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Books - आध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाय

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आद्य शक्ति की उपासना से जीवन को सुखी बनाइए?

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विभिन्न प्रकार की महत्ताओं की जननी तीन शक्तियां ठहराई गई हैं। उन तीनों को जो जिस मात्रा में उपार्जित कर लेता है वह उतना ही उन्नतिशील कहलाता है। भगवती आद्य शक्ति की तीन रूपों में पूजा की जाती है—(1) महा सरस्वती, (2) महा लक्ष्मी (3) महाकाली। शिव के साथ में शक्ति का संयोग है। भगवान शंकराचार्य ने यह कहा है कि—शक्ति के बिना शिव का स्पन्दन नहीं होता। जीव की उन्नति देह की सहायता से होती है, वैसे ही शिवतत्व का स्पन्दन शक्ति द्वारा होता है। भक्ति के बिना ईश्वर नहीं मिलता, शक्ति के बिना शिव नहीं मिलता—कल्याण का मार्ग प्राप्त नहीं होता ब्रह्म प्राप्ति में—आत्मिक उन्नति में, भगवती आद्य शक्ति की सहायता आवश्यक है। अशक्त मनुष्य, बातूनी छप्पन बांध सकते हैं पर वे वस्तुतः प्राप्त कुछ नहीं कर सकते। सांसारिक आनन्द से लेकर ब्रह्मानन्द तक मातेश्वरी शक्ति का ही प्रसाद है। भारतीय आध्यात्म शास्त्र में महासरस्वती, महालक्ष्मी, महाकाली इन महाशक्तियों की उपासना का बड़ा महात्म्य गाया गया है, इनकी कृपा से अनेकानेक सिद्धि सम्पदाएं प्राप्त होने का फल बताया गया है। सविस्तार इनकी आराधना का वर्णन है। महासरस्वती का अर्थ है—विद्या, बुद्धि, तर्क, विवेचना, जानकारी, चतुराई। महालक्ष्मी का अर्थ है—धन, सम्पत्ति, जमीन जायदाद। महाकाली का अर्थ है—शत्रु को दमन करने वाली शक्ति, तलवार, कूटनीति, दलबन्दी। इन तीन शक्तियों की महत्ता हमारे आध्यात्मिक आचार्यों ने बहुत प्राचीनकाल में जान ली थी और समझ लिया था कि जिस व्यक्ति को, जिस जाति को, जिस राष्ट्र को जीवित रहना है किसी दिशा में उन्नति करनी है उसे इन तीन तत्वों का अवलम्बन अवश्य ग्रहण करना पड़ेगा। यही कारण है कि त्रिशूल धारिणी भगवती शक्ति की आराधना की जाती है। जो ठीक तरह से उनकी उपासना करते हैं उन्हें मातेश्वरी का प्रसाद प्राप्त होता है।

हिन्दू धर्म वास्तव में कवियों का, चित्रकारों का, कलाकारों का धर्म है। इसमें हर बात को अलंकारिक चित्र रूप में वर्णन किया गया है। देवी देवताओं के साथ उपाख्यानों के बड़े-बड़े रोचक वर्णन जो पुराणों में भरे पड़े हैं मोटी दृष्टि वालों को गपोड़े दिखाई पड़ते हैं। परन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है, हमारी प्राचीन शैली यह रही है कि किसी तथ्य को एक चित्र रूप में चित्रित करके अलंकारिक भाषा में उसका वर्णन किया जाय, और उसमें एक महत्वपूर्ण रहस्य छिपा दिया जाय उस उपाख्यान में से, शब्द चित्र में से, उस रहस्य को ढूंढ़ने का प्रयत्न श्रोता लोग करें और बुद्धि पर जोर देकर यह पता लगावें कि इस कलापूर्ण रचना में क्या महत्व सन्निहित है इस पद्धति से शिक्षा देने वाले कलाकार रचयिता को भी मजा आता था और अपनी बुद्धि खर्च करके तथ्य को ढूंढ़ निकालने वाले श्रोता को भी अपनी खोज-सफलता पर हर्ष होता था। हर्ष बुद्धि के साथ-साथ इस पद्धति से दी हुई शिक्षा अन्तःस्थल में गहरी उतर जाती थी। उसे भुला देना इतना आसान न होता था जितना कि आजकल की बाजारू शब्दावली को लोग इस कान से सुनकर उस कान में निकाल देते हैं। महाशक्ति के उपरोक्त तीन स्वरूपों को देवियों के सुन्दर चित्र की तरह प्रकट करना ऐसा ही कलामय प्रयास है।

आज वस्तु स्थिति को समझने की योग्यता का स्थान अन्ध विश्वास ने ग्रहण कर लिया है। अल्प बुद्धि के लोग समझते हैं कि सरस्वती, लक्ष्मी, काली कोई दिव्य स्त्रियां हैं जिनके हाथ पांव तो हैं पर अदृश्य रहती हैं, भक्तों को दर्शन देती हैं, माला जपने, अनुष्ठान करने, गन्ध, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, चढ़ाने से प्रसन्न हो जाती हैं, और भक्त के घर में चुटकी बजाने भर के अन्दर एक क्षण में मनमानी संपदाएं रख जाती हैं। इसी अन्ध विश्वास के आधार पर जो लोग प्रतिमा की पूजा तक ही अपना कर्तव्य समाप्त हुआ समझते हैं और जंत्र मंत्र की शक्ति से देवी के प्रसन्न होने पर अनायास सब संपदाएं घर में भर जाने की आशा करते हैं, उनके शेख चिल्ली के स्वप्न पूरे नहीं हो सकते। वास्तविकता को जानकर उचित मार्ग से प्रयत्न करने पर सफलता प्राप्त की जा सकती है। उपरोक्त महाशक्तियों का प्रचण्ड वरदान आप प्राप्त कर सकते हैं बशर्ते कि अन्ध विश्वास की अपेक्षा विवेक द्वारा उन्हें प्राप्त करने और प्रसन्न करने का प्रयत्न करें।

भगवती सरस्वती एक हाथ में वीणा दूसरे में पुस्तक लिये हुए चित्रित की गई है। पुस्तक का तात्पर्य स्पष्ट है, अच्छे साहित्य का अध्ययन किये बिना विचार शृंखला का परिमार्जित होना कठिन है। संसार के उच्च कोटि के विचारक और तत्वदर्शी अपने गम्भीर ज्ञान को पुस्तकों में जोड़ गये हैं या छोड़ गये हैं। उनके विचारों का अध्ययन करना एक प्रकार से उनकी समीपता प्राप्त करना, सत्संग का लाभ उठाना है। ज्ञान कोष को भरने के लिये अन्य लोगों के अनुभव और अन्वेषण का निरीक्षण आवश्यक है, यह कार्य पुस्तकों की सहायता से ही हो सकता है। ज्ञानी बनने के लिये अध्ययन प्रेमी होना अनिवार्य है। दूसरे हाथ में वीणा का होना प्रकट करता है कि आपके भावना तन्तु झंकृत होते रहने चाहिए। विद्या शुष्क पाण्डित्य के लिये नहीं है उसका सदुपयोग यह है कि वह अपने सात्विक प्रभावों से आपके अन्तःकरण के तारों को झनकार दें। अध्ययन, मनन, निदिध्यासन द्वारा आप जिस निष्कर्ष पर पहुंचे, उस पर विश्वास करें और तदनुसार जीवन को ढालने का प्रयत्न करें, विश्वास और आचरणों में एकता रखें ज्ञान का वास्तविक लाभ उठावें। हंसवाहिनी शारदा की वीणा पुस्तक प्रियता यह प्रकट करती है कि विद्या चाहने वाले, विद्वान बनने की इच्छा करने वाले लोगों को चाहिए कि पुस्तकों का अध्ययन करना अपना दैनिक कार्यक्रम बनावें, नित्य पढ़ने की आदत डालें, जो ज्ञान प्राप्त करें उससे अपनी हृदय वीणा को झंकृत करते हुए ज्ञान का श्रद्धा और आचरण के साथ संबन्ध जोड़ें। यही सरस्वती पूजा का सरल सा किन्तु अत्यन्त ही महत्वपूर्ण विधान है जिसे कलाकार ने चित्र रूप में हमारे सामने उपस्थित किया है। हंसवाहिनी महा सरस्वती का उपासक हंस जैसा नीर क्षीर विवेकी होना चाहिए। दूध में से पानी को निकाल देने की वृत्ति अपने अन्दर धारण करने से सत् असत् का विवेक होता है। संसार में सब माल बेतरतीब भरा पड़ा है, इस कटपीस की गठरी में अच्छे टुकड़े भी हैं और खराब भी, यह लेने वाले की समझ के ऊपर है कि वह काम लायक बढ़िया चीज पसन्द करता है या निकम्मी बेमतलब की उठा लाता है। सभी मजहबों में अच्छे विचार मौजूद हैं, समयानुसार हर प्रकार के तत्वों का प्रवेश हुआ है आज की स्थिति के योग्य जिस धर्म में जो बात प्राप्त होती है उसे ग्रहण कर लीजिये और जो बातें समय से पीछे की होने के कारण निरुपयोगी हो गई है उन्हें निकाल दीजिए। कुछ घण्टे पहले का दूध अब जम कर दही हो गया है। हलवाई इस दही में से जो पानी छोटता है, उसे निकाल कर फेंकता जाता है और जमा हुआ भाग ग्राहकों को बेचता है। कुछ देर पहले जब यही दही दूध की शक्ल में था तब उसमें से पानी छांट कर फेंकने की जरूरत न थी पर अब समय बदल जाने के बाद हो गई। पानी मिला दूध तो उस समय बिक सकता था पर दही से छूटा हुआ पानी नहीं बेचा जा सकता। प्राचीन धर्मग्रन्थ, उपदेश, विचार, रीति-रिवाज, अपने समय के लिये बहुत उपयोगी, लाभदायक और आवश्यक थे पर आज परिस्थितियां बदल गई हैं तो उन्हीं बातों को स्वीकार कीजिये जो आज की स्थिति में उपयोगी हैं। इस प्रकार यदि आप अपनी वृत्ति को सावधान, नीर क्षीर विवेक करने वाली रखेंगे, अन्ध विश्वास से अपने को सावधानी के साथ बचायेंगे तो बुद्धिमान बनते जायेंगे, भगवती सरस्वती के कृपापात्र वाहन—हंस का पद प्राप्त करते जायेंगे। बुद्धि वृद्धि के लिए यह आवश्यक है कि किसी एक ही बात पर दुराग्रह न किया जाय, अपनी ही बात को सबसे ऊंची रखने का हठ न किया जाय, वरन् खुले हृदय जिज्ञासु की तरह निष्पक्ष सत्य शोधक की तरह-बुद्धि संगत बात को स्वीकार करने एवं भूल को सुधारने के लिये तैयार रहेंगे तो अपने ज्ञान में दिन दिन वृद्धि करते जायेंगे। हमारी बात ठीक और सबकी झूठी—यह विचार पद्धति जिन्होंने अपना रखी है वे अपने ज्ञान और विवेक में कभी भी उन्नति न कर सकेंगे।

जो लोग अपना विवेक और अनुभव बढ़ाना चाहते हैं उन्हें चुनाव करने की और शिक्षा ग्रहण करने की पद्धति को अपनाना चाहिए वस्तु की उपयोगिता अनुपयोगिता जानने का तरीका यह है कि उसके समतुल्य अन्य वस्तुयें विचारार्थ सामने रखिये और उनमें से हर एक के गुण अवगुणों पर विस्तारपूर्वक विवेचना कीजिए तब उनमें से जो वस्तु अधिक उपयोगी सिद्ध हो उसे चुन लीजिए। बिना विचारे भावावेश में किसी बात के अन्ध अनुयायी हो जाना उचित नहीं, इससे मस्तिष्क की तेजस्विता जागृत नहीं होती, और न सर्वोत्तम वस्तु के प्राप्त होने की ही सम्भावना रहती है। जो काम आपको करना है केवल उसके लाभों को ही मत गिनिये, ऐसा करे तो धोखा खाएंगे, लाभ के साथ हानियों को भी सोचना समझना है कठिनाइयों पर भी दृष्टिपात करना है, सब पहलुओं पर विचार करने के उपरान्त जो निर्णय करते हैं—जो चुनाव करते हैं वह मजबूत होगा और ऐसा होगा जिसके लिये शायद ही पश्चाताप करना पड़े।

जो घटनाएं आपके चारों ओर घट रही हैं, जो घटनाएं भूत काल में घट चुकी हैं उनको उपेक्षा की दृष्टि से मत देखिए वरन् जहां तक हो सके हर एक पर पैनी नजर फेंकते चलिए और यह विचार करते चलिए कि किन कारणों से ऐसे अवसर उपस्थित हुए या होते हैं। उन कारणों का सामयिक परिस्थितियों से कितना सामंजस्य है? इस गम्भीर अवलोकन से आप कुछ निष्कर्ष निकाल सकेंगे, कुछ अनुभव प्राप्त कर सकेंगे। वह निष्कर्ष और अनुभव धीरे धीरे इतने अधिक एवं दृढ़ हो जावेंगे कि उस आधार पर भावी जीवन का बहुत कुछ निर्माण हो सकेगा। आप बीती के आधार पर अधिक अनुभव इकट्ठे नहीं हो सकते, अनुभवी और विशेषज्ञ बनना है तो दूसरों पर बीती हुई बातों का विश्लेषण करने पर जो मिलता है उसे ग्रहण करके अपनी योग्यता में वृद्धि करनी चाहिए।

वस्तु स्थिति को समझने की गलती तथा दोष पूर्ण विचारधारा के कारण अधिकांश दुखों का आविर्भाव होता है। कोई सगा संबंधी मर जाने पर आप सिर धुन-धुन कर रोते हैं भोजन त्याग देते हैं, सूख सूख कर कांटा हो जाते हैं यह विपत्ति आपकी अपनी उत्पन्न की हुई है। हर प्राणी का मरण निश्चित है—इसी प्रकार आपके संबंधी का भी मरण अनिवार्य था। सूर्य को डूबना ही है यदि उसे अस्त होता देखकर रोवें पीटें तो भी वह अपना क्रम न रोकेगा। आप भ्रमवश मान लेते हैं कि सूरज सदा चमकता ही रहेगा और उससे ऐसी आशा करते हैं, जब आशा के अनुकूल फल नहीं निकलता तो रोते चिल्लाते हैं। इसके शोक में मरने वाला व्यक्ति कारण नहीं है क्योंकि वह तो उसी स्वाभाविक राज पथ से गया जिससे सभी को जाना पड़ता है। दोष उस दृष्टिकोण का है जिसने मरणशील प्राणी को अमर समझकर नाना प्रकार की आशायें बांध रखी थीं। जिसको अपनी आशाओं के महल अधिक टूटते दीखते हैं वह अपनी असफलता पर अधिक रोता है। जिसका मृत व्यक्ति से जितना अधिक स्वार्थ था वह उतना ही अधिक दुःखी होता है। जिसने उससे कुछ आशायें नहीं बांध रखी थीं, कुछ स्वार्थ नहीं जोड़ रखे थे उसे दुःख क्यों होगा? रोजाना अनेक मुर्दे निकलते और जलते हम देखते हैं पर एक बूंद भी आंसू की नहीं निकलती, पर जब अपने स्वार्थ से संबंधित मनुष्य मरता है तो रो-रो कर व्याकुल हो जाते हैं।

यदि अध्यात्म ज्ञान की उचित शिक्षा प्राप्त करके अपने हर एक प्रिय जन को मृत्यु के मुंह में लटका हुआ समझे और उसके ऊपर आशाओं के महल खड़े न करके कर्तव्य भावना से उसके साथ अपना धर्म निवाहने का दृष्टिकोण रखें तो विश्वास रखिए, उसकी मृत्यु के समय कुछ भी कष्ट न होगा। जिस पर ममत्व नहीं है वह वस्तु नष्ट हो जाने पर कौन दुःख मनाता है? यदि भौतिक वस्तुओं पर आपका ममत्व न हो अपने को उनका मालिक न समझा करें सेवक संरक्षक मानें तो प्रियजनों के विछोह, चोरी हानि आदि के कारण उत्पन्न होने वाले दुःख शोकों से सरलता पूर्वक बच सकते हैं। ‘‘संसार की हर वस्तु नाशवान है, उनका किसी भी क्षण नाश हो सकता है, मेरा कर्तव्य यह है कि प्राप्त वस्तुओं के प्रति निर्लिप्त भावना से अपनी जिम्मेदारी पूरी करता रहूं।’’ यह ज्ञान यदि दृढ़ता पूर्वक हृदय में बैठ जाय तो मानसिक क्लेशों का अन्त हुआ ही समझिए। शारीरिक स्वास्थ्य की अवनति या बीमारियों की चढ़ाई अपने आप नहीं होती वरन् उसका कारण भी अपनी भूल है। आहार में असावधानी, प्राकृतिक नियमों की उपेक्षा, शक्तियों का अधिक खर्च, स्वास्थ्य नाश के यह प्रधान हेतु हैं जो लोग तन्दुरुस्ती पर अधिक ध्यान देते हैं, स्वास्थ्य के नियमों का ठीक तरह पालन करते हैं वे मजबूत और निरोग बने रहते हैं। योरोप अमेरिका के निवासियों के शरीर कितने स्वस्थ एवं सुदृढ़ होते हैं। हमारी तरह वे भाग्य का रोना नहीं रोते वरन् आहार विहार के नियमों का सख्ती के साथ पालन करते हैं बुद्धि और विवेक का उपयोग निरोगता के लिए करते हैं, जिससे वे न तो बहुत जल्द बीमार पड़ते हैं, न दुर्बल होते हैं और न अल्पायु में मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं। हमारे देश में ही देखिए उच्च वर्ण वालों की अपेक्षा नीच वर्ण के लोग स्वास्थ्य की दृष्टि से अधिक गिरे हुए होते हैं इसका कारण ईश्वर की अकृपा नहीं वरन् अज्ञानता और उपेक्षा है। अपने प्रयत्नों से आप पुनः अच्छा स्वास्थ्य प्राप्त कर सकते हैं और लापरवाही पर ही आरूढ़ रहें तो शरीर को इससे भी बुरी हालत में लगा सकते हैं। कुंजी अपने भीतर है स्वास्थ्य के आप खुद मुख्तार हैं। कोई दूसरा इसमें क्या हस्तक्षेप कर सकता है? वैद्य डॉक्टर सलाह दें सकते हैं, दवा दे सकते हैं, परन्तु निरोगता की चाबी उन बेचारों के पास थोड़े ही है। वह तो अपने अन्दर से ढूंढ़ निकालनी पड़ेगी।

धन उपार्जन, विद्याध्ययन और बुद्धि-वृद्धि यह तीनों सम्पदाएं घोर परिश्रम, निरन्तर प्रयत्न, सच्ची लगन और साहसपूर्ण उत्साह से होती हैं। जो लोग आज आपको अमीर दिखाई पड़ते हैं वे यों ही अनायास नहीं बन गये हैं, उन्होंने जो फिसानी से मेहनत की है, दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा है। जिन्हें आप विद्वान देख रहे हैं उन्होंने वर्षों सर खपाया है, मुद्दतों पुस्तकें रटी हैं, खेल तमाशों से, यात्रा-विहार से, मनोरंजन से अपने को बचाकर पढ़ने की धुन में लगे रहते हैं। जिन्हें आप बुद्धिमान देख रहे हैं उन्होंने बुद्धिमानों की संगतियां की हैं, ठोकरें खाई हैं, बुद्धि को घोड़े की तरह चारों ओर दौड़ाया है, समस्याओं को सुलझाने में गंभीर मनन किया है, ज्ञान लाभ के लिए कष्टकर प्रोग्रामों को अपनाया है। यदि वे लोग ऐसा न करते तो उनका धनवान, विद्वान, बुद्धिमान बनना सम्भव न था उद्योगी पुरुष सिंह लक्ष्मी को पाते हैं और कायर पुरुष दैव दैव पुकारते रहते हैं। यदि आप संपदाएं प्राप्त करना चाहते हैं तो वे उपहार की तरह किसी बाहर के आदमी से न मिलेंगी वरन् अपनी योग्यता और क्रियाशीलता द्वारा उन्हें प्राप्त करना पड़ेगा।

मित्रता, प्रतिष्ठा प्रशंसा से लदा हुआ जिन्हें आप देखते हैं, जिनके बहुत से मित्र, भक्त, प्रशंसक पाते हैं, उनकी मानसिक दशा का निरीक्षण कीजिए। आप पावेंगे कि उनमें बहुत से ऐसे गुण हैं जिनके कारण लोगों का मन उनकी ओर आकर्षित होता है, उनमें बहुत सी ऐसी विशेषताएं हैं जिनसे लोग लाभ उठाते हैं। उन्हें मुफ्त के माल की तरह प्रतिष्ठा एवं प्रशंसा नहीं मिलती वरन् उसके अनुरूप अपने आपको बनाने के पश्चात उसके अधिकारी हुए हैं। गन्ध रहित पुष्प के पास भौंरे नहीं आते। अपने चारों ओर भ्रमरों को मधुर स्वर के साथ गूंजते फिरते देखने का सौभाग्य उन्हीं पुष्पों को प्राप्त होता है जो अपने अन्दर मनमोहिनी सुगंध छिपाये बैठे हैं। कमल के फूल पर यदि भौंरों के झुण्ड मंडराते रहते हैं तो यह भौंरों की कृपा नहीं, कमल की विशेषता है। बिना विशेषता वाला कन्नेर-पुष्प बेचारा अकेला एक कोने में ही पड़ा रहता है और मुरझा जाता है।

हम मानते हैं कि कभी-कभी किसी को अनायास भी बहुत सी सुविधा संपदा प्राप्त हो जाती हैं, जिन्हें भाग्य की देन कहते हैं। यह अपवाद हैं। रास्ते में चलते हुए किन्हीं को रुपये पैसे पड़े मिल जाते हैं यह अपवाद है इससे यह सिद्धान्त निश्चित नहीं किया जा सकता कि हर एक को रास्ते में पड़े पैसे जरूर ही मिलेंगे। अनायास मिलने में भी दो कारण होते हैं या तो पूर्व जन्म का संचित कर्म फल शेष होगा जो अब प्राप्त हुआ है या अब कर्ज लिया जा रहा है जो आगे चुकाना पड़ेगा। मुफ्त का माल तो एक रत्ती भर भी यहां नहीं मिल सकता। यदि पुराना संचित मिला है—बैंक में जमा पूंजी निकाल ली है—तो यह भी अपने उद्योग का फल हुआ। फिर बासी रोटी के ऊपर मलाई लेना या कर्ज लेकर शान बढ़ाने में गर्व करना व्यर्थ है। इसमें कोई गौरव की बात थोड़े ही है।

भाग्य एक आकस्मिक घटना है जो अदृश्य कारणों से किन्हीं-किन्हीं के साथ कभी-कभी घटित हो जाती है। ऐसे एक दो प्रतिशत होने वाले अपवाद निश्चित नियम नहीं बन सकते। सिद्धान्त रूप में वही बात स्वीकार की जायगी जो निन्यानवे, अट्ठानवे, प्रतिशत ठीक उतरती है। आत्म निर्भरता का सिद्धांत सच्चा है। मनोवांछित सफलता प्राप्त करने की कुंजी अपने अन्दर है—यह सिद्धांत सच्चा है। क्योंकि सर्वत्र यही बात फलित होती दृष्टिगोचर हो जाती है कि—‘‘जो जिसका पात्र है वह उस वस्तु को प्राप्त करता है।’’

आप अपने ऊपर विश्वास कीजिए अपने ऊपर निर्भर रहिए। आध्यात्मवाद का सिद्धान्त है कि अपनी दुखदायी परिस्थितियों को टालने के लिए और सुखदायक अवसर उत्पन्न करने के लिये अपने भीतर दृष्टि डालिये, जड़ को तलाश कीजिए। सारे प्रसंगों का उत्पादन और परिवर्तन करने वाला केन्द्र बिन्दु अपने अन्दर है, इसलिए दूसरों का आसरा तकने की अपेक्षा अपना निरीक्षण, संशोधन और सम्पादन आरम्भ कर दीजिए।

अध्यात्म का कलेवर श्रद्धा पर टिका है। पांव टिकाने के लिए स्थान होने पर भी ठीक तरह खड़ा रहा जा सकता है। जिसका कोई स्थान नहीं, कोई निर्भरता नहीं, कोई उद्देश्य नहीं ऐसा व्यक्ति अपने लिए और दूसरों के लिये खतरनाक है। भारतीय दण्ड विधान की धारा 109 ऐसे लोगों के ऊपर लागू होती है जो निरुद्देश्य फिरते हैं, कार्यक्रम और आधार के बिना विचरण करते हैं। उन कानून के निर्माता-विद्वान विचारकों का मत है कि ऐसे व्यक्ति अपराधों की ओर ही प्रवृत्त हो सकते है और समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं इसलिए उनकी निरुद्देश्यता पर प्रतिबन्ध लगाना आवश्यक है। उपरोक्त कानून के अनुसार पुलिस किसी आवारा आदमी को गिरफ्तार करके एक साल के लिए जेल भिजवा सकती है।

जिस प्रकार शरीर की आवारागर्दी अपराध है वैसे ही विश्वास की अस्थिरता मानसिक जुर्म है। जिस आदमी का अपना कोई सिद्धान्त नहीं, उद्देश्य नहीं कार्यक्रम नहीं, आधार नहीं, वह निश्चय ही शैतानी चमक दमक की ओर आकर्षित होगा और कुमार्ग पर चलेगा। स्थिरता के अभाव में हवा के झोंकों के साथ टूटे पत्ते की तरह इधर उधर उड़ता फिरेगा। कब कहां जा पहुंचे—यह अनिश्चितता पत्ते के बारे में सहन की जा सकती है पर डांवाडोल मनुष्य असह्य है। आज आपका विश्वास है कि देशभक्ति कर्तव्य है कल ही देश द्रोह पर उतर आवें। आज हिन्दू हैं, कल मुसलमान हो जावें परसों ईसाई। आज टोपी लगाते हैं, कल टोप पहनें, परसों साफा बांधें, परसों पगड़ी लपेटें आज विवाह करके दुलहन लाये हैं कल तलाक दे दें। आज दान दिया है कल छीन लें। इस तरह विचार और विश्वासों की अस्थिरता मनुष्य को एक प्रकार का मानसिक अपराधी ठहरा देती है। उसका विश्वास उठ जाता है, लोग संदिग्ध और सशंकित दृष्टि से उसे देखते हैं। विश्वास के अभाव में वह दूसरों के सहयोग से वंचित हो जाता है। मनुष्य न तो स्वयं अपने लिए ही अच्छा रहता है और न दूसरों को कुछ सहयोग दे सकता है।

अस्थिर विचार और डांवाडोल सिद्धान्तों के मनुष्य इस संसार में कम नहीं हैं। चोरी न करने का उपदेश करने वाले अस्तेय की महिमा गाते गाते न थकने वाले लोगों में से कितने ही ऐसे मिलते हैं जो मौका पाते हैं तो चोरी करने में नहीं चूकते। ब्रह्मचर्य के समर्थक होते हुए भी व्यभिचार रत, ईश्वर की सर्व व्यापकता का बखान करते करते न थकने वाले मन्दिरों में बैठकर गजब ढाते हमने देखे हैं। धर्म का महत्व मानने वालों को झूंठी गवाही देते हुए अपहरण करते हुए अनीति में प्रवृत्त होते हुए हमने देखा है। गीता का पाठ करके आत्मा की अमरता को सौ सौ बार दुहराने वाले जब मौका पड़ता है तो मरने का जोखिम उठाना तो दूर मामूली चोट खाने से भी बुरी तरह डरते हैं। हमारे परिचित एक पंडित जो 17 वर्ष से गीता की कथा कहने का पेशा करते हैं, कथा से उन्हें काफी धन मिलता था। अच्छी खासी पूंजी उनके पास जमा हो गई थी। एक बार उनके घर पर डाकू चढ़ आये—रुपया लूटने के साथ उन्होंने पंडित जी की धर्मपत्नी और सयानी लड़की के साथ बलात्कार भी किया। पंडित जी डाकुओं की आंख बचाकर एक चारपाई की आड़ में छिपे बैठे थे और यह सब दृश्य देख रहे थे। शारीरिक कष्ट के भय से डाकुओं का विरोध करने की हिम्मत न पड़ी, और उन खून खौला देने वाले दृश्यों को चुपचाप देखते रहे।

यदि सचमुच पण्डित जी को गीता की शिक्षा का ज्ञान होता और आत्मा की अमरता पर सच्चे दृश्य से विश्वास करते होते तो कर्त्तव्य की पुकार को इस प्रकार का दबा देते। मृत्यु से इतना न डरते। हम यह नहीं कहते कि वे गीता को झूठा मानते हैं या अमरता की बात किसी छल से कहते हैं, जहां तक विचारों का ताल्लुक है वे अपने विचारों के प्रति सच्चे हैं परन्तु विचारों के साथ वह दृढ़ विश्वास नहीं था, जिसको ‘श्रद्धा’ कहा जाता है। विचारणा ऐसा तत्व है जो जरा सा दबाव पड़ने पर आसानी से बदल जाता है। कोई विद्वान या बुद्धिमान मनुष्य तर्क, प्रमाण और विद्वता के आधार पर हरा सकते हैं, उसकी युक्तियां और प्रमाण शैली ऐसी जोरदार हो सकती है कि आप निरुत्तर हो जावें, हार मान लें, और ऐसा अनुभव करने लगें कि शायद मैं गलती पर हूं। तब यह बहुत सरल है कि अपने विचार बदल दें, यदि दुर्भाग्य से परस्पर विरोधी विचार वाले बहुत से विद्वानों के बीच में रहने का प्रसंग आ पड़े और परस्पर विरोधी तर्कों को सुनें तो आपको रोज विचार बदलने के लिए विवश होना पड़ सकता है। उस स्थिति में किसी निश्चित नतीजे पर पहुंचना कठिन होगा, बुद्धि भ्रम की अस्थिरता बढ़ जायेगी इसी प्रकार यदि कोई भारी कष्ट, पीड़ा, आघात, व्यथा, वेदना सामने आवे तो उनके दबाव से विचारों को पलट सकते हैं। चोरों का विचार होता है कि पकड़े जाने पर हम अपने साथियों का नाम प्रकट न करेंगे पर राजदण्ड की यन्त्रणा से घबरा कर कइयों को अपना विचार बदलना पड़ता है और वे अपने साथियों का नाम प्रकट कर देते हैं। लोभ का दबाव भी कुछ ऐसा ही है, रुपये का लालच, रूप सौन्दर्य का लालच, मनोरंजन का लालच बड़े बड़े विचारवानों को डिगा देता है। अपनी पत्नी और पुत्री का अपमान देखते हुए भी—शरीर कष्ट के भय से यदि पंडितजी के अमरता के विचार क्षणभर में विलीन हो गये हों तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं है।

किसी प्रकार के विचार रखना ही इसके लिए पर्याप्त नहीं है कि यह व्यक्ति इस प्रकार के कार्य भी करेगा। बहुत से मनुष्य एक प्रकार के काम में लगे हुए हैं पर विचार उसके विपरीत दूसरे प्रकार के रखते हैं। बाहर से आचरण कुछ और करते हैं भीतर से विचार कुछ रखते हैं। कार्य और विचारों का एक न होना इस बात का प्रमाण है कि विचार बहुत ही उथले, निर्बल, एवं अपूर्ण हैं, दिमाग तक ही उनकी प्रगति है अन्तःकरण तक वे प्रवेश नहीं पा सके हैं। ऐसे लंगड़े, लूले, आधे, अधकचरे विचार विश्वासों को लोग मन में भरे फिरते हैं, जब मौका पड़ता है, परीक्षा का अवसर आता है तो झट फिसल जाते हैं, जैसी हवा चलती है वैसी ही पीठ कर लेते हैं। अभी यह कहते हैं अभी वह कहने लगते हैं। यह अस्थिरता मनुष्य की मानसिक आवारागर्दी प्रगट करती है, ठीक वैसी ही जैसी शारीरिक स्थिति के कारण दफा 109 ताजीरात हिन्द के अनुसार जेलखाने की हवा खानी पड़ती है।

यदि मनुष्य का अपना कोई निजी विश्वास न हो, निजी आधार न हो तो हवा के रुख के साथ इधर-उधर उड़ता फिरेगा और जीवन में कोई कहने लायक उन्नति न कर सकेगा। एक मील पूरब को चले फिर लौट पड़े आध मील पश्चिम को चले आये, फिर विचार बदला दो मील उत्तर को बढ़े, फिर समझ में आया कि दक्षिण को चलें डेढ़ मील चलकर वहां पर भी रुक गये फिर किसी और तरफ चलने की सोचने लगे। इस पद्धति से महीनों चलते रहने वाला कोई निश्चित मंजिल तय न कर सकेगा किन्तु जो लगातार एक ही दिशा में चलता रहता है वह एक ही महीने में काफी मंजिल पार कर लेगा जिसके सुदृढ़ विश्वास हैं परिपक्व निश्चय हैं, अपने स्थिर सिद्धान्तों पर आरूढ़ रहता है वह समाज में अपना एक नियत स्थान बना लेता है मजबूती का आदर होता है, जो जिन विश्वासों पर मजबूती के साथ डटा हुआ है उन्हें उनके द्वारा ही पर्याप्त लाभ हो सकता है। दृढ़ता से शक्तिशाली पुरुष वीरों की तरह सम्मानित होता है।

महापुरुषों में एक सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वे अपने विचारों पर पूरी निष्ठा के साथ दृढ़ रहते हैं, अपने उद्देश्यों के प्रति उन्हें पूरी श्रद्धा होती है। उस श्रद्धा से निष्ठा से प्रेरित होकर कार्य करते हैं और कितने ही बड़े कष्ट एवं प्रलोभन सामने आने पर भी विचलित नहीं होते। अपनी निष्ठा के लिए सर्वस्व की बाजी लगा देते हैं, प्राणों की भेंट चढ़ा देते हैं परन्तु निश्चय से जरा भी नहीं डिगते यह दृढ़ता ही किसी मनुष्य की सबसे बड़ी प्रामाणिकता है। इस प्रमाणिकता के कारण लोग उस पर विश्वास करते हैं। जिसके ऊपर विश्वास किया जाता है वह सचमुच महान है, उसकी महानता चिरकाल तक स्थिर रहेगी, कद्र दानी का संसार में से लोप नहीं हो गया है दृढ़ता का बहुमूल्य रत्न सदैव उपेक्षित नहीं पड़ा रहता उसे पहचानने वाले, कदर करने वाले जौहरी मिल ही जाते हैं। कई महापुरुषों के विचार कुछ त्रुटि पूर्ण थे तो भी उनकी निष्ठा, श्रद्धा और दृढ़ता ने उन्हें प्रातः स्मरणीय, पूजनीय बना दिया।

महाराणा प्रताप का जंगलों में रहते फिरना, भामाशाह का दान, हकीकत राय का दीवार में चुना जाना, बन्दा वैरागी का खौलते तेल के कढ़ाव में उबलना, राम का वनवास, हरिश्चन्द्र का स्त्री पुत्रों को बेचना, दधीचि का अस्थिदान, मोरध्वज का पुत्र बलिदान, रानी पद्मिनी का अग्नि दाह, सुकरात का विष पान, ईसा का क्रुसारोहण, यह सब गाथाएं निष्ठा के ऊपर अवलम्बित हैं। अपने विश्वासों की रक्षा करने के लिए सर्वस्व की बाजी लगा देना श्रद्धालु आत्माओं का ही काम है। आज के अस्थिर विश्वास वाले लोगों के सामने ऐसे अवसर आवें तो वे चट बदल जावें। बालक हकीकतराय ने दीवार में चुना जाना पसन्द किया पर हिन्दू धर्म छोड़ने पर तैयार न हुआ, आज का कोई चालाक लड़का होता तो सोचता-जान गंवाने की बजाय तो मुसलमान हो जाना ठीक है—वह चट मुसलमान हो जाता। प्राचीन समय में लोग अपने वचन का पालन के लिए धर्म रक्षा के लिये, सिद्धान्तों की पुष्टि के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी करने को तैयार रहते थे, आज कूट नीति का, चालबाजी का, अधिक लाभ का, व्यापार है। फैशन की तरह विचारों को धारण करते हैं और हजामत की तरह जब तक रुचता है उन्हें पाले रहते हैं और जब चाहते हैं सफाचट करा देते हैं। बड़े बड़े जोरदार व्याख्यान देकर साम्यवाद का महत्व समझने वाले स्वयं पूंजीवाद के केन्द्र बने हुए हैं, धर्म धर्म पुकारने वाले स्वयं अधर्म के संचालक हैं। यह उदाहरण बताते हैं कि उन लोगों ने विचारों को फैशन से अधिक महत्व नहीं दिया है।

आज वे शंकराचार्य कहां हैं? जो वैदिक धर्म की रक्षा के लिए प्राण हथेली पर धर कर निकल पड़े और नन्हीं-सी जान को विरोधी अपार जन संख्या के सामने खड़ा करें? आज वे दयानंद कहां हैं? जो मेवाड़ की रत्न जटित महन्ती को अस्वीकार करके दर-दर अपमान सहते फिरें और अन्त में विष पान करके प्राण त्यागें? आज का प्रोफेसर मोटी तनख्वाह के बदले कुछ घण्टे लेक्चर देकर छुट्टी पा जाता है, उन दिनों ऋषि लोग सूख अन्न खोकर अपनी असाधारण विद्या, शिष्यों को घोट-घोट कर पिलाते थे। यदि चाहते तो वे ऋषि लोग भी अपनी विद्या के बदले में पैसा कमा सकते थे परन्तु उनके सामने अपना कर्तव्य धर्म सिद्धान्त था जिसे पालन करने के लिये गरीब का जीवन स्वीकार करना मामूली सी बात थी।

अध्यात्मवाद के आचार्यों ने सदैव इस बात पर जोर दिया है कि मनुष्य श्रद्धालु बने। काफी सोच समझ कर, पर्याप्त छान बीन कर, किन्हीं सिद्धान्तों को स्वीकार किया जाय और स्वीकार करने के बाद उनका दृढ़ता के साथ पालन किया जाय। वह विश्वास इतने दृढ़ होने चाहिए कि परीक्षा और कठिनाई के समय भी ठहर सकें, उनके लिये कुछ त्याग और बलिदान भी किया जा सके।

तर्क अच्छी वस्तु है, सचाई जानने में उससे सहायता मिलती है, अन्ध विश्वास और भ्रम पाखंडों की सफाई उससे की जाती है और एक हद तक पथ प्रदर्शन भी होता है, किन्तु उसकी कुछ नियत मर्यादा है। जीवन के मूल स्रोत में उत्साह तर्क से नहीं श्रद्धा से पैदा होता है, दृढ़ता, त्याग, भावना परायणता, स्थिरता, श्रद्धा से आती है, लोभ और कष्टों को ठुकरा कर जब मनुष्य लौह-स्तम्भ की तरह अडिग खड़ा होता है तब समझना चाहिए कि श्रद्धा की सुदृढ़ शिला में इसकी जड़ें पहुंच गई हैं। केवल तर्क जन्य विचार तो बहुत ही कमजोर होते हैं। बालू के महल की तरह वे जरा से धक्के में तितर बितर हो जाते हैं।

गुरु का बड़ा भारी माहात्म्य वर्णन किया गया है। कहीं कहीं तो गोविन्द से भी गुरू को बड़ा बताया गया है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर से उसकी उपमा दी गई है, गुरु भक्ति को ईश्वर भक्ति से ऊंचा कहा गया है। इसमें एक व्यक्ति को माध्यम बनाकर श्रद्धा का बीज बोने का प्रयास है। सिद्धान्तों, उद्देश्यों पर श्रद्धा जमाने की साधना का आरम्भ बालकों को गुरु भक्ति द्वारा कराया जाता था, उच्छ्रंखलता, उद्दण्डता, स्वेच्छाचार के विरुद्ध यह एक स्वेच्छा स्वीकृति, मानसिक नियंत्रण है जिसके द्वारा बड़े बड़े मानसिक लाभ अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। पर शिष्य की मान्यता के अनुसार गुरु का दर्जा सचमुच गोविन्द से बड़ा न हो जायगा। वह अपूर्ण प्राणी ही रहेगा पर अपनी भावना की दृढ़ता द्वारा शिष्य उससे इतना लाभ उठा लेगा जितना गोविन्द से उठाया जा सकता है। द्रोणाचार्य ने अपनी सारी योग्यता खर्च करके पाण्डवों को वाण विद्या सिखाई थी, पर उनकी मिट्टी की मूर्ति को गुरु बनाकर उसकी शिष्यता में विद्या सीखने वाला भील पुत्र ‘‘एकलव्य’’ पाण्डवों से अधिक प्रवीण हो गया, यहां तक कि स्वयं द्रोणाचार्य भी उससे पीछे रह गये। यह भी श्रद्धा का चमत्कार है। भील-पुत्र ने मिट्टी के पुतले पर श्रद्धा जमाई और उसके आधार पर अपने अन्दर छिपे हुए अनन्त विद्याओं के भण्डार को जागृत कर लिया। गुरु शिष्य का उपकरण इसी एक महान् सत्य को अपने गर्भ में छिपाये हुए है। आज भले ही ‘गुरुडम’ के विकृत रूप में वह दृष्टिगोचर होते हो पर मूलतः गुरु महात्म्य का तत्वज्ञान श्रद्धा का प्रारम्भिक बीजारोपण करने के निमित्त ही निर्मित हुआ है।

विभिन्न आचार्यों द्वारा निर्मित विभिन्न आध्यात्मिक साधनाएं श्रद्धा को उपजाने के अपने अपने ढंग के स्वतन्त्र प्रयत्न किये हैं। वे देखने में प्रथक हैं तो भी अन्ततः एक ही उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। इन साधनाओं द्वारा जो फल प्राप्त होते हैं उनका कारण यह है कि श्रद्धा अत्यन्त ही प्रबल एक आध्यात्मिक शक्ति है उसकी प्रचंड प्रेरणा के कारण छिपी हुई अन्तरंग योग्यताएं प्रस्फुटित हो उठती हैं। साधक इनका चमत्कार देखता है। उसे आम खाने से मतलब न कि पेड़ गिनने से। अध्यात्मवाद शक्तिशाली बनने की विद्या है, इस विज्ञान का प्रधान कार्य यह है कि अपूर्णता की निर्बलता को दूर करके शक्ति का, अस्थिरता को दूर करके स्थिरता का आविर्भाव करे। समस्त साधनाएं ‘श्रद्धा द्वारा शक्ति उत्पादन’ के केन्द्र बिन्दु की परिक्रमा कर रही हैं। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन सबका अस्तित्व कायम रह रहा है।

आप आज की परिस्थितियों में देवी देवताओं की उपासना में, तन्त्र मन्त्रों की साधना में गुरु शिष्य परम्परा में, दिलचस्पी नहीं रखते। हमारा उसके लिए भी आग्रह नहीं है। जब दूसरे रास्ते मौजूद हैं तो अपनी सुविधा और रुचि का मार्ग पसन्द करने की आजादी होनी चाहिए। मूलमन्तव्य श्रद्धा से है, आप श्रद्धा को अपने अन्दर स्थान देते रहिए। अपनी महानता में श्रद्धा रखिए, अपनी पत्नी के प्रेम में विश्वास कीजिए, बालकों की निष्कपटता पर भरोसा रखिये, माता-पिता और गुरुजनों के वात्सल्य पर यकीन कीजिए। इस दुनिया में पाप की अपेक्षा पुण्य अधिक है। अधर्म से धर्म ज्यादा है। भलाई से बुराई कम है, प्रकाश से अन्धकार न्यून है ऐसी मान्यता बनाइए। अविश्वास और आशंका को कम कीजिए, प्रियजनों की सचाई पर भरोसा बढ़ाइए।

यह ठीक है कि ठगी, कपट, धोखा-धड़ी और बनावट बहुत है पर इतनी नहीं जो त्याग स्नेह, सरलता और सचाई से अधिक हो। यह विश्व ईश्वर की पुण्य कृति है, इसमें उपयोगी और आनन्ददायक तत्व अधिक हैं ऐसी मान्यता को बढ़ाते जाइए। अपने बारे में भी इसी दृष्टिकोण से विचार कीजिए, कि आप समर्थ हैं, दृढ़ प्रतिज्ञ हैं, वचन का पालन करते हैं, सच्चे हैं ईमानदारी का आचरण करते हैं। भले ही दूसरे दोष मौजूद हैं पर निःसन्देह आप में अच्छे गुण भी विद्यमान हैं और उनकी मात्रा दोषों की अपेक्षा कहीं अधिक है। अपने सात्विक अंशों का प्रसन्नता पूर्वक बार बार निरीक्षण कीजिए और अपनी उच्चता पर महानता पर विश्वास करिए श्रद्धा करिए।

‘परमार्थ’ आपका लक्ष्य होना चाहिए। क्योंकि स्वार्थ का सबसे सुन्दर वैज्ञानिक विधान परमार्थ है। दूसरों का लाभ सोचने से बढ़कर अपना लाभ और किसी बात में नहीं है। इसलिए परमार्थ पर श्रद्धा रखिए। अपनी पवित्रता पर श्रद्धा रखिये। ऐसे विश्वास और सिद्धान्तों को अपनाइए जिनसे लोक कल्याण की दिशा में प्रगति होती हो। उन विश्वासों और सिद्धान्तों को हृदय के भीतरी कोने में गहराई तक उतार लीजिए। इतनी दृढ़ता जमा लीजिए कि भ्रष्टाचार और प्रलोभन सामने उपस्थित होने पर भी आप उन पर दृढ़ रहें, परीक्षा देने एवं त्याग करने का अवसर आवे तब भी विचलित न हों। वे विश्वास, श्रद्धास्पद होने चाहिये, प्राणों से अधिक प्यारे होने चाहिये। प्राण रक्षा के लिए हर संभव उपाय को काम में लाया जाता है। आप अपनी श्रद्धायुक्त मान्यताओं की रक्षा के निमित्त बड़े से बड़ा जोखिम उठाने के लिये तत्पर हो जाइए।

आध्यात्मवाद कहता है कि आप अपनी मनोभूमि की रचना ऐसी कीजिए जिसमें कोई विश्वास बोये जायें तो दृढ़ता पूर्वक खड़े रहें। तर्क द्वारा भले-बुरे की पहचान किया कीजिए, असत्य के अंधेरे में सत्य को ढूंढ़ निकालने का प्रयत्न कीजिये परन्तु मानव तत्व के मूलभूत सिद्धान्त पर तर्क का कुल्हाड़ा मत चलाया कीजिए। बूढ़े माता-पिता की सेवा में पैसा खर्च करने से क्या लाभ? स्त्री को जेवर बनवादूं जिससे वह मेरी अधिक सेवा करे तर्क की दृष्टि से यही मानना पड़ेगा कि बूढ़े माता पिता को एक कोने में पड़े रहने दिया जाय और स्त्री को जेवर बनाये जायें, आज का प्रत्यक्ष लाभ इसी में है। यदि अपने जीवन निर्माण में भी तर्क का अवलम्बन किया तो सारी सात्विकता और महानता नष्ट हो जायगी, मानव में पशुता से अधिक और कुछ शेष न रहेगा। अन्तःकरण के उच्च दैवी गुण भले ही तर्क की तराजू में हलके बैठते हों पर आप उन्हें छोड़िये मत। श्रद्धा द्वारा उनकी रक्षा कीजिए और आग्रहपूर्वक उन पर दृढ़ रहिये।
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