
लौकिक सुखों का एक मात्र आधार
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अनेकों गुत्थियों और समस्याओं के साथ मनुष्य का जीवन उलझा हुआ है। उन्हें वह सुलझाना चाहता है और शान्ति पूर्वक रहना चाहता है पर वे सुलझ नहीं पातीं। कारण यह है कि समस्याओं का वास्तविक स्वरूप एवं सुलझने का सही तरीका मालूम न होने से इस प्रकार के प्रयत्न किए जाते हैं जो जड़ की उपेक्षा करके पत्तों को सींचने के समान हास्यास्पद सिद्ध होते हैं।
परमात्मा सबका पिता है। उसे अपने सभी पुत्र समान रूप से प्यारे हैं वह सब का हित और कल्याण चाहता है और सभी के लिए समान स्नेह से सुख साधन एवं सुविधायें प्रदान करता है। किन्तु देखा जाता है कि कितने ही व्यक्ति दुःखी और कितने ही सुखी हैं। इस भिन्नता का कारण कोई बाहरी व्यक्ति, परिस्थिति ग्रह नक्षत्र या देव दानव नहीं वरन् वह स्वयं ही है। प्रत्येक व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। प्रारब्ध और आकस्मिक हानि लाभ जो कि दैवी अनुग्रह या कोप समझे जाते हैं वस्तुतः हमारी अपनी निज की कृति ही हैं। भूतकाल में हमने जो कुछ शुभ-अशुभ कर्म किये हैं वे ही आज प्रारब्ध बन कर सामने खड़े होते हैं। पूर्व कृत शुभ कर्मों का जब सुखद परिपाक सामने आता है तब वह दैवी कृपा जैसा लगता है और जब अशुभ कर्मों का दुखदायी परिणाम सामने आता है तो वह ईश्वरीय कोप या भाग्य हीनता जैसा प्रतीत होता है। वस्तुतः अपनी प्रत्येक भली बुरी परिस्थिति का उत्तरदायित्व स्वयं अपने ऊपर ही होता है। सुख और दुख देने की शक्ति बाहर की अन्य किसी सत्ता में नहीं, वह तो व्यक्ति स्वयं ही है जो अपने लिये शुभ अशुभ परिस्थितियों का निर्माण किया करता है। मकड़ी अपना जाला स्वयं ही बुनती है और उसमें स्वयं उलझी रहती है। मनुष्य ने भी अपनी परिस्थितियों का जाला स्वयं बुना होता है और वह स्वयं ही उसमें फंसता रहता है।
इस तथ्य को हम जितना ही अधिक हृदयंगम करते हैं, उतना ही यह निश्चय होता जाता है कि अध्यात्म ही इस संसार का सबसे बड़ा, सबसे महत्वपूर्ण तत्वज्ञान है। यही सबसे बड़ी शिक्षा और यही सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता है। जिस आधार पर हमारे सुख-दुःख की उत्थान पतन की, सन्तोष असन्तोष की धुरी घूमती है उस पर ही सबसे अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। जड़ को सींचने से ही जब पत्ते हरें होंगे तो हर कुम्हलाये हुए पत्ते को अलग-अलग सींचने या उन पर हरा रंग पोतने का श्रम करने से क्या लाभ अनेकों प्रकार की गुत्थियां और परेशानियां हमारे सामने पड़ती हैं। यदि उनका उलझना और सुलझना हमारी आन्तरिक स्थिति पर ही निर्भर है तो बाह्य उपचारों की अपेक्षा अपने आन्तरिक स्तर का सुधार करने का ही प्रयत्न क्यों न किया जाय?
हर कोई सुखी रहना चाहता है। प्रचुर मात्रा में वैभव और ऐश्वर्य प्राप्त करना चाहता है। पर यह भूल जाता है कि इन्हें प्राप्त करने का स्वस्थ आधार पुण्य ही है। अतीत के शुभ कर्म ही कालान्तर में ऐश्वर्य और वैभव बनकर सामने आते हैं। किसी समय जिनने शुभ कर्मों पर, पुण्य परमार्थों पर अधिक श्रम किया था वे आज उसका प्रतिफल सुख सामग्री के रूप में उपलब्ध कर रहे हैं। कई व्यक्ति अनीति से भी धन कमाते या बड़े बनते देखे जाते हैं पर यह दृष्टि-भ्रम ही है।
अनीति का परिणाम तो राजदंड, ईश्वरीय दण्ड, अपयश और दुख ही हो सकता है। इसके विपरीत जिन्हें इससे लाभ मिल रहा है उनके बारे में यह विचित्र संयोग ही बन पड़ा है कि एक ओर वे पाप कर्म करके अपने भविष्य को बिगाड़ने में लगे हुए हैं और दूसरी ओर पूर्व संचित शुभ कर्मों का उदय होने से सुख सफलता भी मिल रही है। एक ओर पाप कर्मों का करना दूसरी ओर पूर्व कृत शुभ कर्मों के सत्परिणामों का उदय होना यह एक ऐसा विचित्र संयोग है कि मनुष्य भ्रम में पड़ जाता है और समझने लगता है कि पाप कर्मों से ही लाभ कमा लिया गया। यदि वस्तुतः ऐसा ही होता तो सभी दुष्ट कर्म करने वाले फलते फूलते और सुख सौभाग्य प्राप्त करते। पापियों में से कुछ थोड़े ही ऐसे होते हैं जो लाभदायक स्थिति में रहते हैं अधिकांश तो दुख दरिद्र में ही पड़े रहते हैं।
यह एक बहुत बड़ा और नितान्त भ्रम ही है कि पाप कर्मों द्वारा सुख साधन जुटाये जा सकते हैं। संयोगवश यदि पूर्वकृत सुकृतों का फल पाप कर्म करने के साथ ही मिलने भी लगे तो भी उन दुष्कृत्यों के कारण मन में इतनी अधिक जलन होती है कि उस लाभ से होने वाली प्रसन्नता उसके सामने बहुत ही तुच्छ सिद्ध होती है। ऐसे लोग कुछ कमाई कर लेने पर भी पश्चाताप और सन्ताप की आग में ही जलते रहते हैं।
सुख-सम्पत्ति का, श्री-ससृद्धि का, वैभव ऐश्वर्य का, एक मात्र आधार पुण्य है। जिन्हें सुख साधनों की इच्छा हो सत्कर्म करने चाहिए। यह सत्कर्म करने की प्रवृत्ति केवल मात्र अध्यात्म विचार धारा से ही उत्पन्न होती है और किसी प्रकार नहीं। इसलिये यह सुनिश्चित तथ्य मान ही लेना होगा कि यदि किसी को वस्तुतः सुखी रहने की आकांक्षा हो यदि कोई इसका ठोस और वास्तविक आधार प्राप्त करना चाहता हो तो उसे सन्मार्ग ही अपनाना होगा, सद्भावों को धारण करना होगा, सत्कर्मों को ही करना होगा और यह तभी संभव है जब मनःक्षेत्र में अध्यात्म विचारधारा की सुदृढ़ स्थापना हो। विचारों से ही क्रिया उत्पन्न होती है। प्रेरणा से ही प्रवाह बनता है। पुण्य परमार्थ की दिशा में विचार और प्रेरणा देने का कार्य आध्यात्मिकता पर ही निर्भर है। यही सुख की एक मात्र कुंजी है। जिसने इसे जाना और माना उसका सुख सुरक्षित है उसके लिए दुख दैन्य का कोई कारण शेष नहीं रह जाता।
देखते हैं कि आज सभ्य कहे जाने वाले वर्ग में अध्यात्म के प्रति उपेक्षा ही नहीं तिरस्कार भी है। जो व्यक्ति अध्यात्म की, लोक परलोक की, ईश्वर आत्मा की, भजन पूजन की बात करता है वह मूर्ख समझा जाता है। उसका मखौल बनाया जाता है। इस खेदजनक स्थिति का एक मात्र कारण यही है कि अध्यात्म का शुद्ध स्वरूप आज हमारी आंखों के आगे नहीं है। जिस तत्व ज्ञान का अवलम्बन करके प्राचीन काल में इस देश का प्रत्येक व्यक्ति नररत्न, महामानव, पुरुषार्थी, पराक्रमी, सद्गुणी, मनस्वी, दीर्घजीवी, निरोग, सम्पन्न, सुखी समृद्ध एवं सभी दिशाओं में सफल होता था, राजा अपने राजकुमारों को, श्रीमन्त अपने लाड़लों को, ऋषियों के आश्रमों में जिस अध्यात्म की शिक्षा प्राप्त करने भेजते थे और जिसे सीखकर वे पृथ्वी के देवता बनकर लौटते थे, वह अध्यात्म आज कहां है? यदि अपनी वह प्राचीन काल वाली उपयोगिता आध्यात्मिकता ने आज भी उपस्थित की होती तो निश्चय ही उसका गौरव और सम्मान अक्षुण्ण रहा होता। जिस प्रकार भौतिक विज्ञान का आज कोई तिरस्कार नहीं कर सकता, उसकी उपयोगिता और वास्तविकता के आगे सभी को सिर झुकाने के लिये विवश होना पड़ता है, वैसे ही यदि अध्यात्म विज्ञान भी अपने शुद्ध स्वरूप को कायम रख सका होता हो घर-घर में उस महाविज्ञान का सम्मान होता। प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको अध्यात्मवादी होने से गर्व अनुभव करता।
परन्तु आज तो स्थिति ही दूसरी है। जैसे हर चीज की नकल चल पड़ी है, असली का स्थान हर क्षेत्र में नकली को मिलता जा रहा है उसी प्रकार नकली अध्यात्म का भी झण्डा चारों ओर फहरा रहा है। निकम्मे, निठल्ले, हरामखोर, आलसी, दुर्गुणी, व्यसनी लोग बिना किसी श्रम, पुरुषार्थ, गुण एवं महानता के केवल रामनामी दुपट्टा ओढ़कर सन्त, महात्मा, सिद्ध, ज्ञानी और गुरु बन जाते हैं। वे कुछ राम नाम लेते हैं। इतनी मात्र विशेषता बना कर वे जनता से अपने लिए अमीरों जैसा बढ़िया किस्म का निर्वाह, ऐश आराम और पैर पुजाने का सम्मान प्राप्त करते हैं। दूसरी ओर उनकी शिक्षा को मानने वाले अपने परिवार को, समाज को, धर्म कर्तव्यों को, जिम्मेदारियों को तिलांजलि देकर संसार को मिथ्या बताने, भाग्य पर निर्भर रहने की विडम्बना में पड़ जाते हैं। ऐसे लोग सभी दिशाओं में असफल, आलसी, प्रमादी, और आजीविका की दृष्टि से भी पराश्रित होते देखे गये हैं। दुनिया हर चीज का मूल्य उसके प्रत्यक्ष स्वरूप को देखकर आंकती है। छप्पन लाख ‘अध्यात्मवादियों’ की यूनिफॉर्म धारी रजिस्टर्ड सेना तथा घर बाजारों में रहने वाली अन्ध भक्तों की उससे भी बड़ी मलेशिया सेना के गुण, कार्य कार्य और महत्व को देखकर हर विचारशील को बड़ी निराशा होती है। हर समझदार आदमी अपने को तथा बच्चों को उससे छूत की बीमारी की तरह बचाने की कोशिश करता है ताकि उसी प्रकार का घटिया जीवन उनके पल्ले भी न बंध जाय, वे भी उनकी तरह निकम्मे न बन जायें।
आज के नकली अध्यात्म का तिरस्कार होना उचित ही है। भजन भी अध्यात्म का अंग है पर केवल मात्र भजन तक ही वह सीमित नहीं है। उसका वास्तविक उद्देश्य है आत्मा का सर्वांगीण विकास। ईश्वर का भजन इसमें एक बड़ा आधार है। पर आत्म सुधार, आत्म निर्माण, आत्म विकास के सुव्यवस्थित आत्म विज्ञान को अनावश्यक तुच्छ एवं उपेक्षणीय मानकर केवल मात्र भजन करते रहने से भी कुछ विशेष लाभ संभव नहीं। ऐसे अगणित व्यक्ति देखे जाते हैं जो भजन सारे दिन करते हैं, पूजा पाठ में बहुत मन लगाते हैं, पर काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मत्सर की दृष्टि से वे सामान्य श्रेणी के लोगों से भी गये बीते हैं। इस का कारण यही है कि उनकी साधना एकांगी रही, भजन को ही उनने सब कुछ माना और आत्म-निरीक्षण आत्म-चिन्तन, आत्म-शोधन, आत्म-परिष्कार, आत्म–दर्शन एवं आत्म कल्याण के महान कार्य को हाथ में ही नहीं लिया। ऐसी अव्यवस्थित साधना के परिणामों से वैसी ही आशा की जा सकती है जैसी कि आज दृष्टिगोचर हो रही है।
अध्यात्म वस्तुतः एक महान विज्ञान है। इसे जीवन विद्या, संजीवनी विद्या कह सकते हैं। जीवन जैसे महान कार्य का सही उपयोग करना इसी ज्ञान के आधार पर संभव होता है। किसी बड़ी जागीर, मिल, फैक्टरी, फार्म, संस्था, उद्योग या विशालकाय मशीन को चलाने, सुधारने और लाभदायक स्थिति में रखने के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। यदि अनाड़ी हाथों में ऐसे बड़े काम सौंप दिये जायें तो अनर्थ की ही संभावना रहेगी। मानव जीवन ऐसी ही एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। चौरासी लाख योनियों के बाद प्राप्त हुआ, सृष्टि का सर्वोपरि उपहार, यह सुर दुर्लभ मनुष्य शरीर है। इसको ठीक प्रकार से जीने की भी एक सर्वांगपूर्ण विद्या है उसे ही अध्यात्म कहते हैं। जिसमें अध्यात्म का शुद्ध स्वरूप जान लिया और उसे अपना लिया उसके लिए यह मानव शरीर ऋद्धि-सिद्धियों का भण्डार है। सुख शान्ति का रत्न कोष है। आनन्द और उल्लास का खजाना है। ऐश्वर्य और वैभव कल्पवृक्ष है। अध्यात्म युक्त जीवन ही वह जीवन है जिसे प्राप्त कर मनुष्य अपने आप को देवता की स्थिति में पहुंचा हुआ, अनुभव करता है। लौकिक जीवन में जितने भी सुख साधन एवं प्रसन्नता दायक अवसर हैं उनका मूल अध्यात्म ही है। यदि इस विचारधारा का प्रभाव मन पर न हो तो पुण्य कर्म किस प्रकार बन पड़ेंगे? और उनके बिना सुख साधनों से परिपूर्ण प्रारब्ध कैसे बनेगा। स्त्री पुत्रों का, स्वजनों, परिजनों का सज्जन और सद्भाव सम्पन्न होना एक बहुत बड़ा सुख है। पर यह सुख उसे ही मिलता है, जिसने अपने स्वभाव और चरित्र को आदर्श बनाकर अपने निकटवर्ती लोगों को प्रभावित कर लिया है। दूसरों को सज्जन बनाने के लिए अपना सज्जन होना आवश्यक है।
क्रोधी बाप के बेटे अवज्ञाकारी ही हो सकते हैं। बालक के स्वभाव का बहुत कुछ निर्माण उसके जनम से पूर्व हो जाता है। माता-पिता के रज वीर्य से बच्चे का शरीर बनता है और उनके स्वभाव एवं चरित्र से उसका मन विनिर्मित होता है। अच्छी सन्तान पैदा करने के इच्छुक माता पिता को इसके लिए वर्षों पूर्व आत्म निर्माण की साधना करनी पड़ती है। अपना चेहरा कुरूप हो तो फोटो भी कुरूप ही खिंचेगा। माता-पिता का स्वभाव अव्यवस्थित हो तो उनके बालक कैसे सज्जन और सद्भावी होंगे? बच्चों को पौष्टिक भोजन कराके उन्हें स्वस्थ और कपड़े जेवर आदि से सजा कर सुन्दर बनाया जा सकता है पर उनके स्वभाव में श्रेष्ठता तो तभी आवेगी जब माता पिता अपनी श्रेष्ठता का प्रभाव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उन पर डालें।
यह कार्य आध्यात्मिक विचारधारा से ओत प्रोत दम्पत्ति ही कर सकते हैं। इसलिए उत्कृष्ट प्रकार की सन्तान प्राप्त करना भी उन्हीं के लिए संभव होता है। कभी कभी सज्जनों के घर में भी कुसंस्कारी बालक जन्मने के अपवाद होते तो हैं पर मोटा नियम यही है कि जैसे भावना प्रवाह में बालक पलता है वैसे संस्कार उसके बनते हैं और धीरे धीरे वह उसी ढांचे में ढल जाता है। उपदेशों से नहीं, बालक ढलते हैं श्रेष्ठता से और ढालने का श्रेष्ठ ढांचा एक मात्र अध्यात्म ही है।
यही बात परिवार के अन्य सदस्यों के ऊपर लागू होती है। पति-पत्नी में से एक भी उत्कृष्ट स्वभाव का हो तो दूसरे की अपूर्णता को बहुत हद तक दूर करके सभी को बहुत अंशों में अपने अनुकूल बना सकता है। व्यवहार की सज्जनता से परिवार के अन्य सदस्य भी अपने अनुकूल बन जाते हैं। मित्रों और सम्बन्धित व्यक्तियों पर भी यह बात बहुत हद तक लागू होती है।
सम्बन्धित व्यक्ति अपने अनुकूल स्वभाव और आचरण रखें, अपने प्रति सद्भाव रखें, तो उनके सान्निध्य में रहने से स्वर्ग जैसा सुख मिल सकता है। जिसके निकटवर्ती परिजन विरोधी स्वभाव रखते हैं, उसके लिए प्रत्यक्ष नरक ही है। भौतिक जीवन के इस स्वर्ग को नरक में और नरक को स्वर्ग में बदल देना हमारे अपने दृष्टिकोण एवं स्वभाव की उत्कृष्टता एवं निकृष्टता पर बहुत कुछ निर्भर है। अध्यात्म की ओर अभिमुख होकर यदि कोई मनुष्य अपने परिजनों को स्नेही एवं सहयोगी बना लेता है तो क्या यह कुछ लाभ है? धनी होना उतना सुखकर नहीं जितना स्नेही परिवार प्राप्त करना। यह दोनों ही सुख प्रदान करने की अनन्त क्षमता अध्यात्म विद्या में सन्निहित है। ऐसी महान विद्या की उपेक्षा करना निश्चित रूप से कोई समझदारी की बात नहीं है।
बहुत आमदनी होने पर तो कोई भी सुख साधन इकट्ठे कर सकता है पर अध्यात्मवादी के लिये कम आमदनी में भी धनियों की अपेक्षा अधिक सुख पूर्वक जीवन यापन करना सम्भव है। आमदनी की मर्यादा में ही अपना बजट चलाना, फिजूल खर्चियों को त्याग देना, मितव्ययिता और विवेकपूर्वक एक-एक पाई का खर्च करना, शौकीनी और विलासिता से घृणा करते हुए सादगी को अपनाना, खर्च में दूसरों की होड़ न करके अपनी ही परिस्थितियों में सन्तोष रखना, आदि अनेक सद्गुण आध्यात्मिकता की ही देन हैं, जो गरीबी में भी अमीरी का आनन्द उपलब्ध करा सकते हैं। इन गुणों के होने पर गरीबी गरीबी नहीं लगती और इनके अभाव में अमीरी भी रूखी फीकी, असन्तोष जनक एवं अपर्याप्त लगती है।
स्वास्थ्य की समस्या का सम्बन्ध लोग पौष्टिक आहार से जोड़ते हैं। सोचते हैं कि बढ़िया खाना मिले तो तन्दुरुस्ती बढ़े। पर वास्तविकता यह है कि मानसिक स्थिति पर ही आरोग्य निर्भर रहता है। हंस मुख चिन्ता रहित, सरल स्वभाव, निष्कपट, सदाचारी व्यक्ति आमतौर से स्वस्थ रहते हैं क्योंकि उनका अन्तःकरण उस आग में नहीं जलता रहता जो स्वास्थ्य को चौपट करने में सबसे बड़ा कारण सिद्ध होती है। असंयम भी स्वास्थ्य की बर्बादी का एक महत्वपूर्ण कारण है, जिह्वा का चटोरापन, अंटशंट चीजें अनावश्यक मात्रा में पेट में ठूंसते रहने के फल स्वरूप आंतें खराब होती हैं, रक्त दूषित होता है और नाना प्रकार की बीमारियां जड़ जमाती हैं। ब्रह्मचर्य सम्बन्धी असंयम शरीर को खोखला कर देता है और युवावस्था में ही बुढ़ापा लाकर अल्पायु में मरने के लिए विवश करता है। इससे शरीर का हर अंग क्षीण और दुर्बल होने लगता है और बीमारियां घेरती हैं।
लौकिक जीवन में आरोग्य, धन, स्नेह, सौजन्य-यह चार ही सबसे बड़ी विभूतियां मानी गई हैं इन्हीं से मनुष्य अपने को सुखी अनुभव करता है यह चारों ही विभूतियां अध्यात्म के छोटे से उपहार हैं जिन्हें सच्चे अध्यात्मवाद का कोई भी उपासक निश्चित रूप से प्राप्त कर सकता है। आन्तरिक जीवन की वह सुख समृद्धि तो इन लाभों के अतिरिक्त ही है जिन्हें प्राप्त करने वाला अपने को सब प्रकार धन्य और कृतकृत्य अनुभव करता है।
परमात्मा सबका पिता है। उसे अपने सभी पुत्र समान रूप से प्यारे हैं वह सब का हित और कल्याण चाहता है और सभी के लिए समान स्नेह से सुख साधन एवं सुविधायें प्रदान करता है। किन्तु देखा जाता है कि कितने ही व्यक्ति दुःखी और कितने ही सुखी हैं। इस भिन्नता का कारण कोई बाहरी व्यक्ति, परिस्थिति ग्रह नक्षत्र या देव दानव नहीं वरन् वह स्वयं ही है। प्रत्येक व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। प्रारब्ध और आकस्मिक हानि लाभ जो कि दैवी अनुग्रह या कोप समझे जाते हैं वस्तुतः हमारी अपनी निज की कृति ही हैं। भूतकाल में हमने जो कुछ शुभ-अशुभ कर्म किये हैं वे ही आज प्रारब्ध बन कर सामने खड़े होते हैं। पूर्व कृत शुभ कर्मों का जब सुखद परिपाक सामने आता है तब वह दैवी कृपा जैसा लगता है और जब अशुभ कर्मों का दुखदायी परिणाम सामने आता है तो वह ईश्वरीय कोप या भाग्य हीनता जैसा प्रतीत होता है। वस्तुतः अपनी प्रत्येक भली बुरी परिस्थिति का उत्तरदायित्व स्वयं अपने ऊपर ही होता है। सुख और दुख देने की शक्ति बाहर की अन्य किसी सत्ता में नहीं, वह तो व्यक्ति स्वयं ही है जो अपने लिये शुभ अशुभ परिस्थितियों का निर्माण किया करता है। मकड़ी अपना जाला स्वयं ही बुनती है और उसमें स्वयं उलझी रहती है। मनुष्य ने भी अपनी परिस्थितियों का जाला स्वयं बुना होता है और वह स्वयं ही उसमें फंसता रहता है।
इस तथ्य को हम जितना ही अधिक हृदयंगम करते हैं, उतना ही यह निश्चय होता जाता है कि अध्यात्म ही इस संसार का सबसे बड़ा, सबसे महत्वपूर्ण तत्वज्ञान है। यही सबसे बड़ी शिक्षा और यही सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता है। जिस आधार पर हमारे सुख-दुःख की उत्थान पतन की, सन्तोष असन्तोष की धुरी घूमती है उस पर ही सबसे अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। जड़ को सींचने से ही जब पत्ते हरें होंगे तो हर कुम्हलाये हुए पत्ते को अलग-अलग सींचने या उन पर हरा रंग पोतने का श्रम करने से क्या लाभ अनेकों प्रकार की गुत्थियां और परेशानियां हमारे सामने पड़ती हैं। यदि उनका उलझना और सुलझना हमारी आन्तरिक स्थिति पर ही निर्भर है तो बाह्य उपचारों की अपेक्षा अपने आन्तरिक स्तर का सुधार करने का ही प्रयत्न क्यों न किया जाय?
हर कोई सुखी रहना चाहता है। प्रचुर मात्रा में वैभव और ऐश्वर्य प्राप्त करना चाहता है। पर यह भूल जाता है कि इन्हें प्राप्त करने का स्वस्थ आधार पुण्य ही है। अतीत के शुभ कर्म ही कालान्तर में ऐश्वर्य और वैभव बनकर सामने आते हैं। किसी समय जिनने शुभ कर्मों पर, पुण्य परमार्थों पर अधिक श्रम किया था वे आज उसका प्रतिफल सुख सामग्री के रूप में उपलब्ध कर रहे हैं। कई व्यक्ति अनीति से भी धन कमाते या बड़े बनते देखे जाते हैं पर यह दृष्टि-भ्रम ही है।
अनीति का परिणाम तो राजदंड, ईश्वरीय दण्ड, अपयश और दुख ही हो सकता है। इसके विपरीत जिन्हें इससे लाभ मिल रहा है उनके बारे में यह विचित्र संयोग ही बन पड़ा है कि एक ओर वे पाप कर्म करके अपने भविष्य को बिगाड़ने में लगे हुए हैं और दूसरी ओर पूर्व संचित शुभ कर्मों का उदय होने से सुख सफलता भी मिल रही है। एक ओर पाप कर्मों का करना दूसरी ओर पूर्व कृत शुभ कर्मों के सत्परिणामों का उदय होना यह एक ऐसा विचित्र संयोग है कि मनुष्य भ्रम में पड़ जाता है और समझने लगता है कि पाप कर्मों से ही लाभ कमा लिया गया। यदि वस्तुतः ऐसा ही होता तो सभी दुष्ट कर्म करने वाले फलते फूलते और सुख सौभाग्य प्राप्त करते। पापियों में से कुछ थोड़े ही ऐसे होते हैं जो लाभदायक स्थिति में रहते हैं अधिकांश तो दुख दरिद्र में ही पड़े रहते हैं।
यह एक बहुत बड़ा और नितान्त भ्रम ही है कि पाप कर्मों द्वारा सुख साधन जुटाये जा सकते हैं। संयोगवश यदि पूर्वकृत सुकृतों का फल पाप कर्म करने के साथ ही मिलने भी लगे तो भी उन दुष्कृत्यों के कारण मन में इतनी अधिक जलन होती है कि उस लाभ से होने वाली प्रसन्नता उसके सामने बहुत ही तुच्छ सिद्ध होती है। ऐसे लोग कुछ कमाई कर लेने पर भी पश्चाताप और सन्ताप की आग में ही जलते रहते हैं।
सुख-सम्पत्ति का, श्री-ससृद्धि का, वैभव ऐश्वर्य का, एक मात्र आधार पुण्य है। जिन्हें सुख साधनों की इच्छा हो सत्कर्म करने चाहिए। यह सत्कर्म करने की प्रवृत्ति केवल मात्र अध्यात्म विचार धारा से ही उत्पन्न होती है और किसी प्रकार नहीं। इसलिये यह सुनिश्चित तथ्य मान ही लेना होगा कि यदि किसी को वस्तुतः सुखी रहने की आकांक्षा हो यदि कोई इसका ठोस और वास्तविक आधार प्राप्त करना चाहता हो तो उसे सन्मार्ग ही अपनाना होगा, सद्भावों को धारण करना होगा, सत्कर्मों को ही करना होगा और यह तभी संभव है जब मनःक्षेत्र में अध्यात्म विचारधारा की सुदृढ़ स्थापना हो। विचारों से ही क्रिया उत्पन्न होती है। प्रेरणा से ही प्रवाह बनता है। पुण्य परमार्थ की दिशा में विचार और प्रेरणा देने का कार्य आध्यात्मिकता पर ही निर्भर है। यही सुख की एक मात्र कुंजी है। जिसने इसे जाना और माना उसका सुख सुरक्षित है उसके लिए दुख दैन्य का कोई कारण शेष नहीं रह जाता।
देखते हैं कि आज सभ्य कहे जाने वाले वर्ग में अध्यात्म के प्रति उपेक्षा ही नहीं तिरस्कार भी है। जो व्यक्ति अध्यात्म की, लोक परलोक की, ईश्वर आत्मा की, भजन पूजन की बात करता है वह मूर्ख समझा जाता है। उसका मखौल बनाया जाता है। इस खेदजनक स्थिति का एक मात्र कारण यही है कि अध्यात्म का शुद्ध स्वरूप आज हमारी आंखों के आगे नहीं है। जिस तत्व ज्ञान का अवलम्बन करके प्राचीन काल में इस देश का प्रत्येक व्यक्ति नररत्न, महामानव, पुरुषार्थी, पराक्रमी, सद्गुणी, मनस्वी, दीर्घजीवी, निरोग, सम्पन्न, सुखी समृद्ध एवं सभी दिशाओं में सफल होता था, राजा अपने राजकुमारों को, श्रीमन्त अपने लाड़लों को, ऋषियों के आश्रमों में जिस अध्यात्म की शिक्षा प्राप्त करने भेजते थे और जिसे सीखकर वे पृथ्वी के देवता बनकर लौटते थे, वह अध्यात्म आज कहां है? यदि अपनी वह प्राचीन काल वाली उपयोगिता आध्यात्मिकता ने आज भी उपस्थित की होती तो निश्चय ही उसका गौरव और सम्मान अक्षुण्ण रहा होता। जिस प्रकार भौतिक विज्ञान का आज कोई तिरस्कार नहीं कर सकता, उसकी उपयोगिता और वास्तविकता के आगे सभी को सिर झुकाने के लिये विवश होना पड़ता है, वैसे ही यदि अध्यात्म विज्ञान भी अपने शुद्ध स्वरूप को कायम रख सका होता हो घर-घर में उस महाविज्ञान का सम्मान होता। प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको अध्यात्मवादी होने से गर्व अनुभव करता।
परन्तु आज तो स्थिति ही दूसरी है। जैसे हर चीज की नकल चल पड़ी है, असली का स्थान हर क्षेत्र में नकली को मिलता जा रहा है उसी प्रकार नकली अध्यात्म का भी झण्डा चारों ओर फहरा रहा है। निकम्मे, निठल्ले, हरामखोर, आलसी, दुर्गुणी, व्यसनी लोग बिना किसी श्रम, पुरुषार्थ, गुण एवं महानता के केवल रामनामी दुपट्टा ओढ़कर सन्त, महात्मा, सिद्ध, ज्ञानी और गुरु बन जाते हैं। वे कुछ राम नाम लेते हैं। इतनी मात्र विशेषता बना कर वे जनता से अपने लिए अमीरों जैसा बढ़िया किस्म का निर्वाह, ऐश आराम और पैर पुजाने का सम्मान प्राप्त करते हैं। दूसरी ओर उनकी शिक्षा को मानने वाले अपने परिवार को, समाज को, धर्म कर्तव्यों को, जिम्मेदारियों को तिलांजलि देकर संसार को मिथ्या बताने, भाग्य पर निर्भर रहने की विडम्बना में पड़ जाते हैं। ऐसे लोग सभी दिशाओं में असफल, आलसी, प्रमादी, और आजीविका की दृष्टि से भी पराश्रित होते देखे गये हैं। दुनिया हर चीज का मूल्य उसके प्रत्यक्ष स्वरूप को देखकर आंकती है। छप्पन लाख ‘अध्यात्मवादियों’ की यूनिफॉर्म धारी रजिस्टर्ड सेना तथा घर बाजारों में रहने वाली अन्ध भक्तों की उससे भी बड़ी मलेशिया सेना के गुण, कार्य कार्य और महत्व को देखकर हर विचारशील को बड़ी निराशा होती है। हर समझदार आदमी अपने को तथा बच्चों को उससे छूत की बीमारी की तरह बचाने की कोशिश करता है ताकि उसी प्रकार का घटिया जीवन उनके पल्ले भी न बंध जाय, वे भी उनकी तरह निकम्मे न बन जायें।
आज के नकली अध्यात्म का तिरस्कार होना उचित ही है। भजन भी अध्यात्म का अंग है पर केवल मात्र भजन तक ही वह सीमित नहीं है। उसका वास्तविक उद्देश्य है आत्मा का सर्वांगीण विकास। ईश्वर का भजन इसमें एक बड़ा आधार है। पर आत्म सुधार, आत्म निर्माण, आत्म विकास के सुव्यवस्थित आत्म विज्ञान को अनावश्यक तुच्छ एवं उपेक्षणीय मानकर केवल मात्र भजन करते रहने से भी कुछ विशेष लाभ संभव नहीं। ऐसे अगणित व्यक्ति देखे जाते हैं जो भजन सारे दिन करते हैं, पूजा पाठ में बहुत मन लगाते हैं, पर काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मत्सर की दृष्टि से वे सामान्य श्रेणी के लोगों से भी गये बीते हैं। इस का कारण यही है कि उनकी साधना एकांगी रही, भजन को ही उनने सब कुछ माना और आत्म-निरीक्षण आत्म-चिन्तन, आत्म-शोधन, आत्म-परिष्कार, आत्म–दर्शन एवं आत्म कल्याण के महान कार्य को हाथ में ही नहीं लिया। ऐसी अव्यवस्थित साधना के परिणामों से वैसी ही आशा की जा सकती है जैसी कि आज दृष्टिगोचर हो रही है।
अध्यात्म वस्तुतः एक महान विज्ञान है। इसे जीवन विद्या, संजीवनी विद्या कह सकते हैं। जीवन जैसे महान कार्य का सही उपयोग करना इसी ज्ञान के आधार पर संभव होता है। किसी बड़ी जागीर, मिल, फैक्टरी, फार्म, संस्था, उद्योग या विशालकाय मशीन को चलाने, सुधारने और लाभदायक स्थिति में रखने के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। यदि अनाड़ी हाथों में ऐसे बड़े काम सौंप दिये जायें तो अनर्थ की ही संभावना रहेगी। मानव जीवन ऐसी ही एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। चौरासी लाख योनियों के बाद प्राप्त हुआ, सृष्टि का सर्वोपरि उपहार, यह सुर दुर्लभ मनुष्य शरीर है। इसको ठीक प्रकार से जीने की भी एक सर्वांगपूर्ण विद्या है उसे ही अध्यात्म कहते हैं। जिसमें अध्यात्म का शुद्ध स्वरूप जान लिया और उसे अपना लिया उसके लिए यह मानव शरीर ऋद्धि-सिद्धियों का भण्डार है। सुख शान्ति का रत्न कोष है। आनन्द और उल्लास का खजाना है। ऐश्वर्य और वैभव कल्पवृक्ष है। अध्यात्म युक्त जीवन ही वह जीवन है जिसे प्राप्त कर मनुष्य अपने आप को देवता की स्थिति में पहुंचा हुआ, अनुभव करता है। लौकिक जीवन में जितने भी सुख साधन एवं प्रसन्नता दायक अवसर हैं उनका मूल अध्यात्म ही है। यदि इस विचारधारा का प्रभाव मन पर न हो तो पुण्य कर्म किस प्रकार बन पड़ेंगे? और उनके बिना सुख साधनों से परिपूर्ण प्रारब्ध कैसे बनेगा। स्त्री पुत्रों का, स्वजनों, परिजनों का सज्जन और सद्भाव सम्पन्न होना एक बहुत बड़ा सुख है। पर यह सुख उसे ही मिलता है, जिसने अपने स्वभाव और चरित्र को आदर्श बनाकर अपने निकटवर्ती लोगों को प्रभावित कर लिया है। दूसरों को सज्जन बनाने के लिए अपना सज्जन होना आवश्यक है।
क्रोधी बाप के बेटे अवज्ञाकारी ही हो सकते हैं। बालक के स्वभाव का बहुत कुछ निर्माण उसके जनम से पूर्व हो जाता है। माता-पिता के रज वीर्य से बच्चे का शरीर बनता है और उनके स्वभाव एवं चरित्र से उसका मन विनिर्मित होता है। अच्छी सन्तान पैदा करने के इच्छुक माता पिता को इसके लिए वर्षों पूर्व आत्म निर्माण की साधना करनी पड़ती है। अपना चेहरा कुरूप हो तो फोटो भी कुरूप ही खिंचेगा। माता-पिता का स्वभाव अव्यवस्थित हो तो उनके बालक कैसे सज्जन और सद्भावी होंगे? बच्चों को पौष्टिक भोजन कराके उन्हें स्वस्थ और कपड़े जेवर आदि से सजा कर सुन्दर बनाया जा सकता है पर उनके स्वभाव में श्रेष्ठता तो तभी आवेगी जब माता पिता अपनी श्रेष्ठता का प्रभाव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उन पर डालें।
यह कार्य आध्यात्मिक विचारधारा से ओत प्रोत दम्पत्ति ही कर सकते हैं। इसलिए उत्कृष्ट प्रकार की सन्तान प्राप्त करना भी उन्हीं के लिए संभव होता है। कभी कभी सज्जनों के घर में भी कुसंस्कारी बालक जन्मने के अपवाद होते तो हैं पर मोटा नियम यही है कि जैसे भावना प्रवाह में बालक पलता है वैसे संस्कार उसके बनते हैं और धीरे धीरे वह उसी ढांचे में ढल जाता है। उपदेशों से नहीं, बालक ढलते हैं श्रेष्ठता से और ढालने का श्रेष्ठ ढांचा एक मात्र अध्यात्म ही है।
यही बात परिवार के अन्य सदस्यों के ऊपर लागू होती है। पति-पत्नी में से एक भी उत्कृष्ट स्वभाव का हो तो दूसरे की अपूर्णता को बहुत हद तक दूर करके सभी को बहुत अंशों में अपने अनुकूल बना सकता है। व्यवहार की सज्जनता से परिवार के अन्य सदस्य भी अपने अनुकूल बन जाते हैं। मित्रों और सम्बन्धित व्यक्तियों पर भी यह बात बहुत हद तक लागू होती है।
सम्बन्धित व्यक्ति अपने अनुकूल स्वभाव और आचरण रखें, अपने प्रति सद्भाव रखें, तो उनके सान्निध्य में रहने से स्वर्ग जैसा सुख मिल सकता है। जिसके निकटवर्ती परिजन विरोधी स्वभाव रखते हैं, उसके लिए प्रत्यक्ष नरक ही है। भौतिक जीवन के इस स्वर्ग को नरक में और नरक को स्वर्ग में बदल देना हमारे अपने दृष्टिकोण एवं स्वभाव की उत्कृष्टता एवं निकृष्टता पर बहुत कुछ निर्भर है। अध्यात्म की ओर अभिमुख होकर यदि कोई मनुष्य अपने परिजनों को स्नेही एवं सहयोगी बना लेता है तो क्या यह कुछ लाभ है? धनी होना उतना सुखकर नहीं जितना स्नेही परिवार प्राप्त करना। यह दोनों ही सुख प्रदान करने की अनन्त क्षमता अध्यात्म विद्या में सन्निहित है। ऐसी महान विद्या की उपेक्षा करना निश्चित रूप से कोई समझदारी की बात नहीं है।
बहुत आमदनी होने पर तो कोई भी सुख साधन इकट्ठे कर सकता है पर अध्यात्मवादी के लिये कम आमदनी में भी धनियों की अपेक्षा अधिक सुख पूर्वक जीवन यापन करना सम्भव है। आमदनी की मर्यादा में ही अपना बजट चलाना, फिजूल खर्चियों को त्याग देना, मितव्ययिता और विवेकपूर्वक एक-एक पाई का खर्च करना, शौकीनी और विलासिता से घृणा करते हुए सादगी को अपनाना, खर्च में दूसरों की होड़ न करके अपनी ही परिस्थितियों में सन्तोष रखना, आदि अनेक सद्गुण आध्यात्मिकता की ही देन हैं, जो गरीबी में भी अमीरी का आनन्द उपलब्ध करा सकते हैं। इन गुणों के होने पर गरीबी गरीबी नहीं लगती और इनके अभाव में अमीरी भी रूखी फीकी, असन्तोष जनक एवं अपर्याप्त लगती है।
स्वास्थ्य की समस्या का सम्बन्ध लोग पौष्टिक आहार से जोड़ते हैं। सोचते हैं कि बढ़िया खाना मिले तो तन्दुरुस्ती बढ़े। पर वास्तविकता यह है कि मानसिक स्थिति पर ही आरोग्य निर्भर रहता है। हंस मुख चिन्ता रहित, सरल स्वभाव, निष्कपट, सदाचारी व्यक्ति आमतौर से स्वस्थ रहते हैं क्योंकि उनका अन्तःकरण उस आग में नहीं जलता रहता जो स्वास्थ्य को चौपट करने में सबसे बड़ा कारण सिद्ध होती है। असंयम भी स्वास्थ्य की बर्बादी का एक महत्वपूर्ण कारण है, जिह्वा का चटोरापन, अंटशंट चीजें अनावश्यक मात्रा में पेट में ठूंसते रहने के फल स्वरूप आंतें खराब होती हैं, रक्त दूषित होता है और नाना प्रकार की बीमारियां जड़ जमाती हैं। ब्रह्मचर्य सम्बन्धी असंयम शरीर को खोखला कर देता है और युवावस्था में ही बुढ़ापा लाकर अल्पायु में मरने के लिए विवश करता है। इससे शरीर का हर अंग क्षीण और दुर्बल होने लगता है और बीमारियां घेरती हैं।
लौकिक जीवन में आरोग्य, धन, स्नेह, सौजन्य-यह चार ही सबसे बड़ी विभूतियां मानी गई हैं इन्हीं से मनुष्य अपने को सुखी अनुभव करता है यह चारों ही विभूतियां अध्यात्म के छोटे से उपहार हैं जिन्हें सच्चे अध्यात्मवाद का कोई भी उपासक निश्चित रूप से प्राप्त कर सकता है। आन्तरिक जीवन की वह सुख समृद्धि तो इन लाभों के अतिरिक्त ही है जिन्हें प्राप्त करने वाला अपने को सब प्रकार धन्य और कृतकृत्य अनुभव करता है।