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Books - आध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाय

Media: TEXT
Language: HINDI
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अध्यात्म की उपेक्षा नहीं की जा सकती

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First 5 7 Last
सुप्रसिद्ध अमेरिकन उद्योगपति एडिंग्टन ने अपना संपूर्ण जीवन धन-सम्पत्ति की विशाल मात्रा अर्जित करने, भोग, ऐश्वर्य और इन्द्रिय सुखों की तृप्ति करने में बिताया। वृद्धावस्था में भी उनके पास धन-सम्पत्ति के अम्बार लगे थे। पर वह शक्तियां जो मनुष्य को आत्म-सन्तोष प्रदान करती हैं एडिंग्टन के पास कब की विदा हो चुकी थी। मृत्यु की घड़ियां समीप आईं देखकर उनका ध्यान भौतिकता से हटकर दार्शनिक सत्यों और आध्यात्मिक तथ्यों की ओर आया। वह अनुभव करने लगे कि पार्थिक जीवन की हलचलें और भौतिक सुखोपभोग प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य नहीं। लोकोत्तर जीवन तत्वों का शोध एक अनिवार्य कर्त्तव्य था। उसे भुला दिया गया। पश्चाताप की अग्नि में जलने लगे एडिंग्टन। उन्होंने कहा—भौतिकता में क्षणिक सुख है और निरन्तर विकसित होने का विनाशकारी गुण। निष्कर्ष तो इतने खराब होते हैं जिनके बारे में कोई कल्पना ही नहीं की जा सकती। विक्षोभ और दुर्वासनाओं की भट्टी में जलता हुआ प्राणी मृत्यु के आने पर जल विहीन मछली की तरह तड़पता है पर तब सब परिस्थितियां हाथ से निकल चुकी होती हैं केवल पश्चाताप ही शेष रहता है?’’

जीवन के इस महत्वपूर्ण सारांश से वर्तमान और आगत पीढ़ी को अवगत कराने के लिए एडिंग्टन ने एक महान साहस किया। उन्होंने एक संस्था बनाई और अपनी सारी सम्पत्ति उसे इसलिए दान कर दी कि वह संस्था मानव जीवन के आध्यात्मिक सत्य और तथ्यों की जानकारी अर्जित करे और उन निष्कर्षों से सर्व साधारण को परिचित कराये जिससे आगे मरने वालों को इस तरह पश्चाताप की आग में झुलसते हुये न विदा होना पड़े। यह संस्था अमेरिका में खोली गई। उसकी शाखा 32 ईस्ट 57 वीं गली न्यूयार्क (अमेरिका) में है। वहां प्रति वर्ष धर्म और विज्ञान के सम्बन्ध में उत्कृष्ट कोटि के भाषण कराये जाते हैं।

एस श्रृंखला से विज्ञान, दर्शन और धर्म (साइन्स, फिलासफी ए डी रिलीजन) शीर्षक से रसेल ब्रेन के निबन्ध का सारांश आध्यात्मिक चेतना की पुष्टि में उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जाता है। रसेल ब्रेन का कथन है—‘‘विज्ञान हमें पदार्थ की भौतिक जानकारी दे सकता है किंतु पदार्थ क्यों बना, कैसे बना इसका कोई उत्तर उसके पास नहीं है। जिन सत्य निर्णयों को विज्ञान नहीं दे सकता उन्हें केवल दर्शन और धर्म के द्वारा ही खोजा जा सकता है। ‘‘उसी का नाम अध्यात्म है?’’

अज्ञात वस्तु की खोज मजेदार हो सकती है पर जब तक उस वस्तु के सम्पूर्ण कारण को न जान लिया जाये उस वस्तु को जीवन का अंग बनाना घातक ही होगा। मान लीजिये एक ऐसा व्यक्ति है जिसे यह पता नहीं है कि अल्कोहल के गुण क्या हैं और हाइड्रोक्लोरिक एसिड के क्या गुण हैं? सल्फर, अमोनिया, क्लोरीन, फास्फेट की कितनी कितनी मात्रा मिलकर कौन कौन सी चीजें बनेंगी? पर वह जो भरी शीशी मिलती जाती हैं उनसे दवायें तैयार करता जाता है। तो क्या वे दवाएं किसी मरीज को लाभ पहुंचा सकती हैं? लाभ पहुंचाना तो दूर वह मरीज की जान ही ले सकती हैं। नियन्त्रण रहित विज्ञान ऐसी ही दुकान है जहां सीमित ज्ञान के आधार पर औषधियां बनती हैं उनसे एक रोग ठीक होता है पर वे दो नये रोग और पैदा कर देती हैं।

आकाश के ग्रह-नक्षत्र चक्कर लगाते हैं। पता है कौन ग्रह पृथ्वी से कितनी दूर है, किस ग्रह को सूर्य की परिक्रमा करने में कितनी यात्रा करनी पड़ती है। उनकी आन्तरिक रचना के बारे में भी जानकारियां मिल रही हैं। पर यह ग्रह-नक्षत्र चक्कर क्यों काट रहे हैं विज्ञान यह नहीं बता सकता उसके लिए हमें आध्यात्मिक चेतना की ही शरण लेनी पड़ती है। अध्यात्म में ही वह शक्ति है जो मनुष्य के आन्तरिक रहस्यों का उद्घाटन कर सकती है। विज्ञान उस सीमा तक पहुंचने में समर्थ नहीं है।

अध्यात्म एक स्वयं सिद्ध शक्ति है वैज्ञानिक आधार पर उसका विश्लेषण (एनालिसिस) नहीं किया जा सकता। मस्तिष्क के गुणों के बारे में विज्ञान चुप है। हमें नई-नई बातों के जानने की उत्सुकता क्यों होती है? हम आजीवन कर्त्तव्यों से बंधे रहते हैं? निर्दय कसाई भी अपने बच्चों से प्रेम और ममत्व रखते हैं, हिंसक डकैत भी स्वयं कष्ट सहते पर अपनी धर्मपत्नी अपने बच्चों के भरण-पोषण और शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध करते हैं। चोर और उठाईगीरों को भी अपने साथियों और मित्रों के साथ सहयोग करना पड़ता है। सहानुभूति, सेवा और सच्चाई। यह आत्मा के स्वयं सिद्ध गुण हैं। मानवीय जीवन में उनकी विद्यमानता के बारे में कोई सन्देह नहीं है। यह अलग बात है कि किसी में इन गुणों की मात्रा कम है। किसी में कुछ अधिक होती है।

सौन्दर्य की अदम्य पिपासा, कलात्मक और नैतिक चेतना को भौतिक नियमों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। इन्हें जिस शक्ति के द्वारा व्यक्त और अनुभव किया जा सकता है वह अध्यात्म है। हमारा 99 प्रतिशत जीवन इन्हीं से घिरा हुआ रहता है। 1 प्रतिशत आवश्यकतायें भौतिक हैं किन्तु खेत है कि 1 प्रतिशत के लिए जीवन के शत प्रतिशत अंश को न्यौछावर कर दिया जाता है। 99 प्रतिशत भाग अन्ततोगत्वा उपेक्षित ही बना रहता है इससे बढ़कर मनुष्य का और क्या दुर्भाग्य हो सकता है? अशांति असन्तोष उसी के परिणाम हैं।

‘‘विश्वास की इच्छा’’ (दि विल टु विलीव) नामक पुस्तक के लेखक वैज्ञानिक विलियम जेम्स और हैण्डरस ने जब महान् वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन के सापेक्ष सिद्धांत (थ्योरी आफ रिलेटिविटी) को पढ़ा—समय ब्रह्माण्ड, गति और सृष्टि के मूल तत्वों (टाइम, स्पेस, मोशन एण्ड काजेशन) के साथ व्यक्तिगत अहंता (सेल्फ) का तुलनात्मक अध्ययन किया तो उन्हें भी यही कहना पड़ा कि भौतिक जगत सम्भवतः सम्पूर्ण नहीं है। हमारा सम्पूर्ण भौतिक जीवन आध्यात्मिक वातावरण में पल रहा है। उस परम पालक आध्यात्मिक शक्ति को ही लक्ष्य कह सकते हैं। ऐसी शक्ति को अमान्य नहीं किया जा सकता।

उन्होंने आगे बताया है कि वह तत्व जो विश्व के यथार्थ का निर्देश करते हैं भौतिक शास्त्र के द्वारा विश्लेषण (एनालाइज) नहीं किये जा सकते। उसके लिए एक अलग आध्यात्मिक नक्शा (स्केच) तैयार करना पड़ेगा और और सचेतन इकाइयों द्वारा ही उनका अध्ययन करना पड़ेगा। वह सचेतन इकाइयां हमारे विचार, श्रद्धा, अनुभूतियां—तर्क और भावनायें हैं। उन्हीं के द्वारा अध्यात्म को स्पष्ट किया जा सकता है। उन्हीं के विकास द्वारा मनुष्य जीवन में अभीष्ट सुख शांति की प्राप्ति की जा सकती है। भावनाओं की तृप्ति भावनायें ही कर सकती हैं पदार्थ नहीं। इसलिये भाव-विज्ञान (अध्यात्म) को हम छोड़ नहीं सकते।
First 5 7 Last


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