
भ्रष्टता का प्रतिरोध किया ही जाना चाहिए
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एक जमाना था, भारत के विद्वानों के पास रहकर समस्त पृथ्वी के मानव, चरित्र की शिक्षा लेने आते थे। इस प्रसंग में मनु ने लिखा हैं-
‘एतद् देश प्रसूतस्य सकाश दग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्र शिक्षेरन् पृथिव्याँ सर्वमानवाः॥
परन्तु आज हमारी चरित्र-भ्रष्टता बहुत बढ़ गयी है। अखबारों के पत्र इन घटनाओं से नित्य रंगे मिलते हैं। विश्वासघात, छल-कपट, धोखाधड़ी, शोषण, दमन-उत्पीड़न, राहजनी, चोरी-डकैती, अपहरण, बलात्कार, हमले और हत्या आदि बुराइयाँ व्यापक होती जा रही हैं। राह चलती लड़कियों से छेड़खानी, चोरबाजारी, मिलावट जैसी बदनीयती आम बीमारी बन गयी है। व्यभिचार, घूसखोरी और मुनाफाखोरी को प्रायः पाप भी नहीं मानते। अन्याय और पक्षपात तो सभी करने लगे हैं। भले कहे-जाने वाले लोग भी सामाजिक दिव्य अनुदानों का बिना प्रति-मूल्य चुकाये ही खुद उपभोग करते हैं। अनीति से धन संचय आवश्यकता बनती जा रही है। दूसरों के श्रम, अधिकार एवं साधनों का अपने लिये उपयोग में नहीं हिचकते। यहाँ तक कि कंचन-कामिनी व मान−प्रतिष्ठा के निमित्त बुरे से बुरा काम भी कर सकते हैं।
परन्तु इन सभी बुराइयों के लिए हम सरकार किम्वा अन्य किसी पर पूरा दोष मढ़ दिया करते हैं। प्रशासन की निन्दा अनेक अंशों में सही होती है। कई लोग नये जमाने को दोषी मानते हैं। कुछ कलियुग पर सारा दोषारोपण कर देते हैं। स्वयं को छोड़कर और सभी का दोष दिखता है। अनेक अपराध व विकार हमारे अपने चारित्रिक पतन के कारण उपजते हैं। सत्य, अहिंसा और संयम-नियम आदि को व्यावहारिक जीवन में न अपना कर हम स्वयं समाज-व्यवस्था बिगाड़ने में बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। हमारे अनीतिपूर्ण जीवन, सामाजिक उत्तरदायित्वों के प्रति उपेक्षा, अन्याय व अत्याचार के समक्ष आँख मूँद कर हाथ पर हाथ धरे बैठ जाने की प्रवृत्ति से ही बुरे तत्वों को प्रोत्साहन मिलता है।
हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है कि हम धर्म, सिद्धांत नीति, नियम और आदर्शों की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। स्वयं व्यवहार में प्रयोग करना नहीं चाहते। हर दुकानदार सरकार-पुलिस आदि के भ्रष्टाचार की जी खोलकर निन्दा करता है। वह स्वयं ग्राहक को कम तोलता है। मिलावट और चोरबाजारी कर उपभोक्ता को लूटता है। इसी प्रकार हम सभी आततायी और गुण्डों को बुरा भला कहते हैं। पर स्वयं भी अनेक प्रकार की बुराइयों में निरत रहते हैं।
चरित्र सम्बन्धी विकारों के उपचार हेतु सबसे पहले हमें अपनी चिकित्सा भगवान् मनु के इन निर्देश से करनी पड़ेगी-
‘आत्मनः प्रतिकूलानि परेषाँ न समाचरेत्।’
जो खुद को पसन्द न पड़े, उसे दूसरों के प्रति मत करो। जैसे हम नहीं चाहते कि कोई हमारा अपमान करे तो हमें भी अन्य व्यक्ति का अपमान नहीं करना चाहिये। हम कामना करते हैं कि हमारे स्वजन, सम्बन्धी, संतान-सेवक आदि झूठ न बोलें तो हमें भी सच बोलने की आदत पहले डालनी पड़ेगी।
दूसरी बात है सामाजिक जिम्मेदारी निभाने की। हमें घर-गृहस्थी तथा जीविकोपार्जन के दायित्व के साथ ही सामाजिक कार्यों में भी हाथ बँटाना चाहिये। उनकी उपेक्षा का परिणाम सबको कभी-न -कभी भुगतना ही पड़ता है। अड़ोस-पड़ोस में चोर-बदमाश रहता है। अनैतिक कार्यों का अड्डा चलता है। समाज-विरोधी एवं देश के दुश्मन अपनी गतिविधियों का संचालन करते हैं। पर बहुत कम लोग इनकी सूचना अधिकारियों तक पहुँचाते हैं। सच तो यह है कि इनके विरुद्ध आवाज उठाना अपनी जिम्मेदारी नहीं मानते। हम जान-बूझकर सब कुछ देखते और सहते रहते हैं।
इस प्रकार अपराधी निःशंक बुरे काम करता है। दूसरे भी देखा देखी इसी दिशा में अग्रसर होते हैं। निहित-स्वार्थ अवाँछनीय तत्वों को सहारा ही नहीं देते अपितु उनका बचाव भी करते हैं। इनका भंडाफोड़ करना हमारा फर्ज हैं।
चरित्र-भ्रष्टता जनित दोषों को दूर करने के लिये प्रतिरोध से उत्पन्न संकट का मुकाबला करना अनिवार्य हैं। घातक घाव के ऑपरेशन कराना बुद्धिमानी है। विकार बढ़ जाने पर बीमार के मरने का भय रहता है। मानवता को दानवता से बचाना है तो समय रहते तैयारी करनी ही पड़ेगी।
इसके लिए जहाँ संकल्प और प्रयास अकेले करे, वहीं समाज को भी संगठित करे। हमें जानना चाहिए कि अकेले कोई बच नहीं सकता। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। संघ की शक्ति में अपनी शक्ति को शामिल करने में उसे कम खतरा प्रतीत होता है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि सामूहिक आन्दोलन में जनता सहज ही सहयोग करने लगती हैं। एक को संघर्ष हेतु प्रस्तुत देखकर दूसरों की आत्मा भी सन्मार्ग पर अभिमान के निर्मित आन्दोलित हो पड़ती है।
इस प्रकार सामूहिक चिन्तन एवं क्रान्ति-अभियान के फलस्वरूप अन्ततः अपराधी मनोवृत्ति घटने लगती हैं। छुटपुट छिपते-भागते देवों पर दानव सदैव हावी रहे। पर उन्हीं देवों की संगठित शक्ति असुरता के विनाश में समर्थ हो गयी। पलायनवादी मानव स्वार्थ परायणता की भौतिक चिन्तन धारा में मोड़ लाकर अपने आचरण सुधारें।
भारत की अध्यात्मवादी घोषणा स्पष्ट है, ‘संधे शक्ति कलौ युगे।’ तदनुसार सामूहिक संघर्षों को भ्रष्टाचारिता के विरुद्ध हर जगह चालू करें। सामाजिक उत्तरदायित्व खतरे उठा कर भी पूरा करना होता है।
अन्त में अपने कार्यों वे सामूहिक आंदोलनों का विश्लेषण नीति, न्याय और धर्म की कसौटी पर करके परख लिया करें। इस प्रकार से आज भी हम सामाजिक दायित्व-बोध युक्त समाज की संगठित शक्ति द्वारा चरित्र-भ्रष्टता जनित विकारों का उपचार कर सकते हैं।