
हम सुसंस्कृत बने संस्कारवान् बनें
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आज−कल ‘संस्कृति का प्रयोग बहुत किया जाता है। संस्कृति किसे कहते हैं, इस संदर्भ में अनेक विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किये हैं। संस्कृत साहित्य में संस्कृति का प्रयोग नहीं मिलता। अस्तु यह शब्द प्राचीन नहीं कहा जा सकता।
अँग्रेजी ‘कल्चर’ एवं उर्दू के ‘इल्मतमुद्दुन’ शब्द के समानार्थक शब्द के रूप में संस्कृति शब्द का व्यवहार होने लगा है।
संस्कृति के भाव को व्यक्त करने वाला भारतीय ग्रन्थों में कौन सा शब्द प्रयुक्त? एत्दर्थ अनेक विद्वानों ने अपने विचार प्रकट किये हैं। कुछ विद्वानों में मतानुकूल ‘संस्कृति’ शब्द उतना व्यापक है जितना कि प्राचीनकाल में धर्म था।
संस्कृति शब्द पर यदि हम गम्भीर रूप से विचार करते हैं तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि संस्कृत साहित्याकाश में संस्कार और संस्कृत ही ऐसे शब्द है जो ‘संस्कृति’ शब्द के निकटवर्ती ही सकते हैं।
संस्कारों का भारतीय जीवन में बड़ा महत्व हैं। संस्कृति शब्द से सबसे सामीप्य सम्बन्ध संस्कार का ही माना जाना समयोचित है। संस्कृत और हिन्दी को कोषग्रंथों में संस्कार शब्द के अनेक अर्थ दिये गये हैं जो इस प्रकार हैं−शुद्धि, परिष्कार, सुधार, मन, रुचि, आचार−विचार को परिष्कृत तथा उन्नत करने के कार्य, मनोवृत्ति या स्वभाव का शोधन, पूर्व जन्म की वासना या पूर्व जन्म, कुल−मर्यादा, शिक्षा−सभ्यता आदि का मन पर पड़ने वाला प्रभाव। वैसे संस्कृत शब्द का अर्थ भी संस्कार शब्द से मिलता−जुलता है। कोष−ग्रन्थों में इसका अर्थ शुद्ध किया हुआ, परिमार्जित, परिष्कृत, सुधारा हुआ, ठीक किया हुआ, सँवारा हुआ आदि किया गया है। पर अर्थों के विवेचनोपरान्त ऐसा लगता है कि मानव में जो दोष हैं उनका शोधन करने के लिए और उन्हें सुसंस्कृत करने के लिए ही संस्कारों का प्रावधान किया गया है। अतएव सुसंस्कार मानव−जीवन के उत्कर्ष हेतु नितान्त अपेक्षित है।
संस्कारों का प्रारम्भ अभ्यास से होता है। अनवरत अभ्यासोपरान्त हम किसी कार्य को करने के आदी होते हैं। तदन्तर उसे अभ्यास से आदत कहा जाता है। आदत के पश्चात् जब वह प्रवृत्ति हमारे जीवन के साथ ओत−प्रोत हो जाती है तब उसे संस्कार की संज्ञा से अलंकृत किया जाता है। संस्कार के बाद जब वह कार्य सहज प्रवृत्ति में परिणत हो जाता है तब उसे स्वभाव कहते हैं।
संस्कार डालना पड़ता है क्योंकि दोषों का परिशोधन प्रयास पूर्वक ही होता है जबकि स्वभाव व्यक्ति की सहज किया है जिससे परित्राण कठिन होता है। आदत से छूटना सम्भव भी है पर स्वभाव से परांगमुख होना दुष्कर है।
आदत अच्छी एवं बुरी दोनों प्रकार की होती है। कालान्तर में संस्कार को भी अच्छा एवं बुरा मानते हुए कुसंस्कार और सुसंस्कार शब्द प्रचलित हो गये। संस्कार शब्द की मूल प्रकृति पर विवेचनोपरान्त उसके साथ ‘कु’ अथवा ‘सु लगाना व्यर्थ प्रमाणित होता है क्योंकि उसका अर्थ ही शुद्धि एवं दोषों का परिष्कार है। अस्तु कु−संस्कार कहने की अपेक्षा बुरा अभ्यास कहना न्यायोचित है और संस्कार शब्द का प्रयोग सदा, सर्वदा अच्छाई के लिए ही होना चाहिए।
जीवन के साथ संस्कारों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। पूर्व संस्कार या पूर्व जन्म के संस्कार भी होते हैं और मरणोपरान्त भी संस्कारों की परम्परा जन्म−जन्मान्तरों तक चलेगी। एक व्यक्ति का संस्कार केवल उसी के जीवन से ही सम्बन्धित नहीं है वरन् उसके कुटुम्ब एवं कुल पर भी संस्कारों का अमिट प्रभाव पड़ता है, जिससे हम कुल−परम्परा या कुल−संस्कार कहते हैं। अस्तु संस्कारों की परम्परा एवं प्रभाव अद्वितीय हैं।
संस्कारों का कार्य एवं उद्देश्य गुणों का अधिकतम विकास करना हैं। दोषों का परिष्कार या परिहार करने की क्षमता सर्वाधिक मानव−जीवन में ही हैं क्योंकि मनुष्यों के गुण, दोष परक बुद्धि होती है जबकि पशु−पक्षी एवं अन्य प्राणियों में इस प्रशक्ति का अभाव होता है, अस्तु वे नहीं कर सकते। हम विचारों से ही बनते बिगड़ते हैं, अतएव विचारों की शुद्धि या चित्त−शुद्धि की नितान्त अपेक्षा है। इसी कारण सारे धार्मिक अनुष्ठान चित्त−शुद्धि हेतु की सम्पादित होते हैं।
संस्कारों का सर्वाधिक महत्व चित्त−शुद्धि में हैं। मन की मलीनता ही सबसे अधिक दुखदायी है। काया की मलीनता तो साबुन, पानी से धोयी भी जा सकती हैं पर मन तो न जाने कहाँ−कहाँ भटकता रहता है और प्रति पल अशुभ चिन्तन के द्वारा वह प्रदूषित होता रहता है। इन्द्रियों का प्रेरक भी वहीं है, इसलिए उसी की शुद्धि का निरन्तर ध्यान एवं प्रयत्न करना चाहिए। योग सूत्र में ‘चित्त वृत्ति निरोध’ को योग कहा गया है, जबकि निरोध करना सहज कार्य नहीं है, अस्तु सर्वप्रथम चित्त को अशुभ से हटाकर शुभ प्रवृत्तियों में लगाना चाहिए क्योंकि चित्त को कुछ न कुछ अवलम्बन तो अपेक्षित ही है। यदि उच्चादर्श एवं ध्येय में हम लगे रहेंगे तो बुरी आदतों की ओर हमारा ध्यान नहीं जायगा और यदि कभी गया भी तो बुरा करने के लिए समय ही न मिलेगा। गीताकार ने कहा है− ‘जहाँ तक जीवन है कुछ न कुछ प्रवृत्ति तो करनी ही पड़ेगी, पर आसक्ति का परित्याग कर दें तो विष के निकल जाने से हमें नुकसान नहीं पहुँच सकेगा।’
आत्म−निरीक्षण प्रतिपल नहीं तो प्रतिदिन तो करना आवश्यक है ही। उसके द्वारा जो दोष हमारे आभ्यन्तर हो उनका निवारण कर एवं जिन गुणों की कमी हैं, उनकी पूर्ति करते जायें यही संस्कृति है कल्चर है।
स्वर्गीय भगवानदीन जी ने ‘संस्कृति’ का अर्थ मांजना किया है। अर्थात् आत्मा के दोषों का परिमार्जन परिष्कृति एवं गुणों का विकास ही संस्कृति है। जिन कार्यों अथवा प्रवृत्तियों से हमारा उत्कर्ष हो, हृदय की शुद्धि हो, उन्हें ही संस्कृति का कार्य कहना चाहिए, न कि आधुनिकतम नृत्यगानादि को संस्कृति का परिचायक समझना चाहिए।