीतर ऑक्सीजन की तुम्बियाँ, कैमरा, टेलीफोन, बिजली के उपकरण थे। यह सन्दूक जहाज पर लोहे की रस्सी से बँधा था और मशीनों द्वारा नीचे उतारा जा रहा था। वे लोग 3028 फुट गहराई तक नीचे उतरे और जो कुछ उन्होंने समुद्र के गर्भ में देखा उसे टेलीफोन से सुनाया इस टेलीफोन संवाद को लाउडस्पीकरों द्वारा उत्सुक जनता को सुनाया जाता रहा।

यह आँखों देखा हाल प्रायः उसी ज्ञान की पुष्टि करना था जो पिछले ज्ञान को अन्यान्य शोध उपकरणों से जाना गया था और यह सब कुछ आँखों देखे हाल समाचार की तरह मुँह से बोलकर सुनाया जा रहा था।

इस डुबकी में अद्भुत बात एक ही थी, समुद्री जीवों में से अनेकों ऐसे थे जिनके शरीर से बड़ी चमकदार प्रकाश किरणें निकलतीं थीं और उस घने अन्धकार में चलते हुए बिजली के बल्बों की तरह भ्रमण करती थीं। कुछ मछलियां तो कई प्रकार के रंगों की आभा फैलाती थीं। आग उगलने वाली, बिजली के झटके देने वाली, रोशनी फैलाने वाली और तरह−तरह की रंगी−बिरंगी आभा बखेरने वाली इन मछलियों को देखकर ऐसा लगता था, मानो सघन अन्धकार में आकाश के नक्षत्रों की तरह कुछ जल−जन्तु प्रकाश की आवश्यकता पूर्ण करते हुए विचरण कर रहे हैं।

समुद्र द्वारा अपने उदर में निगल लिये गये टिटहरी के अण्डों की कथा सर्वविदित है। टिटहरी ने समुद्र से लड़ाई मोल ली थी, अपनी चोंच में भरकर समुद्र में मिट्टी डालना और उसे सुखा कर अपने अण्डे वापिस लाने का दृढ़ संकल्प आखिर सफल ही हुआ था। अगस्त मुनि से उसके न्यायोचित संकल्प को पूरा करने में सहायता की थी यह पुराण गाथा सर्वविदित है।

उसी प्रयत्न की पुनरावृत्ति हमारे दुस्साहसी समुद्र शोधक कर रहे हैं। उन्होंने निश्चय किया है कि समुद्र ने जो कुछ धरती की सम्पादक उदरस्थ की है उसे वे उगलवा कर रहेंगे। इस संदर्भ में फिलहाल दो कार्यक्रम हाथ में लिये गये हैं−एक यह कि समुद्र के गर्भ में किसी समय के जो सुन्दर नगर, द्वीप और भूखण्ड डूबे पड़े हैं उनकी सांस्कृतिक सम्पदा को−धन सम्पत्ति को तलाश करके बाहर लाया जाय ताकि उन परिस्थितियों का पता लगाया जा सके जिनके कारण इन भूखण्डों को समुद्र ने निगला। इसके अतिरिक्त पुरातन इतिहास की एक कड़ी भी इस खोज में जुड़ सकती हैं। साथ ही जो सम्पदा वहाँ दबी पड़ी है उसे भी मनुष्य के उपभोग के लिए प्रस्तुत किया जा सकेगा।

दूसरा चरण समुद्र के गर्भ के डूबे हुए जहाजों को खोज निकालना है। पुराने जहाज निर्माण वस्तुकला−डूबने से समुद्र की दुर्दान्त हलचलें ओर उनका सामना न कर सकने की इन यानों को दुर्बलता भी इस प्रयास में खोजी जा सकेगी। जहाज अवश्य ही कुछ न कुछ सम्पत्ति लेकर डूबे होंगे और उसमें से कम से कम बहुमूल्य धातुएँ तो अभी भी उपयोग के लायक होंगी। इन सब उपलब्धियों के लिए समुद्र तल को मँझारा जा रहा है। इसके लिए सुव्यवस्थित अभियान देर से चल रहा है। पुरातत्त्ववेत्ता राबर्ट एफ॰ मार्क्स ने इस मिशन के लिए अपना पूरा जीवन ही लगा दिया। यह दुस्साहसी गोताखोर अपनी छोटी पनडुब्बी यू0 एस॰ एस॰ मार्नटर में निर्वाह तथा खोज के लिए आवश्यक सामग्री लेकर संसार के प्रमुख समुद्रों की खोज प्राण हथेली पर रखकर करता रहा। उसकी खोज बेकार नहीं गई वरन् बहुत कुछ ऐसा उसने खोज निकाला जिसके लिए संसार भर में उसके प्रशंसा हुई। सन् 1957 अखबारों में सर्वत्र उसकी साहस पूर्ण खोजों के सम्बन्ध में लम्बे विवरण प्रकाशित हुए थे।

मार्क्स ने “पोर्ट रायल” नामक अत्यन्त सुरम्य ब्रिटिश द्वीप को खोज निकाला। इसकी कला और सम्पत्ति किसी समय इतनी बड़ी−चढ़ी थी कि अंग्रेज उस पर गर्व करते थे। 7 जून 1672 में एक भयंकर भूकम्प और तूफान आया जिसके कारण धरती धँसकी और वह द्वीप समुद्र के गर्त में चला गया। तब से उसकी गहराई में प्रवेश करने की न किसी ने हिम्मत की और न आवश्यकता समझी। मार्क्स ने गोताखोरी के साधन जुटाकर वह सामग्री प्रस्तुत की हैं जिससे उस समय के कला−कौशल सभ्यता स्तर का पता चलता है और उन परिस्थितियों पर प्रकाश पड़ता है जो उसे डुबो देने का कारण थीं।

इसी प्रकार मार्क्स ने डूबे हुए दो स्पेनिश जहाज के कंकालों को समुद्री कब्रिस्तान में से उखाड़ कर उनकी पूरी तरह खाना तलाशी लेली हैं। इनमें से एक जहाज ‘अवर लेडी आफ दि मीराकल’ सन् 1741 में मैक्सिको की खाड़ी में डूबा था। दूसरा यूकाटन की खाड़ी में। इनका सामान ऊपर लाने में पूरे तीन वर्ष तक लगातार प्रयत्न किया गया। इस दुस्साहस पर टिप्पणी करते हुए, वाशिंगटन की एक शोध संस्था स्मिथ सोनियन इन्स्टीट्यूट ने कहा था− “अब तक के समुद्रीय पुरातत्व अन्वेषण में मार्क्स के प्रयत्न अद्भुत हैं।”

यह श्रेय धुन के धनी मार्क्स ने सहज ही प्राप्त नहीं कर लिया वरन् हर घड़ी उसे भयानक खतरों से जूझना पड़ा है। उसने अपने कुछ संस्मरणों में दिल दहलाने वाली घटनाओं का उल्लेख किया है।

“पोर्ट रायल के निकटवर्ती समुद्र का पानी बहुत गन्दला है। दो−तीन इंच से आगे की कोई चीज उसमें नहीं देखी जा सकती। झुण्ड बनाकर घूमने वाली भयंकर जेली मछलियों का पता तब चलता है जब वे मात्र दो−तीन इंच दूर रह जाती हैं। इसके अतिरिक्त अन्य जल−पिशाच भी बड़ी मात्रा में और चित्र−विचित्र आकृतियों में घूमते रहते हैं जिनकी पकड़ में आने के बाद फिर किसी का बच निकालना कदाचित ही सम्भव हो सकता है। शार्क मछली हमला कर बैठे तो फिर समझना चाहिए कि गोताखोर का ढेर हो गया। ऐसे खतरनाक समुद्रों में देर तक लेने के लिए ऑक्सीजन के बड़े−बड़े थैले ले जाने पड़ते थे वह तरीका काफी सिर−दर्दी का था इसलिए नया एक्वानाट यन्त्र बनाया गया। जिसमें ऑक्सीजन के थैले समुद्र सतह पर तैरते रहने और नली द्वारा गोताखोर तक हवा पहुँचाने की सुविधा बन सकी। अन्य यन्त्र भी ऊपर हैं रह इससे हलका फुलका गोताखोर अधिक तेजी और चुस्ती−फुर्ती के साथ अपना काम करते रहने में समर्थ सके। ऐसे−ऐसे कई अनोखे आविष्कार मार्क्स पर रहा और अत्यन्त कष्टमय एवं खतरे से भरी जिंदगी जीकर वह मनुष्य जाति की ज्ञान शृंखला में एक नई कड़ी जोड़ने के लिए अनवरत प्रयत्न करता रहा।

संसार के सभी समुद्रों में सबसे गहरी खाइयाँ पाँच गिनी गई हैं। इनकी गहराई 6000 मीटर तक है। गहराई में पानी का दबाव बहुत बढ़ जाता है। एक वर्ग सेंटीमीटर पर यह दबाव लगभग एक टन होता है। इतना दबाव सामान्य प्राणी सहन नहीं कर सकते। इतने पर भी इन गहरी खाइयों में लगभग 150 जातियों के जल जीव निवास करते हैं और आसानी से निर्वाह करते हुए अपन वंश वृद्धि क्रम चलाते हैं। इन जीवों की रीढ़ की हड्डी नहीं होती। घोर अन्धेरे में रहने के कारण उनकी आँखें भी नहीं होतीं। दबाव को सहन करने योग्य उनके शरीर है। सामान्य जल−जीवों की तुलना में वे पाँच गुने बड़े हैं। पृथ्वी पर वायुमंडल का दबाव घटने−बढ़ने से जीवधारियों के शरीर बड़े या छोटे होते हैं इस तथ्य की नई जानकारी समुद्र तल से मिली है और सोचा जा रहा है कि यदि प्राणियों की नस्लें छोटी या बड़ी बनानी हों तो इसके लिए वायु का कृत्रिम दबाव उत्पन्न करके वैसा किया जा सकता है। धरती पर रहने वाले पशुओं की तरह जलचरों से न केवल माँस कर वरन् और भी कई प्रकार के सहयोग लेने का रास्ता ढूँढ़ लिया गया है। समुद्र की तली खोदकर बहुमूल्य खदानें निकाली जानी हैं और पानी को उबाल, छानकर सम्पत्ति का बहुत बड़ा भण्डार किस प्रकार उपलब्ध किया जाय यह तैयारी बहुत हद तक पूरी कर ली गई है।

भविष्य में जो युद्ध लड़े जायेंगे उनका प्रधान क्षेत्र थल नहीं जल होगा। जल में छिपी हुई पनडुब्बियाँ उतनी आसानी से देखी−जानी नहीं जा सकतीं जितनी कि थल पर की सेनाएँ अथवा फैक्ट्रियां। आणविक मिसाइलें 2500 मील तक की मार करने वाली बनाई गई है वे अब वायुयानों पर नहीं पनडुब्बियों पर ही लाद दी गई हैं।

वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय परम्परा यह है कि किसी देश का निकटवर्ती 12 मील का क्षेत्र उस देश के अधिकार में माना जाता है। इसके आगे का क्षेत्र प्रत्येक देश के लिए समान रूप से खुला है। इसके अतिरिक्त यह भी अन्तर्राष्ट्रीय परम्परा है कि 200 मीटर से अधिक गहराई पर पाई जाने वाली खनिज सामग्रियाँ को कोई भी साधन सम्पन्न देश निकाल सकता है। इन्हीं सुविधाओं का लाभ उठा कर रूसी और जापानी मच्छीमार जहाज जहाँ भी ‘माल’ देखते हैं वहीं उसे समेटने के लिए जा पहुँचते हैं। अब अगले दिनों धरती की तरह ही सारे समुद्र का भी बँटवारा किया जाना है जिस पर अमुक देश अपना अधिकार जमा सके और उसका अपनी पृथ्वी की तरह ही दोहन कर सके।

धरती माता का दोहन मनुष्य हजारों लाखों वर्षों से करता चला आ रहा है। समुद्र पिता को अब खटखटाया जा रहा है। अन्तरिक्ष गुरु की भी झोली, झोंपड़ी टटोलने के लिए राकेटों, उपग्रहों के जासूस कमर कसकर जुट गये है। थल, जल और नभ में जो कुछ भी सम्पदाएँ छिपी पड़ी हैं उन सबको उदरस्थ करतलगत करने के लिए मनुष्य की तृष्णा आकुल−व्याकुल हो रही है। अतृप्ति को तृप्त करने के लिए ब्रह्माण्ड का कोना−कोना मंझार लेने की तैयारी पूरे जोश−खरोश के साथ चल रही है।

यों मनुष्य तुच्छ−सा प्राणी है−उसकी आवश्यकताएँ भी नगण्य और स्वल्प प्रयास से सहज पूरी हो सकने जितनी है। किन्तु तृष्णा की सुरसा का फैलता हुआ मुख प्रयत्न पुरुषार्थ के हनुमान से बड़ा ही रहेगा। अतृप्ति को तृप्त किया जा सकेगा इसमें पूरा सन्देह है। पौराणिक रावण, हिरण्याक्ष और ऐतिहासिक सिकन्दर, नैपोलियन, अपने को दरिद्र, कंगाल अनुभव करते हुए चले गये तो आज का लिप्साग्रस्त विज्ञानी मानव सन्तोष की कोई झाँकी प्राप्त कर सकेगा इसमें पूरा सन्देह हैं।

तृप्ति दे सकने लायक विभूतियों की खदान मनुष्य के अन्तरंग में है। अन्तर्मुखी होकर यदि वहाँ कुछ ढूँढ़ा, खोजा गया होता तो इतना अधिक मिल सकता था जितना धरती, समुद्र और आकाश तीनों में मिलाकर नहीं है। यदि प्रयास अन्तःकरण को खोजने में लगे होते तो इतनी विभूतियाँ मिल सकती थीं जिन्हें पाकर हममें से हर मनुष्य इन्द्र−कुबेर से बढ़कर अपने को सुसंपन्न अनुभव करता।

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