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Magazine - Year 1975 - Version 2

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स्वच्छ जलवायु के बिना स्वास्थ्य रक्षा सम्भव नहीं

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परिपुष्ट शरीर और दीर्घजीवन की आकाँक्षा करने वालों को अपना आहार−बिहार प्रकृति की प्रेरणा के अनुरूप बनाना चाहिए। विलासी और कृत्रिम जीवन सरल भले ही लगता हो, पर उसके साथ परोक्ष रूप से अनेकानेक दुष्परिणाम जुड़े हुए हैं। प्रकृति से प्रतिरोध करके विकृत जीवन पद्धति अपनाकर हम अपने चातुर्य का परिचय देते तो हैं, पर यह भूल जाते हैं कि अप्राकृतिक रीति−नीति अपनाकर अन्ततः हम अपने ही पैरों कुल्हाड़ी मारते हैं। प्रकृति की नियम शृंखला को झुठला कर मनमर्जी का रहन−सहन अपनाने की उच्छृंखलता बरतना अन्ततः मूर्खता पूर्ण ही सिद्ध होती हैं। हम प्रकृति को परास्त नहीं कर सकते।

सुकरात को 65 वर्ष की आयु में विष दिया गया तब उसका स्वास्थ्य पूर्णतया सुगठित था। उनका विद्यालय खुले मैदान में चलता था। ढलती आयु में भी वे नित्य नृत्य करते और अपने शिष्यों को पढ़ने के अतिरिक्त विनोदी और श्रमनिष्ठ दिनचर्या बनाने की प्रेरणा देते थे ताकि वे न केवल विद्वान वरन् सुदृढ़ और समर्थ भी बन सके।

आहार−बिहार के साथ−साथ हमें उपयुक्त वातावरण में रहने का प्रयत्न करना चाहिए। शहरी जीवन का दूषित वातावरण, धन उपार्जन तथा दूसरे लाभों की दृष्टि से भले ही अच्छा लगे पर स्वास्थ्य संरक्षण की दृष्टि से ही हमें स्वच्छ जलवायु का सह्य तापमान का वातावरण ही चाहिए। अवाँछनीय वातावरण में रहकर हम अपनी स्वास्थ्य सम्पदा को सुरक्षित नहीं रख सकते।

भारत के महान वैज्ञानिक डा0 सी0 बी0 रमन ने जल की जीवनदायिनी शक्ति का वर्णन करते हुए लिखा है−आरोग्य के लिए लोग तरह−तरह की दवाएँ तो खोजते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि उनके निकट ही वास्तविक जीवनदाता ‘जल’ प्रचुर परिमाण में भरा पड़ा हैं।

शरीर का तापमान 98 डिग्री होता है। डाक्टर वाल्डविन के अनुसार उसे 68 डिग्री तापमान सह्य पड़ता है। इससे ऊँचे एवं नीचे में उसके निर्वाह में कठिनाई पड़ती है और विकृति उत्पन्न होती है।

डा0 ल्यूसीन ब्रूहा के नेतृत्व में तापमान के मानव शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव के सम्बन्ध में जो अनुसन्धान किया गया उसमें विभिन्न कारखानों में 40 से लेकर 52 डिग्री तक तापमान रखकर श्रमिकों की कार्य शक्ति के बारे में पता लगाया गया तो निष्कर्ष यह निकला कि अधिक ताप ने सामान्य श्रम का औसत 11 के अंक से घटाकर 8 पर पहुँचा दिया अर्थात् लगभग एक चौथाई क्षमता कम हो गई।

वस्तुएँ अपने आप नहीं सड़ती। वायुमण्डल का प्रभाव उन्हें सड़ाता है। जहाँ की जलवायु सड़न उत्पन्न करने में सहायता नहीं करती वहाँ चीजें मुद्दतों तक यथावत् सुरक्षित बनी रहती हैं। दक्षिण अफ्रीका के समीप एक छोटा द्वीप है− ‘इचामोई’ यहाँ पहुँचने पर प्रायः 150 वर्ष पूर्व मरे मुर्दे ऐसी स्थिति में पाये गये, मानो वे अभी−अभी मरे हों। इस द्वीप की मिट्टी में मरी मछलियाँ भरी पड़ी हैं उनके द्वारा उठने वाली गैसें सड़न को रोकती है। मैक्सिको का एक पर्वतीय क्षेत्र ‘नोयान जुमाटो’ इन विशेषता के लिए प्रसिद्ध है कि वहाँ की विचित्र हवा के कारण न तो कोई वस्तु सूखती है और न सड़ती हैं। इस क्षेत्र के रहने वाले अपने मृतकों को कपड़े पहनाकर पहाड़ी गुफाओं से बिठा देते हैं और वे मुद्दतों तो ऐसे ही समाधि लगाये सन्तों की तरह बैठे रहते हैं।

अफ्रीका के अंकोला क्षेत्र का एक भाग ऐसा है जहाँ बनाया हुआ भोजन बहुत समय तक खराब नहीं होता। वहाँ के लोग एकबार भोजन बनाकर रख लेते हैं और उससे महीनों काम चलाते हैं।

ध्रुव प्रदेश इस दृष्टि से ओर भी अधिक आश्चर्यजनक है। इंग्लैंड का एक अन्वेषक दल दक्षिणी ध्रुव सम्बन्धी शोध करने के लिए सन् 1842 में कैप्टन कौस के नेतृत्व में गया था। मौसम की प्रतिकूलता के कारण उसे वापिस लौटना पड़ा। इस दल का एक तम्बू और उसमें कुछ खाद्य पदार्थ वहीं छूट गये। सन् 1911 में नार्वे के अन्वेषी रोल्ड एमण्डसन जब वहाँ गये तो 71 वर्ष बाद भी वे वस्तुएँ पूर्णतया सुरक्षित और उपयोग के लायक पाई गई।

अमेरिका का एक पर्वतारोही विल्सन एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ाई करने सन् 1934 में आया था। लक्ष्य तक पहुँचने से पूर्व ही वह रास्ते में ठण्ड से अकड़ कर मर गया। दूसरे साल एक दूसरा अन्वेषक दल एरिक सिम्पटन के नेतृत्व में उधर पहुँचा तो उसे पूर्ववर्ती यात्री का शव पूर्णतया सुरक्षित मिल गया।

आर्कटिक हिमक्षेत्र में प्रागैतिहासिक काल के कितने दुर्लभ प्राणी गढ़े हुए पाये गये है। इनमें दो हजार वर्ष पूर्व मरे एक वेरेसोविका जाति का यहाँ गज भी था जिसका माँस इस स्थिति में बना हुआ था कि उसे खाया जा सके। रूस के शोधकर्ताओं ने पाँच हजार वर्ष पुराना एक सरीसृप हिम प्रदेश में इस स्थिति में पाया कि उसका शवच्छेद करके उस प्राणी की शरीर रचना को भली प्रकार जाना जा सका।

सह्य सुखद एवं उपयुक्त वातावरण में न केवल शरीर ही स्वस्थ रहता है वरन् पेड़−पौधे तक अधिक विकसित होते और फलते−फूलते हैं।

उत्तर प्रदेश में पंत नगर स्थित कृषि विश्व−विद्यालय से प्रकाशित ‘फारमर्स डाइजेस्ट’ पत्र में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वहाँ की खोजों से यह सफलता मिल गई है कि हवा में आक्सीजन की मात्रा घटाकर पौधों को दुगुनी तेजी से उगाया जा सकता है। यह महत्वपूर्ण खोज स्टेनफोर्ड कैलीफोर्निया की कारोनगी संस्था के सहयोग से सफल हो सकी हैं।

सामान्यतया वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा 21 प्रतिशत होती है। उसे घटाकर 5 से 9 प्रतिशत कर दिया गया तो पौधे दूनी तेजी से उगे और फल−फूल देने में आश्चर्यजनक जल्दी सम्भव हो सकी।

यों अधिक ठण्ड भी उपयोगी नहीं, पर अधिक गर्मी का वातावरण भी स्वास्थ्य की दृष्टि से अनुकूल नहीं पड़ता। बड़े आदमी हीटर, कूलर और एयर−कंडीशन यन्त्रों का उपयोग करके कृत्रिम रूप में सह्य वातावरण बनाने का प्रयत्न करते हैं फिर भी उसमें प्रकृति−प्रदत्त, समस्वरता और जीवनदायिनी शक्ति कहाँ रहती है?

यदि हम सचमुच जिन्दगी से प्यार करते हों और स्वास्थ्य सम्पदा के मूल्य से परिचित हों तो धनी या बड़े आदमी बनने का लोभ छोड़कर हमें सह्य और स्वच्छ जलवायु का देहाती जीवन अपनाना चाहिए।

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