
क्या यही हमारी राय है?
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भावनाओं की गहराई में जाकर जब मानव-जीवन की सार्थकता पर विचार करते हैं तो यह स्पष्ट रूप से ज्ञान हो जाता है कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य बाह्य सुखोपभोग तक-सीमित नहीं। सांसारिक सुख जीवन को सरस और सर्वांगपूर्ण बनाये रखने की दृष्टि से उपयोगी हो सकते हैं किन्तु उन्हें ही साध्य मान लेना आत्म-कल्याण की सबसे बड़ी बाधा है। मनुष्य के दुःखों तथा अवनति का कारण बाह्य सुखों की अनियन्त्रित आकांक्षा के अतिरिक्त और कुछ हो नहीं सकता। आज सर्वत्र इन्द्रिय सुखों का ही इन्द्रजाल फैला हुआ है। इसी से मानव जीवन में गहरी अस्त-व्यस्तता समाई हुई है।
हमारा पतन इसीलिये नहीं हुआ कि हमारे पूर्वजों के बनाये हुए रीति-रिवाज और सामाजिक प्रतिबन्ध कठोर थे, खराब थे, वरन् इसलिये कि उन का जो सात्विक लक्ष्य था, उस पर पहुंचने के लिये जिस वातावरण और साधनों की आवश्यकता भी उनको बहिष्कृत किया गया और एक नये सिद्धान्त पर ही उन सभी को जोड़ दिया गया। जब तक हमारी परम्परायें, आत्म ज्ञान और अन्तःदर्शन की आवश्यकता की पूर्ति के आर्ष-सिद्धान्त के अनुसार रहीं तब तक बाह्य और आन्तरिक जीवन में सुख शान्ति और सन्तोष की परिस्थितियां बनी रहीं। किन्तु जैसे ही बाह्य सुखों की प्रधानता बढ़ी वैसे ही क्लेश, कलह और कटुता के दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम दिखाई देने लगे। यह हमारी अन्धानुकरण की प्रवृत्ति के कारण हुआ। हमारे पांव पाश्चात्य संस्कृति के रूपवान और आकर्षक पथ की ओर इस तरह बढ़े कि हमारे अपने आदर्श और सिद्धान्त पूर्णतया भौतिकवादी सिद्धान्तों पर विलीन हो गये। इन्द्रिय-जन्य सुखों को प्रधानता दी जाने लगी। परिणाम स्वरूप आध्यात्मिक जीवन का ढांचा ही लड़खड़ा गया।
भौतिक और आध्यात्मिक विचार धार में एक मौलिक मतभेद है। आध्यात्मिक आदर्श मनुष्य का जीवन अन्य प्राणियों की अपेक्षा श्रेष्ठतर मानते हैं और मनुष्य से दिव्य जीवन के दार्शनिक दृष्टिकोण को समझने की अपेक्षा करते हैं। दिव्य-जीवन का अर्थ है मानवीय सद्गुणों से समृद्ध, शुद्ध जीवन। इसमें आत्मकल्याण के निजी उद्देश्य के साथ विश्वकल्याण की आदर्श भावना सन्निहित है। अर्थात् मनुष्यों के बल, बुद्धि और पराक्रम को श्रेष्ठ साधन मानते हुये भी प्राणिमात्र के प्रति आत्म भावना ही हमारी विशेषता है। इसमें किसी के उत्पीड़न का कहीं भाव तक नहीं आता। विश्वसुख और विश्वशान्ति का इससे बढ़कर दूसरा आदर्श हो नहीं सकता। सरल शब्दों में हिल-मिलकर सांसारिक सुखों का उपयोग और आत्मकल्याण की दृढ़तर भावना ही पूर्वीय संस्कृति का स्वरूप है। इसी से मानवीय हितों की रक्षा सम्भव हो सकती है।
किन्तु भौतिकतावादी मान्यता का रूप ही कुछ दूसरा है। उन की सम्पूर्ण परम्परायें रीति और रिवाज वाह्य जगत सुखों को प्राप्त करने के साधन मात्र हैं अर्थात् सुख चाहे वह किसी से छीन कर प्राप्त किये जायं अथवा मनुष्येत्तर प्राणियों की हिंसा द्वारा प्राप्त हों उनको पा लेना दुष्कृत्य नहीं बुद्धिमत्ता मानी जाती है। इससे वहां के आचार-विचार और जीवन यापन के विभिन्न व्यवसायों में भी वैसे ही भयानकता छाई हुई है। तलाक के बड़े-बड़े आंकड़े छापना ही मानो उनकी बुद्धि का और सभ्यता का प्रतीक है। माता-पिता के प्रति सद्भावना की कमी, सामाजिक-जीवन में स्वार्थपरता, बेईमानी, चोरी, झूठ छल कपट, आडम्बर—यही सब विशेषतायें हमने भी उनसे सीख ली। छोटी छोटी बातों में कानून की शरण, धन का अपव्यय और उसे प्राप्त करने के लिये अनैतिक आचरण करना, अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के लिये पशु पक्षियों तक का हाड़-मांस और खून चूस लेने में ही जो अपनी विशेषता समझता हो उसे भी कोई बुद्धिमान व्यक्ति भला कहेगा। ऐसी घृणित परम्परायें जिस समाज तथा राष्ट्र में फैल रही हों उन्हें क्या तो सुख प्राप्त होंगे क्या उनका आत्मकल्याण होगा। दर-दर की ठोकरें खाना, क्षुब्ध अशान्त और उद्विग्नता के दुष्परिणाम ही उन्हें मिल सकते थे, वही मिले भी। ऐसी अवस्था में धर्म और अध्यात्मवाद को दोष लगाना उचित नहीं हैं। दुःख के परिणाम हमने स्वयं पैदा किये हैं। इसका दोषारोपण किसी दूसरे पर करने का हमारा कोई अधिकार नहीं है।
भौतिक सभ्यता का अनुकरण आज जिस तेजी से हो रहा है—लोगों का नैतिक पतन भी उसी गति से हो रहा है। स्वामी विवेकानन्द ने वर्षों पहले इस बात की चेतावनी देकर हमें सतर्क किया था। उन्होंने कहा था—‘‘ध्यान रखो, यदि तुम आध्यात्मिकता का त्याग कर दोगे और इसे एक ओर रखकर पश्चिम की जड़वादपूर्ण सभ्यता के पीछे भागने लगोगे तो तुम्हारा अब तक का सम्पूर्ण गौरव समाप्त हो जावेगा, तुम्हारी जाति मरी समझी जायगी, और राष्ट्र की सुदृढ़ नींव जिस पर इसका निर्माण हुआ है पतन के गहरे गर्त में चली जायेगी—इसका प्रतिफल सर्वनाश के अतिरिक्त और कुछ न होगा।
भौतिक सभ्यता का प्रभाव हमारे खान-पान से लेकर रीति रिवाजों तक आ गया है या यूं कहिये कि हम पूर्ण तथा अभारतीय बनते चले जा रहे हैं। हमारे वस्त्र ऐसे हो रहे हैं कि देखने वाली की आंखों में शरारत और कामुकता नाचने लगती है। सिनेमा-साहित्य, नाच, स्नो पाउडर की भरमार ऐसी बढ़ती है कि लोगों का सारा धन, समय और शक्तियां इन्हीं में बर्बाद हो रही हैं। खान-पान, बोली भाषा, आचार-विचार सभी बदल गये। अपने परिवार के प्रति क्या कर्त्तव्य होने चाहिए शिक्षा का स्वरूप कैसा हो, जीवन कैसे जियें—यह किसी को मालूम तक नहीं है। अवांछनीय प्रतियोगिताओं की बाढ़ में अनैतिकता की बन आई है। स्त्रियों और कुमारियों में सौन्दर्य प्रदर्शन की भावना इतना उग्र रूप धारण करती जा रही है कि पुरुषों की आंखें धर्म के मारे झुकी जा रही हैं। घर के लोग खाने पीने के लिए तड़पे और कुछ चालाक व्यक्ति शौक मौज का जीवन बितायें। स्त्री और पुरुष के भेद को मिटा देने वाली इस जड़ सभ्यता ने कितना पैशाचिक उत्पीड़न किया है इस समाज का कि देखने वालों का दम घुटा जा रहा है। चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ है। क्या यही हमारी सभ्यता है? इसी को संस्कृत कहें? हमारे गौरव, हमारी कीर्ति और हमारी सम्पन्नता का भारतवर्ष यह नहीं है। यह तो बहका हुआ कदम है जो विदेशियों की राह पर चल रहा है और उसी में नष्ट हो जाना है।
भारतीय धर्म वह था जो ‘‘जीवन-सिद्ध’’ को साकार रूप दे चुका था। यहां दाम्पत्य प्रेम, पितृ भक्ति, मातृ-पूजा, मातृ स्नेह सभी एक से एक बढ़ चढ़कर थे। लोगों के आहार कितने सरल और सात्विक थे। संयम और ब्रह्मचर्य की गरिमा से चेहरे प्राणवान्, कान्ति युक्त तथा ओजस्वी हुआ करते थे सदाचार, प्रेम न्याय और आत्मीयता की भावनाओं के कारण सभी ओर सुख और सन्तोष छाया रहता था। इस पुण्य भूमि पर देवता भी जीवन प्राप्त करने की कामना किया करते थे। भौतिक और आध्यात्मिक सम्मिश्रण के कारण लौकिक जीवन तो सुख और शान्ति से पूरित हुआ ही करते थे पारलौकिक अनुभूतियां भी यहां उपलब्ध हुआ करती थीं। जो एक ऐसे ठोस दर्शनशास्त्र पर आधारित रहती थीं कि दूसरे देश वाले इस पुण्य भूमि के दर्शन करना अपना भाग्य समझते थे।
हमें भौतिक मान्यताओं की रूढ़िवादिता से बाहर निकलकर विवेकशील मनुष्य बनना पड़ेगा। अपने दृष्टिकोण को परिष्कृत करना होगा। मनुष्य जीवन को सच्चे दृष्टिकोण से देखने की दार्शनिक बुद्धि विकसित किये बिना मानवीय प्रगति सम्भव हो नहीं सकती। पूर्णतया भोगवादी जीवन के परिणाम दुःखदायी ही होते हैं। हम आध्यात्मिक और भौतिक समृद्धि के सम्मिश्रित मार्ग को समझे और उस पर चले तो मानव जीवन का सच्चा आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। यही हमारी पर्व परम्परा है और अब इसी राह पर चलने के लिए हमें समुन्नत होना है।
हमारा पतन इसीलिये नहीं हुआ कि हमारे पूर्वजों के बनाये हुए रीति-रिवाज और सामाजिक प्रतिबन्ध कठोर थे, खराब थे, वरन् इसलिये कि उन का जो सात्विक लक्ष्य था, उस पर पहुंचने के लिये जिस वातावरण और साधनों की आवश्यकता भी उनको बहिष्कृत किया गया और एक नये सिद्धान्त पर ही उन सभी को जोड़ दिया गया। जब तक हमारी परम्परायें, आत्म ज्ञान और अन्तःदर्शन की आवश्यकता की पूर्ति के आर्ष-सिद्धान्त के अनुसार रहीं तब तक बाह्य और आन्तरिक जीवन में सुख शान्ति और सन्तोष की परिस्थितियां बनी रहीं। किन्तु जैसे ही बाह्य सुखों की प्रधानता बढ़ी वैसे ही क्लेश, कलह और कटुता के दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम दिखाई देने लगे। यह हमारी अन्धानुकरण की प्रवृत्ति के कारण हुआ। हमारे पांव पाश्चात्य संस्कृति के रूपवान और आकर्षक पथ की ओर इस तरह बढ़े कि हमारे अपने आदर्श और सिद्धान्त पूर्णतया भौतिकवादी सिद्धान्तों पर विलीन हो गये। इन्द्रिय-जन्य सुखों को प्रधानता दी जाने लगी। परिणाम स्वरूप आध्यात्मिक जीवन का ढांचा ही लड़खड़ा गया।
भौतिक और आध्यात्मिक विचार धार में एक मौलिक मतभेद है। आध्यात्मिक आदर्श मनुष्य का जीवन अन्य प्राणियों की अपेक्षा श्रेष्ठतर मानते हैं और मनुष्य से दिव्य जीवन के दार्शनिक दृष्टिकोण को समझने की अपेक्षा करते हैं। दिव्य-जीवन का अर्थ है मानवीय सद्गुणों से समृद्ध, शुद्ध जीवन। इसमें आत्मकल्याण के निजी उद्देश्य के साथ विश्वकल्याण की आदर्श भावना सन्निहित है। अर्थात् मनुष्यों के बल, बुद्धि और पराक्रम को श्रेष्ठ साधन मानते हुये भी प्राणिमात्र के प्रति आत्म भावना ही हमारी विशेषता है। इसमें किसी के उत्पीड़न का कहीं भाव तक नहीं आता। विश्वसुख और विश्वशान्ति का इससे बढ़कर दूसरा आदर्श हो नहीं सकता। सरल शब्दों में हिल-मिलकर सांसारिक सुखों का उपयोग और आत्मकल्याण की दृढ़तर भावना ही पूर्वीय संस्कृति का स्वरूप है। इसी से मानवीय हितों की रक्षा सम्भव हो सकती है।
किन्तु भौतिकतावादी मान्यता का रूप ही कुछ दूसरा है। उन की सम्पूर्ण परम्परायें रीति और रिवाज वाह्य जगत सुखों को प्राप्त करने के साधन मात्र हैं अर्थात् सुख चाहे वह किसी से छीन कर प्राप्त किये जायं अथवा मनुष्येत्तर प्राणियों की हिंसा द्वारा प्राप्त हों उनको पा लेना दुष्कृत्य नहीं बुद्धिमत्ता मानी जाती है। इससे वहां के आचार-विचार और जीवन यापन के विभिन्न व्यवसायों में भी वैसे ही भयानकता छाई हुई है। तलाक के बड़े-बड़े आंकड़े छापना ही मानो उनकी बुद्धि का और सभ्यता का प्रतीक है। माता-पिता के प्रति सद्भावना की कमी, सामाजिक-जीवन में स्वार्थपरता, बेईमानी, चोरी, झूठ छल कपट, आडम्बर—यही सब विशेषतायें हमने भी उनसे सीख ली। छोटी छोटी बातों में कानून की शरण, धन का अपव्यय और उसे प्राप्त करने के लिये अनैतिक आचरण करना, अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के लिये पशु पक्षियों तक का हाड़-मांस और खून चूस लेने में ही जो अपनी विशेषता समझता हो उसे भी कोई बुद्धिमान व्यक्ति भला कहेगा। ऐसी घृणित परम्परायें जिस समाज तथा राष्ट्र में फैल रही हों उन्हें क्या तो सुख प्राप्त होंगे क्या उनका आत्मकल्याण होगा। दर-दर की ठोकरें खाना, क्षुब्ध अशान्त और उद्विग्नता के दुष्परिणाम ही उन्हें मिल सकते थे, वही मिले भी। ऐसी अवस्था में धर्म और अध्यात्मवाद को दोष लगाना उचित नहीं हैं। दुःख के परिणाम हमने स्वयं पैदा किये हैं। इसका दोषारोपण किसी दूसरे पर करने का हमारा कोई अधिकार नहीं है।
भौतिक सभ्यता का अनुकरण आज जिस तेजी से हो रहा है—लोगों का नैतिक पतन भी उसी गति से हो रहा है। स्वामी विवेकानन्द ने वर्षों पहले इस बात की चेतावनी देकर हमें सतर्क किया था। उन्होंने कहा था—‘‘ध्यान रखो, यदि तुम आध्यात्मिकता का त्याग कर दोगे और इसे एक ओर रखकर पश्चिम की जड़वादपूर्ण सभ्यता के पीछे भागने लगोगे तो तुम्हारा अब तक का सम्पूर्ण गौरव समाप्त हो जावेगा, तुम्हारी जाति मरी समझी जायगी, और राष्ट्र की सुदृढ़ नींव जिस पर इसका निर्माण हुआ है पतन के गहरे गर्त में चली जायेगी—इसका प्रतिफल सर्वनाश के अतिरिक्त और कुछ न होगा।
भौतिक सभ्यता का प्रभाव हमारे खान-पान से लेकर रीति रिवाजों तक आ गया है या यूं कहिये कि हम पूर्ण तथा अभारतीय बनते चले जा रहे हैं। हमारे वस्त्र ऐसे हो रहे हैं कि देखने वाली की आंखों में शरारत और कामुकता नाचने लगती है। सिनेमा-साहित्य, नाच, स्नो पाउडर की भरमार ऐसी बढ़ती है कि लोगों का सारा धन, समय और शक्तियां इन्हीं में बर्बाद हो रही हैं। खान-पान, बोली भाषा, आचार-विचार सभी बदल गये। अपने परिवार के प्रति क्या कर्त्तव्य होने चाहिए शिक्षा का स्वरूप कैसा हो, जीवन कैसे जियें—यह किसी को मालूम तक नहीं है। अवांछनीय प्रतियोगिताओं की बाढ़ में अनैतिकता की बन आई है। स्त्रियों और कुमारियों में सौन्दर्य प्रदर्शन की भावना इतना उग्र रूप धारण करती जा रही है कि पुरुषों की आंखें धर्म के मारे झुकी जा रही हैं। घर के लोग खाने पीने के लिए तड़पे और कुछ चालाक व्यक्ति शौक मौज का जीवन बितायें। स्त्री और पुरुष के भेद को मिटा देने वाली इस जड़ सभ्यता ने कितना पैशाचिक उत्पीड़न किया है इस समाज का कि देखने वालों का दम घुटा जा रहा है। चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ है। क्या यही हमारी सभ्यता है? इसी को संस्कृत कहें? हमारे गौरव, हमारी कीर्ति और हमारी सम्पन्नता का भारतवर्ष यह नहीं है। यह तो बहका हुआ कदम है जो विदेशियों की राह पर चल रहा है और उसी में नष्ट हो जाना है।
भारतीय धर्म वह था जो ‘‘जीवन-सिद्ध’’ को साकार रूप दे चुका था। यहां दाम्पत्य प्रेम, पितृ भक्ति, मातृ-पूजा, मातृ स्नेह सभी एक से एक बढ़ चढ़कर थे। लोगों के आहार कितने सरल और सात्विक थे। संयम और ब्रह्मचर्य की गरिमा से चेहरे प्राणवान्, कान्ति युक्त तथा ओजस्वी हुआ करते थे सदाचार, प्रेम न्याय और आत्मीयता की भावनाओं के कारण सभी ओर सुख और सन्तोष छाया रहता था। इस पुण्य भूमि पर देवता भी जीवन प्राप्त करने की कामना किया करते थे। भौतिक और आध्यात्मिक सम्मिश्रण के कारण लौकिक जीवन तो सुख और शान्ति से पूरित हुआ ही करते थे पारलौकिक अनुभूतियां भी यहां उपलब्ध हुआ करती थीं। जो एक ऐसे ठोस दर्शनशास्त्र पर आधारित रहती थीं कि दूसरे देश वाले इस पुण्य भूमि के दर्शन करना अपना भाग्य समझते थे।
हमें भौतिक मान्यताओं की रूढ़िवादिता से बाहर निकलकर विवेकशील मनुष्य बनना पड़ेगा। अपने दृष्टिकोण को परिष्कृत करना होगा। मनुष्य जीवन को सच्चे दृष्टिकोण से देखने की दार्शनिक बुद्धि विकसित किये बिना मानवीय प्रगति सम्भव हो नहीं सकती। पूर्णतया भोगवादी जीवन के परिणाम दुःखदायी ही होते हैं। हम आध्यात्मिक और भौतिक समृद्धि के सम्मिश्रित मार्ग को समझे और उस पर चले तो मानव जीवन का सच्चा आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। यही हमारी पर्व परम्परा है और अब इसी राह पर चलने के लिए हमें समुन्नत होना है।