
भौतिकता की बाढ़ मारकर छोड़ेगी
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1673 विवाह के पीछे अधिक से अधिक 1 तलाक। यह स्थिति 1890 की संयुक्त राज्य अमेरिका की है। इस वर्ष वहां 530917 नये विवाह हुए इनमें से 3173 का सम्बन्ध विच्छेद (तलाक) हुआ। इसके बाद भौतिक सुख-सुविधाओं में तेजी से वृद्धि हुई, इस वृद्धि से भी तीव्रगति पारिवारिक जीवन में अशान्ति की रही। 1967 में अमेरिका में 1913000 नये विवाह सम्बन्ध हुए जिनमें से लगभग एक तिहाई अर्थात् 534900 लोगों के सम्बन्ध विच्छेद हुए। नये विवाहों की प्रतिशत वृद्धि जहां 260 प्रतिशत थी वहां तलाकों में 1600 प्रतिशत की वृद्धि यह सोचने को विवश करती है कि बढ़ती हुई भौतिकता जन जीवन के लिये भूखे रहने से भी बढ़कर उत्पीड़क है।
बढ़ती हुई यान्त्रिकता और भौतिकता ने मनुष्य को, इतना विलासी बना दिया है कि उसे यौन-सुख के अतिरिक्त भी संसार में कोई सुख, कुछ कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व हैं, यह सोचने को भी समय नहीं मिलता। अनियंत्रित भोगवासना ने योरोप के सारे समाज को चरित्र भ्रष्ट कर दिया है। कोई भी प्रति, पत्नी पर यह विश्वास नहीं कर सकता कि वह कब किस नये साथी का चुनाव कर लेंगी। सौन्दर्य और शरीर के आकर्षणों के पीछे धुत मनुष्य गुणों की, चरित्र की बात सोच ही नहीं पाता। उसी का परिणाम है आज अकेले अमेरिका में 3000000 महिलायें ऐसी हैं जिनके विवाह सम्बन्ध हो गये हैं, पर या तो उन्होंने स्वयं या उनके प्रतियों ने उन्हें छोड़ दिया है।
दाम्पत्य जीवन में जहां निष्ठा नहीं होती उस समाज के युवक युवतियां दिग्भ्रांत होते हैं। उनकी दिग्भ्रांति उद्दण्डता, अराजकता, विद्रोह और तोड़-फोड़ के रूप में प्रकट होती है। वह स्थिति उतनी दुःखान्त नहीं होती, जितनी मानसिक शान्ति के नाम पर परस्पर आकर्षण का भ्रम। प्रौढ़ पीढ़ी के प्रति कोई श्रद्धा उनमें होती नहीं, फलतः सांसारिक अनुभवों का लाभ प्राप्त करने की उपेक्षा पानी की बाढ़ की तरह उन्हें जो अच्छा लगता है उधर ही दौड़ पड़ते हैं। अनैतिक सम्बन्धों की बाढ़ आज उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह आंधी अभी दूसरे देशों में अधिक है, पर कोई सन्देह नहीं यदि अपने देश में बढ़ रहे पाश्चात्य प्रभाव के कारण वह स्थिति यहां भी न बन जाये। सोवियत रूस को अपने चरित्र और नैतिकता का बड़ा गर्व रहता है। वहां भी 9 बच्चों में से 1 बच्चा निश्चित अवैध सम्बन्ध से जन्मा होता है। न्यूजीलैण्ड में 8 के पीछे 1, इंग्लैंड में 13 में 1, आस्ट्रेलिया में 12 में 1, अमेरिका में 14 में 1 बच्चा ऐसा होता है, जिसके माता-पिता विवाह से पूर्व ही शरीर सम्बन्ध स्थापित कर चुके होते हैं। इस तरह की अवैध सन्तानों की संख्या अकेले अमेरिका में ही तीन लाख से भी अधिक है।
वर्तमान पीढ़ी की विलासी प्रवृत्ति आने वाली सन्तानों के लिये किस तरह घातक बनती जा रही है, उस पर दृष्टि दौड़ायें तो स्थिति कुछ ऐसी विस्फोटक और चौंकाने वाली दीखेगी कि हर व्यक्ति यही सोचेगा कि 100 वर्ष के पीछे इस संसार में पाये जाने वाले सभी मनुष्य शंकर जी की बारात की तरह टेढ़े, काने, कूबड़े, अन्धे, लूले, लंगड़े, किसी का पेट निकला हुआ, किसी का आवश्यकता से अधिक पिचका हुआ हो तो कोई आश्चर्य नहीं। करोड़ों में कोई एक पूर्ण स्वस्थ हुआ करेगा तो वह सिद्ध—महात्माओं की तरह पूज्य और सबका नेता हुआ करेगा। यदि आज का संसार अपनी तथाकथित प्रगति के पांव रोकता नहीं तो क्या अमेरिका, क्या भारत इस प्रगति के लिये सबको तैयार रहना चाहिए।
विलासिता का एक दुर्गुण यह भी है कि वह भोग से बढ़ती है, शान्त नहीं होती। वासना की भूख न केवल अनैतिक आचरण करने को बाध्य करती है, वरन् शरीर को विषैले पदार्थों से उत्तेजित कर और अधिक भोग का आनन्द लूटने को दिग्भ्रान्त करती है। अमेरिका में आज 15000000 व्यक्ति चरस, गांजा, कोकीन आदि में से किसी न किसी का नशा अवश्य करते हैं। फ्रांस में अब गणना उल्टी है अर्थात् यह पूछा जाता है कि कितने प्रतिशत लोग नशा नहीं करते। यह औसत 5 से अधिक नहीं बढ़ती। पश्चिम जर्मनी में स्त्री पुरुषों में होड़ है, कौन अधिक चरस पिये? वहां के 4 लाख लोग नशेबाज हैं तो स्त्रियां 2 लाख। रूस के लोग प्रतिवर्ष 60 अरब रुपये की शराब पी जाते हैं। इसका उनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव उतना घातक नहीं जितना आने वाली पीढ़ी पर पड़ता है। मनुष्य शरीर में प्रजनन कोश (जनेटिक सेल्स) सबसे अधिक कोमल होते हैं, इन्हीं में बच्चों के शरीर निर्धारित करने वाले क्रोमोसोम (संस्कार कोष) पाये जाते हैं। नशों के कारण यह गुण सूत्र अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। उसी का कारण होता है बच्चे काने, कूबड़े, लूले लंगड़े पैदा होते हैं। इंग्लैण्ड में 40 बच्चों के पीछे 1 बच्चा अनिवार्य कुरूप होता है। आस्ट्रेलिया में 50 में 1, स्पेन में 70 के पीछे 1 और हांगकांग में 85 में से 1 लंगड़ा अपाहिज पैदा होता है। अमेरिका में प्रतिवर्ष 250000 बच्चे ऐसे पैदा होते हैं जिनके शरीर का कोई न कोई अंग विकृत अवश्य होता है। इन समय वहां के विभिन्न अस्पतालों तथा घरों में 11000000 बच्चे ऐसे हैं जिन्हें किसी न किसी रूप में विकलांग कहा जा सकता है। वह न तो किसी मोटर दुर्घटना का परिणाम होगा, न चोट या मोच का। स्पष्ट है कि यह सब लोगों के आधार-विहार और जीवन पद्धति का दोष है, जो आगामी पीढ़ी को यों दोषी बना रहा है।
यौन सुख की अनियन्त्रित बाढ़ आज के भौतिकवाद की भयंकर देन है। वह लोगों के स्वास्थ्य को किस बुरी तरह से नष्ट कर रही है, इसका सही अनुमान तो योरोप के अस्पतालों में जाकर ही हो सकता है, पर यदि किसी को उनकी जानकारी देनी ही हो तो यह कहना ठीक होगा कि जिस तरह अपने देश के अशिक्षित लोगों में अन्ध-विश्वास की बहुतायत है उसी तरह योरोपीय देशों में अधिकांश व्यक्ति यौन रोगों से पीड़ित मिलेंगे। ‘‘न्यूजवीक’’ साप्ताहिक ने अपने 10 अक्टूबर 68 के अंक में, लिखा है कि योरोप में 40 हजार महिलायें ऐसी हैं जो इसी कारण कैंसर से बीमार हैं और उनकी कोई चिकित्सा नहीं है। इसी प्रकार अमेरिका के डाक्टरों ने भी यौन-रोगों को रोक सकने की अपनी सामर्थ्य से हाथ ढीले कर दिये हैं।
यह तूफानी झंझा भौतिकवाद की चलाई हुई है। मनुष्य उससे बचना चाहता है तो वह आध्यात्मिकता का आश्रय ले इसके अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नहीं। आध्यात्मिकता ही स्वास्थ्य, सदाचार, शान्ति और नैतिक मूल्य स्थिर रख सकती है।
अमेरिका, इंग्लैण्ड, कनाडा, आदि देशों में विज्ञान लोगों के रोयें-रोयें में बस गया है। हमारी गतिविधियां उनके अन्धानुकरण की हैं। हम चाहते हैं कि भारतवर्ष भी पाश्चात्य देशों का अनुकरण करे, और यंत्रीकरण को बढ़ावा दें ताकि देश में खुशहाली बढ़े।पर ऐसा सोचते समय हम वहां के जीवन में यन्त्रीकरण के फलितार्थों की बात भूल जाते हैं। यदि उसे भी समानान्तर वर्णन कर दिया जाय तो हम अनुभव करते हैं कि हमारे लिये यन्त्रीकरण उतने उपयोगी नहीं हैं, जितना आज-कल महत्व दिया जा रहा है। प्रोफेसर हार्वर्ड डिंगले जो लन्दन विश्व-विद्यालय से एक प्रख्यात खगोल पिंडों के भौतिकीय एवं रासायनिक विज्ञान के ज्ञाता [एस्ट्रोफिजिस्ट] तथा दर्शन-शास्त्र एवं विज्ञान के इतिहास के भी ज्ञाता थे—उनका कथन है कि जब हम उस विज्ञान की प्रकृति के बारे में विचारते हैं, जो आज-कल प्रचलित है एवं जिसका उपयोग आज-कल हो रहा है, हम ऐसी परिस्थितियां पायेंगे, जिनसे भगवान् के दूत भी रोने लगें। यह ऐसा युग नहीं है कि आंख मींच कर विज्ञान की शक्ति को महत्व दिया जाय। विज्ञान की सत्यता का ही ध्यान रखा जाय और आध्यात्मिक सत्यों को पूर्ण रूपेण भुला दिया जाय तो उसके वही परिणाम हो सकते हैं, जो आज अमेरिका, इंग्लैण्ड में दिखाई दे रहे हैं और जो सुखद नहीं है।
अमेरिका का आकाश कभी अवकाश नहीं पाता। वहां हर क्षण कम से कम एक हजार जहाज आकाश में केवल पहरेदारी के लिए गड़गड़ाते घूमा करते हैं। पहरेदारी की चिन्ता भयग्रस्तों को ही होती है। अमेरिका जैसा भयभीत कोई दूसरा देश नहीं, यह विज्ञान की देन है।
हवाई जहाजों के अतिरिक्त वहां हजारों कारखाने, मोटरें, मशीनें चौबीस घन्टे चलते रहते हैं, उससे वातावरण में गन्दी गैसें छाई रहती हैं। शोर इतना होता है कि एक शहर में जितना शोर होता है, यदि उसे विद्युत शक्ति में बदल दिया जाय तो सारे शहर के उपभोग की आवश्यकता को पूरा करके भी बहुत-सी विद्युत शेष बच जायेगी। गन्दी गैसों के कारण वहां नई-नई तरह की बीमारियां फैलती जा रही हैं। कुछ बीमारियां ऐसी हैं, जो केवल अमेरिका में ही पाई जाती हैं, उनके उपचार के लिए उसे निरन्तर नई-नई औषधियों की खोज में लगे रहना पड़ता है। तीन चौथाई विज्ञान वहां एक चौथाई विज्ञान के दुष्परिणामों की रोक-थाम भर के लिए है। होता उल्टा है, विज्ञान जितना बढ़ता है, वहां की समस्यायें उतनी ही जटिल होती जाती है। वहां के मूर्धन्य मनीषी आइन्स्टीन तक को इसलिए कहना पड़ा था—‘‘विज्ञान की प्रगति के साथ धर्म की प्रगति न हुई तो संसार अपनी इस भूल के भयंकर दुष्परिणाम आप ही भुगतेगा।’’
चौबीस घन्टे शोर के कारण वहां 70 प्रतिशत लोगों के मस्तिष्क खराब हैं। आत्म-हत्यायें और हत्यायें सबसे अधिक अमेरिका में होती हैं, 60 प्रतिशत अमेरिकन नींद की गोलियां लेकर सोते हैं, अन्यथा उनके मस्तिष्क इतने अशांत हैं कि उन्हें स्वाभाविक नींद लेना भी कठिन हो जाता है। दाम्पत्य जीवन जितना अमेरिका और इंग्लैण्ड में क्लेशपूर्ण है, उतना संसार के किसी भी भाग में नहीं। अमेरिका में एक कहावत प्रचलित है, रात को विवाह प्रातः सम्बन्ध-विच्छेद (नाइट मैरिजेज मार्निंग डाइवर्स)। इंग्लैण्ड में कोई स्त्री ‘मैं तुम्हें तलाक देती हूं।’ (आई डाइवर्स यू) तीन बार कह दे तो उन्हें कानूनन तलाक की अनुमति मिल जाती है। यह घटनायें बताती हैं कि भौतिक प्रगति और यांत्रिक सभ्यता मनुष्य जीवन का इष्ट और लक्ष्य नहीं। उससे वास्तविक सुख शान्ति की कल्पना निरर्थक है। हमें अपना दृष्टिकोण बदलना होगा और आध्यात्मिकता के प्रकाश को फिर से प्राप्त करना होगा।
बढ़ती हुई यान्त्रिकता और भौतिकता ने मनुष्य को, इतना विलासी बना दिया है कि उसे यौन-सुख के अतिरिक्त भी संसार में कोई सुख, कुछ कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व हैं, यह सोचने को भी समय नहीं मिलता। अनियंत्रित भोगवासना ने योरोप के सारे समाज को चरित्र भ्रष्ट कर दिया है। कोई भी प्रति, पत्नी पर यह विश्वास नहीं कर सकता कि वह कब किस नये साथी का चुनाव कर लेंगी। सौन्दर्य और शरीर के आकर्षणों के पीछे धुत मनुष्य गुणों की, चरित्र की बात सोच ही नहीं पाता। उसी का परिणाम है आज अकेले अमेरिका में 3000000 महिलायें ऐसी हैं जिनके विवाह सम्बन्ध हो गये हैं, पर या तो उन्होंने स्वयं या उनके प्रतियों ने उन्हें छोड़ दिया है।
दाम्पत्य जीवन में जहां निष्ठा नहीं होती उस समाज के युवक युवतियां दिग्भ्रांत होते हैं। उनकी दिग्भ्रांति उद्दण्डता, अराजकता, विद्रोह और तोड़-फोड़ के रूप में प्रकट होती है। वह स्थिति उतनी दुःखान्त नहीं होती, जितनी मानसिक शान्ति के नाम पर परस्पर आकर्षण का भ्रम। प्रौढ़ पीढ़ी के प्रति कोई श्रद्धा उनमें होती नहीं, फलतः सांसारिक अनुभवों का लाभ प्राप्त करने की उपेक्षा पानी की बाढ़ की तरह उन्हें जो अच्छा लगता है उधर ही दौड़ पड़ते हैं। अनैतिक सम्बन्धों की बाढ़ आज उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह आंधी अभी दूसरे देशों में अधिक है, पर कोई सन्देह नहीं यदि अपने देश में बढ़ रहे पाश्चात्य प्रभाव के कारण वह स्थिति यहां भी न बन जाये। सोवियत रूस को अपने चरित्र और नैतिकता का बड़ा गर्व रहता है। वहां भी 9 बच्चों में से 1 बच्चा निश्चित अवैध सम्बन्ध से जन्मा होता है। न्यूजीलैण्ड में 8 के पीछे 1, इंग्लैंड में 13 में 1, आस्ट्रेलिया में 12 में 1, अमेरिका में 14 में 1 बच्चा ऐसा होता है, जिसके माता-पिता विवाह से पूर्व ही शरीर सम्बन्ध स्थापित कर चुके होते हैं। इस तरह की अवैध सन्तानों की संख्या अकेले अमेरिका में ही तीन लाख से भी अधिक है।
वर्तमान पीढ़ी की विलासी प्रवृत्ति आने वाली सन्तानों के लिये किस तरह घातक बनती जा रही है, उस पर दृष्टि दौड़ायें तो स्थिति कुछ ऐसी विस्फोटक और चौंकाने वाली दीखेगी कि हर व्यक्ति यही सोचेगा कि 100 वर्ष के पीछे इस संसार में पाये जाने वाले सभी मनुष्य शंकर जी की बारात की तरह टेढ़े, काने, कूबड़े, अन्धे, लूले, लंगड़े, किसी का पेट निकला हुआ, किसी का आवश्यकता से अधिक पिचका हुआ हो तो कोई आश्चर्य नहीं। करोड़ों में कोई एक पूर्ण स्वस्थ हुआ करेगा तो वह सिद्ध—महात्माओं की तरह पूज्य और सबका नेता हुआ करेगा। यदि आज का संसार अपनी तथाकथित प्रगति के पांव रोकता नहीं तो क्या अमेरिका, क्या भारत इस प्रगति के लिये सबको तैयार रहना चाहिए।
विलासिता का एक दुर्गुण यह भी है कि वह भोग से बढ़ती है, शान्त नहीं होती। वासना की भूख न केवल अनैतिक आचरण करने को बाध्य करती है, वरन् शरीर को विषैले पदार्थों से उत्तेजित कर और अधिक भोग का आनन्द लूटने को दिग्भ्रान्त करती है। अमेरिका में आज 15000000 व्यक्ति चरस, गांजा, कोकीन आदि में से किसी न किसी का नशा अवश्य करते हैं। फ्रांस में अब गणना उल्टी है अर्थात् यह पूछा जाता है कि कितने प्रतिशत लोग नशा नहीं करते। यह औसत 5 से अधिक नहीं बढ़ती। पश्चिम जर्मनी में स्त्री पुरुषों में होड़ है, कौन अधिक चरस पिये? वहां के 4 लाख लोग नशेबाज हैं तो स्त्रियां 2 लाख। रूस के लोग प्रतिवर्ष 60 अरब रुपये की शराब पी जाते हैं। इसका उनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव उतना घातक नहीं जितना आने वाली पीढ़ी पर पड़ता है। मनुष्य शरीर में प्रजनन कोश (जनेटिक सेल्स) सबसे अधिक कोमल होते हैं, इन्हीं में बच्चों के शरीर निर्धारित करने वाले क्रोमोसोम (संस्कार कोष) पाये जाते हैं। नशों के कारण यह गुण सूत्र अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। उसी का कारण होता है बच्चे काने, कूबड़े, लूले लंगड़े पैदा होते हैं। इंग्लैण्ड में 40 बच्चों के पीछे 1 बच्चा अनिवार्य कुरूप होता है। आस्ट्रेलिया में 50 में 1, स्पेन में 70 के पीछे 1 और हांगकांग में 85 में से 1 लंगड़ा अपाहिज पैदा होता है। अमेरिका में प्रतिवर्ष 250000 बच्चे ऐसे पैदा होते हैं जिनके शरीर का कोई न कोई अंग विकृत अवश्य होता है। इन समय वहां के विभिन्न अस्पतालों तथा घरों में 11000000 बच्चे ऐसे हैं जिन्हें किसी न किसी रूप में विकलांग कहा जा सकता है। वह न तो किसी मोटर दुर्घटना का परिणाम होगा, न चोट या मोच का। स्पष्ट है कि यह सब लोगों के आधार-विहार और जीवन पद्धति का दोष है, जो आगामी पीढ़ी को यों दोषी बना रहा है।
यौन सुख की अनियन्त्रित बाढ़ आज के भौतिकवाद की भयंकर देन है। वह लोगों के स्वास्थ्य को किस बुरी तरह से नष्ट कर रही है, इसका सही अनुमान तो योरोप के अस्पतालों में जाकर ही हो सकता है, पर यदि किसी को उनकी जानकारी देनी ही हो तो यह कहना ठीक होगा कि जिस तरह अपने देश के अशिक्षित लोगों में अन्ध-विश्वास की बहुतायत है उसी तरह योरोपीय देशों में अधिकांश व्यक्ति यौन रोगों से पीड़ित मिलेंगे। ‘‘न्यूजवीक’’ साप्ताहिक ने अपने 10 अक्टूबर 68 के अंक में, लिखा है कि योरोप में 40 हजार महिलायें ऐसी हैं जो इसी कारण कैंसर से बीमार हैं और उनकी कोई चिकित्सा नहीं है। इसी प्रकार अमेरिका के डाक्टरों ने भी यौन-रोगों को रोक सकने की अपनी सामर्थ्य से हाथ ढीले कर दिये हैं।
यह तूफानी झंझा भौतिकवाद की चलाई हुई है। मनुष्य उससे बचना चाहता है तो वह आध्यात्मिकता का आश्रय ले इसके अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नहीं। आध्यात्मिकता ही स्वास्थ्य, सदाचार, शान्ति और नैतिक मूल्य स्थिर रख सकती है।
अमेरिका, इंग्लैण्ड, कनाडा, आदि देशों में विज्ञान लोगों के रोयें-रोयें में बस गया है। हमारी गतिविधियां उनके अन्धानुकरण की हैं। हम चाहते हैं कि भारतवर्ष भी पाश्चात्य देशों का अनुकरण करे, और यंत्रीकरण को बढ़ावा दें ताकि देश में खुशहाली बढ़े।पर ऐसा सोचते समय हम वहां के जीवन में यन्त्रीकरण के फलितार्थों की बात भूल जाते हैं। यदि उसे भी समानान्तर वर्णन कर दिया जाय तो हम अनुभव करते हैं कि हमारे लिये यन्त्रीकरण उतने उपयोगी नहीं हैं, जितना आज-कल महत्व दिया जा रहा है। प्रोफेसर हार्वर्ड डिंगले जो लन्दन विश्व-विद्यालय से एक प्रख्यात खगोल पिंडों के भौतिकीय एवं रासायनिक विज्ञान के ज्ञाता [एस्ट्रोफिजिस्ट] तथा दर्शन-शास्त्र एवं विज्ञान के इतिहास के भी ज्ञाता थे—उनका कथन है कि जब हम उस विज्ञान की प्रकृति के बारे में विचारते हैं, जो आज-कल प्रचलित है एवं जिसका उपयोग आज-कल हो रहा है, हम ऐसी परिस्थितियां पायेंगे, जिनसे भगवान् के दूत भी रोने लगें। यह ऐसा युग नहीं है कि आंख मींच कर विज्ञान की शक्ति को महत्व दिया जाय। विज्ञान की सत्यता का ही ध्यान रखा जाय और आध्यात्मिक सत्यों को पूर्ण रूपेण भुला दिया जाय तो उसके वही परिणाम हो सकते हैं, जो आज अमेरिका, इंग्लैण्ड में दिखाई दे रहे हैं और जो सुखद नहीं है।
अमेरिका का आकाश कभी अवकाश नहीं पाता। वहां हर क्षण कम से कम एक हजार जहाज आकाश में केवल पहरेदारी के लिए गड़गड़ाते घूमा करते हैं। पहरेदारी की चिन्ता भयग्रस्तों को ही होती है। अमेरिका जैसा भयभीत कोई दूसरा देश नहीं, यह विज्ञान की देन है।
हवाई जहाजों के अतिरिक्त वहां हजारों कारखाने, मोटरें, मशीनें चौबीस घन्टे चलते रहते हैं, उससे वातावरण में गन्दी गैसें छाई रहती हैं। शोर इतना होता है कि एक शहर में जितना शोर होता है, यदि उसे विद्युत शक्ति में बदल दिया जाय तो सारे शहर के उपभोग की आवश्यकता को पूरा करके भी बहुत-सी विद्युत शेष बच जायेगी। गन्दी गैसों के कारण वहां नई-नई तरह की बीमारियां फैलती जा रही हैं। कुछ बीमारियां ऐसी हैं, जो केवल अमेरिका में ही पाई जाती हैं, उनके उपचार के लिए उसे निरन्तर नई-नई औषधियों की खोज में लगे रहना पड़ता है। तीन चौथाई विज्ञान वहां एक चौथाई विज्ञान के दुष्परिणामों की रोक-थाम भर के लिए है। होता उल्टा है, विज्ञान जितना बढ़ता है, वहां की समस्यायें उतनी ही जटिल होती जाती है। वहां के मूर्धन्य मनीषी आइन्स्टीन तक को इसलिए कहना पड़ा था—‘‘विज्ञान की प्रगति के साथ धर्म की प्रगति न हुई तो संसार अपनी इस भूल के भयंकर दुष्परिणाम आप ही भुगतेगा।’’
चौबीस घन्टे शोर के कारण वहां 70 प्रतिशत लोगों के मस्तिष्क खराब हैं। आत्म-हत्यायें और हत्यायें सबसे अधिक अमेरिका में होती हैं, 60 प्रतिशत अमेरिकन नींद की गोलियां लेकर सोते हैं, अन्यथा उनके मस्तिष्क इतने अशांत हैं कि उन्हें स्वाभाविक नींद लेना भी कठिन हो जाता है। दाम्पत्य जीवन जितना अमेरिका और इंग्लैण्ड में क्लेशपूर्ण है, उतना संसार के किसी भी भाग में नहीं। अमेरिका में एक कहावत प्रचलित है, रात को विवाह प्रातः सम्बन्ध-विच्छेद (नाइट मैरिजेज मार्निंग डाइवर्स)। इंग्लैण्ड में कोई स्त्री ‘मैं तुम्हें तलाक देती हूं।’ (आई डाइवर्स यू) तीन बार कह दे तो उन्हें कानूनन तलाक की अनुमति मिल जाती है। यह घटनायें बताती हैं कि भौतिक प्रगति और यांत्रिक सभ्यता मनुष्य जीवन का इष्ट और लक्ष्य नहीं। उससे वास्तविक सुख शान्ति की कल्पना निरर्थक है। हमें अपना दृष्टिकोण बदलना होगा और आध्यात्मिकता के प्रकाश को फिर से प्राप्त करना होगा।