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Magazine - Year 1975 - Version 2

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ईश्वर को साथी बनाकर सफल जीवन जिये

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सच्चा साथी प्यार करता है, सलाह देता है तथा सुख−दुख में सहयोग भी देता है। इसके अलावा वह शक्ति और सुरक्षा भी दे और प्रत्युपकार की जरा भी अपेक्षा न रखे तो वह सोने में सुहागा हो जायेगा। ईश्वर जैसा ही साथी है।

ईश्वर को जिसने जीवन का सहचर बनाया उसे सन्त ज्ञानेश्वर की तरह पूरा विश्व अपना ही घर लगता है। सामान्य मानव संकट में, विफलता में कहता है कि दुनिया में राम कहीं नहीं हैं। परन्तु ईश्वर को मित्र बनाने वाले को लगता है कि दुनिया में राम के अलावा कुछ भी नहीं हैं। उसे इस बात का विश्वास होता है कि विश्व का सारा ऐश्वर्य उस परमात्मा के नाम मंगल सूत्र के रूप में विश्व ने धारण किया है। यह धारणा मन में दृढ़ हुई तो उसको ईश्वर के साथ मित्रता का पूर्ण लाभ मिलता है।

किसी के घर के आँगन में धन गढ़ा हो परन्तु उसको इस बात का पता ही न हो तो वह गरीबी का ही अनुभव करता रहेगा और चिन्ता, उलझनों, में डूबकर समस्याओं का सामना करने में जिन्दगी बिताता रहेगा। यदि एक वार उसको उस धन का पता लग जाय तो मन में आत्म−विश्वास जागृत होगा। सघनता का, समृद्धि का यह विश्वास और सहारा उसके जीवन के दृष्टिकोण को ही बदल देगा। ईश्वर उस गढ़े हुए धन की तरह है। उसके सान्निध्य का अनुभव आदमी की जिन्दगी की दिशा ही बदल देता है।

मित्र माँ की तरह होता है। बालक के सामने से माता ओझल हुई तो वह सशंक, भयभीत नजर से इधर−उधर देखता है परन्तु माता के नजदीक होने का विश्वास मन में आते ही वह प्रसन्नता से खिलता है, स्वयं को सुरक्षित अनुभव करने लगता है। जिसने ईश्वर को साथी माना वह इसी विश्वास से चलता रहता है। उसमें साहस जागृत होता है, फिर विजयश्री कैसे दूर रह सकेगी ‘साहसे श्रीः प्रतिवसति।’

जो ईश्वर को भूलता है उसे हमेशा अकेलापन अनुभव होता है। जिन्दगी का सारा बोझ अपने ही कन्धे पर उठाकर थकावट आने लगती है, साहस जवाब देने लगता है। आशा और विश्वास क्षीण होने लगते हैं और आपत्तियाँ सामने आने पर भय और आशंकाओं से पैर लड़खड़ाने लगते हैं। ऐसी अवस्था में भी यदि उसने अनन्य भाव से ईश्वर को पुकारा तो वह निरपेक्ष मित्र सहायता के लिये जा पहुँचता है। तो फिर क्यों न अर्जुन की तरह अपने उस परम मित्र और हित चिन्तक के हाथ में अपने जीवन रथ की बागडोर दी जाये?

ईश्वर को साथी बनाने में अनन्त लाभ हैं। अपना बल साधन यदि कम पड़ने लगें तो अपने साथ अनन्त शक्तियां एवँ साधनों का भण्डार है, यह विश्वास बड़ा ही प्रेरणादायक होता है। इससे उमंग और उत्साह बढ़ जाते हैं और निराशा का कभी अनुभव ही नहीं होता। ईश्वर को अपना चिरसाथी मानने से दुर्धर परिस्थितियों में भी मन डगमगाता नहीं। इसकी साक्षात् प्रतीति मीरा के जीवन में मिलती हैं। राणा ने इतना विरोध किया, विष का प्याला भी दिया तो भी मीरा जरा भी विचलित नहीं हुई।

जीवन एक संग्राम है और विगत−ज्वर होकर ही उसका डटकर सामना करना पड़ता है। यह भावना तभी दृढ़ होती है जब ईश्वर की मित्रता का मन में विश्वास होता है। फिर थकावट नहीं लगती और मन को विश्राम मिलता है। रेलगाड़ी में स्थान सुरक्षित करने पर सफर में विश्राम किया तो भी मञ्जिल पर पहुँचने का अटल भरोसा रहता है क्योंकि चलाने वाले की कुशलता तथा सम्पूर्ण सहयोग पर अपना दृढ़ विश्वास रहता है। परन्तु स्वयं अपने पर ही सब जिम्मेवारी लेकर, अपनी ही कार में अकेला बैठकर पूरा बोझ उठाया तो थकावट आने लगती हैं और ‘कोई कुशल साथी होता तो कितना अच्छा होता’ यह विचार वार−बार मन में आता है।

ईश्वर को अपना निकटतम साथी बनाने में एक और लाभ है। कभी रास्ता भूलकर भटक जाने का सवाल ही नहीं उठता। जिसे कोई बताने वाला ही नहीं होता या हो भी तो बताने वाले की बात पर विश्वास नहीं होता वही भटक सकता है। योग्यायोग्य विवेक के रूप में अपने अंतरात्मा में सदैव निवास करने वाला यह निजी दोस्त हमेशा प्रेरणा देता रहता है और “यतो देवस्ततो जयः।”

जो ईश्वर को साक्षी मानकर अच्छे बुरे का विवेक करता है वह निर्भय बनता है। डर उसके पास भी नहीं आता। उसे इस बात का पता होता है कि यह संसार एक पुण्य उपवन है। यहाँ तो सर्वत्र आनन्द ही आनन्द भरा है। महाराष्ट्र के पुण्य पावन तीर्थ स्थान पढरपुर में विट्ठल की मूर्ति कमर पर दोनों हाथ रख कर खड़ी हैं। इसका मतलब बताते हुए तुकाराम महाराज कहते हैं कि ईश्वर यह विश्वास दे रहा है−‘जो उस पर दृढ़ श्रद्धा रखेगा और उसको अपना परम साथी मानेगा उसके लिये यह भवसागर केवल कमर तक ही गहरा हैं। उसको डरने का कोई कारण नहीं।

इतनी दृढ़ श्रद्धा रखने वाला सुख और दुख दोनों में अपना सन्तुलन बनाये रखता है यह ईश्वर की मित्रता का एक और लाभ है। जिस तरह पूर्व दिशा सूरज उगते समय तथा डूबने के समय भी लाल दिखती है उसी तरह सुख−दुख में, जय−पराजय में, आशा−निराशा में ईश्वर का स्नेही एकरूप ही रहता है। उसकी हिम्मत कभी हारती ही नहीं।

ईश्वर को कोई मित्र माने या न माने वह तो सबके प्रति स्नेह की भावना रखना है। वह हारे की हिम्मत है, टूटे, की ताकत है, बिगड़े हुए का श्रृंगार है और पापी की पुकार भी है। रोने वाले के आँसू भी वही है और गाने वाले की तान भी वही हैं। ऐसे महान को अपना परम मित्र मानकर, सूर्य की किरणों की तरह वह अपने जीवन में पूर्णतया छाया हैं, इस अनुभूति का आनन्द लेने से ही उसका पता लग सकता है।

ईश्वर की उपेक्षा करने से, जीवन की सन्ध्या से ‘बार−बार तू आया, पर मैंने पहचान न पाया’ ऐसे उद्गार निकालने से बचना हो तो इस मित्र को अपनाने में ही बुद्धिमत्ता है। उसका मित्रता का हाथ हमेशा ही आगे हैं उस हाथ में अपना हाथ दिया तो यश और श्री के होने में तिल मात्र भी सन्देह कैसा? स्वर्ग−मुक्ति का परम लाभ भी इसी समर्पण वृत्ति के साथ ही जुड़ा हुआ हैं।

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