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Magazine - Year 1975 - Version 2

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सर्प उतना भयंकर नहीं जितना उसे समझा जाता हैं

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साँप का नाम सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उसे मृत्यु का दूत माना जाता है, उसे देखते ही कंपकंपी छूटती हैं और प्राण संकट के भय से कलेजा काँपने लगता है। यह सर्प संकट नहीं वरन् अपडर का मास है। हम सामान्य से कीड़े को इतना भयंकर मान लेते हैं जितना कि वस्तुतः वह हैं नहीं। पाये जाने वाले सर्पों में से बहुत ही कम विषैले होते हैं। उनमें से अधिकाँश तो ऐसे हैं जिनसे बिना किसी प्रकार का जोखिम उठाये खिलौने की तरह खेलते रहा जा सकता है। मनुष्य शरीर से और बुद्धि से बड़ा है वह चाहे तो किसी भी आक्रमणकारी सर्प से सहज ही निपट सकता है, पर जब डर हावी हो जाय तो फिर न बुद्धि काम देती है और न कोई उपाय ही सूझता है। इसी भयभीत स्थिति में प्रायः लोग साँपों से काटे जाते हैं और उपाय की ओर मस्तिष्क को न दौड़कर भयाक्राँत हो जाने से काटे हुए लोगों में से अनेकों ऐसे मर जाते हैं जो थोड़ी विवेक बुद्धि का परिचय देने पर सहज ही बच सकते थे।

दस पीछे, दो ही साँप विषैली होते हैं शेष निर्विष। वह हर तीसरे चौथे महीने केंचुली बदलता है। उसे रात में भी साफ दिखाई पड़ता है। रीढ़ इतनी लचीली होती है कि यदि कड़ा झटका मार दिया जाय तो वह टूट जायगी और इतने मात्र से वह अधमरा हो जायगा। पेट के स्नायु सशक्त होने के कारण ही वह सपाटे के साथ रेंग सकता है। वे अपने से बड़े आकार के शिकार को निगल जाते हैं। अजगर साँप समूचे हिरनों को निगलते देखे गये है। उनकी पाचन शक्ति इतनी तीव्र होती है कि हड्डियाँ भी उसमें गल जाती हैं। उसकी पकड़ इतनी मजबूत होती है कि जिसे भी कस कर पकड़ ले उसे मरोड़ कर या तोड़कर ही छोड़ता है। केंचुली की तरह उसके दाँत भी बार-बार गिरते उगते रहते हैं।

सांपों के सम्बन्ध में कितनी ही किंवदंती प्रचलित हैं, किन्तु उनमें से एक में भी तथ्य नहीं। साँप अपनी साँस से पक्षियों को खींच लेता है- आँखों की चमक से शिकार सम्मोहित होकर अचल खड़ा रह जाता है। सर्प और सर्पिणी में से एक को मार डालने पर दूसरा मारने वाले से बदला लेता है, गायों के थन से लिपट कर दूध पी जाता है, बीन सुनने के लिए या सुगन्धित पुष्प सूँघने के लिए वह अपने बिलों से निकल आता है, गढ़े हुए खजाने पर पहरा देता है, मन्त्र शक्ति से खिंचकर चला आता है और काटे हुए स्थान का विष चूसता है आदि बातें कपोल कल्पना मात्र हैं। साँप भी दूसरे अन्य कीड़ों की तरह एक कीड़ा है फुर्तीलापन और विषैलापन आदि उसकी अपनी विशेषताएँ हैं।

भारत में किंग कोबरा ही एक ऐसा है जिसका दंशन तत्काल मृत्यु की गोद में सुला देता है। शेष साँपों में कम विष होता है और उसे चिकित्सा द्वारा अच्छा किया जा सकता है। सर्प के विष से ही सर्पदंशन की अमोघ औषधियाँ निकली है। विष से विष मारने की उक्ति सर्प चिकित्सा पर पूरी तरह लागू होती है। काटने पर मरने वालों में से आधे लोग विष की अधिकता से नहीं वरन् मृत्यु की सम्भावना से भयभीत होकर मरते हैं। अकारण आक्रमण करने वाले साँप कम ही होते हैं वे प्रायः आघात लगने पर या वैसी आशंका होने पर ही हमला बोलते और काटते हैं।

संसार भर में लगभग ढाई हजार किस्म के साँप पाये जाते हैं, जिनमें भारत में पाये जाने वालों की संख्या 216 हैं। यह सभी जहरीले नहीं होते। अपने देश में अधिकाँश विषहीन होते हैं उनमें से केवल 52 जातियाँ ही विषैली हैं।

सर्प विष उसके तालू में लगी हुई विष ग्रन्थियों में भरा होता है। इन ग्रन्थियों का रस उसके पोले विष दन्तों में होकर काटे जाने वाले के शरीर में प्रवेश करता है। यह पूरी इन्जेक्शन पद्धति है। पोले विष दन्त इन्जेक्शन सुई का और विष थैली पिचकारी का काम देते हैं। काटने पर सर्प इन्हीं पोले विष दन्तों को माँस में चुभोता और उस चुभन के साथ ही विष उड़ेल देता है। यह रक्त में मिलकर सारे शरीर में फलता है और काटें वाले की मृत्यु का कारण बनता है। विभिन्न जाति सर्पों द्वारा उड़ेले जाने वाले विष भिन्न-भिन्न होते हैं और की मात्रा भी न्यूनाधिक निकलती है। मिली ग्रामों में विष की औसत मात्रा इस प्रकार है- क्रीटलेस 600 घी ग्राम, कोबरा 317 मि0 ग्राम, रसेल वाइपर 108, एकैथोफिस 84 एडक्रिस्टोडोन 55 मि0 ग्राम, नोटिलस मिली ग्राम।

सर्पों में पाये जाने वाले विष रसायनों में कुछ बहुमूल्य हैं। न्यूरोटाक्सिन हायल्यूरोनाइडेज, राइवोन्यूक्लिएज, की आक्सीडेज, फस्फोडी एस्टेज, न्यूक्लियोटाइडेज दें। इनकी कीमत प्रति मिली ग्राम 1500 रुपये तक पहुँचती है।

एलोपैथी में सर्प विष से बनी औषधियाँ कैंसर, क्षय, ल्यूकोडर्मा, साइफि लिटिक, इलाप्स, एपिस, मेलीफि का दे रोगों में प्रयुक्त होती है। होम्योपैथी में सर्प विष लेप्सी, एस्थमा, न्यूराल्जिया, न्यूराइटिस, लेम्बेगो टिका, टिक्स, काँजोडायानिया, लेरिंजाइटिस, रसी, डिविलिटी, इन्सोमीनिया आदि रोगों में प्रयुक्त जाता है। आयुर्वेद ग्रंथों में तो उसके अनेकानेक भरे पड़े हैं। इन दिनों उसका सर्वाधिक प्रयोग सर्प के इलाज के लिए एंटी सीरम के रूप में किया जाता है। काँटे से काँटा निकालने की तरह, मारने वाला जीवन दान कर सकने की बात को प्रमाणित करता है। भयंकर और हानिकारक समझी जाने वाली वस्तु का मानवी बुद्धि चाहे तो सदुपयोग कर सकती है। आग, ली आदि ऐसी शक्तियाँ है जिनके खतरे स्पष्ट हैं, पर मानवी बुद्धि कौशल ने उन्हें अपने वशवर्ती कर लिया है उनसे समर्थ सेवक की तरह काम लिया जा रहा है। बुद्धि द्वारा सर्प को मृत्यु दूत से बदल कर दुधारू कामधेनु गौ की तरह प्रयुक्त किया जा रहा हैं।

बैंकाक के सर्प फार्म ने विष एकत्रित करने और बेचने में कीर्तिमान स्थापित किया है। वहाँ सप्ताह में एकबार पालतू साँपों का विष संग्रह किया जाता है। उनका मुँह विशेष यन्त्रों की सहायता से चौड़ा दिया जाता है और विष थैली में नली लगादी जाती है जिसमें प्रायः दो चाय चम्मच में भरा जा सकने जितना विष निकल आता है। उसके बाद उन्हें फिर अपने पिंजड़े में वापिस भेज दिया जाता है।

जापान में पुरानी मान्यता अभी भी चली आती हैं कि सर्पचूर्ण तपेदिक और गठिया की अच्छी दवा है। फलतः वहाँ सैकड़ों लोग सर्पचूर्ण बनाने का व्यवसाय करते हैं उन्हें तन्दूर पर सुखा कर कड़ा किया जाता है और फिर कूट कर चूर्ण बना दिया जाता है। उस देश में इसी प्रयोजन के लिए प्रायः पचास हजार साँपों को अपनी जान गँवानी पड़ती है।

अब दवाओं के लिए सर्प विष की बहुत माँग हैं। इसलिए उसकी कीमत 30 पौण्ड तक मिल जाती हैं। शिकारियों ने जाल में फँसा कर उसे पकड़ने की सहज तरकीब ढूंढ़ निकाली है और उस धन्धे से खूब कमाई करते हैं। फलतः अब उनकी वंश रक्षा तक के लिए संकट उत्पन्न हो गया है।

डा0 जोनाथन लीकी द्वारा स्थापित नैरोवी से 180 मील दूर सर्पोद्यान और ट्रान्सवाल के डा0 के0 सी0 व्रेन एवं डा0 फिट्जसिमोन्स का सर्प संस्थान इस प्रयास में संलग्न है कि विषैले सर्पों को पाल कर उन्हें दुधारू गौओं एवं पालतू मधुमक्खियोँ की तरह अधिक लाभदायक बनाया जाय। सर्प विष सोने से भी कई गुना महंगा बिकता है क्योंकि उससे कितनी ही विष निवारक दबाएँ बनती हैं और भारी माँग रहती हैं।

भारत में पाये जाने वाले किंग कोबरा और तक्षक से भी भयंकर पूर्वी और दक्षिणी अफ्रीका क्षेत्र का सबसे विषैला सर्प ‘मम्वा’ माना जाता है। यह दो प्रकार के होते हैं एक काला दूसरा हरा। काला मम्वा औसतन 14 फुट और हरा उससे कुछ छोटा 10 फुट का होता है। उनकी चाल 10 से 15 मील प्रति घण्टा तक देखी गई है।

मम्वा के दंश में कितने ही प्रकार के विषैली रसायन मिले होते हैं। न्यूरोटानिक्स-जो स्नायु तन्त्र को ठप्प कर देता है। श्वाँस झिल्ली पर लकवा मार देता है फलतः ऑक्सीजन के अभाव आदमी दम घुटने जैसी छटपटाहट के साथ मर जाता है। उसके वंश में एक और भी विष घुला रहता है- हीमोटाक्सिन जो रक्त संचार प्रणाली में खून के थक्के जमा देता है और कोशिकाओं को जलाता चला जाता है। ट्रान्सवाल से केनिया तक के विशाल क्षेत्र में इस जाति के सर्व सर्वत्र पाये जाते हैं। नाटाल, जुलूलेण्ड, वेचुआनालेण्ड तक के बीज हर साल हजारों लोगों को इन्हीं की चपेट में प्राण गँवाने पड़ते हैं। पाँच मिनट से लेकर दो घण्टे की अवधि में काटा हुआ व्यक्ति दम तोड़ देता है।

एशिया का किंग कोबरा और आस्ट्रेलिया का टाइपान भी विष की दृष्टि से ऐसे ही होते हैं, पर वे डरपोक होने के कारण बिना छेडे नहीं काटते। मम्वा इनसे उद्दंड है वह स्वभावतः क्रोधी और आक्रामक होता है और अकारण हमला बोलता है। हाथ-पैर में काटा हो तो बचने की थोड़ी आशा भी है, पर यदि हृदय और मस्तक के नजदीक काटा होगा तो फिर बचने की कोई गुंजाइश नहीं है।

इतना सब होते हुए मम्वा की अपनी निजी दुर्बलताएँ ही ऐसी हैं जो उसके लिए पग-पग पर प्राणघातक संकट उत्पन्न करती रहती हैं। कोई छोटी चुहिया उसे काट खाये तो भी जख्म जल्दी नहीं पुरेगा और सेप्टिक होने से उसकी मौत हो जायगी। बरुथी जैसे छोटे कीड़े कई बार उसकी मुलायम चमड़ी पर चिपक जाते हैं और अपनी संख्या वृद्धि करते हुए उसके माँस को तब तक खाते ही रहते हैं जब तक कि यह छटपटा-छटपटा कर मर नहीं जाता। बाज, गरुड, उल्लू, जंगली कुत्ते, बन विलाब भी उसको दबोचने की घात लगाये बैठे रहते हैं।

दुष्ट देखने में बड़े दुर्दान्त मालूम पड़ते हैं, पर उनकी अपनी निजी कमजोरियाँ ही ऐसी होती है जो उन्हें पानी के बबूले की तरह देखते-देखते मिटाकर रख देती है। हर बात हर आततायी पर लागू होती है और मम्वा पर भी। जैसा कि वह दूसरों को हानि पहुँचाने में बलिष्ठ मालूम होता है यदि उस की सता भी वैसी ही मजबूत रही होती तो शायद उस क्षेत्र का कोई प्राणी जीवित न बचता। ईश्वर को धन्यवाद है कि उसने मम्वा सहित हर पर पीड़क को ऐसी आन्तरिक दुर्बलताओं से घिरा रखा है जो बात की बात में उसका विनाश करके रख देती हैं। तनिक सा जख्म होते ही सड़-सड़कर मर जाना, चुहियों और चींटियों द्वारा उसे जीवित ही उदरस्थ कर लिया जाना यह सिद्ध करता है कि आततायी वस्तुतः अतीव दुर्बल होते हैं और वे तनिक से आघात से बिखर जाते हैं।

सपेरे की बीन सुनकर साँप का मुग्ध हो जाना जन मान्यता में अपना स्थान बना चुका है पर है, गलत। वस्तुतः साँप के कान नहीं होते और वह सुन नहीं सकता। वह पूरी तरह बहरा होता है यहाँ तक कि बन्दूक की आवाज भी उसे सुनाई नहीं पड़ती। बीन बजाने की ध्वनि पर सर्प के फन फैलाकर भाव नृत्य करने की बात में तथ्य यह है कि सपेरा साँप की आँख से आंखें मिलाये रहता है और सिर घुमाने तथा पुतलियों को नीचा-ऊंचा करने के संकेत करता रहता है। बीन का हिलना-जुलना भी काम आता है। सर्प सपेरे की आँखों में अपने लिए आक्रामक सम्भावना देखता है और आत्म-रक्षा के लिए उसी तरफ अपना सिर हिलाता-जुलाता है जिस ओर कि सपेरे के नेत्र एवं उपकरण हिलते-जुलते हैं। यदि सपेरे और साँप के बीच में एक मोटी चादर तान दी जाय और बीन बजता रहे तो साँप पर कुछ भी प्रतिक्रिया न होगी। उसे प्रभावित ध्वनि नहीं, बल्कि दृश्य हलचलें करती हैं।

विश्व स्वास्थ्य संघ की सूचनानुसार संसार भर में प्रायः 40 हजार व्यक्ति साँप काटने के कारण मरते हैं। अन्वेषकों का कहना है कि इनमें एक चौथाई की मृत्यु के लिए वे विषधर दोषी हैं। शेष तो भयभीत मनःस्थिति को आशंका कुशंकाओं से ग्रसित होकर बेमौत मरते हैं सन्तुलित मस्तिष्क से बिना घबराहट के सामयिक उपाय करने में असमर्थ रहने की स्थिति भी उनका जीवन हरण करती हैं। सर्प इतना भयंकर नहीं जितना उसका अपडर जिसने जन-साधारण के मस्तिष्क को अपना प्रभाव क्षेत्र बनाया हुआ है।

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