
भारतीय संस्कृति अनन्त काल तक अक्षुण्ण बनी रहेगी
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“मानव की विविध साधनाओं की सर्वोत्तम परिणति का नाम संस्कृति है।” यह परिभाषा में संस्कृत मानव जाति की उच्चतम उपलब्धियों एवं विचारधाराओं का समवेत रूप है। किसी देश की संस्कृति का प्राण वहाँ की धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक तथा साहित्यिक उपलब्धियाँ होती हैं।
परन्तु वर्तमान युग में संस्कृति और सभ्यता पर्यायवाची से प्रतीत होते हैं। अज्ञान के कारण हमने सभ्यता के विकास को ही संस्कृति मान लिया है। रहन−सहन, वेष−भूषा, खान−पान, वैज्ञानिक विकास सभ्यता के अंतर्गत के। मनुष्य का सम्पूर्ण बाह्य विकास सभ्यता है और अन्तरंग विकास संस्कृति हैं।
हम आज सभ्यता के लिए निर्धारित माप दण्ड से भले ही विदेशियों से पीछे हों परन्तु सैकड़ों वर्षों की पराधीनता के बाद भी हमारी संस्कृति जीवित है। इसके लिए हमें गर्व है, जबकि समकक्ष ही पनपने वाली यूनान, रोम, मिश्र की संस्कृति केवल इतिहास के पृष्ठों की ही बात रह गई हैं।
भारतीय संस्कृति की मूल विशेषता है−‘अनेकत्व में एकत्व की भावना।’ सारे देश के प्राणी, चाहे वे किसी भी कोने में क्यों न रहते हों, यह अनुभव करने को बाध्य है कि हम सब भाई−भाई है। अध्यात्म का मधु ‘अनेकता से एकता की ओर’ हमने अपनी माँ के दूध के साथ ही पान किया है। उनके सम्प्रदाय, धार्मिक अनुष्ठान, तथा उपासना पद्धति बाह्य रूप में भले ही भिन्न दिखाई देती हो, परन्तु उसका मूल रूप तो ऋग्वेद की वाणी में छिपा है, “एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।”
भारतीय संस्कृति धर्म से अनुप्राणित है। धार्मिक सहिष्णुता की व्यापकता के कारण हमने विचार स्वतन्त्रता का पूरा सम्मान किया है। विभिन्न दर्शनों और मतों की बातें बड़ी श्रद्धा से सुनी है। धर्म रूपी देवता की तुष्टि के लिए यहाँ सदैव अमृत की धारा बही है, रक्त की नदियाँ नहीं।
पाश्चात्य देशों में धर्म के नाम पर बड़ा अत्याचार हुआ है। कैथोलिक और प्रोटेस्टेण्टों ने एक दूसरे से दिल खोल कर बदला लिया है। एक ने अकारण ही दूसरे धर्मावलम्बियों को अग्नि में जीवित जलवा दिया है। हमारे देश में धर्म के नाम पर जो अन्याय और अत्याचार हुए वे सब यवन संस्कृति की दैन है।
वह कौन सी प्रेरणा है जिसके वशीभूत होकर पर्व और उत्सव के अवसर पर आज भी लाखों की संख्या में व्यक्ति किसी विशेष तालाब, नदी या समुद्र के किनारे इकट्ठे होते हैं और उसमें गोता लगाकर सुख और शान्ति का अनुभव करते हैं? हरिद्वार, उज्जैन, नासिक और प्रयागराज के अर्द्धकुम्भ और पूर्ण कुम्भ की झाँकी देखते ही बनती है। त्रिवेणी में मृत्यु के बाद किया जाने वाला विसर्जन इसी भावनात्मक एकता का द्योतक है कि यदि हम जीवन में कभी न मिल पाये हों मृत्यु के बाद हमारी अस्थियों का सम्मेलन तो एक जगह हो ही जाना चाहिए। पुरातन विचारधारा की जीवन भर भर्त्सना करने वाले पं0 जवाहरलाल नेहरू ने भी यह कामना व्यक्त की थी कि मृत्यु के बाद मेरी अस्थियों का विसर्जन त्रिवेणी में हों।
अथर्ववेद के पृथ्वी सूत्र में कहा गया है “यह भूमि मेरी माँ है और मैं इसका पुत्र हूँ।” ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।’ यद्यपि इसमें बसने वालों की विभिन्न भाषाएँ हैं, अनेक रीति−रिवाज है, अनेक प्रकार की वेश−भूषा है, तथापि “जनं विभ्रती बहुधा विवाचसं, नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसमू” के आधार पर भिन्नताएँ होते हुए भी पृथ्वी उन्हें स्वीकार करती है। तुम्हारी ही गोद का आश्रय पाकर हमारे पूर्वजों ने अनेक विक्रम के कार्य किये हैं− “यस्याँ पूर्वे पूर्वजना विचक्रिरे” और उनके पराक्रम के कार्य ही हमारा इतिहास है। यह पृथ्वी, पर्वत, मैदा, पठार, अरण्य बन, उपवन और नदियों का लाव मात्र नहीं हैं वरन् वह हमारी जन्मदात्री माता की तरह स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है−‘जननी जन्मभूमिश्य स्वर्गादपि नरीयसी।’ यहाँ की पवित्र जल धाराओं और हिम−शिखरों ने हमारी सीमा को नहीं बाँध रखा है। गंगोत्री तथा यमुनोत्री का जल कन्धे पर लेकर पैदल चलता हुआ कोई तीर्थ−यात्री जब रामेश्वरम् पहुँचता है, उसकी श्रद्धा तथा भक्ति का मूल्याँकन नहीं किया जा सकता है। भौगोलिक सीमाएँ हमारी साँस्कृतिक एकता को विच्छिन्न करने में असमर्थ है।
हमारी संस्कृति की एक अन्य विशेषता व्यैक्तिक जीवन के कल्याण हेतु “आश्रम चतुष्टय” ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास तथा सामाजिक सुख−शान्ति हेतु ‘वर्ग चतुष्टय’ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र हैं। इन चारों वर्णों का निर्माण गुण और कर्म के आधार पर हुआ था। गीता में भगवान कृष्ण की वाणी ‘चातुर्वण्यं मया सृष्टम् गुण, कर्म विभागशः’ इस सत्य का प्रतिपादन करती है। परन्तु कालान्तर में वर्ण व्यवस्था जन्म के आधार पर चलने लगी और जब बढ़ते−बढ़ते इस जातिवाद के विषधर ने हमारा सारा जीवन अस्त−व्यस्त एवं संघर्षमय बना दिया है।
जीवन लक्ष्य की सिद्धि के लिए भी जो चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष निश्चित किये गये थे उनमें धर्म का स्थान सबसे पहले रखा गया था। यदि इसे एक वृक्ष मान लिया जाये तो हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि इसी जड़ धर्म है तथा अन्तिम ‘मोक्ष’ फल है। अर्थ, काम तो तना तथा शाखाओं की तरह है। वृक्ष में तने तथा शाखाओं के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है परन्तु जड़ और फल के बिना तो सब कुछ व्यर्थ है। अतः भारतीय संस्कृति में पहले धर्म और अन्त में मोक्ष को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है ‘अर्थ’ तथा ‘काम’ को गौण। परन्तु अब जीवन में ‘अर्थ’ को प्रधान स्थान मिल गया है। धर्म की बातें पालन करने के संदर्भ में कहने मात्र को शेष रह गई है। अर्थ के पीछे धार्मिक सिद्धान्तों की हत्या करने में अब कोई दोष नहीं माना जाता है।
प्राचीन वैदिक साहित्य में विभिन्न शक्तियों की अर्चना देवताओं के रूप में की गई है। उनके अनुग्रह पर जीवन को सुखमय बनाने का प्रयास ही तो ‘ऋचाओं’ के रूप में अभिव्यक्त है। वह साहित्य हजारों वर्ष पूर्व लिखा गया था, अतः वर्तमान मान्यताओं के माप−दण्ड से उनको नापना सर्वथा अनुचित है। वैदिक ऋचाओं पर भी चिन्तन होता रहा और कालान्तर में ‘यज्ञ कर्म’ से ही इहलोक तथा परलोक में सुख मिलने वाली बात का ‘दर्शन−ग्रन्थ’ तथा उपनिषदों में जोरदार खण्डन हुआ। चिन्तन की प्रधानता बढ़ी ज्ञान सर्वोपरि स्वीकार किया गया।
भगवान शंकराचार्य द्वारा देश की चारों दिशाओं बद्रीनाथ, रामेश्वरम् पुरी और द्वारिका में मठों का स्थापन बड़ा ही महत्वपूर्ण एवं स्तुत्य प्रयास कहा जायेगा क्योंकि इन पाद−पीठों की स्थापना में उनका एक ही उद्देश्य था ‘भारतीय संस्कृति की भावनात्मक एकता सदैव अक्षुण्ण रहे।’
जीवन निर्माण के लिए ‘षोडश संस्कार की परम्परा’ भी भारतीय संस्कृति के महत्वपूर्ण सिद्धान्तों में से एक है। जिस प्रकार खान से निकले हुए कच्चे लोहे, ताँबे, सोने, चाँदी आदि धातुओं को उपयोगी बनाने के लिए उनके अनेक प्रकार के संस्कार किये जाते हैं, उसी प्रकार पशुतुल्य मानव जीवन को भी संस्कारों की भट्टी में तपाना अत्यावश्यक है। अतः जन्म के पूर्व होने वाले ‘पुँसवन संस्कार’ से लेकर “अंत्येष्टि” तक सोलह संस्कारों की व्यवस्था भारतीय संस्कृति की ही दैन है, इस बात को स्वीकार करने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
‘कर्मों का फल आज नहीं तो कल भोगना ही पड़ेगा’ इस प्रतिपादन ने जहाँ एक ओर जन साधारण को बुरे कर्म करने से रोका। वहाँ उच्छृंखलता भी बढ़ी।
आज देश का मानचित्र ही कुछ दूसरा होता। अनेकता में एकता वसुधैव कुटुम्बकम् का उद्घोष, उदारता, गुण ग्राहकता, संशिलष्टता, वर्ग चतुष्टय, आश्रम चतुष्टय तथा पुरुषार्थ चतुष्टय के सिद्धान्त, संस्कारों की परम्परा, कर्मफल का सिद्धान्त, भारतीय संस्कृति के वे मूलाधार है जो कि हजारों वर्षों के बाद भी नाना प्रकार के घात प्रतिघातों को सहते हुए भी इसे जीवन्त बनाये रखने में सक्षम है।