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Magazine - Year 1975 - Version 2

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जीवात्मा की सत्ता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण

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जीवात्मा आखिर है क्या? उसका लक्षण, स्वरूप, स्वभाव और लक्ष्य क्या है? इस प्रश्न पर विज्ञान अपने बचपन में विरोधी था, वह कहता था जड़ तत्वों के−अमुक रसायनों के−एक विशेष संयोग सम्मिश्रण का नाम ही जीव है। उसकी सत्ता वनस्पति वर्ग की है। अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य भी एक चलता−फिरता पेड़ हैं। रासायनिक संयोग उसे जन्म देते, बढ़ाते और बिगाड़ देते हैं। ग्रामोफोन के रिकार्डों पर सुई का संयोग होने से आवाज निकलती है और वह संयोग−वियोग में बदलते ही ध्वनि प्रवाह बन्द हो जाता है। जीव अमुक रसायनों के अमुक मात्रा में मिलने से उत्पन्न होता है और वियोग होते ही उसकी सत्ता समाप्त हो जाती हैं। अणु अमर हो सकते हैं, पर शरीर ही नहीं, उसकी विशेष स्थिति चेतना भी मरणधर्मा है।

यही था वह प्रतिपादन जो चार्वाक मुनि के शब्दों को विज्ञान दुहराता रहा। उसकी दलील यही थी−‘भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमने कुतः’ शरीर नष्ट होने पर आत्मा भी नष्ट हो जाती है। इस मान्यता का निष्कर्ष यही निकला कि जब शरीर के साथ ही अस्तित्व−नष्ट होते हैं तो परलोक का भय क्या करना? जितना सुख−जिस प्रकार भी सम्भव हो लूट लेना चाहिए इसी में जीवन की सार्थकता है। नास्तिकवाद ने जन−साधारण को यही सिखाया−‘यावज्जीवेत सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्’ जब तक जियो सुख से जियो−कर्ज लेकर भी घी पियो। चूँकि अब घी हजम नहीं होता और वह तथाकथित सभ्यता का चिह्न भी नहीं है इसलिए आधुनिक चार्वाकों ने “कुकर्भ करके धन कमाओ−नशा पियो और मजा उड़ाओ” के सूत्र रच दिये। इन दिनों जन−मानस इसी प्रेरणा का अनुगमन कर रहा है।

बचपन से आगे बढ़कर विज्ञान जब किशोरावस्था में पहुँचा तो उसने जीव को एक स्वतन्त्र चेतना के रूप में मानना स्वीकार किया। मनः शक्ति को मान्यता दी गई। आरम्भिक दिनों में जीवाणु ही शरीर और मन का आधार था। पीछे माना गया मनःचेतना की अपनी सत्ता है वह अपने अनुकूल जीवाणुओं पर सवारी गाँठती है। उन्हें अपनी इच्छा आवश्यकतानुसार ढालती है। मरणोत्तर स्थित में भी उसकी सत्ता बनी रहती हैं। इतने पर भी उसे बिजली, चुम्बक, ताप, प्रकाश, शब्द स्तर की एक भौतिक अदृश्य शक्ति ही माना गया। अब इस युग से विज्ञान आगे बढ़ रहा है उसकी प्रौढ़ता समीप है और थोड़ी हिचकिचाहट के साथ उसकी तैयारी इसी दिशा में कदम बढ़ाने की है कि जीवन को अणु निर्मित भौतिक जगत की तरह, चेतना जगत को स्वतन्त्र सत्ता का एक घटक मान लिया जाय। यह मान्यता लगभग उसी प्रकार की होगी जैसी कि अध्यात्म के क्षेत्र में जीव के स्वरूप लक्षण एवं गुण के सम्बन्ध में व्याख्या की जाती रही हैं।

आशा की जानी चाहिए कि विज्ञान जब अपनी अधेड़ परिपक्वावस्था में पहुँचेगा तो उसे जीवन के लक्ष्य एवं विकास का वह स्वरूप भी मान्य हो सकेगा जो आत्मा को परमात्मा स्तर का बनाने के लिए योग और तप का अवलम्बन लेने के लिए तत्वदर्शियों ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि के आधार पर कहा बताया था। विज्ञान की पदयात्रा क्रमशः नास्तिकता से आस्तिकता की ओर बढ़ रही है और प्रत्यक्ष है।

पदार्थ को शक्ति के रूप में अब मान्यता मिल चुकी है और यह विज्ञान के प्रारम्भिक विद्यार्थियों को तो नहीं पर मूर्धन्य स्तर पर यह स्वीकार्य है कि यह विश्व एक शक्ति सागर भर है। शक्ति की दो धाराएँ मानी जाती रही हैं उसी परम्परा के अनुसार एक को भौतिक और दूसरी को प्राणिज माना गया है। दोनों आपस में पूरी तरह गुँथी हुई है इसलिए जड़ में चेतन का और चेतन में जड़ का आभास होता है। वस्तुतः वे दोनों ज्वार−भाटे की तरह लहरों के मूल और ऊर्ध्व में निचाई−ऊँचाई का अन्तर दीखने की तरह है और एक अविच्छिन्न युग्म बनाती हैं। यद्यपि उन दोनों की व्याख्या अलग−अलग रूपों में भी की जा सकती है और उनके गुण, धर्म पृथक बताये जा सकते हैं। एक को जड़ दूसरी को चेतन कहा जा सकता है। इसी विभेद की चर्चा अध्यात्म ग्रन्थों में परा और अपरा प्रकृति के रूप में मिलती हैं।

मस्तिष्कीय विद्या के−मनोविज्ञान के आचार्य−न्यूरोलॉजी, मैटाफिजिक्स, साइकोलॉजी आदि के संदर्भ में मस्तिष्कीय कोशों और केन्द्रों की दिलचस्प चर्चा करते हैं। उनकी दृष्टि में वे कोश ही अपने आप में पूर्ण हैं। यदि यही ठीक होता तो मृत्यु के उपरान्त भी उन कोशों की क्षमता उसी रूप में या अन्य किसी रूप में बनी रहनी चाहिए थी। पर वैसा होता नहीं। इससे प्रकट है कि इन कोशों में मनः तत्व भरा हुआ है जीवित अवस्था में वह इन कोशों के साथ अतीव सघनता के साथ घुला रहता है। जब इन दोनों का अलगाव हो जाता है तो उस मृत्यु की स्थिति में मस्तिष्क के चमत्कारी कोश सड़ी−गली श्लेष्मा भर बनकर रह जाते हैं।

मनः शास्त्र के यशस्वी शोधकर्ता कार्ल गुस्तायजुँग ने लिखा है−मनुष्य के चेतन और अचेतन के बीच की शृंखला बहुत दुर्बल हो गई हैं। यदि दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित किया जा सके तो प्रतीत होगा व्यक्ति की परिधि छोटे से शरीर तक सीमित नहीं है वरन् वह अत्यधिक विस्तृत हैं। हम हवा के सुविस्तृत आयाम में साँस लेते और छोड़ते हैं उसी प्रकार विश्व−व्यापी चेतन और अचेतन की संयुक्त सत्ता के समुद्र में ही हम अपना व्यक्तित्व पानी के बुलबुले की तरह बनाते, बिगाड़ते रहते हैं। जैसे हमारी अपनी कुछ रुचियाँ, प्रवृत्तियाँ और आकाँक्षाएँ हैं, उसी प्रकार विश्व−व्यापी चेतना ही धाराएँ भी किन्हीं उद्देश्य पूर्ण दिशाओं में प्रवाहित हो रही हैं।

गैरल्ड हार्ड ने आइसोटोप ट्रेसर्स के सम्बन्ध में हुए नवीनतम शोधकार्य की चर्चा करते हुए कहा है कि जीव विज्ञान अब हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचाता है कि शरीर की कोशिकाओं और परमाणुओं पर मनःशक्ति का असाधारण नियन्त्रण है। चेतन और अचेतन रूप में जिन दो धाराओं की विवेचना की जाती हैं वस्तुतः वे दोनों मिलकर एक पूर्ण मनःशक्ति का निर्माण करती हैं। यह मनः चेतना सहज ही नहीं मरती वरन् एक ओर तो वंशानुक्रम विधि के अनुसार गतिशील रहती है दूसरी ओर मरणोत्तर जीवन के साथ होने वाले परिवर्तनों के रूप में उसका अस्तित्व अग्रगामी होता है। मनःचेतना का पूर्ण मरण पिछले दिनों सम्भव माना जाता रहा हैं जब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचने ही वाले है कि चेतना अमर है और उसका पूर्ण विनाश उसी तरह सम्भव नहीं जिस प्रकार कि परमाणुओं से बने पदार्थों का।

भौतिक विज्ञान के नोबुल पुरस्कार विजेता श्री पियरे दि कास्ते टु नाऊ ने विज्ञान और व्यक्ति के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए लिखा है− अब हमें यह मानने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि मनुष्य में अपनी ऐसी चेतना का अस्तित्व मौजूद है जिससे आत्मा कहा जा सके। यह आत्मा विश्वात्मा के साथ पूरी तरह सम्बद्ध है। उसे पोषण इस विश्वात्मा से ही मिलता है। चूँकि विश्व अमर ही होना चाहिए।

‘ह्यूमन डेस्टिनी’ ग्रन्थ के लेखक ‘लेकोस्ते टू नाउं ने जीव सत्ता की स्वतन्त्र व्याख्या अगले कुछ ही दिनों में प्रचलित विज्ञान मान्यताओं के आधार पर ही की जा सकने की सम्भावना व्यक्त की है और कहा है कि हम इस दिशा में क्रमशः अधिक द्रुतगति से बढ़ रहे हैं।

प्राणि का ‘अहम्’ उसके स्वतंत्र अस्तित्व का सृजन करता है और जब तक वह बना रहता है तब तक उसकी अन्तिम मृत्यु नहीं हो सकती। स्वरूप एवं स्थिति का परिवर्तन होता रह सकता है। इस अहम् ईगो−सत्ता व स्वरूप निर्धारण अब इलेक्ट्रो डाइनैमिक सिद्धान्तों के अन्तर्गत प्रमाणित किया जाने लगा है। इस व्याख्या के अनुसार यह मानने में कठिनाई नहीं होती कि जीव सत्ता जन्म−मरण के चक्र में घूमती हुई भी अपनी आकृति−प्रकृति में हेर−फेर करती रहकर भी−अपनी मूल सत्ता का अक्षुण्ण बना रह सकती है।

‘दि सूट्स आफ कोईसिडेनस’ ग्रन्थ के लेखक में मनीषी आर्थर कोइंसिडेनस ने जीव सत्ता के आयाम स्वीकार किया है और कहा है कि प्राणी की सत्ता विशेषता को सर्वथा आणविक या रासायनिक नहीं ठहराया जा सकता।

‘यू डू टेक इट विद यू’ के लेखक भी डिविट मिलर इस बात से सहमत है कि मस्तिष्कीय कोशों को प्रभावित करने वाली एक अतिरिक्त चेतना का उसी क्षेत्र में घुला मिला किन्तु स्वतन्त्र अस्तित्व है।

मृत्यु के उपरांत प्राणी की चेतना शक्ति उसी प्रकार बची रह सकती हैं जैसे कि अणु गुच्छक एक पदार्थ से टूट बिखर कर किसी अन्य रूप में परिणत होते रहते हैं। शक्ति के समुद्र इस विश्व में प्राणियों की सत्ता बुलबुलों की तरह अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाती है− विकसित करती है और समयानुसार अपने मल उद्गम में लीन हो जाती है। जड़−चेतन मिश्रित इस शक्ति सागर को कहा जा सकता है। यदि इन्हें अलग से कहना आवश्यक हो तो एक को ‘प्रकृति’ और दूसरे को ‘पुरुष’ कह सकते हैं।

अपने समय में मूर्धन्य खगोलवेत्ता डा0 गुस्ताफस्ट्रोम वर्ग की पुस्तक ‘दि सोल आफ युनिवर्स’ में जीवन क्या है? विशेषतया मनुष्य क्या है? इस प्रश्न पर प्रस्तुत वैज्ञानिक दृष्टिकोण की मार्मिक समीक्षा की है। वे विज्ञान से पूछते हैं−क्या मनुष्य ब्रह्माण्ड की कुछ धूलि का ताप और रासायनिक घटकों की औंधी−सीधी क्रिया−प्रक्रिया मात्र है? क्या वह प्रकृति की किसी अनिच्छित क्रिया के अवशेष उच्छिष्ट से बना खिलौना मात्र है? क्या मानव जीवन वस्तुतः लक्ष्य हीन, अर्थहीन बेतुका राग मात्र है? क्या उसकी सत्ता आणविक और रासायनिक हलचलों के बनने बिगड़ने वाले संयोगों की परिधि तक ही सीमित है? अथवा वह इससे आगे भी कुछ है?

इस प्रश्नों के सही उत्तर प्राप्त करने के लिए स्ट्रोमवर्ग ने तत्कालीन विज्ञान की दार्शनिक विवेचना करने वाले मनीषियों से भी परामर्श किया। उन्होंने इस सम्बन्ध में एफ॰ आर॰ मोस्टन, वास्टर आडम्स, आर्थर एडिंगटन, थामस हैट मार्गन, जान वूदिन, कारेलहूजर, ओ॰ एल॰ स्पोसलर आदि प्रख्यात मनीषियों के सामने अपना अंतर्द्वंद्व रखा और जानना चाहा कि विज्ञान सम्मत दर्शन द्वारा क्या मानव चेतना की इतनी ही व्याख्या हो सकती है जितनी कि वह अब तक की गई हैं। अथवा उससे आगे भी कुछ सोचा जा सकता है।

अपनी जिज्ञासा, दृष्टि, कठिनाई, समीक्षा और विवेचना का एक विचारणीय स्वरूप स्ट्रोमवर्ग, के ‘दि सोल आफ’ ग्रन्थ में हैं। इस पुस्तिका की भूमिका लिखते हुए आइन्स्टीन ने प्रस्तुत जिज्ञासा को युग चिन्तकों के सामने अति महत्वपूर्ण चुनौती माना है और कहा है हमें किन्हीं पूर्वाग्रहों से प्रभावित हुए बिना सम्भावित सत्य के आधार पर ही इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए।

फ्रायड ने प्रेरणाओं का प्रधान स्रोत ‘काम’ को माना था और उसकी व्याख्या ‘सेक्स’ के रूप में की थी। इसके बाद उन्होंने अपने ही जीवन में उसे यौन लिप्सा से आगे बढ़ाकर कामना इच्छा तथा वासना तक पहुँचा दिया। इसके बाद जुँग और एडलर ने उसे काम वृत्ति की व्याख्या कामाध्यात्म के रूप में की और उसे आनन्द, उल्लास की सहज सुलभ प्रवृत्ति के साथ जोड़ दिया।

जुँग का कथन है कि आत्मा की अमरता को यद्यपि अभी भी प्रयोगशालाओं में सिद्ध नहीं किया जा सका फिर भी ऐसी अगणित अनुभूतियाँ मौजूद हैं जो यह बताती हैं कि आदमी मरणधर्मा नहीं है वह मौत के बाद भी जीवित रहता है।

मनः शास्त्र का विकास क्रमिक गति से आगे बढ़ा है। आरम्भ में विज्ञान ने एक जागृत चेतन मन ही स्वीकार था। पीछे अचेतन मन की खोज की गई। इस अचेतन की भी कई शाखा प्रशाखा खोजी गई। सब कान्शस− अर्ध चेतन और रैशियल अनकान्शन−जातीय अचेतन, इसकी प्रमुख धाराएँ इन दिनों सर्वविदित हैं। फ्राइड की कल्पना पर सुपरईगो− उच्चतर अहं और सेन्सर−अंकुश तथ्य छाये रहे। उन्होंने इसी परिधि में मनः शास्त्र की संरचना की हैं। तब से अब तक पानी बहुत आगे बह गया और मनोविज्ञान ने कितने ही नये−नये रहस्यों का उद्घाटन किया है।

जर्मनी के मनः शास्त्री हेन्सावेन्डर ने अतीन्द्रिय क्षमता के अनेकों प्रमाण संग्रह करके यह सिद्ध किया है कि मनुष्य की सूक्ष्म सत्ता उससे कहीं अधिक सम्भावनाओं से भरी पूरी है जैसी कि अब तक जानी जा सकी हैं। टेलीपैथी के शोधकर्ता रेने वार्कोंलियर ने मनःचेतना को ज्ञात भौतिकी से ऊपर वाले सिद्धान्तों पर आधारित बताया हैं। वे कहते हैं−“मन की व्याख्या पदार्थ विज्ञान के प्रचलित सिद्धान्तों के सहारे नहीं हो सकती।”

विश्व विख्यात लेखक एस॰ जी0 वेल्स ने अपनी पुस्तक “ इन दि डेज आफ दि क्रामेट” में यह सम्भावना व्यक्त की है कि निकट भविष्य में मनुष्य का मन और दृष्टिकोण अधिकाधिक परिष्कृत होता चला जायगा। तब मनुष्य में सहृदयता, सहयोग−भावना तथा दूरदर्शिता बढ़ती जायगी। फलस्वरूप समाज का ढाँचा और मानवी आचार इतना उपयोगी बन जायगा जिसे अब की अपेक्षा काया−कल्प जैसा कहा जा सके। तब कोई युद्ध का समर्थन न करेगा और चिंतन की दिशा सहयोग पूर्वक शान्ति एवं प्रगति के लिए प्रयुक्त हो सकने वाले आधारों को ढूँढ़ने के लिए प्रयुक्त होगी।

शंकराचार्य कहते थे स्व और पर का भेद भ्रान्ति हैं। हम सब भिन्न दीखते भर है वस्तुतः सब एकता के सघन सूत्र में पिरोये हुए मनकों की तरह हैं। ‘ईसा कहते थे−अपने पड़ौसी को प्यार करो ताकि तुम्हारा विकसित प्यार तुम्हें निहाल कर दे।’ बुद्ध ने कहा था−‘करुणा से बढ़ कर मनुष्य के पास और कोई दिव्य सम्पदा नहीं। जो ममता और करुणा से भरा है वही दिव्य हैं।’

जीव चेतना का लक्ष्य और विकास क्रम का पूर्णत्व इसी स्तर पर विज्ञान को भी पहुँचा देगा जो ऋषियों और तत्वदर्शियों ने बताया था। यदि विज्ञान का उद्देश्य सत्य की खोज हैं तो उसे आत्मा की वर्तमान स्वीकृति को परमात्मा स्तर प्राप्त करने तक भी पहुँचना होगा। इसके लिए कल न सही परसों की प्रतीक्षा की जा सकती हैं।

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