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Magazine - Year 1975 - Version 2

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मनुष्य न तो सर्वोपरि है और न सर्वशक्तिमान

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मनुष्य अपने को सब बातों में अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ और विकसित मानता है यह उसकी अहंमन्यता एक सीमा तक ही सही है। उसका मस्तिष्क अधिक विकसित है इसलिए वह अनेक दिशा में पक्ष विपक्ष की बाते सोच सकता है और अनेक स्तर के निष्कर्ष निकाल सकता है। उसे हँसने की, बोलने की, लिखने-पढ़ने की विशेषतायें भी मिली हैं। कृषि, पशु-पालन, शिल्प, व्यवसाय, संचार जैसे साधन उसने सीखे और विकसित किये हैं। विज्ञान क्षेत्र, अर्थ क्षेत्र, युद्ध क्षेत्र आदि में उसकी उपलब्धियाँ निस्सन्देह अन्य प्राणियों से अधिक है। किन्तु उसका यह दावा करना गलत है कि सभी बातों में वह बढ़ा-चढ़ा है।

छोटे-छोटे जीवन जिन्हें आमतौर से तुच्छ और नगण्य समझा जाता है अपनी विशेषताओं के क्षेत्र में मनुष्य से कहीं आगे है।

मनुष्यों को गर्व हो सकता है कि वे दुनिया भर में छाये हुए हैं और उनकी संख्या 400 करोड़ है। इस अहंकार को टिड्डी दल चुनौती दे सकता है और कह सकता है कि हमारी संख्या एवं शक्ति अधिक है, जिसका सामना तुम मनुष्यों की बुद्धि और सामर्थ्य नहीं कर सकती।

टिड्डी दल छोटे भी होते हैं और बड़े भी। औसतन प्रत्येक दल का वजन 80000 टन होता है। एक वर्ग किलो मीटर क्षेत्र में उनकी संख्या 8 करोड़ 30 लाख कूती गई है जिनका वजन 407 मीट्रिक टन बैठेगा। रेगिस्तानी टिड्डियाँ जब धावा बोलती है तो प्रायः 1 करोड़ 10 लाख वर्ग मील क्षेत्र को प्रभावित करती है। जिसमें भारत ही नहीं दूसरे देश भी चपेट में आते हैं। ये दल बहुल लम्बी उड़ानें उड़ते हैं। तुर्की से तंज़ानिया तक उनकी उड़ानें देखी गई हैं।

सन् 1654 में एक टिड्डी दल ने मोरक्को की लगभग 8 करोड़ की फसल चट कर ली थी। सन् 1658 में इथोपिया का 1,67000 टन अनाज व साफ कर गई थीं। पिछली दशाब्दी में ईरान, पाकिस्तान, भारत और अरब देशों की टिड्डियों ने भारी क्षति पहुँचाई हैं। सन् 1652 में भारत में सबसे बड़ा टिड्डी दल आया था उसने 45150 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में तहलका मचा दिया था। जब भी वे आती हैं करोड़ों रुपयों की फसल नष्ट कर देती हैं। सन् 1642 में जो टिड्डी दल अरब में उत्पन्न हुआ था। उसने पूरे 15 वर्ष तक समीपवर्ती देशों पर तबाही बरसाई। टिड्डी पीड़ित 20 देशों ने अपनी एक संगठन डैजर्ट लोकस्ट कन्ट्रोल कमेटी बनाई। टिड्डी विशेषज्ञ ओ0 वी0 लीन के नेतृत्व में इन शत्रुओं से बचाव के उपाय खोजे और कार्यान्वित किये गये किन्तु बहुत हाथ पैर पीटने पर भी कहने लायक सफलता नहीं मिली। इन देशों का संग्रह किया हुआ चंदा 13 लाख 73 हजार डालर और अमेरिका का दिया अनुदान 40 लाख डालर ऐसे ही रसायन छिड़कने 60000 वर्ग मील का हवाई दौरा करने और तरह-तरह के उपाय खोजने सोचने में बर्बाद हो गया। जार्ज पोपोफ की टिड्डी शोध के अनुसार मादा टिड्डी एक बार में 120 अंडे देती है। उनमें से दो सप्ताह में बच्चे निकल आते हैं। जब मादायें प्रजनन पर उतरती हैं तो एक वर्ग फुट जमीन में 5000 तक अण्डे दे जाती हैं। बच्चे आरम्भ में ही 2 से 10 मील तक की प्रतिदिन उड़ान उड़ लेते हैं। जवान होने पर तो उनकी उड़ानें कई गुनी तेज हो जाती हैं क्या मनुष्य इन सब क्षमताओं से अपनी क्षमता अधिक होने का दावा कर सकता है। क्या इन बातों से मनुष्य जाति टिड्डी दल से आगे गिनी जा सकती हैं।

युद्ध कौशल और आत्म-रक्षा के प्रयत्नों में छिपकली मनुष्य जाति के बड़े-बड़े सेनापतियों और छापामारों को चुनौती देती है। समय पड़ने पर वह प्रबल शत्रु को ऐसा चकमा देती है कि प्रस्तुत प्राण संकट से वह सहज ही बच निकले।

छिपकली की पूँछ दुधारे शस्त्र का काम करती है। गोह गिरगिट जाति की बड़ी छिपकलियाँ अपनी पूँछ का ऐसा प्रहार करती हैं जैसा कि गधे घोड़े दुलत्ती झाड़ते हैं। उस की करारी चोट खाकर शत्रु तिलमिला उठता है और उसे भागते ही बनता है।

छोटी छिपकलियाँ जब किसी बलवान शत्रु से घिर जाती हैं तो अपनी पूँछ फटकार कर उसे तोड़ कर अलग कर देती है। तेजी से हिलती हुई उस कटी पूँछ को ही शत्रु पूरी छिपकली समझ लेता है और उसी से गुँथ जाता है उसी बीच छिपकली भाग खड़ी होती है और अपनी प्राण रक्षा कर लेती है। आश्चर्य यह है कि उस कटी पूँछ के स्थान पर फिर नई पूँछ, उग आती है और कुछ ही दिन में पहले जैसी बन जाती है।

शत्रुओं से निपटने के लिए मनुष्य युद्ध सामग्री सैन्य सज्जा के अनेकानेक अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण कर रहा है जिनमें विषाक्त गैसें और अणु आयुध भी सम्मिलित हैं। एक देश दूसरे देश को अपना शत्रु मानता है और उसका अस्तित्व मिटा देने के लिए बड़े-चढ़े दावे पेश करता है। क्या यह धमकियाँ सफल हो सकती हैं, यह पूँछने के लिये चूहा चुनौती देता है और अँगूठा दिखाता है कि तुम मनुष्य प्राणी मुझे अपना शत्रु मानते हो और मेरी हस्ती दुनिया से मिटा देने के लिए पीढ़ियों से सिर तोड़ प्रयत्न कर रहे हो पर इसमें कितनी सफलता मिली? यदि तुम मुझ साधन हीन चूहे का कुछ नहीं बिगाड़ सकते तो शत्रु देशों का क्या कर लोगे? तुम्हीं सब कुछ तो नहीं हो-मारने वाले से बचाने वाला ईश्वर बड़ा है यह क्यों भूल जाते हो।

संसार भर में प्रायः 3 करोड़ 60 लाख टन अनाज चूहे खा जाते हैं और इससे भी अधिक उनके द्वारा बर्बाद किया जाता है घरेलू मुर्गियों के अंडे-बच्चे चुराने में ये बहुत घाघ होते हैं। कुत्ते बिल्लियों के छोटे बच्चों पर यहाँ तक कि सोते हुए मनुष्य के बच्चों पर भी घातक आक्रमण करते हैं। यों चूहा शाकाहारी माना जाता है पर जब उसे माँस हाथ लग जाय तो छोड़ता उसे भी नहीं।

चूहों से कैसे निपटा जाय वह बड़ा पेचीदा प्रश्न हैं। इस दिशा में मनुष्य का बुद्धि कौशल लगातार मात खाता चला आता है। चूहे दान पिंजड़े दो चार दिन काम करते हैं। अपने साथियों की दुर्गति देख कर वास्तविकता समझने में उन्हें देर नहीं लगती। पीछे पिंजड़े में कुछ भी रखते रहिए एक भी उसमें नहीं फटकेगा। जो उधर ललचा रहा होगा उसे भी साथी लोग सावधान कर देते हैं। अजनबी घर में पहुँच कर बिल्ली उन्हें दबोच सकती है पर जब वह उसी धर में रहने लगती हैं तो चूहे वे दाव पेंच निकाल लेते हैं जिनसे उन पर कोई विपत्ति न आवे। कहीं-कहीं तो मजबूत चूहे मिलकर कमजोर बिल्ली पर आक्रमण तक कर बैठे हैं। साधारण तथा अभ्यस्त चूहे बिल्ली से डरते नहीं वरन् अँगूठा दिखाते हुए आँख मिचौनी खेलते रहते हैं। गोदामों की सुरक्षा के लिए नेवले-साँप, बीजल, फरेट पाले गये ताकि वे चूहों से निपट सकें पर इसका भी कोई बहुत अच्छा परिणाम न निकला।

चूहों से फलने बीमारी पिछले दिनों प्लेग ही मानी जाती थी पर अब पता चला है कि वे टाइफ सट्रिकिना-लेप्टोस्पाइरोसिस सरीखे अन्य कई भयानक रोग भी पैदा करते हैं।

चूहों को मारने के लिए पिछले दिनों कई विष प्रयुक्त होते रहे हैं। स्ट्रिक्लीन-जिंक फास्फाइड वारफैरिन आदि का प्रयोग किया जाता रहा है। इन्हें उपयुक्त मात्रा में खा लेने पर तो वे मर जाते हैं पर यदि थोड़ी मात्रा में ही खायें तो उनका शरीर इन विष रसायनों से आत्मरक्षा करने में अभ्यस्त हो जाता है। फिर वे मजे से उसे खाते रहते हैं। उनकी पीढ़ियां इस प्रकार की बन जाती हैं कि इन घातक विषों का भी उन पर कुछ अधिक प्रभाव नहीं पड़ता।

बम्बई की रिपोर्ट है कि अकेले बोरी बन्दर स्टेशन पर एक वर्ष 1600 बोरी बिखरा और कूड़ा कचरा मिला हुआ अनाज नीलाम करना पड़ा था। यह करतूत चूहों की थी। बम्बई के अस्पतालों में एक साल 20 हजार मरीज चूहों के काटने पर घावों की मरहम पट्टी कराने गये थे इनमें से कई सौ तो जान ही गँवा बैठे। सन् 1648 में भारत में जो प्लेग फैला था उसमें एक करोड़ के करीब मरे थे। यह चूहों की कृपा का ही फल था।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चूहों से होने वाली आर्थिक और शारीरिक हानि का जो विवरण प्रकाशित किया है उससे स्पष्ट है उनके द्वारा मनुष्यों को पहुँचाई जाने वाली क्षति नगण्य एवं उपेक्षणीय नहीं है।

प्रयोगशाला से निकाले गये निष्कर्ष के अनुसार औसत चूहा 24 घंटे में 12 ग्राम अनाज खाता है। खेतों में घुस कर वह 40 ग्राम अनाज उगा सकने वाले अंकुरों का कतरव्योंत कर देता है। पहनने के कपड़े, कंबल, बोरी आदि के बीच वे छिपे बैठे रहते हैं और काट-काट कर उनका सत्यानाश करते रहते हैं। दरवाजे, खिड़कियां अलमारियाँ यदि लकड़ी के हैं तो उनके बीच में से छेद बना कर आवागमन का रास्ता बना लेना उनके बांये हाथ का खेल हैं। घरों में रखे खाद्य-पदार्थ ही नहीं खेतों में उगे हुए साग, भाजी, फल-फूल खाना और काट कर छितरा देना उनका प्रिय विनोद है। अनाज खाने के साथ-साथ वे अपनी जहरीली विष्ठा भी उसी में छोड़ते जाते हैं जिसे यदि अलग न किया जाय तो कितनी ही बीमारियों का शिकार बनना पड़ता है।

धरती केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं बनाई गई है उस पर रहने का और निर्वाह साधन प्राप्त करने का अन्य प्राणियों को भी अधिकार है। मनुष्य चाहता है कि उसे ही धरती की सारी उपलब्धियाँ मिल जायँ, अन्य प्राणी जो कुछ प्राप्त करते हैं वह उनसे छीन लिया जाय। इस दृष्टि से उसने चूहों को अपना प्रतिद्वंद्वी-हानिकारक शत्रु माना और उनके विनाश के लिए जो कुछ सम्भव हुआ वह सब कुछ किया। पर प्रकृति उसके मनोरथ पूरे नहीं होने दे सकती। उसे मनुष्य की ही तरह अन्य प्राणियों के अस्तित्व की भी रक्षा करनी है। इसलिए उनकी सुरक्षा के लिए भी कुछ न कुछ व्यवस्था जुटा ही देती है।

चुहिया छह महीने में वयस्क हो जाती है और बच्चे देने लगती है। वह एकबार में प्रायः एक दर्जन बच्चे देती है। यदि यह सब जीवित रहे तो एक चुहिया के बच्चे दस वर्ष के भीतर संसार के कोने-कोने में भरे हुए दिखाई पड़ सकते हैं।

प्रकृति मनुष्यों से कहती है तुम्हारे और बिल्ली उल्लू आदि माँसाहारी जीवों के प्रयत्नों को निष्फल बनाने के लिए मैंने चुहिया को पर्याप्त प्रजनन शक्ति दे रखी है उसके रहते तुम कभी भी उस छोटे प्राणी का अस्तित्व समाप्त न कर सकोगे।

अच्छा होता मनुष्य अपने को संसार के जीवन परिवार का एक छोटा सदस्य मानता और सर्वोपरि सर्वाधिकारी का दावा न करके इस तरह रहता जिससे पारिवारिक सन्तुलन की सुन्दरता बनी रहती ।

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