
अध्यात्म से मानव जीवन का चर्मोत्कर्ष
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इस संसार में मानव-जीवन से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई उपलब्धि नहीं मानी गई है। एकमात्र मानव-जीवन ही वह अवसर है, जिसमें मनुष्य जो भी चाहे प्राप्त कर सकता है। इसका सदुपयोग मनुष्य को कल्पवृक्ष की भांति फलीभूत होता है।
जो मनुष्य इस सुरदुर्लभ मानव-जीवन को पाकर उसे सुचारु रूप से संचालित करने की कला नहीं जानता है अथवा उसे जानने में प्रमाद करता है, तो यह उसका बड़ा दुर्भाग्य ही कहा जायेगा। मानव जीवन वह पवित्र क्षेत्र है जिसमें परमात्मा ने सारी विभूतियां बीज रूप में रख दी हैं, जिनका विकास नर को नारायण बना देता है। किन्तु इन विभूतियों का विकास होता तभी है, जब जीवन का व्यवस्थित रूप से संचालन किया जाय। अन्यथा अव्यवस्थित जीवन, जीवन का ऐसा दुरुपयोग है, जो विभूतियों के स्थान पर दरिद्रता की वृद्धि कर देता है।
जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने की एक वैज्ञानिक पद्धति है। उसे अपनाकर चलने पर ही इसमें वांछित फलों की उपलब्धि की जा सकती है। अन्यथा इसकी भी वही गति होती है, जो अन्य पशु-प्राणियों की होती है। जीवन को सुचारु रूप से चलाने की वह वैज्ञानिक पद्धति एकमात्र अध्यात्म की है, जिसे जीवन जीने की कला भी कहा जा कसता है। इस सर्वश्रेष्ठ कला को जाने बिना जो मनुष्य जीवन को अस्त-व्यस्त ढंग से बिताता रहता है, उसे उनमें से काई भी ऐश्वर्य उपलब्ध नहीं हो सकता, जो लोक से लेकर परलोक तक फैले पड़े हैं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जिनके अन्तर्गत आदि से अन्त तक की सारी सफलतायें सन्निहित हैं, इसी जीवन कला के आधार पर ही तो मिलते हैं। सामान्य लोगों के बीच प्रायः यह भ्रम फैला हुआ है कि अध्यात्मवादी का लौकिक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। वह तो योगी तपस्वियों का क्षेत्र है, जो जीवन में दैवी वरदान प्राप्त करना चाहते हैं, जो सांसारिक जीवनयापन करना चाहते हैं, घर-बार बसाकर रहना चाहते हैं, उनसे अध्यात्म का सम्बन्ध नहीं। इसी भ्रम के कारण बहुत से गृहस्थ भी, जो दैवी वरदान की लालसा के फेर में पड़ जाते हैं, अध्यात्म मार्ग पर चलने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु अध्यात्म का सही अर्थ न जानने के कारण थोड़ा-सा पूजा-पाठ कर लेने को ही अध्यात्म मान लेते हैं।
यह बात सही है कि अध्यात्म मार्ग पर चलने से, उसकी साधना करने से दैवी वरदान भी मिलते हैं और ऋद्धि-सिद्धि की भी प्राप्ति होती है। किन्तु वह उच्च स्तरीय सूक्ष्म-साधना का फल है। कुछ दिनों पूजा-पाठ करने अथवा जीवन भर यों ही कार्यक्रम के अन्तर्गत पूजा करते रहने पर भी ऋषियों वाला ऐश्वर्य प्राप्त नहीं हो सकता। उस स्तर की साधना कुछ भिन्न प्रकार की होती है। वह सर्व-सामान्य लोगों के लिये सम्भव नहीं। उन्हें इस तप-साध्य अध्यात्म में न पड़कर अपने आवश्यक कर्त्तव्यों में ही आध्यात्मिक निष्ठा रख कर जीवन को आगे बढ़ाते रहना चाहिए। उनके साधारण पूजा-पाठ का जोकि जीवन का एक अनिवार्य अंग होना ही चाहिए, अपनी तरह से लाभ मिलता रहेगा।
थोड़ी सी साधारण पूजा, उपासना करके जो जीवन में अलौकिक ऋद्धि-सिद्धि पाने की लालसा रखते हैं, वे किसी जुआरी की तरह नगण्य-सा धन लगाकर बहुत अधिक लाभ उठाने चाहते हैं। बिना श्रम के मालामाल होना चाहते हैं। ऐसे लोभी उपासकों की यह अनुचित आशा कभी भी पूरी नहीं हो सकती और हो यह भी सकता है कि इस लोभ के कारण उनको अपनी उस सामान्य उपासना का भी कोई फल न मिले। देवताओं का वरदान वस्तुतः इतना सस्ता नहीं होता जितना कि लोगों ने समझ रखा है। वे मन्दिर में जाकर हाथ जोड़ देने या अक्षत-पुष्प जैसी तुच्छ वस्तुयें चढ़ा देने से प्रसन्न हो जायेंगे और अपने वरदान लुटाने लगेंगे—ऐसा सोचना अज्ञान के सिवाय और कुछ नहीं है। सामान्य पूजा-पाठ का अपना जो पुरस्कार है, मिलेगा वही उससे अधिक कुछ नहीं।
वरदायी अथवा अलौकिक ऐश्वर्य का आधार अध्यात्म सामान्य उपासना मात्र नहीं है। उसका क्षेत्र आत्मा के सूक्ष्म संस्थानों की साधना है। यह उन शक्तियों के प्रबोधन की प्रक्रिया है, जो मनुष्य के अन्तःकरण में बीज रूप में सन्निहित रहती हैं। आत्मिक अध्यात्म के इस क्षेत्र में एक से एक बढ़कर सिद्धियां एवं समृद्धियां भरी पड़ी हैं। किन्तु उनकी प्राप्ति तभी सम्भव है, जब मन बुद्धि, चित्त अहंकार से निर्मित अन्तःकरण, पांचों कोशों, छहों चक्रों, मस्तिष्कीय ब्रह्म-रन्ध्र में अवस्थित कमल, हृदस्थित सूर्य-चक्र, नाभि की ब्रह्म ग्रन्थि और मूलाधार वासिनी कुण्डलिनी आदि के शक्ति संस्थानों और कोश-केन्द्रों को प्रबुद्ध, प्रयुक्त और अनुकूलतापूर्वक निर्धारित दिशा में सक्रिय बनाया जा सके। यह बड़ी गहन, सूक्ष्म और योगसाध्य तपस्या है। जन्म-जन्म से तैयारी किये कोई विरले ही यह साधना कर पाते हैं और अलौकिक सिद्धियों को प्राप्त करते हैं। यह साधना न सामान्य है और न सर्वसाधारण के वश की।
तथापि असम्भव भी नहीं है। एक समय था, जब भारतवर्ष में अध्यात्म की इस साधना पद्धति का पर्याप्त प्रचलन रहा। देश का ऋषि वर्ग उसी समय की देन है। जो-जो पुरुषार्थी इस सूक्ष्म साधना को पूरा करते गये वे ऋषियों की श्रेणी में आते गये। यद्यपि आज इस साधना के सर्वथा उपयुक्त न तो साधन हैं और न समय, तथापि वह परम्परा पूरी तरह से उठ नहीं गई है। अब भी यदा-कदा, यत्र-तत्र इस साधना के सिद्ध पुरुष देखे सुने जाते हैं। किन्तु इनकी संख्या बहुत विरल है। वैसे योग का स्वांग दिखाकर और सिद्धों का वेश बनाकर पैसा कमाने वाले रंगे सियार तो बहुत देखे जाते हैं। किन्तु उच्च-स्तरीय अध्यात्म-विद्या की पूर्वोक्त वैज्ञानिक पद्धति से, सिद्धि की दिशा में अग्रसर होने वाले सच्चे योगी नहीं के बराबर ही हैं। जिन्होंने साहसिक तपस्या के बल पर आत्मा की सूक्ष्म शक्तियों को जागृत कर प्रयोग योग्य बना लिया होता है, वे संसार के मोह जाल से दूर प्रायः अप्रत्यक्ष ही रहा करते हैं। शीघ्र किसी को प्राप्त नहीं होते और पुण्य अथवा सौभाग्य से जिसको मिल जाते हैं, उसका जीवन उनके दर्शनमात्र से ही धन्य हो जाता है।
इतनी बड़ी तपस्या को छोटी-मोटी साधना अथवा थोड़े से कर्मकाण्ड द्वारा पूरी कर लेने की आशा, करने वाले बाल-बुद्धि के व्यक्ति ही माने जायेंगे। यह उच्च स्तरीय आध्यात्मिक साधना शीघ्र पूरी नहीं की जा सकती। स्तर के अनुरूप ही पर्याप्त समय, धैर्य, पुरुषार्थ एवं शक्ति की आवश्यकता होती है। इस आवश्यकता की पूर्ति धीरे-धीरे अपने बाह्य जीवन के परिष्कार से प्रारम्भ होती है। बाह्य की उपेक्षा कर सहसा ही आत्मिक स्तर पर साधना में जल जाना अक्रमिक है, जिसमें सफलता की आशा नहीं की जा सकती।
आज हम सब जिस स्थिति में चल रहे हैं, उसमें जीवन-निर्माण की सरल आध्यात्मिक साधना ही सम्भव है। इस स्तर से शुरू किये बिना काम भी तो नहीं चल सकता। बाह्य जीवन को यथास्थिति में छोड़कर आत्मिक स्तर पर पहुंच सकना भी तो सम्भव नहीं है। अस्तु हमें उस अध्यात्म को लेकर ही चलना होगा, जिसे जीवन-जीने की कला कहा गया है।
जीवन विषयक अध्यात्म हमारे गुण, कर्म, स्वभाव से सम्बन्धित हैं। हमें चाहिए कि हम अपने में गुणों की वृद्धि करते रहें। ब्रह्मचर्य, सच्चरित्रता, सदाचार, मर्यादा-पालन और अपनी सीमा में अनुशासित रहना आदि ऐसे गुण हैं, जो जीवन जीने की कला के नियम माने गये हैं। व्यसन, अव्यवस्था, अस्तव्यस्तता व आलस्य अथवा प्रमाद जीवन-कला के विरोधी दुर्गुण हैं। इनका त्याग करने से जीवन-कला को बल प्राप्त होता है। हमारे काम भी गुणों के अनुसार ही होने चाहिए, गुण और कर्मों में परस्पर विरोध रहने से जीवन में न शान्ति का आगमन होता है और न प्रगतिशीलता का समावेश। हममें सत्य-निष्ठा का गुण तो हो पर इसे कर्मों में मूर्तिमान् करने का साहस न हो तो कर्म तो जीवन-कला के प्रतिकूल होते ही हैं, बस गुण भी मिथ्या हो जाता है।
सत्कर्मों में हमारी आस्था तो हो पर पुण्य परमार्थ की सक्रियता से दूर ही रहें तो जीवन कला के क्षेत्र में यह एक आत्म–प्रवंचना ही होगी। इसी प्रकार हमारा स्वभाव भी इन दोनों के अनुरूप ही होना चाहिए। हममें दानशीलता का गुण भी हो और अवसरानुसार सक्रिय भी होता हो, किन्तु उसके साथ यदि अहंकर भी जुड़ा है तो यह उस गुण-कर्म का स्वाभाविक विरोध होगा, जो जीवन-कला के अनुरूप नहीं है। हम सदाशयी, परमार्थी और सेवाभावी तो हैं और कर्मों में अपनी इन भावनाओं को मूर्तिमान् भी करते हैं, किन्तु यदि स्वभाव से क्रोधी, कठोर अथवा निर्बल हैं तो इन सद्गुणों और सत्कर्मों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। किसी को यदि परोपकार द्वारा सुखी करते हैं और किसी को अपने क्रोध का लक्ष्य बनाते हैं तो एक ओर का पुण्य दूसरे ओर के पाप से ऋण होकर शून्य रह जायेगा। गुण, कर्म, स्वभाव तीनों का सामंजस्य एवं अनुरूपता ही यह विशेषता है, जो जीवन जीने की कला में सहायक होती है।
जीवन-यापन की वह विधि ही जीवन जीने की कला है, जिसके द्वारा हम स्वयं अधिकाधिक सुखी, शान्त और सन्तुष्ट रह सकें, साथ ही दूसरों को भी उसी प्रकार रहने में सहयोगी बना सकें और यही वह प्रारम्भिक अध्यात्म है, जिसके द्वारा जीवन निर्माण होता है और आत्मा की सूक्ष्म अध्यात्म साधना का पथ प्रशस्त होता है। हम सबको इसी सरल एवं साध्य अध्यात्म को लेकर क्रम-क्रम से आगे बढ़ना चाहिए। सहसा आदि से अन्त पर कूद जाने का प्रयत्न करना एक ऐसी असफलता को आमन्त्रित करना है, जिससे न तो ठीक से जीवन जिया जा सकता है और न उच्च-स्तरीय साधना को सामान्य बनाया जा सकता है।
पुराकालीन ऋषि-मुनियों ने भी उच्च-स्तरीय अध्यात्म में सहसा छलांग नहीं लगाई। उन्होंने अभ्यास द्वारा पहले अपने बाह्य जीवन को ही परिष्कृत किया और तब क्रम-क्रम से उस आत्मिक जीवन में उच्च–साधना के लिये पहुंचे थे। वह नियम था—कि पहले बाह्य जीवन में व्यावहारिक अध्यात्म का समावेश करके उसे सुख-शांतिमय बनाया जाय। इस प्रसंग में जो भी पुण्य परमार्थ अथवा पूजा उपासना अपेक्षित हो उसे करते रहा जाये। लौकिक जीवन को सुविकसित एवं सुसंस्कृत बना लेने के बाद ही आत्मिक अथवा अलौकिक जीवन में प्रवेश किया जाय—उल्लंघन करने वाले कभी सफलता के अधिकारी नहीं बन सकते। लौकिक जीवन को निकृष्टता आत्मिक जीवन के मार्ग में पर्वत के समान अवरोध सिद्ध होती है।
अध्यात्म मानव-जीवन के चरमोत्कर्ष की आधार शिला है, मानवता का मेरुदण्ड है। इसके अभाव में असुखं, अशान्ति एवं असन्तोष की ज्वालायें मनुष्य को घेरे रहती हैं। मनुष्य जाति की अगणित समस्याओं को हल करने और सफल जीवन जीने के लिये अध्यात्म से बढ़कर कोई उपाय नहीं है। पूर्वकाल में, जीवन में सुख-समृद्धियों बहुतायत के कारण जिस युग को सतयुग के नाम से याद किया जाता है, उसमें और कोई विशेषता नहीं थी—यदि विशेषता थी तो यही कि उस युग के मनुष्यों का जीवन अध्यात्म की प्रेरणा से ही अनुप्राणित रहता था। आज उस तत्व की उपेक्षा होने से जीवन में चारों ओर अभाव, अशांति और असन्तोष व्याप्त हो गया है और इन्हीं अभिशापों के कारण ही आज का युग कलियुग के कलंकित नाम से पुकारा जाता है।
अपने युग का कलंक आध्यात्मिक जीवन पद्धति अपनाकर जब मिटाया जा सकता है तो क्यों न मिटाया जाना चाहिये और अवश्य मिटाया जाना चाहिये। अपने युग को लांछित अथवा यशस्वी बनाना उस युग के मनुष्यों पर ही निर्भर है, तब क्यों न हम सब आध्यात्मिक पद्धति का समावेश कर अपने युग को भी उतना ही सम्मानित एवं सुस्मरणीय बना दें, जितना कि सतयुग के मनुष्यों ने अपने आचरण द्वारा अपने युग को बनाया था।
जो मनुष्य इस सुरदुर्लभ मानव-जीवन को पाकर उसे सुचारु रूप से संचालित करने की कला नहीं जानता है अथवा उसे जानने में प्रमाद करता है, तो यह उसका बड़ा दुर्भाग्य ही कहा जायेगा। मानव जीवन वह पवित्र क्षेत्र है जिसमें परमात्मा ने सारी विभूतियां बीज रूप में रख दी हैं, जिनका विकास नर को नारायण बना देता है। किन्तु इन विभूतियों का विकास होता तभी है, जब जीवन का व्यवस्थित रूप से संचालन किया जाय। अन्यथा अव्यवस्थित जीवन, जीवन का ऐसा दुरुपयोग है, जो विभूतियों के स्थान पर दरिद्रता की वृद्धि कर देता है।
जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने की एक वैज्ञानिक पद्धति है। उसे अपनाकर चलने पर ही इसमें वांछित फलों की उपलब्धि की जा सकती है। अन्यथा इसकी भी वही गति होती है, जो अन्य पशु-प्राणियों की होती है। जीवन को सुचारु रूप से चलाने की वह वैज्ञानिक पद्धति एकमात्र अध्यात्म की है, जिसे जीवन जीने की कला भी कहा जा कसता है। इस सर्वश्रेष्ठ कला को जाने बिना जो मनुष्य जीवन को अस्त-व्यस्त ढंग से बिताता रहता है, उसे उनमें से काई भी ऐश्वर्य उपलब्ध नहीं हो सकता, जो लोक से लेकर परलोक तक फैले पड़े हैं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जिनके अन्तर्गत आदि से अन्त तक की सारी सफलतायें सन्निहित हैं, इसी जीवन कला के आधार पर ही तो मिलते हैं। सामान्य लोगों के बीच प्रायः यह भ्रम फैला हुआ है कि अध्यात्मवादी का लौकिक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। वह तो योगी तपस्वियों का क्षेत्र है, जो जीवन में दैवी वरदान प्राप्त करना चाहते हैं, जो सांसारिक जीवनयापन करना चाहते हैं, घर-बार बसाकर रहना चाहते हैं, उनसे अध्यात्म का सम्बन्ध नहीं। इसी भ्रम के कारण बहुत से गृहस्थ भी, जो दैवी वरदान की लालसा के फेर में पड़ जाते हैं, अध्यात्म मार्ग पर चलने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु अध्यात्म का सही अर्थ न जानने के कारण थोड़ा-सा पूजा-पाठ कर लेने को ही अध्यात्म मान लेते हैं।
यह बात सही है कि अध्यात्म मार्ग पर चलने से, उसकी साधना करने से दैवी वरदान भी मिलते हैं और ऋद्धि-सिद्धि की भी प्राप्ति होती है। किन्तु वह उच्च स्तरीय सूक्ष्म-साधना का फल है। कुछ दिनों पूजा-पाठ करने अथवा जीवन भर यों ही कार्यक्रम के अन्तर्गत पूजा करते रहने पर भी ऋषियों वाला ऐश्वर्य प्राप्त नहीं हो सकता। उस स्तर की साधना कुछ भिन्न प्रकार की होती है। वह सर्व-सामान्य लोगों के लिये सम्भव नहीं। उन्हें इस तप-साध्य अध्यात्म में न पड़कर अपने आवश्यक कर्त्तव्यों में ही आध्यात्मिक निष्ठा रख कर जीवन को आगे बढ़ाते रहना चाहिए। उनके साधारण पूजा-पाठ का जोकि जीवन का एक अनिवार्य अंग होना ही चाहिए, अपनी तरह से लाभ मिलता रहेगा।
थोड़ी सी साधारण पूजा, उपासना करके जो जीवन में अलौकिक ऋद्धि-सिद्धि पाने की लालसा रखते हैं, वे किसी जुआरी की तरह नगण्य-सा धन लगाकर बहुत अधिक लाभ उठाने चाहते हैं। बिना श्रम के मालामाल होना चाहते हैं। ऐसे लोभी उपासकों की यह अनुचित आशा कभी भी पूरी नहीं हो सकती और हो यह भी सकता है कि इस लोभ के कारण उनको अपनी उस सामान्य उपासना का भी कोई फल न मिले। देवताओं का वरदान वस्तुतः इतना सस्ता नहीं होता जितना कि लोगों ने समझ रखा है। वे मन्दिर में जाकर हाथ जोड़ देने या अक्षत-पुष्प जैसी तुच्छ वस्तुयें चढ़ा देने से प्रसन्न हो जायेंगे और अपने वरदान लुटाने लगेंगे—ऐसा सोचना अज्ञान के सिवाय और कुछ नहीं है। सामान्य पूजा-पाठ का अपना जो पुरस्कार है, मिलेगा वही उससे अधिक कुछ नहीं।
वरदायी अथवा अलौकिक ऐश्वर्य का आधार अध्यात्म सामान्य उपासना मात्र नहीं है। उसका क्षेत्र आत्मा के सूक्ष्म संस्थानों की साधना है। यह उन शक्तियों के प्रबोधन की प्रक्रिया है, जो मनुष्य के अन्तःकरण में बीज रूप में सन्निहित रहती हैं। आत्मिक अध्यात्म के इस क्षेत्र में एक से एक बढ़कर सिद्धियां एवं समृद्धियां भरी पड़ी हैं। किन्तु उनकी प्राप्ति तभी सम्भव है, जब मन बुद्धि, चित्त अहंकार से निर्मित अन्तःकरण, पांचों कोशों, छहों चक्रों, मस्तिष्कीय ब्रह्म-रन्ध्र में अवस्थित कमल, हृदस्थित सूर्य-चक्र, नाभि की ब्रह्म ग्रन्थि और मूलाधार वासिनी कुण्डलिनी आदि के शक्ति संस्थानों और कोश-केन्द्रों को प्रबुद्ध, प्रयुक्त और अनुकूलतापूर्वक निर्धारित दिशा में सक्रिय बनाया जा सके। यह बड़ी गहन, सूक्ष्म और योगसाध्य तपस्या है। जन्म-जन्म से तैयारी किये कोई विरले ही यह साधना कर पाते हैं और अलौकिक सिद्धियों को प्राप्त करते हैं। यह साधना न सामान्य है और न सर्वसाधारण के वश की।
तथापि असम्भव भी नहीं है। एक समय था, जब भारतवर्ष में अध्यात्म की इस साधना पद्धति का पर्याप्त प्रचलन रहा। देश का ऋषि वर्ग उसी समय की देन है। जो-जो पुरुषार्थी इस सूक्ष्म साधना को पूरा करते गये वे ऋषियों की श्रेणी में आते गये। यद्यपि आज इस साधना के सर्वथा उपयुक्त न तो साधन हैं और न समय, तथापि वह परम्परा पूरी तरह से उठ नहीं गई है। अब भी यदा-कदा, यत्र-तत्र इस साधना के सिद्ध पुरुष देखे सुने जाते हैं। किन्तु इनकी संख्या बहुत विरल है। वैसे योग का स्वांग दिखाकर और सिद्धों का वेश बनाकर पैसा कमाने वाले रंगे सियार तो बहुत देखे जाते हैं। किन्तु उच्च-स्तरीय अध्यात्म-विद्या की पूर्वोक्त वैज्ञानिक पद्धति से, सिद्धि की दिशा में अग्रसर होने वाले सच्चे योगी नहीं के बराबर ही हैं। जिन्होंने साहसिक तपस्या के बल पर आत्मा की सूक्ष्म शक्तियों को जागृत कर प्रयोग योग्य बना लिया होता है, वे संसार के मोह जाल से दूर प्रायः अप्रत्यक्ष ही रहा करते हैं। शीघ्र किसी को प्राप्त नहीं होते और पुण्य अथवा सौभाग्य से जिसको मिल जाते हैं, उसका जीवन उनके दर्शनमात्र से ही धन्य हो जाता है।
इतनी बड़ी तपस्या को छोटी-मोटी साधना अथवा थोड़े से कर्मकाण्ड द्वारा पूरी कर लेने की आशा, करने वाले बाल-बुद्धि के व्यक्ति ही माने जायेंगे। यह उच्च स्तरीय आध्यात्मिक साधना शीघ्र पूरी नहीं की जा सकती। स्तर के अनुरूप ही पर्याप्त समय, धैर्य, पुरुषार्थ एवं शक्ति की आवश्यकता होती है। इस आवश्यकता की पूर्ति धीरे-धीरे अपने बाह्य जीवन के परिष्कार से प्रारम्भ होती है। बाह्य की उपेक्षा कर सहसा ही आत्मिक स्तर पर साधना में जल जाना अक्रमिक है, जिसमें सफलता की आशा नहीं की जा सकती।
आज हम सब जिस स्थिति में चल रहे हैं, उसमें जीवन-निर्माण की सरल आध्यात्मिक साधना ही सम्भव है। इस स्तर से शुरू किये बिना काम भी तो नहीं चल सकता। बाह्य जीवन को यथास्थिति में छोड़कर आत्मिक स्तर पर पहुंच सकना भी तो सम्भव नहीं है। अस्तु हमें उस अध्यात्म को लेकर ही चलना होगा, जिसे जीवन-जीने की कला कहा गया है।
जीवन विषयक अध्यात्म हमारे गुण, कर्म, स्वभाव से सम्बन्धित हैं। हमें चाहिए कि हम अपने में गुणों की वृद्धि करते रहें। ब्रह्मचर्य, सच्चरित्रता, सदाचार, मर्यादा-पालन और अपनी सीमा में अनुशासित रहना आदि ऐसे गुण हैं, जो जीवन जीने की कला के नियम माने गये हैं। व्यसन, अव्यवस्था, अस्तव्यस्तता व आलस्य अथवा प्रमाद जीवन-कला के विरोधी दुर्गुण हैं। इनका त्याग करने से जीवन-कला को बल प्राप्त होता है। हमारे काम भी गुणों के अनुसार ही होने चाहिए, गुण और कर्मों में परस्पर विरोध रहने से जीवन में न शान्ति का आगमन होता है और न प्रगतिशीलता का समावेश। हममें सत्य-निष्ठा का गुण तो हो पर इसे कर्मों में मूर्तिमान् करने का साहस न हो तो कर्म तो जीवन-कला के प्रतिकूल होते ही हैं, बस गुण भी मिथ्या हो जाता है।
सत्कर्मों में हमारी आस्था तो हो पर पुण्य परमार्थ की सक्रियता से दूर ही रहें तो जीवन कला के क्षेत्र में यह एक आत्म–प्रवंचना ही होगी। इसी प्रकार हमारा स्वभाव भी इन दोनों के अनुरूप ही होना चाहिए। हममें दानशीलता का गुण भी हो और अवसरानुसार सक्रिय भी होता हो, किन्तु उसके साथ यदि अहंकर भी जुड़ा है तो यह उस गुण-कर्म का स्वाभाविक विरोध होगा, जो जीवन-कला के अनुरूप नहीं है। हम सदाशयी, परमार्थी और सेवाभावी तो हैं और कर्मों में अपनी इन भावनाओं को मूर्तिमान् भी करते हैं, किन्तु यदि स्वभाव से क्रोधी, कठोर अथवा निर्बल हैं तो इन सद्गुणों और सत्कर्मों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। किसी को यदि परोपकार द्वारा सुखी करते हैं और किसी को अपने क्रोध का लक्ष्य बनाते हैं तो एक ओर का पुण्य दूसरे ओर के पाप से ऋण होकर शून्य रह जायेगा। गुण, कर्म, स्वभाव तीनों का सामंजस्य एवं अनुरूपता ही यह विशेषता है, जो जीवन जीने की कला में सहायक होती है।
जीवन-यापन की वह विधि ही जीवन जीने की कला है, जिसके द्वारा हम स्वयं अधिकाधिक सुखी, शान्त और सन्तुष्ट रह सकें, साथ ही दूसरों को भी उसी प्रकार रहने में सहयोगी बना सकें और यही वह प्रारम्भिक अध्यात्म है, जिसके द्वारा जीवन निर्माण होता है और आत्मा की सूक्ष्म अध्यात्म साधना का पथ प्रशस्त होता है। हम सबको इसी सरल एवं साध्य अध्यात्म को लेकर क्रम-क्रम से आगे बढ़ना चाहिए। सहसा आदि से अन्त पर कूद जाने का प्रयत्न करना एक ऐसी असफलता को आमन्त्रित करना है, जिससे न तो ठीक से जीवन जिया जा सकता है और न उच्च-स्तरीय साधना को सामान्य बनाया जा सकता है।
पुराकालीन ऋषि-मुनियों ने भी उच्च-स्तरीय अध्यात्म में सहसा छलांग नहीं लगाई। उन्होंने अभ्यास द्वारा पहले अपने बाह्य जीवन को ही परिष्कृत किया और तब क्रम-क्रम से उस आत्मिक जीवन में उच्च–साधना के लिये पहुंचे थे। वह नियम था—कि पहले बाह्य जीवन में व्यावहारिक अध्यात्म का समावेश करके उसे सुख-शांतिमय बनाया जाय। इस प्रसंग में जो भी पुण्य परमार्थ अथवा पूजा उपासना अपेक्षित हो उसे करते रहा जाये। लौकिक जीवन को सुविकसित एवं सुसंस्कृत बना लेने के बाद ही आत्मिक अथवा अलौकिक जीवन में प्रवेश किया जाय—उल्लंघन करने वाले कभी सफलता के अधिकारी नहीं बन सकते। लौकिक जीवन को निकृष्टता आत्मिक जीवन के मार्ग में पर्वत के समान अवरोध सिद्ध होती है।
अध्यात्म मानव-जीवन के चरमोत्कर्ष की आधार शिला है, मानवता का मेरुदण्ड है। इसके अभाव में असुखं, अशान्ति एवं असन्तोष की ज्वालायें मनुष्य को घेरे रहती हैं। मनुष्य जाति की अगणित समस्याओं को हल करने और सफल जीवन जीने के लिये अध्यात्म से बढ़कर कोई उपाय नहीं है। पूर्वकाल में, जीवन में सुख-समृद्धियों बहुतायत के कारण जिस युग को सतयुग के नाम से याद किया जाता है, उसमें और कोई विशेषता नहीं थी—यदि विशेषता थी तो यही कि उस युग के मनुष्यों का जीवन अध्यात्म की प्रेरणा से ही अनुप्राणित रहता था। आज उस तत्व की उपेक्षा होने से जीवन में चारों ओर अभाव, अशांति और असन्तोष व्याप्त हो गया है और इन्हीं अभिशापों के कारण ही आज का युग कलियुग के कलंकित नाम से पुकारा जाता है।
अपने युग का कलंक आध्यात्मिक जीवन पद्धति अपनाकर जब मिटाया जा सकता है तो क्यों न मिटाया जाना चाहिये और अवश्य मिटाया जाना चाहिये। अपने युग को लांछित अथवा यशस्वी बनाना उस युग के मनुष्यों पर ही निर्भर है, तब क्यों न हम सब आध्यात्मिक पद्धति का समावेश कर अपने युग को भी उतना ही सम्मानित एवं सुस्मरणीय बना दें, जितना कि सतयुग के मनुष्यों ने अपने आचरण द्वारा अपने युग को बनाया था।