
आध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाय
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इस संसार में भौतिकवादी रहते हैं और आध्यात्मिक व्यक्ति भी। आकार प्रकार में उनमें कोई विशेष अन्तर नहीं होता, दोनों ही सामान्यता, समान रूप से खाते-पीते, सोते-जागते और काम काज करते हैं। शारीरिक बनावट और मानवीय वृत्तियों में कोई विशेष अन्तर नहीं होता। दोनों ही गृहस्थ बसाते हैं। दोनों साधारणतः एक जैसी परिस्थितियों में रहते और व्यवहार करते हैं। विपत्ति, सम्पत्ति, सुख-दुख और उत्थान पतन का काल-चक्र दोनों को छूकर गुजरता है। दोनों के सामने हंसने और रोने के अवसर आते हैं और वे हंसते भी हैं और रोते भी हैं। साधारण रूप से देखने पर भौतिक तथा आध्यात्मिक व्यक्तियों में कोई अन्तर दिखाई नहीं देता। दोनों प्रकार के व्यक्ति एक जैसा दीखते और व्यवहार करते दृष्टिगोचर होते हैं। तथापि उनमें वस्तुतः आकाश-पाताल का अन्तर होता है।
भौतिक और आध्यात्मिक व्यक्ति बाह्य आकार-प्रकार में मनुष्य ही होते हैं और साधारण दृष्टि से उनके बीच कोई अन्तर नहीं होता। उनके बीच जो मूल अन्तर होता है वह होता है आचार-विचार और जीवन के प्रति दृष्टिकोण का। भौतिक लोभ और वितृष्णाओं से अभिभूत व्यक्ति अधिकवादी और आध्यात्मिक व्यक्ति सन्तोष-धनी होने से उत्कृष्टतावादी होते हैं। जिसे अपने विषय में यह निश्चय करना हो कि वह वस्तुतः आध्यात्मिक व्यक्ति है अथवा भौतिक व्यक्ति वह अपने आचार विचार का तटस्थ, होकर निरीक्षण करे और पता लगाये कि उसकी वृत्ति अधिकता की ओर जाती है अथवा उत्कृष्ट की ओर। यदि उसकी वृत्ति अधिकता की ओर जाती है, तो उसे निःसंकोच भाव से स्वीकार कर लेना चाहिये कि वह भौतिक व्यक्ति है। और यदि वह पाये कि अभिरुचि अधिकता में न होकर उत्कृष्टता में है, तो उसे आश्वस्त होकर परमात्मा को धन्यवाद देना चाहिये कि वह आध्यात्मिक वृत्ति का मनुष्य है। उसे अधिकार है कि वह अपने पर प्रसन्न हो और विश्वास कर ले कि उसका भविष्य उज्ज्वल है।
सामान्यतः लोग आस्तिक होते हैं और बहुत बार कुछ न कुछ भजन पूजन और उपासना अनुष्ठान भी करते रहते हैं। यह बातें बहुत कुछ इस बात की सिफारिश करती हैं कि ऐसे लोग अपने को आध्यात्मिक व्यक्ति मान लें। लेकिन यह मान लेने में भय न करना चाहिये कि मनुष्य की यह क्रियायें ही आध्यात्मिकता का प्रमाण नहीं हैं। आध्यात्मिक वास्तव में वह आत्म गौरव, आत्म-सन्तोष और आत्म-शांति है, जो किन्हीं भी कार्य व्यवहार में उत्कृष्टता के समावेश से उत्पन्न होता है। यदि सच्ची भावना से विरत रहकर चार-चार घण्टे भजन-पूजन किया जाय, अनेक यज्ञ अनुष्ठानों का आयोजन किया जाय, धर्म कर्मों की झंडी लगा दी जाय तो भी आध्यात्मिक उपलब्धि का प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता और न ऐसा अन्यमनस्क धार्मिक व्यक्ति आध्यात्मिक ही माना जा सकता है। इससे भिन्न यदि कोई व्यक्ति भावनापूर्वक श्रेष्ठ साधनों तथा उत्कृष्ट उद्देश्य के साथ आधा घण्टे भी भजन-पूजन कर लेता है, छोटा सा अनुष्ठान पूरा कर लेता है, तो निश्चित रूप से वह आध्यात्मिक माना जायेगा और उसका अध्यात्म-परक प्रयोजन भी पूरा हो जायेगा आध्यात्म का सम्बन्ध क्रियाओं की अधिकता से नहीं उनकी श्रेष्ठता तथा उत्कृष्टता से है।
अधिकता का लोभ छोड़कर उत्कृष्टता की ओर अग्रसर होने में आत्म-कल्याण की बड़ी गहरी सम्भावनायें सन्निहित हैं। आधिक्यवादी व्यक्ति बहुधा संसार-लोलुप होते हैं, उनकी इच्छा रहती है कि वे संसार-भोगों को अधिकाधिक मात्रा में भोगें। संसार की सम्पत्ति का अधिक से अधिक भाग उनके अधिकार में आ जाय। संसार लोलुप जब व्यवसाय की कामना करता है, तो उसकी असीमता में बह जाता है, किसी संख्या अथवा मात्रा में उसे सन्तोष नहीं होता। सौ के बाद हजार, हजार के बाद लाख—इसी तरह उसकी वित्त वितृष्णा प्रसार पाती चली जाती है जब वह मकान की कामना करता है तो चाहता है हो सके तो हर शहर और हर मोहल्ले में उसकी कोठियां और हवेलियां हों। सवारियों की कल्पना करता है तो बग्धी से लेकर स्थल, जल और वायु में चलने वाली हर सवारी चाहा करता है। भोजन और वस्त्रों के विषय में हर प्रकार और मूल्य की ओर उसकी जिज्ञासा दौड़ जाती है। सन्तानों से तो उसका जी भरता ही नहीं। तात्पर्य यह कि भौतिक अथवा संसार लोलुप का विस्तारवाद किसी क्षेत्र में अपनी सीमा निर्धारित नहीं करना चाहता। वह संसार का सब कुछ अपने पक्ष में अधिकाधिक चाहा करता है।
यह बात ठीक है कि उपलब्धियों की एक निश्चित सीमा नहीं बांधी जा सकती और न बांधना ही चाहिये। इससे उन्नति, विकास और प्रगति में व्यवधान पड़ता है। अधिकाधिक उन्नति करना मनुष्य का लक्ष्य होना ही चाहिये तथापि उसे अपने इस विस्तार अथवा आधिपत्यवाद पर कुछ प्रतिबन्ध लगाने ही होंगे। ऐसा किये बिना वह अपने शस्त्र से आप घायल हो जायेगा, अपनी उन्नति से आप पतित हो जायेगा।
उन्नति और प्रगति पर लगाने योग्य प्रतिबन्ध है ‘उत्कृष्टता’। मनुष्य जिस सीमा तक चाहे उन्नति और विस्तार करता चले किन्तु इस बात का ध्यान रखे कि उसकी उस विस्तारगति में उत्कृष्टता का सन्निवेश बना रहे। आर्थिक विस्तार में उसे चाहिए कि कोई ऐसा व्यवसाय न करे जो निम्नकोटि का हो। लाभ के लिये असत्य, अशुद्धता व विश्वासघात का सहारा न ले। धोखा ठगी, मक्कारी और कपट से अपने कार्य-कलापों को बचाये रहे। व्यापार में सच्चाई का व्यवहार करे, वस्तुओं को सुरक्षित रखे। उचित मुनाफा और लाभ कमाये। अपने व्यवसाय की उन्नति तथा प्रगति के लिये न तो अनुचित साधनों का प्रयोग करे और न गर्हित उपायों का अवलम्बन ले। साथ ही इस बात का ध्यान रखे कि उसका विस्तार किसी के ह्रास का कारण न बने और न शोषण अथवा परपीड़न का आधार लेकर ही आगे बढ़े। इस प्रकार की पवित्रता रखकर जो और जितना भी विस्तार किया जाएगा, वह श्लाघ्य ही होगा। इसके विपरीत जिस विस्तार अथवा विकास का आधार असत्य अशुद्धता, शोषण और परपीड़न होगा वह गर्हित तथा अवांछनीय माना जायेगा। इस प्रकार का निकृष्ट और अवांछनीय विस्तार मनुष्य के पतन का कारण बनता है। लोक-परलोक का कल्याण नष्ट कर देता है।
वह छोटी−सी प्रगति भी जो श्रेष्ठता और उत्कृष्टता से अलंकृत हो उसे विशाल विस्तार की अपेक्षा कहीं अधिक शुभ, कल्याणकारी, महान और वांछनीय है जो निकृष्ट उपायों को आधार बनाकर किया हो। थोड़ा किन्तु उत्कृष्ट एक ऐसा दिव्य सिद्धान्त है, जो लोक से लेकर परलोक तक और भौतिकता से लेकर आत्मा तक सारे क्षेत्रों में होने वाली क्रियाओं और उनके फलों को आध्यात्मिक बना देता है।
अधिकता का ध्येय लेकर चलने वाले कई लोग यदि उत्कृष्टता की रक्षा कर लेते हैं, तो यह नियम नहीं बल्कि एक अपवाद होगा। उसे विस्तारवाद अथवा आधिक्य वाद में निकृष्टता की सम्भावना स्वाभाविक है। यही कारण है कि ज्ञानियों विद्वानों और मनीषियों ने मनुष्यों को संतोष की शिक्षा दी है और तृष्णा, एषणा और लोभ का निषेध किया है। अन्यथा वे—व्यक्ति और समाज के उत्थान के समय के विद्वान् अप्रगति अथवा सीमाबद्धता के कांक्षी नहीं हो सकते । उन्होंने मनुष्य की अतिवादी और विस्तार वादी नीति का निषेध उनकी प्रगति अवरुद्ध करने के मन्तव्य से नहीं बल्कि इसलिये किया है कि लाभ और वितृष्णाओं के वशीभूत विस्तारवाद में पड़ने वाला व्यक्ति जीवन में उत्कृष्टता की रक्षा नहीं कर पाता। यह स्खलन मनुष्य की उस आत्मा के लिये बड़ा अहितकर होता है, जो जीवन का सर्वश्रेष्ठ सार और व्यक्ति की सबसे बड़ी सम्पदा मानी गई है। वह वैभव, वह सम्पत्ति, वह ऐश्वर्य, वह प्रतिष्ठा वह महानता और वह विस्तार आदि सारी उपलब्धियां जिनका आधार आत्मघातिनी निकृष्टता रही हो उन्नति के रूप में महान् पतन ही होती है। जिसकी आत्मा गिर गई मलीन और निस्तेज हो गई, वह इन्द्रपद पाकर भी दरिद्री ही रहेगा, सर्वस्ववान होकर भी निकृष्ट बना रहेगा। वही उन्नति—उन्नति है, जो अस्तित्व के साथ व्यक्तित्व की भी संशोधिका हो अन्यथा वह उस सोने के समान ही अग्राह्य है जिसे पहनने से कान ही कट जाये।
ऐसा समझना कि भौतिकवाद कोई अपशब्द है अथवा भौतिकवादी कोई पापी लोग होते हैं, ठीक नहीं। मानव-जीवन में भौतिकवाद भी आवश्यक है। हमारे मनुष्य शरीर का जन्म ही पंच-भौतिकता से हुआ है। उसकी आवश्यकतायें भी भौतिक हैं। जिनकी पूर्ति भी भौतिक आधार पर ही हो सकती है। कोरा अध्यात्मवाद शरीर यात्रा को पूरा नहीं कर सकता। संसार में भौतिकता की भी आवश्यकता है किन्तु उसी सीमा तक, जहां तक आत्मा का क्षेत्र प्रभावित न कर सके। भौतिकता की आवश्यकता शरीर निर्वाह तक है, उसके आगे जब उसमें अतिशयता, आधिक्य अथवा विस्तार का दोष आ जाता है, तो यही शरीर निर्वाह की आवश्यकता अनुचित बन जाती है। शरीर के उस निर्वाह के लिए, वस्तुतः जितने की आवश्यकता है, मनुष्य को कोई भी ऐसा काम करने की आवश्यकता नहीं है, जिसका प्रभाव आत्मा पर कलुष फेंकने वाला हो।
यदि आवश्यकता पर भौतिकता को साथ लेकर जीवन-यात्रा में चला जाये तो उससे आत्मा को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचती और भौतिकता का वह निष्कलुष निर्वाह जिससे आत्मा प्रभावित नहीं होती, आध्यात्मिकता ही कही जायेगी। अध्यात्म संसार से अलग कोई विचित्र वस्तु नहीं है। वह उत्कृष्टता से अलंकृत मनुष्य का एक दृष्टिकोण है, जिसके समावेश से क्या भौतिक और क्या आत्मिक कोई भी विषय अथवा व्यवहार आध्यात्मिक ही बन जाता है।
जीवन-यात्रा के लिये आवश्यक साधनों से आगे बढ़ कर जब मनुष्य ‘आधिक्य’ अथवा विस्तार को अपना लक्ष्य बनाकर भौतिकतावाद का उपासक बन जाता है और आत्म-रक्षा की उपेक्षा करने लगता है तब ऐसे निकृष्ट भौतिकवाद का शब्द अवमानपूर्वक उच्चारण किया जाता है और ऐसे ही भौतिकवादी को निम्न दृष्टि से देखा जाता है। उत्कृष्टता द्वारा आत्मा की रक्षा करते हुए, जो जितनी भी भौतिक उन्नति कर सकता है करे। ऐसा पुरुषार्थी और पवित्र व्यक्ति बाहर से भौतिक अथवा सांसारिक दीखता हुआ भी वस्तुतः आध्यात्मिक ही होता है। ऐसे महान् सांसारियों का श्रेय पथ सदैव निष्कंटक और निरापद रहता है।
किन्तु भौतिकता द्वारा अध्यात्म की साधना एक दुःसाध्य काम है। न तो यह साधना सामान्यतः की जा सकती है और न सर्वसाधारण इसे सुरक्षा पूर्वक कर सकते हैं। इसीलिये समाज के शुभेच्छु ऋषि-मुनियों ने अनुभव और साधना के आधार पर वह सिद्धान्त स्थिर किया है कि मनुष्य को भौतिक वितृष्णाओं से दूर रहकर सन्तोष-पूर्वक जीवन निर्वाह की शर्तें पूरी करते हुए इस प्रकार जीवन-यापन करना चाहिए, जिससे संसार भी निभता चले और आत्मा की भी रक्षा होती चले। इसी सिद्धान्त को ‘थोड़ा पर उत्कृष्ट’ के कतिपय शब्दों में भी व्यक्त किया जा सकता है।
जो अधिकता के स्थान पर उत्कृष्टता का ध्यान कर संसार में रमण करते हैं, वे वितृष्णाओं के संकट से बचे रहते हैं। उनका शरीर और आत्मा, लोक ओर परलोक साथ-साथ ही प्रेय और श्रेय दोनों के द्वारा समान रूप से सुशोभित और आनन्दित हो चलता है। अस्तु हम सबको अधिकता की वितृष्णा त्यागकर उत्कृष्टता को ही ग्रहण करना चाहिए। इस वांछनीय ग्रहण द्वारा हमारा भौतिकवाद भी अध्यात्मवाद की तरह ही सुख एवं शांतिदायक बन जायेगा।
भौतिक और आध्यात्मिक व्यक्ति बाह्य आकार-प्रकार में मनुष्य ही होते हैं और साधारण दृष्टि से उनके बीच कोई अन्तर नहीं होता। उनके बीच जो मूल अन्तर होता है वह होता है आचार-विचार और जीवन के प्रति दृष्टिकोण का। भौतिक लोभ और वितृष्णाओं से अभिभूत व्यक्ति अधिकवादी और आध्यात्मिक व्यक्ति सन्तोष-धनी होने से उत्कृष्टतावादी होते हैं। जिसे अपने विषय में यह निश्चय करना हो कि वह वस्तुतः आध्यात्मिक व्यक्ति है अथवा भौतिक व्यक्ति वह अपने आचार विचार का तटस्थ, होकर निरीक्षण करे और पता लगाये कि उसकी वृत्ति अधिकता की ओर जाती है अथवा उत्कृष्ट की ओर। यदि उसकी वृत्ति अधिकता की ओर जाती है, तो उसे निःसंकोच भाव से स्वीकार कर लेना चाहिये कि वह भौतिक व्यक्ति है। और यदि वह पाये कि अभिरुचि अधिकता में न होकर उत्कृष्टता में है, तो उसे आश्वस्त होकर परमात्मा को धन्यवाद देना चाहिये कि वह आध्यात्मिक वृत्ति का मनुष्य है। उसे अधिकार है कि वह अपने पर प्रसन्न हो और विश्वास कर ले कि उसका भविष्य उज्ज्वल है।
सामान्यतः लोग आस्तिक होते हैं और बहुत बार कुछ न कुछ भजन पूजन और उपासना अनुष्ठान भी करते रहते हैं। यह बातें बहुत कुछ इस बात की सिफारिश करती हैं कि ऐसे लोग अपने को आध्यात्मिक व्यक्ति मान लें। लेकिन यह मान लेने में भय न करना चाहिये कि मनुष्य की यह क्रियायें ही आध्यात्मिकता का प्रमाण नहीं हैं। आध्यात्मिक वास्तव में वह आत्म गौरव, आत्म-सन्तोष और आत्म-शांति है, जो किन्हीं भी कार्य व्यवहार में उत्कृष्टता के समावेश से उत्पन्न होता है। यदि सच्ची भावना से विरत रहकर चार-चार घण्टे भजन-पूजन किया जाय, अनेक यज्ञ अनुष्ठानों का आयोजन किया जाय, धर्म कर्मों की झंडी लगा दी जाय तो भी आध्यात्मिक उपलब्धि का प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता और न ऐसा अन्यमनस्क धार्मिक व्यक्ति आध्यात्मिक ही माना जा सकता है। इससे भिन्न यदि कोई व्यक्ति भावनापूर्वक श्रेष्ठ साधनों तथा उत्कृष्ट उद्देश्य के साथ आधा घण्टे भी भजन-पूजन कर लेता है, छोटा सा अनुष्ठान पूरा कर लेता है, तो निश्चित रूप से वह आध्यात्मिक माना जायेगा और उसका अध्यात्म-परक प्रयोजन भी पूरा हो जायेगा आध्यात्म का सम्बन्ध क्रियाओं की अधिकता से नहीं उनकी श्रेष्ठता तथा उत्कृष्टता से है।
अधिकता का लोभ छोड़कर उत्कृष्टता की ओर अग्रसर होने में आत्म-कल्याण की बड़ी गहरी सम्भावनायें सन्निहित हैं। आधिक्यवादी व्यक्ति बहुधा संसार-लोलुप होते हैं, उनकी इच्छा रहती है कि वे संसार-भोगों को अधिकाधिक मात्रा में भोगें। संसार की सम्पत्ति का अधिक से अधिक भाग उनके अधिकार में आ जाय। संसार लोलुप जब व्यवसाय की कामना करता है, तो उसकी असीमता में बह जाता है, किसी संख्या अथवा मात्रा में उसे सन्तोष नहीं होता। सौ के बाद हजार, हजार के बाद लाख—इसी तरह उसकी वित्त वितृष्णा प्रसार पाती चली जाती है जब वह मकान की कामना करता है तो चाहता है हो सके तो हर शहर और हर मोहल्ले में उसकी कोठियां और हवेलियां हों। सवारियों की कल्पना करता है तो बग्धी से लेकर स्थल, जल और वायु में चलने वाली हर सवारी चाहा करता है। भोजन और वस्त्रों के विषय में हर प्रकार और मूल्य की ओर उसकी जिज्ञासा दौड़ जाती है। सन्तानों से तो उसका जी भरता ही नहीं। तात्पर्य यह कि भौतिक अथवा संसार लोलुप का विस्तारवाद किसी क्षेत्र में अपनी सीमा निर्धारित नहीं करना चाहता। वह संसार का सब कुछ अपने पक्ष में अधिकाधिक चाहा करता है।
यह बात ठीक है कि उपलब्धियों की एक निश्चित सीमा नहीं बांधी जा सकती और न बांधना ही चाहिये। इससे उन्नति, विकास और प्रगति में व्यवधान पड़ता है। अधिकाधिक उन्नति करना मनुष्य का लक्ष्य होना ही चाहिये तथापि उसे अपने इस विस्तार अथवा आधिपत्यवाद पर कुछ प्रतिबन्ध लगाने ही होंगे। ऐसा किये बिना वह अपने शस्त्र से आप घायल हो जायेगा, अपनी उन्नति से आप पतित हो जायेगा।
उन्नति और प्रगति पर लगाने योग्य प्रतिबन्ध है ‘उत्कृष्टता’। मनुष्य जिस सीमा तक चाहे उन्नति और विस्तार करता चले किन्तु इस बात का ध्यान रखे कि उसकी उस विस्तारगति में उत्कृष्टता का सन्निवेश बना रहे। आर्थिक विस्तार में उसे चाहिए कि कोई ऐसा व्यवसाय न करे जो निम्नकोटि का हो। लाभ के लिये असत्य, अशुद्धता व विश्वासघात का सहारा न ले। धोखा ठगी, मक्कारी और कपट से अपने कार्य-कलापों को बचाये रहे। व्यापार में सच्चाई का व्यवहार करे, वस्तुओं को सुरक्षित रखे। उचित मुनाफा और लाभ कमाये। अपने व्यवसाय की उन्नति तथा प्रगति के लिये न तो अनुचित साधनों का प्रयोग करे और न गर्हित उपायों का अवलम्बन ले। साथ ही इस बात का ध्यान रखे कि उसका विस्तार किसी के ह्रास का कारण न बने और न शोषण अथवा परपीड़न का आधार लेकर ही आगे बढ़े। इस प्रकार की पवित्रता रखकर जो और जितना भी विस्तार किया जाएगा, वह श्लाघ्य ही होगा। इसके विपरीत जिस विस्तार अथवा विकास का आधार असत्य अशुद्धता, शोषण और परपीड़न होगा वह गर्हित तथा अवांछनीय माना जायेगा। इस प्रकार का निकृष्ट और अवांछनीय विस्तार मनुष्य के पतन का कारण बनता है। लोक-परलोक का कल्याण नष्ट कर देता है।
वह छोटी−सी प्रगति भी जो श्रेष्ठता और उत्कृष्टता से अलंकृत हो उसे विशाल विस्तार की अपेक्षा कहीं अधिक शुभ, कल्याणकारी, महान और वांछनीय है जो निकृष्ट उपायों को आधार बनाकर किया हो। थोड़ा किन्तु उत्कृष्ट एक ऐसा दिव्य सिद्धान्त है, जो लोक से लेकर परलोक तक और भौतिकता से लेकर आत्मा तक सारे क्षेत्रों में होने वाली क्रियाओं और उनके फलों को आध्यात्मिक बना देता है।
अधिकता का ध्येय लेकर चलने वाले कई लोग यदि उत्कृष्टता की रक्षा कर लेते हैं, तो यह नियम नहीं बल्कि एक अपवाद होगा। उसे विस्तारवाद अथवा आधिक्य वाद में निकृष्टता की सम्भावना स्वाभाविक है। यही कारण है कि ज्ञानियों विद्वानों और मनीषियों ने मनुष्यों को संतोष की शिक्षा दी है और तृष्णा, एषणा और लोभ का निषेध किया है। अन्यथा वे—व्यक्ति और समाज के उत्थान के समय के विद्वान् अप्रगति अथवा सीमाबद्धता के कांक्षी नहीं हो सकते । उन्होंने मनुष्य की अतिवादी और विस्तार वादी नीति का निषेध उनकी प्रगति अवरुद्ध करने के मन्तव्य से नहीं बल्कि इसलिये किया है कि लाभ और वितृष्णाओं के वशीभूत विस्तारवाद में पड़ने वाला व्यक्ति जीवन में उत्कृष्टता की रक्षा नहीं कर पाता। यह स्खलन मनुष्य की उस आत्मा के लिये बड़ा अहितकर होता है, जो जीवन का सर्वश्रेष्ठ सार और व्यक्ति की सबसे बड़ी सम्पदा मानी गई है। वह वैभव, वह सम्पत्ति, वह ऐश्वर्य, वह प्रतिष्ठा वह महानता और वह विस्तार आदि सारी उपलब्धियां जिनका आधार आत्मघातिनी निकृष्टता रही हो उन्नति के रूप में महान् पतन ही होती है। जिसकी आत्मा गिर गई मलीन और निस्तेज हो गई, वह इन्द्रपद पाकर भी दरिद्री ही रहेगा, सर्वस्ववान होकर भी निकृष्ट बना रहेगा। वही उन्नति—उन्नति है, जो अस्तित्व के साथ व्यक्तित्व की भी संशोधिका हो अन्यथा वह उस सोने के समान ही अग्राह्य है जिसे पहनने से कान ही कट जाये।
ऐसा समझना कि भौतिकवाद कोई अपशब्द है अथवा भौतिकवादी कोई पापी लोग होते हैं, ठीक नहीं। मानव-जीवन में भौतिकवाद भी आवश्यक है। हमारे मनुष्य शरीर का जन्म ही पंच-भौतिकता से हुआ है। उसकी आवश्यकतायें भी भौतिक हैं। जिनकी पूर्ति भी भौतिक आधार पर ही हो सकती है। कोरा अध्यात्मवाद शरीर यात्रा को पूरा नहीं कर सकता। संसार में भौतिकता की भी आवश्यकता है किन्तु उसी सीमा तक, जहां तक आत्मा का क्षेत्र प्रभावित न कर सके। भौतिकता की आवश्यकता शरीर निर्वाह तक है, उसके आगे जब उसमें अतिशयता, आधिक्य अथवा विस्तार का दोष आ जाता है, तो यही शरीर निर्वाह की आवश्यकता अनुचित बन जाती है। शरीर के उस निर्वाह के लिए, वस्तुतः जितने की आवश्यकता है, मनुष्य को कोई भी ऐसा काम करने की आवश्यकता नहीं है, जिसका प्रभाव आत्मा पर कलुष फेंकने वाला हो।
यदि आवश्यकता पर भौतिकता को साथ लेकर जीवन-यात्रा में चला जाये तो उससे आत्मा को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचती और भौतिकता का वह निष्कलुष निर्वाह जिससे आत्मा प्रभावित नहीं होती, आध्यात्मिकता ही कही जायेगी। अध्यात्म संसार से अलग कोई विचित्र वस्तु नहीं है। वह उत्कृष्टता से अलंकृत मनुष्य का एक दृष्टिकोण है, जिसके समावेश से क्या भौतिक और क्या आत्मिक कोई भी विषय अथवा व्यवहार आध्यात्मिक ही बन जाता है।
जीवन-यात्रा के लिये आवश्यक साधनों से आगे बढ़ कर जब मनुष्य ‘आधिक्य’ अथवा विस्तार को अपना लक्ष्य बनाकर भौतिकतावाद का उपासक बन जाता है और आत्म-रक्षा की उपेक्षा करने लगता है तब ऐसे निकृष्ट भौतिकवाद का शब्द अवमानपूर्वक उच्चारण किया जाता है और ऐसे ही भौतिकवादी को निम्न दृष्टि से देखा जाता है। उत्कृष्टता द्वारा आत्मा की रक्षा करते हुए, जो जितनी भी भौतिक उन्नति कर सकता है करे। ऐसा पुरुषार्थी और पवित्र व्यक्ति बाहर से भौतिक अथवा सांसारिक दीखता हुआ भी वस्तुतः आध्यात्मिक ही होता है। ऐसे महान् सांसारियों का श्रेय पथ सदैव निष्कंटक और निरापद रहता है।
किन्तु भौतिकता द्वारा अध्यात्म की साधना एक दुःसाध्य काम है। न तो यह साधना सामान्यतः की जा सकती है और न सर्वसाधारण इसे सुरक्षा पूर्वक कर सकते हैं। इसीलिये समाज के शुभेच्छु ऋषि-मुनियों ने अनुभव और साधना के आधार पर वह सिद्धान्त स्थिर किया है कि मनुष्य को भौतिक वितृष्णाओं से दूर रहकर सन्तोष-पूर्वक जीवन निर्वाह की शर्तें पूरी करते हुए इस प्रकार जीवन-यापन करना चाहिए, जिससे संसार भी निभता चले और आत्मा की भी रक्षा होती चले। इसी सिद्धान्त को ‘थोड़ा पर उत्कृष्ट’ के कतिपय शब्दों में भी व्यक्त किया जा सकता है।
जो अधिकता के स्थान पर उत्कृष्टता का ध्यान कर संसार में रमण करते हैं, वे वितृष्णाओं के संकट से बचे रहते हैं। उनका शरीर और आत्मा, लोक ओर परलोक साथ-साथ ही प्रेय और श्रेय दोनों के द्वारा समान रूप से सुशोभित और आनन्दित हो चलता है। अस्तु हम सबको अधिकता की वितृष्णा त्यागकर उत्कृष्टता को ही ग्रहण करना चाहिए। इस वांछनीय ग्रहण द्वारा हमारा भौतिकवाद भी अध्यात्मवाद की तरह ही सुख एवं शांतिदायक बन जायेगा।