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Magazine - Year 1975 - Version 2

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मानवी अस्तित्व को चुनौती देने वाली समस्या की ओर से हम आँखें न मूँदे

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First 19 21 Last
इन दिनों संसार के सामने सबसे भयंकर समस्या है जनसंख्या की असामान्य अभिवृद्धि। लोग बिना सोचे−समझे बच्चे पैदा करते चले जा रहे हैं। साधन स्वल्प, उपभोक्ता अधिक होने से वस्तुओं का अभाव पड़ रहा है। निवास, अन्न, वस्त्र, शिक्षा, चिकित्सा, आजीविका, यातायात के साधनों के लिए किस बुरी तरह खींच−तान हो रही है, यह किसी से छिपा नहीं हैं। जिस चक्रवृद्धि क्रम से जनसंख्या बढ़ रही है उसके जो दुष्परिणाम निकट भविष्य के समाने आने वाले हैं उनकी कल्पना करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि अब से सौ वर्ष बाद, मनुष्यों की स्थिति मक्खी, मच्छरों जैसी हो जायगी और वे, बेमौत काल के गाल में घुसते चले जायेंगे। जीवन निर्वाह के साधन समाप्त होने के कारण मनुष्यों को भी निर्वाह के हर क्षेत्र में गतिरोध दिखाई देगा और वे बरसाती कीड़ों की तरह चारों ओर रेंगते, गन्दगी फैलाते, मरते−खपते दिखाई पड़ेंगे।

जनसंख्या नियमन आज की खाद्य, शिक्षा, चिकित्सा, आजीविका एवं युद्ध वर्जना से भी बड़ी समस्या है। उस एक समस्या को मूल और अन्यों को पत्ते कहा जा सकता है। जड़ को सींचने, सम्भालने से काम चलेगा पत्ते पोतने से नहीं। जनसंख्या सीमित हो तो धरती के अनुदानों से प्रकृति सम्पदा से लाभान्वित रहा जा सकता है और विभिन्न प्रकार के टकरावों से बचा जा सकता है अस्तु यदि संसार के विचारशील लोग इस समस्या के−समाधान के विभिन्न उपाय सोच रहे हैं और विवेकवान वर्ग विभिन्न प्रयोग कर रहे हैं तो यह सराहनीय चेष्टा ही कहीं जायगी।

इन दिनों प्रबुद्ध वर्ग में यह विचार दिन−दिन जोर पकड़ रहा है कि लोग अविवाहित जीवन व्यतीत करें−यदि विवाह भी करें तो सन्तानोत्पादन न करने का आरम्भ से ही निश्चय कर लें−जिनकी आर्थिक, बौद्धिक एवँ शारीरिक क्षमता सन्तान को समुन्नत बनाने की है वे न्यूनतम संख्या में बच्चे पैदा करे। एक या दो पर्याप्त माने जाने चाहिए। यह विचार न केवल चिन्तन क्षेत्र में ही वरन् कार्यान्वित भी किये जा रहे हैं। इस दिशा में कई देश बहुत आगे हैं।

जापान क्षेत्रफल की दृष्टि से बहुत छोटा देश है वहाँ के प्राकृतिक साधन भी स्वरूप हैं। इस वस्तुस्थिति हर नागरिक परिचित हैं। वे जानते हैं कि यदि अनियन्त्रित सीमा में बच्चे पैदा किये जाने लगें तो वह छोटा−सा टापू पचास−चालीस वर्ष के भीतर ही टिड्डी दल की तर मनुष्यों से भर जायगा और वे बरसाती मक्खी, मच्छ की तरह अभावग्रस्त होकर बेमौत मरेंगे। इस दयनीय दुर्दशा के खतरे को समझकर वहाँ का हर नागरिक बात के लिए सचेष्ट रहता है कि जनसंख्या बढ़ने न पाये यही कारण है कि हजारों वर्षों से समुन्नत स्थिति का देश उपभोग कर रहा है और उन खतरों से बचा हुआ जो भारत जैसे देशों के सिर पर नंगी तलवार की तं नाच रहा है।

जापान के नर−नारी विवाह से बचते हैं। उनमें प्रायः एक तिहाई लोग आजीवन अविवाहित रहते हैं। विवाह करते हैं वे बच्चे न होने की आवश्यक व्यवं अपनाये रहते हैं। जो बच्चे पैदा करते हैं उनकी सं कम ही होती है। वे सभी एक दो सन्तान के बाद झंझट को समाप्त कर देते हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि पिता की आर्थिक स्थिति पर, माता के स्वास्थ्य पर, देश के विकास पर बढ़ती हुई सन्तान कितना अधिक भार डालती है। जितना बोझ उठाने की कन्धों में सामर्थ्य हो उतना ही उठाना समझदारी है। उस देश में विवाह कमजोरी या मजबूरी का कारण माना जाता है और उसे उपेक्षणीय माना जाता है। वहाँ विवाहों की बधाई नहीं बटती। क्योंकि वह एक प्रतिगामी कदम माना जाता है।

अब विवाहों की आयु बढ़ रही है। भारत जैसे देश के पागल लोग तो दुधमुंहे बच्चों के विवाह भी कर सकते हैं और उस सन्तान हत्या की खुशी भी मना सकते हैं, पर प्रगतिशील देशों के लोग यह सोचते हैं जब तक प्रगति की विविध समस्याएँ सामने हैं तब तक व्यर्थ का अड़ंगा उत्पन्न करके अपने विकास प्रयत्नों में अवरोध क्यों खड़ा किया जाय। निश्चित रूप से विवाह के साथ इतने अधिक उत्तरदायित्व शिर पर आते हैं, उस गाड़ी को खींचने में उसका सारा कचूमर निकल जाता है, कोई बड़ी बात सोचना, कोई बड़े कदम उठाना, कोई बड़ी प्रगति करना उसके लिए समय, शक्ति, चिन्तन और धन के अभाव में सम्भव ही नहीं हो पाता। जो कुछ है वह इसी गृहस्थ की भट्टी में जलता चला जाता है।

विवाह की आयु प्रगतिशील देशों में वह समझी जाती है जिसमें मनुष्य थकान अनुभव करने लगे और महत्वाकाँक्षाओं की इतिश्री कर दे। जिन्हें विवाह करना होता है वे चालीस वर्ष के पश्चात करते हैं ताकि अपने परिपक्व अनुभव से एक दूसरे के साथ अधिक अच्छी तरह निर्वाह कर सकें। नई उम्र के जोशीले बच्चे तो भावुकता के घोड़े पर चढ़े होते हैं। अभी प्राणाधिक प्यार, अभी अपेक्षा, अभी आवेश अभी तलाक, अभी आत्म−हत्या यह उपद्रव नई उम्र वाले ही करते हैं। प्रकृति के अनुसार बच्चे पैदा करने का उभार भी नई उम्र में ही होता है। ढलती आयु में उसे उफान से शरीर स्वयं बचता है। स्थिर बुद्धि के अनुभवी लोग अपना सहयोग भी दूरदर्शी सहिष्णु सिद्धान्तों के आधार पर शान्त चित्त से निभा लेते हैं और एक दूसरे के लिए अधिक उपयोगी−सहायक सिद्ध होते हैं।

राष्ट्र संघ द्वारा संग्रहित आँकड़ों की पुस्तक ‘डोमोग्राफिक ईयर बुक’ के अनुसार संसार भर की औसत गणना के आधार पर महिलाएँ 24 वर्ष की आयु में और पुरुष 27 वर्ष की आयु में विवाह करते हैं। आयरलैंड का अनुपात इस दृष्टि से सबसे ऊँचा है। वहाँ विवाह आयु 31 वर्ष है। उस देश में आमतौर से महिलाएँ 45 वर्ष वाद और पुरुष 54 वर्ष बाद विवाह बन्धन में बँधना पसन्द करते हैं। आधे लोग तो आजीवन अविवाहित ही रहते हैं।

यह आँकड़े बताते हैं कि कुछ अनुभव हीन नर−नारी बीस−पच्चीस वर्ष की आयु में भी विवाह करते होंगे और कुछ दूरदर्शी लोग 40 के आस−पास उस बन्धन में बँधते होंगे तभी तो अनुपात औसत इतना आता होगा। संसार भर की नारियों की औसत आयु जब 24 वर्ष और पुरुषों की 27 वर्ष मानी गई है तो उसमें भारत जैसे बारह−चौदह वर्ष की आयु में ब्याह करने वाले लोगों की गणना भी सम्मिलित होगी। बुद्धिमानों का औसत फैलाया जाय तो वह 30 और 40 वर्ष के बीच ही पहुँचेगा। यह हवा यदि ठीक तरह चलने लगी और लोगों ने जनसंख्या वृद्धि के खतरे को ध्यान में रखते हुए−व्यक्तियों को अधिक विकसित करने की आवश्यकता समझते हुए यदि विवाह की आयु बढ़ाने का ध्यान रखा तो सामने खड़ी सर्वनाशी विपत्ति से जरूर राहत मिलेगी।

अक्सर यह दलील दी जाती है कि अविवाहित असंयमी हो जाते हैं। जहाँ तक शरीर निचोड़ने का सम्बन्ध है विवाहित लोग ही उस प्रकार की क्षति अधिक उठाते हैं। व्यभिचार एक मनः स्थिति है। वह विवाहितों में कम नहीं अधिक ही पनपा हुआ देखा जा सकता है। नैतिक प्रश्न मनुष्य के चिन्तन, दृष्टिकोण एवं चरित्र से जुड़ा हुआ है। यह तथ्य विवाहित और अविवाहित दोनों ही पक्षों को समान रूप से प्रभावित कर सकते हैं। संयमी, सदाचारी रहने और उच्छृंखल अनाचारी बनने में विवाह न कुछ सहायक होता है न बाधक। एक क्षण के लिए यह मान भी लिया जाय कि विवाह से यौन सदाचार होता होगा तो उससे जितना लाभ है उससे अधिक वैयक्तिक और सामाजिक हानि वे है जो शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और राष्ट्रीय समस्याओं को बेतरह प्रभावित करती हैं। तुलनात्मक विवेचन करने पर− यौन सदाचार को अत्यधिक महत्व देने पर भी यह सिद्ध नहीं होता कि उतने भर से व्यक्ति अपने को, अपनी पत्नी को, अपने बच्चों को और अपने समाज को कोई अच्छी स्थिति दे सके।

जहाँ तक साथी, सहचर, मित्र, घनिष्ठ या आत्मीय का सम्बन्ध है और मिल−जुलकर जीवन जीने की व्यवस्था का प्रश्न है वहाँ नर−नारी का कोई खास महत्व नहीं, क्या दो भाई या दो बहिनें मिलकर साझीदारी की जिन्दगी नहीं काट सकते? जहाँ तक जीवन व्यवस्था में दो साथी सहचरों का सम्बन्ध है−दो पुरुष या दो नारियाँ भी इस तरह की साझीदारी बना सकती हैं। यौन आचरण की बात को यदि अलग रख दिया जाय तो विवाह का 80 प्रतिशत प्रयोजन दो घनिष्ठ मित्र मिलकर भली प्रकार पूरा कर सकते हैं। मात्र यौन आचरण के लिए विवाह करना वस्तुतः विवाह संस्था को अत्यन्त निकृष्ट स्तर पर पटक देना है, यदि ऐसा ही है तो उसे कानूनी वेश्यावृत्ति से अधिक और क्या कहा जायगा।

आवश्यकतानुसार नर−नारी भी मिल−जुलकर रह सकते हैं और विवाह बन्धन में बँधे रह सकते हैं। यदि उनके सामने पारस्परिक उत्कृष्ट सहयोग का अथवा मिल−जुलकर समाज के लिए उपयोगी काम करने का लक्ष्य हो तो वे बिना संतानोत्पादन का उत्तरदायित्व कन्धे पर उठाये अपने आनन्द का लक्ष्य यौनाचार से−सन्तानोत्पादन से सहज ही ऊँचा रख सकते हैं।

अब इस तरह के प्रयोग भी कम नहीं चल रहे हैं। उनकी संख्या बढ़ रही है। समान प्रकृति के पुरुष−पुरुष अथवा नारी−नारी साझेदारी की जिन्दगी शान्ति और स्नेह पूर्वक जी सकते हैं और एक−दूसरे के सुख−दुख में सहयोगी एवं वफादार रह सकते हैं। इससे यौनाचार के अतिरिक्त विवाह की अन्य सभी महत्वपूर्ण आवश्यकताएँ पूरी हो सकती है। नर−नारी के बीच भी यदि विवाह होता हो तो क्या आवश्यकता है कि सन्तानोत्पादन को अनिवार्य या आवश्यक ही समझे। क्या व्यक्ति और समाज का भार बढ़ाने की अपेक्षा नर−नारी का मिलन किन्हीं अन्य उपयोगी कार्यों में प्रयुक्त नहीं हो सकता?

क्या पच्चीस साल से भी कम आयु के शारीरिक और मानसिक दृष्टि से अपरिपक्व ओर अविकसित बच्चों का विवाह बन्धन में बँधकर अपनी प्रगति के द्वार बन्द कर देना और अनावश्यक दबाव में दबकर अपना भविष्य अन्धकारमय बना लेना उचित है इस प्रश्न पर इस तथ्य को भी ध्यान में रखकर विचार करना होगा कि बढ़ती हुई जनसंख्या की दर मानवी अस्तित्व को धरती पर से मिटा देने के लिए एक भयंकर विभीषिका के रूप में सामने खड़ी हैं।

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