
आत्मोत्कर्ष-अध्यात्म की मूल प्रेरणा
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ब्रह्म विद्या की अन्तरात्मा पुकार-पुकार कर कहती है कि—उठो, जागो और उन्नति के लिये आगे बढ़ो। प्रकृति का हर एक परमाणु आगे बढ़ने के लिए हलचल कर रहा है। सूर्य को देखिए, चन्द्रमा को देखिये, नक्षत्रों को देखिये सभी तो चल रहे हैं यात्रा का क्रम जारी रख रहे हैं। एक क्षण के लिये भी विश्राम करने की उन्हें फुरसत नहीं। नदियां दौड़ रही हैं, वायु बह रही है, पौधे ऊपर उठ रहे हैं, वृक्ष नवीन फल उपजा रहे हैं, जो पदार्थ स्थिर मालूम पड़ते हैं वे भी अदृश्य रूप से चल रहे हैं। भूमि में रहने वाले रासायनिक पदार्थ चुपके चुपके एक जगह से दूसरी जगह को चलते हैं शरीर के जीवन घटक (सैल्स) नित नया रूप धारण करते हैं अन्न से आटा, आटे से रोटी बनी, रोटी का मल, मल का खाद, खाद से वनस्पति, इस प्रकार उन परमाणुओं की यात्रा जारी रहती है। प्रकृति के परमाणुओं का अन्वेषण करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रत्येक विद्युत घटक (इलेक्ट्रोन) प्रति सेकिंड सैकड़ों मील की चाल से अपनी धुरी पर घूमता हुआ आगे बढ़ रहा है। इस विश्व का एक एक कण आगे बढ़ रहा है।
हम अपनी ‘‘जीवन की गूढ गुत्थियों पर तात्विक प्रकाश’’ पुस्तक में सविस्तार यह बता चुके हैं कि जीव आगे बढ़ रहा है। प्रत्येक जन्म में वह आगे ही बढ़ता जाता है। उन्नति क्रम पर निरंतर आगे बढ़ने की उसकी भूख ईश्वर प्रदत्त है। उन्नति से सन्तुष्ट होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता मनुष्य को अपनी सम्पूर्ण अपूर्णताएं हटाकर उतना उन्नत बनना है जितना उसका पिता ईश्वर है जब तक जीवनमुक्त ब्रह्मस्थित नहीं हो जाता तब तक यात्रा में विराम कैसा मंजिल में रुकना कैसा? मामूली सी उन्नति कर जाने पर लोग कहने लगते हैं अब कितना मिल गया सन्तोष करना चाहिए। अधिक के लिये हाय, हाय क्यों करें? जो कुछ उपलब्ध हो गया है उतना ही बहुत है। यह अनात्मवादी विचारधारा है, ईश्वरीय इच्छा के विरुद्ध है, प्रकृति के नियमों के विपरीत है। भोजन करके मनुष्य सन्तुष्ट हो जाता है, उसकी भूख बुझ जाती है, फिर उससे एक लड्डू और खाने को कहा जाय तो न खा सकेगा। इससे यह प्रकट होता है कि इस दशा में प्राकृतिक नियम और अधिक खाने का विरोध करते हैं। परन्तु उन्नति में कोई संतुष्ट नहीं होता हर व्यक्ति यही चाहता रहता है कि और आगे बढूं और कुछ करूं।
नाक से हवा हम खीचते हैं वह शरीर में अन्दर जाती है उसका ऑक्सीजन तत्व रक्त को लालिमा प्रदान करता है। तदुपरान्त वह वायु निष्प्रयोजन हो जाती है उसे शरीर निकाल कर बाहर फेंक देता है जब सांस खींची गई थी तब वही वायु बहुत उपयोगी थी पर वह उपयोग पूरा होते ही उस वायु की उपयोगिता भी नष्ट हो गई। अब नई वायु चाहिए। नया सांस लेना पड़ेगा। यदि पुराने सांस पर ही सन्तुष्ट रहा जाय और यह सोचा जाय कि हमारे लिये तो इतनी ही वायु पर्याप्त है ज्यादा लेकर क्या करेंगे तो यह विचार हानिकारक सिद्ध होगा जीवन की प्रगति रुक जायगी। ठीक यही बात उन्नति के संबंध में लागू होती है। आपने जो शक्ति पहले संपादित की थी उसने एक हद तक आत्मा को बल दिया, ऊंचा उठाया अब उसकी शक्ति समाप्त हो गई। एक बार भोजन किया था उसकी उपयोगिता पूरी हो गई, वह पच गया तो नया भोजन चाहिए। एक बार सांस ली वह अपना काम कर चुकी तो नई सांस चाहिए। एक समय जो उन्नति की थी उससे उस समय उत्थान मिला। अब आगे और शक्ति प्राप्त करने के लिये और ऊंचा चढ़ने के लिये, नवीन प्रोत्साहन के लिये नई उन्नति चाहिये। एक गैलन पेट्रोल लेकर मोटर दस मील चल आई अब उसे और आगे चलाना है हो पेट्रोल दीजिये वरना वह जहां की तहां पड़ी रह जायेगी आगे चलने का काम बन्द हो जायेगा।
बराबर आगे बढ़ते रहने के लिये बराबर नई शक्ति प्राप्त करते रहना आवश्यक है। आपकी उन्नति का क्रम कभी भी रुकना न चाहिए सन्तोष का तात्पर्य दूसरा है जिसे ‘दार्शनिक भूल भुलैया’ पुस्तक में आप पढ़ेंगे। यहां तो आपको इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि आगे बढ़ने से कभी भी रुकना नहीं है। निरन्तर कदम आगे बढ़ाते चलना है और महानता को बूंद बूंद इकट्ठी करके अपनी लघुता का खाली घड़ा पूर्ण करना है। उस कर्महीन मनुष्य का अनुकरण करने से काम न चलेगा जो पेट भरते ही हाथ पैर फैलाकर सो जाता है और जब भूख बेचैन करती है तब करवट बदलता और कुड़कुड़ाता है। छोटी चींटी को देखिये वह भविष्य की चिन्ता करती है, आगे के लिये अपने बिल में दाने जमा करती है जिससे जीवन संघर्ष में अधिक दृढ़ता पूर्वक खड़ी रहे, दस दिन पानी बरसने के कारण बिल से बाहर निकलने का अवसर न मिले तो भी जीवित रह सके। छोटी मधुमक्खी भविष्य की चिन्ता के साथ आज का कार्यक्रम निर्धारित करती है। आज की जरूरत पूरी करके चुप बैठ रहना उचित नहीं, इस जन्म और अगले जनम में आपको लगातार उन्नति पथ पर चलना है तो यह अत्यन्त आवश्यक है कि यात्रा में बल देते रहने योग्य भोजन की व्यवस्था का ध्यान रखा जाय। इस समय आप जितना बल संचय कर रहे हैं वह आगे चलकर बहुत लाभदायक सिद्ध होगा, उसकी क्षमता से भविष्य का यात्रा क्रम अधिक तेजी और सरलता से चलता रहेगा।
योग साधना के फलस्वरूप सिद्धियां प्राप्त होती हैं, अष्ट सिद्धि, नव निद्धि के लिये लालायित होकर अनेक साधक कठोर साधनाएं करते हैं, विजयी बनने के लिये मृत्यु की छाया में रण क्षेत्र की ओर कदम बढ़ाते हैं स्वर्ग लाभ के लिये दुर्गम वन पर्वतों की यात्रा करते हैं, धनी बनने के लिये एड़ी से चोटी तक पसीना बहाते हैं, बलवान बनने के लिये थकाकर चूर-चूर करने वाले व्यायाम में प्रवृत्त होते हैं, विद्वान बनने के लिये रात-रात भर जागकर अध्ययन करते हैं। यह उदाहरण बताते हैं कि उन्नत बनने की आवश्यकता को हमारी अन्तःचेतना विशेष महत्व देती है और उस आवश्यकता को पूरा करने के लिए हम बड़ी से बड़ी जोखिम उठाने को, कठिन से कठिन प्रयत्न करने को तत्पर हो जाते हैं। नकली आवश्यकता और असली आवश्यकता की पहचान यह है कि नकल के लिये, संदिग्ध बात के लिये त्याग करने की तत्परता नहीं होती, असली आवश्यकता के लिये मनुष्य कष्ट सहने और कुर्बानी करने को तैयार रहता है। एक आदमी सिनेमा का शौकीन है उससे कहा जाय कि एक खेल देखने के बदले में तुम्हें अपनी उंगली कटवानी पड़ेगी तो वह ऐसा खेल देखने से मना कर देगा क्योंकि देखने की आवश्यकता नकली है, उसके लिये इतना बड़ा कष्ट सहन नहीं किया जा सकता। परन्तु यदि स्त्री, पुत्र आदि कोई प्रियजन अग्नि काण्ड में फंस गये हों तो उन्हें बचाने के लिये जलती हुई अग्नि शिखाओं में कूदा जा सकता है फिर चाहे भले ही उसमें झुलस कर अपना भी शरीर चला जावे। सिनेमा का खेल देखने की आवश्यकता का और प्रियजनों की जीवन रक्षा करने की आवश्यकता में कौन असली है कौन नकली उसकी पहचान उसके लिये त्याग करने की मात्रा के अनुसार ही जानी जा सकती है। देखते हैं कि उन्नति करने की लालसा मानव स्वभाव में इतनी तीव्र है कि उसके लिए कष्ट सहता है और जोखिम उठाता है। यह भूख असली है आवश्यकता में इतना आकर्षण होता है कि उसके लिये तीव्र शक्ति से प्रयत्न करने को बाध्य होना पड़ता है। मौज में पड़े रहना किसी को बुरा नहीं लगता पर उन्नति की ईश्वरदत्त आकांक्षा इतनी तीव्र है कि उसके लिये मौज छोड़ कर कष्ट सहने को तत्पर हो जाते हैं।
सन्तोष रखने का तात्पर्य यह है कि जब प्रयत्न करते हुये भी किसी कारणवश सफलता न मिले या अल्प मात्रा में मिले तो उस समय मानसिक विक्षेप के ऊपर काबू रखा जाय, निराशा और दुःख से बचने के लिये ईश्वरेच्छा समझ कर सन्तोष किया जाय। उन्नति करना एक ईश्वरीय आज्ञा है जिसका पालन करना हर विवेकशील व्यक्ति को अपना कर्तव्य समझना चाहिए। यह संसार कर्मभूमि है, कर्तव्य करने के लिये आप अवतीर्ण हुये हैं अपने इच्छित उद्देश्यों में सफलता प्राप्त करके विजयी और वैभवशाली बनने की इच्छा कीजिये और उस इच्छा को पूर्ण करने में उत्साह के साथ प्रवृत्त हो जाइए।
पिता अपने उस बच्चे को अधिक प्यार करता है जो अधिक उद्योगी होता है। कमाऊ पूत का घर में स्वागत सत्कार किया जाता है। पिता को उसकी कमाई नहीं चाहिए पर उन्नति देखकर उसे संतोष होता है। एक लड़का कलक्टर हो जाय और दूसरा भीख मांगे तो पिता जगह जगह अपने उस लड़के की प्रशंसा करेगा जो कलक्टर हो गया है भले ही उस उच्च पद का भौतिक लाभ उस लड़के को ही मिलता है तो भी पिता इसमें गर्व करता है कि मेरी एक रचना प्रशंसा के योग्य सिद्ध हुई। भिखारी लड़के के बारे में पिता मन ही मन खिन्न रहता है, उसके कार्यों से स्वयं भी लज्जित होता है किसी से उसके बारे में चर्चा नहीं करता और अपरिचितों में यह प्रकट नहीं करता कि यह मेरा ही लड़का है। निरुद्योगी संतान पर भला कौन अभिभावक गर्व कर सकते हैं? किन्हीं उस पर प्यार हो सकता है?
जब बालक खेल में जीत कर आता है, परीक्षा में उत्तीर्ण होकर आता है, प्रतियोगिता में पुरस्कार लेकर आता है तो पिता के चेहरे पर प्रसन्नता की रेखाएं दौड़ जाती हैं वह बच्चे को उठाकर छाती से लगा लेता है। दूसरा मरियल लड़का जो घर बैठा-बैठा मक्खी मारा करता है उतना प्यारा नहीं हो सकता भले ही वह सारे दिन पिता के पैर दबाया करे या पंखा झला करे। अपने ऊपर पंखा झला जाने की अपेक्षा पिता यह पसन्द करता है कि बालक चाहे उसके कुछ भी काम न आये पर स्वयं उन्नति करे, आगे बढ़े, विजय प्राप्त करे। ईश्वर भी हमसे ऐसी आशा करता है, वह आपको पराक्रमी, पुरुषार्थी उन्नतिशील, विजयी, महान, वैभव युक्त, विद्वान, गुणवान देखकर बहुत प्रसन्न होता है और अनायास ही उठाकर छाती से लगा लेता है। उसे इस बात की इच्छा नहीं कि आप तिलक लगाते हैं या नहीं, पूजा-पत्री करते हैं या नहीं, भोग आरती करते हैं या नहीं क्योंकि उस सर्वशक्तिमान प्रभु का कुछ भी काम इन सबके बिना रुका हुआ नहीं है। वह इन बातों से प्रसन्न नहीं होता उसकी प्रसन्नता तब प्रस्फुटित होती है जब अपने पुत्रों को ऊंचा चढ़ते, उन्नति करते देखता है अपनी रचना की सार्थकता अनुभव करता है।
देखा जाता है कि जो लोग उन्नतिशील स्वभाव के होते हैं उन्हें कहीं न कहीं से आगे बढ़ाने वाली सहायताएं प्राप्त होती रहती हैं। कभी कभी तो अचानक ऐसी मदद मिल जाती है जिसकी पहले कुछ भी आशा नहीं थी। छोटे छोटे आदमी बड़े-बड़े काम कर डालते हैं उन्हें अनायास ऐसे अवसर मिल जाते हैं जिससे बहुत बड़ी उन्नति का रास्ता खुल जाता है। साधारण बुद्धि के लोग उन्हें देखकर ऐसा कहते हैं कि—अमुक व्यक्ति का भाग्योदय हुआ, उसके भाग्य ने अचानक ऐसे कारण उपस्थित कर दिये जिससे वह तरक्की की ओर बढ़ गया। हम इसे ईश्वर की कृपा कहते हैं। पिता अपने बालकों की आदतों और इच्छाओं को परखता है, जो लड़का पढ़ने के लिये बेचैन है उसे स्कूल भेजता है, जो व्यापार चाहता है उसे दुकान खुलवाता है, जो ठल्ल है उसे पशु चराने का काम सौंप देता है व्यापार में पैसे की जरूरत समझता है तो पिता उसके लिये व्यवस्था करता है, पढ़ने वाले की पढ़ाई का खर्च जुटाता है। पढ़ाई खर्च के लिये अचानक पहुंचा हुआ मनीआर्डर देखकर कोई नादान लड़का यह खयाल कर सकता है कि यह पैसा अकस्मात कहीं से आ टूटा है पर असल में इस व्यवस्थित विश्व में अकस्मात् कुछ नहीं है सब कार्य व्यवस्था पूर्वक चल रहे हैं। पढ़ने की उत्कट इच्छा रखने वाला बालक पिता का ध्यान बलात् अपनी ओर खींचता है और उसे पढ़ाई में मदद करने के लिये बाध्य करता है ऐसे बालक को तो वह निरालम्ब नहीं ही छोड़ सकता।
जो मनुष्य आगे बढ़ने की तीव्र इच्छा करते हैं, उन्नति के लिये सच्चे हृदय से जांफिसानी के साथ प्रयत्नशील हैं, उसके प्रशंसनीय उद्योग को देखकर ईश्वर प्रसन्न होता है अपना सच्चा आज्ञा पालक समझता है और उसे प्यार करता है। जिस पर उस परम पिता का विशेष स्नेह है उसे यदि वह कुछ विशेष सहायता दे देता है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। एक प्रसिद्ध कहावत है कि—‘‘ईश्वर उसकी मदद करता है—जो अपनी मदद आप करता है।’’ उन्नतिशील स्वभाव के लोगों को—उनकी उचित प्रवृत्ति में सहायता करने के लिये, परम पिता परमात्मा ऐसे साधन उपस्थिति कर देता है जिनसे उसकी यात्रा सरल हो जाती है। अचानक, अनिश्चित एवं अज्ञात सहायताओं का मिल जाना इसी प्रकार सम्भव होता है। बाइबिल का वचन है कि—जो मांगता है उसे दिया जाता है, जो (द्वार) खड़खड़ाता है उसके लिए खोला जाता है। रामायण कहती है कि—‘‘जिहि कर जिहि पर सत्य सनेहू। सी तेहि मिलहिं न कछु संदेहू, विश्व प्रभु की सर्वांग पूर्ण कृति है, यहां किसी वस्तु का अभाव नहीं है। सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है बशर्ते कि पाने की उत्कृट लालसा के साथ तीव्र प्रयत्न भी हो। छोटा बच्चा जब घुटनों चलता है तो माता उसे खड़ा होकर चलना सिखाती है। वह मिठाई का टुकड़ा जरा ऊंचा रखकर दिखाती है ताकि बालक उसे लेने के लिए पैरों के बल खड़ा हो जाय। जब खड़ा होना सीख जाता है तो फल, मिठाई, खिलौना आदि का लालच देकर पैरों के बल चलना सिखाती है माता बार बार लालच देती है और बच्चे को प्रोत्साहित करती है इसमें उसका यह उद्देश्य छिपा रहता है कि बच्च घुटनों चलना छोड़कर खड़ा होना और पैरों के बल चलना सीखे, उन्नति करने की यात्रा को जारी रखे। परमात्मा ने हमें धन, सम्पत्ति, विद्वत्ता, बल, पदवी आदि के लालच इसलिये उपस्थित किये हैं कि उनको पाने के लिए हम घोर प्रयत्न करें और उस प्रयत्न के साथ-साथ अपनी मनोभूमि को उन्नत-बलवान-विकसित बनावें।
हम लोग उन छोटे बालकों की भांति कार्य कर रहे हैं जो मिठाई के लालच में खड़े होकर चलना सीखने का प्रयत्न करते हैं। भौतिक ऐश्वर्य नाशवान है, थोड़ी देर ठहरते हैं, जल्दी नष्ट हो जाते हैं। यह ठीक है, वे सदा किसी के पास नहीं रहते, यह भी ठीक है, पर इसी कारण उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं छोड़ा जा सकता। मिठाई का टुकड़ा बच्चे की जन्म भर की भूख नहीं बुझा सकता; यह हमेशा रखा भी नहीं रहेगा उसकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करता यह ठीक है, तो भी यदि बालक उसे लेने का प्रयत्न करता है तो उसे हानि नहीं वरन् लाभ ही है। छोटा टुकड़ा मिला-सही-पर चख तो, टुकड़े को प्राप्त करने पर थोड़ी देर प्रसन्नता हुई—सही पर—हुई तो। कुछ न कुछ उसने पाया ही, गंवाया तो नहीं। अप्रत्यक्ष रूप से देखा जाय तो टुकड़े की अपेक्षा बहुत मूल्यवान वस्तु पाई, पैरों की शक्ति बढ़ी, खड़े होने की आदत पड़ी, उन्नति करने का प्रोत्साहन मिला, आत्म विश्वास बढ़ा, मन में मजबूती आई, यह सब क्या कम लाभ है?
यदि यह बालक आज कल के निराशावादियों की तरह कहता—‘यह टुकड़ा तो जरा-सा है, झट पेट में चला जायगा, इसे लेकर क्या करूंगा मैं इसे नहीं लेता, इसके लिए खड़ा होने की मेहनत नहीं करता।’’ क्या ऐसे उत्तर से माता प्रसन्न होती? क्या ऐसे विचार से उसे खुद लाभ होता? इस तरह का सोचना सब दृष्टियों से उसी के लिये हानिकर सिद्ध होता है।
भौतिक संपदा त्याज्य, घृणित या अछूत नहीं है। इन्द्रियों के द्वारा जो भोग भोगे जाते हैं। वे पातक नहीं हैं पेट में भूख उत्पन्न करके परमात्मा ने मनुष्य को निरन्तर काम में लगे रहने का एक चक्र बना दिया है जिससे उसका निरन्तर कार्य करने का, आगे बढ़ने का, क्रम बन्द न होने पावे। इसी प्रकार इन्द्रिय जन्य, अन्य भूखों की रचना हुई है, काम वासना बुरी नहीं है, मानव तत्व के गम्भीर अन्वेषकों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि साधारण श्रेणी के मनुष्यों के लिये काम सेवन आवश्यक है, इसके अभाव में कुछ शारीरिक और अनेक मानसिक रोग उपज खड़े होते हैं। संसार भर की मृत्यु गणना से स्पष्ट हो गया है कि विवाहितों की अपेक्षा विधवा एवं विधुर अल्पायु होते हैं और अधिक संख्या में मरते हैं। इससे प्रकट है कि प्राकृतिक भूख को दबाने का क्या परिणाम होता है नासिका स्वच्छ वायु पसन्द करती है। यदि उसकी भूख को दबा कर बदबूदार स्थान में रहेंगे तो घाटा उठाना पड़ेगा नेत्र मनोहर दृश्य देखना पसन्द करते हैं यदि उनकी भूख को कुचल कर घृणित अरुचिकर दृश्य देखेंगे तो उसका बुरा फल भोगेंगे। प्राकृतिक भूखों की एक ऐसी कसौटी मनुष्य के पास मौजूद है जिसकी सहायता से वह आसानी से जान सकता है कि मेरे लिए क्या ईश्वरीय आज्ञा है क्या नहीं? कभी मनुष्य मध्यम मार्ग छोड़कर अति की ओर भटक जाता है यह अति ही पाप है, इसी को रोकने के लिए धर्म शास्त्रों का अंकुश है। अन्यथा स्वाभाविक आवश्यकताओं को पूर्ण करने में कुछ बुराई नहीं है, छोटे मोटे आकर्षण जो सामने आते हैं उन्हें प्राप्त करने की इच्छा से उद्योग करें तो इसमें हानि कुछ नहीं, लाभ शारीरिक भी है और आत्मिक भी।
आप ‘उन्नति करना’ अपने जीवन का मूल मन्त्र बना लीजिए, शान को अधिक बढ़ाइए, शरीर को स्वस्थ बलवान और सुन्दर बनाने की दिशा में अधिक प्रगति करते जाइये, प्रतिष्ठावान हूजिए, ऊंचे पद पर चढ़ने का उद्योग कीजिये, मित्र और स्नेहियों की संख्या बढ़ाइए, पुण्य संचय करिए, संचय करिए सद्गुणों से परिपूर्ण हूजिये, आत्म-बल बुद्धि को तीव्र करिए, अनुभव बढ़ाइये, विवेक को जागृत होने दीजिये। बढ़ना-आगे बढ़ना और आगे बढ़ना—यात्री का यही कार्यक्रम होना चाहिए।
अपने को असमर्थ, अशक्त एवं असहाय मत समझिये, ऐसे विचारों का परित्याग कर दीजिये कि साधनों के अभाव में हम किस प्रकार आगे बढ़ सकेंगे। स्मरण रखिए—शक्ति का स्रोत साधन में नहीं भावना में है। यदि आपकी आकांक्षाएं आगे बढ़ने के लिये व्यग्र हो रही हैं, उन्नति करने की तीव्र इच्छाएं बलवती हो रही हैं तो विश्वास रखिए साधन आपको प्राप्त होकर रहेंगे, ईश्वर उन लोगों की पीठ पर अपना वरद हस्त रखता है जो हिम्मत के साथ आगे कदम चढ़ाते हैं। पिता आपकी प्रयत्न शीलता को, बहादुरी की आकांक्षा को पसन्द करता है और वह चाहे तामसी ही क्यों न हो बढ़ने में मदद करता है।
प्रकृति विज्ञान के महापण्डित डॉक्टर ई.बी. जेम्स ने अनेक तर्क और प्रमाणों से यह सिद्ध किया है कि ‘योग्यतम का चुनाव’ प्रकृति का नियम है। जो बलवान है उसकी रक्षा के लिये अनेक कमजोरों को वह नष्ट हो जाने देती है। आंधी, ओले, तूफान, कमजोर पेड़ों को उखाड़ फेंकते हैं किन्तु बलवान वृक्ष जहां के तहां दृढ़तापूर्वक खड़े रहते हैं। बीमारी, गरीबी, लड़ाई के संघर्ष में कमजोर पिस जाते हैं किन्तु बलवान उन आघातों को सह जाते हैं। बड़ी मछली की जीवन रक्षा के लिए हजारों छोटी मछलियों को प्राण देने पड़ते हैं, बड़े पेड़ को खुराक देने के लिये छोटे पौधों को भूखा मर जाना पड़ता है, एक पशु का पेट भरने के लिए घास पात की असंख्य वनस्पति नष्ट हो जाती हैं, सिंह की जीवन रक्षा के लिए अनेक पशु अपने जीवन से हाथ धोते हैं। यह कड़ुई सचाई अपने निष्ठुर स्वर में घोषणा करती है कि जीवन एक संघर्ष है इसमें वे ही लोग स्थिर रहेंगे जो अपने को सब दृष्टियों से बलवान बनावेंगे यह वीर भोग्या वसुन्धरा निर्बलों के लिए नहीं है यह तो पराक्रमियों की क्रीड़ा भूमि है। यहां पुरुषार्थियों को विजयमाल पहनाई जाती है और निर्बलों को निष्ठुरता पूर्वक निकाल बाहर किया जाता है।
सावधान हूजिये, गफलत को त्याग दीजिए, कहीं ऐसा न हो कि आप शक्ति सम्पादन की ओर से उपेक्षा करके ‘चैन करने’ में रस लेने लगें और प्रकृति के निष्ठुर नियम आपको निर्बल पाकर दबोच दें। कहीं ऐसी स्थिति में न पड़ जावें कि निर्बलता के दण्ड स्वरूप असह्य वेदनाओं की चक्की में पिसने को विवश होना पड़े। इसलिये पहले से ही सजग रहिये। आत्म रक्षा के लिये सावधान हूजिए, जीवन संग्राम में अपने को बर्बाद होने से बचने के लिए शक्ति का सम्पादन कीजिये, बलवान बनिए सुदृढ़ आधारों पर अपने को खड़ा कीजिए।
अध्यात्मवाद कहता है कि—ईश्वर की आज्ञा का पालन यह है कि आप आगे चलें ऊंचे उठें, आत्म रक्षा के लिए दृढ़ता चाहिये, विपत्ति से बचने के लिए मजबूती चाहिये, भोग ऐश्वर्यों का सुख भोगने के लिए शक्ति चाहिए, परमार्थ प्राप्ति के लिये तेज चाहिए दशों दिशाओं की एक ही पुकार है—आगे बढ़िये, अधिक इकट्ठा कीजिये। हम कहते हैं कि आत्मोन्नति कीजिए ईश्वर को प्राप्त करने की साधनाओं को जारी रखिए, उस महान पथ को पूरा करने की योग्यताओं को बनाये रखने के लिये सांसारिक उन्नतियों को एकत्रित कीजिए उच्च प्रतिष्ठित, शक्तिशाली और वैभववान बनने की दिशा में सदैव प्रगति करते रहिये।
हम अपनी ‘‘जीवन की गूढ गुत्थियों पर तात्विक प्रकाश’’ पुस्तक में सविस्तार यह बता चुके हैं कि जीव आगे बढ़ रहा है। प्रत्येक जन्म में वह आगे ही बढ़ता जाता है। उन्नति क्रम पर निरंतर आगे बढ़ने की उसकी भूख ईश्वर प्रदत्त है। उन्नति से सन्तुष्ट होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता मनुष्य को अपनी सम्पूर्ण अपूर्णताएं हटाकर उतना उन्नत बनना है जितना उसका पिता ईश्वर है जब तक जीवनमुक्त ब्रह्मस्थित नहीं हो जाता तब तक यात्रा में विराम कैसा मंजिल में रुकना कैसा? मामूली सी उन्नति कर जाने पर लोग कहने लगते हैं अब कितना मिल गया सन्तोष करना चाहिए। अधिक के लिये हाय, हाय क्यों करें? जो कुछ उपलब्ध हो गया है उतना ही बहुत है। यह अनात्मवादी विचारधारा है, ईश्वरीय इच्छा के विरुद्ध है, प्रकृति के नियमों के विपरीत है। भोजन करके मनुष्य सन्तुष्ट हो जाता है, उसकी भूख बुझ जाती है, फिर उससे एक लड्डू और खाने को कहा जाय तो न खा सकेगा। इससे यह प्रकट होता है कि इस दशा में प्राकृतिक नियम और अधिक खाने का विरोध करते हैं। परन्तु उन्नति में कोई संतुष्ट नहीं होता हर व्यक्ति यही चाहता रहता है कि और आगे बढूं और कुछ करूं।
नाक से हवा हम खीचते हैं वह शरीर में अन्दर जाती है उसका ऑक्सीजन तत्व रक्त को लालिमा प्रदान करता है। तदुपरान्त वह वायु निष्प्रयोजन हो जाती है उसे शरीर निकाल कर बाहर फेंक देता है जब सांस खींची गई थी तब वही वायु बहुत उपयोगी थी पर वह उपयोग पूरा होते ही उस वायु की उपयोगिता भी नष्ट हो गई। अब नई वायु चाहिए। नया सांस लेना पड़ेगा। यदि पुराने सांस पर ही सन्तुष्ट रहा जाय और यह सोचा जाय कि हमारे लिये तो इतनी ही वायु पर्याप्त है ज्यादा लेकर क्या करेंगे तो यह विचार हानिकारक सिद्ध होगा जीवन की प्रगति रुक जायगी। ठीक यही बात उन्नति के संबंध में लागू होती है। आपने जो शक्ति पहले संपादित की थी उसने एक हद तक आत्मा को बल दिया, ऊंचा उठाया अब उसकी शक्ति समाप्त हो गई। एक बार भोजन किया था उसकी उपयोगिता पूरी हो गई, वह पच गया तो नया भोजन चाहिए। एक बार सांस ली वह अपना काम कर चुकी तो नई सांस चाहिए। एक समय जो उन्नति की थी उससे उस समय उत्थान मिला। अब आगे और शक्ति प्राप्त करने के लिये और ऊंचा चढ़ने के लिये, नवीन प्रोत्साहन के लिये नई उन्नति चाहिये। एक गैलन पेट्रोल लेकर मोटर दस मील चल आई अब उसे और आगे चलाना है हो पेट्रोल दीजिये वरना वह जहां की तहां पड़ी रह जायेगी आगे चलने का काम बन्द हो जायेगा।
बराबर आगे बढ़ते रहने के लिये बराबर नई शक्ति प्राप्त करते रहना आवश्यक है। आपकी उन्नति का क्रम कभी भी रुकना न चाहिए सन्तोष का तात्पर्य दूसरा है जिसे ‘दार्शनिक भूल भुलैया’ पुस्तक में आप पढ़ेंगे। यहां तो आपको इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि आगे बढ़ने से कभी भी रुकना नहीं है। निरन्तर कदम आगे बढ़ाते चलना है और महानता को बूंद बूंद इकट्ठी करके अपनी लघुता का खाली घड़ा पूर्ण करना है। उस कर्महीन मनुष्य का अनुकरण करने से काम न चलेगा जो पेट भरते ही हाथ पैर फैलाकर सो जाता है और जब भूख बेचैन करती है तब करवट बदलता और कुड़कुड़ाता है। छोटी चींटी को देखिये वह भविष्य की चिन्ता करती है, आगे के लिये अपने बिल में दाने जमा करती है जिससे जीवन संघर्ष में अधिक दृढ़ता पूर्वक खड़ी रहे, दस दिन पानी बरसने के कारण बिल से बाहर निकलने का अवसर न मिले तो भी जीवित रह सके। छोटी मधुमक्खी भविष्य की चिन्ता के साथ आज का कार्यक्रम निर्धारित करती है। आज की जरूरत पूरी करके चुप बैठ रहना उचित नहीं, इस जन्म और अगले जनम में आपको लगातार उन्नति पथ पर चलना है तो यह अत्यन्त आवश्यक है कि यात्रा में बल देते रहने योग्य भोजन की व्यवस्था का ध्यान रखा जाय। इस समय आप जितना बल संचय कर रहे हैं वह आगे चलकर बहुत लाभदायक सिद्ध होगा, उसकी क्षमता से भविष्य का यात्रा क्रम अधिक तेजी और सरलता से चलता रहेगा।
योग साधना के फलस्वरूप सिद्धियां प्राप्त होती हैं, अष्ट सिद्धि, नव निद्धि के लिये लालायित होकर अनेक साधक कठोर साधनाएं करते हैं, विजयी बनने के लिये मृत्यु की छाया में रण क्षेत्र की ओर कदम बढ़ाते हैं स्वर्ग लाभ के लिये दुर्गम वन पर्वतों की यात्रा करते हैं, धनी बनने के लिये एड़ी से चोटी तक पसीना बहाते हैं, बलवान बनने के लिये थकाकर चूर-चूर करने वाले व्यायाम में प्रवृत्त होते हैं, विद्वान बनने के लिये रात-रात भर जागकर अध्ययन करते हैं। यह उदाहरण बताते हैं कि उन्नत बनने की आवश्यकता को हमारी अन्तःचेतना विशेष महत्व देती है और उस आवश्यकता को पूरा करने के लिए हम बड़ी से बड़ी जोखिम उठाने को, कठिन से कठिन प्रयत्न करने को तत्पर हो जाते हैं। नकली आवश्यकता और असली आवश्यकता की पहचान यह है कि नकल के लिये, संदिग्ध बात के लिये त्याग करने की तत्परता नहीं होती, असली आवश्यकता के लिये मनुष्य कष्ट सहने और कुर्बानी करने को तैयार रहता है। एक आदमी सिनेमा का शौकीन है उससे कहा जाय कि एक खेल देखने के बदले में तुम्हें अपनी उंगली कटवानी पड़ेगी तो वह ऐसा खेल देखने से मना कर देगा क्योंकि देखने की आवश्यकता नकली है, उसके लिये इतना बड़ा कष्ट सहन नहीं किया जा सकता। परन्तु यदि स्त्री, पुत्र आदि कोई प्रियजन अग्नि काण्ड में फंस गये हों तो उन्हें बचाने के लिये जलती हुई अग्नि शिखाओं में कूदा जा सकता है फिर चाहे भले ही उसमें झुलस कर अपना भी शरीर चला जावे। सिनेमा का खेल देखने की आवश्यकता का और प्रियजनों की जीवन रक्षा करने की आवश्यकता में कौन असली है कौन नकली उसकी पहचान उसके लिये त्याग करने की मात्रा के अनुसार ही जानी जा सकती है। देखते हैं कि उन्नति करने की लालसा मानव स्वभाव में इतनी तीव्र है कि उसके लिए कष्ट सहता है और जोखिम उठाता है। यह भूख असली है आवश्यकता में इतना आकर्षण होता है कि उसके लिये तीव्र शक्ति से प्रयत्न करने को बाध्य होना पड़ता है। मौज में पड़े रहना किसी को बुरा नहीं लगता पर उन्नति की ईश्वरदत्त आकांक्षा इतनी तीव्र है कि उसके लिये मौज छोड़ कर कष्ट सहने को तत्पर हो जाते हैं।
सन्तोष रखने का तात्पर्य यह है कि जब प्रयत्न करते हुये भी किसी कारणवश सफलता न मिले या अल्प मात्रा में मिले तो उस समय मानसिक विक्षेप के ऊपर काबू रखा जाय, निराशा और दुःख से बचने के लिये ईश्वरेच्छा समझ कर सन्तोष किया जाय। उन्नति करना एक ईश्वरीय आज्ञा है जिसका पालन करना हर विवेकशील व्यक्ति को अपना कर्तव्य समझना चाहिए। यह संसार कर्मभूमि है, कर्तव्य करने के लिये आप अवतीर्ण हुये हैं अपने इच्छित उद्देश्यों में सफलता प्राप्त करके विजयी और वैभवशाली बनने की इच्छा कीजिये और उस इच्छा को पूर्ण करने में उत्साह के साथ प्रवृत्त हो जाइए।
पिता अपने उस बच्चे को अधिक प्यार करता है जो अधिक उद्योगी होता है। कमाऊ पूत का घर में स्वागत सत्कार किया जाता है। पिता को उसकी कमाई नहीं चाहिए पर उन्नति देखकर उसे संतोष होता है। एक लड़का कलक्टर हो जाय और दूसरा भीख मांगे तो पिता जगह जगह अपने उस लड़के की प्रशंसा करेगा जो कलक्टर हो गया है भले ही उस उच्च पद का भौतिक लाभ उस लड़के को ही मिलता है तो भी पिता इसमें गर्व करता है कि मेरी एक रचना प्रशंसा के योग्य सिद्ध हुई। भिखारी लड़के के बारे में पिता मन ही मन खिन्न रहता है, उसके कार्यों से स्वयं भी लज्जित होता है किसी से उसके बारे में चर्चा नहीं करता और अपरिचितों में यह प्रकट नहीं करता कि यह मेरा ही लड़का है। निरुद्योगी संतान पर भला कौन अभिभावक गर्व कर सकते हैं? किन्हीं उस पर प्यार हो सकता है?
जब बालक खेल में जीत कर आता है, परीक्षा में उत्तीर्ण होकर आता है, प्रतियोगिता में पुरस्कार लेकर आता है तो पिता के चेहरे पर प्रसन्नता की रेखाएं दौड़ जाती हैं वह बच्चे को उठाकर छाती से लगा लेता है। दूसरा मरियल लड़का जो घर बैठा-बैठा मक्खी मारा करता है उतना प्यारा नहीं हो सकता भले ही वह सारे दिन पिता के पैर दबाया करे या पंखा झला करे। अपने ऊपर पंखा झला जाने की अपेक्षा पिता यह पसन्द करता है कि बालक चाहे उसके कुछ भी काम न आये पर स्वयं उन्नति करे, आगे बढ़े, विजय प्राप्त करे। ईश्वर भी हमसे ऐसी आशा करता है, वह आपको पराक्रमी, पुरुषार्थी उन्नतिशील, विजयी, महान, वैभव युक्त, विद्वान, गुणवान देखकर बहुत प्रसन्न होता है और अनायास ही उठाकर छाती से लगा लेता है। उसे इस बात की इच्छा नहीं कि आप तिलक लगाते हैं या नहीं, पूजा-पत्री करते हैं या नहीं, भोग आरती करते हैं या नहीं क्योंकि उस सर्वशक्तिमान प्रभु का कुछ भी काम इन सबके बिना रुका हुआ नहीं है। वह इन बातों से प्रसन्न नहीं होता उसकी प्रसन्नता तब प्रस्फुटित होती है जब अपने पुत्रों को ऊंचा चढ़ते, उन्नति करते देखता है अपनी रचना की सार्थकता अनुभव करता है।
देखा जाता है कि जो लोग उन्नतिशील स्वभाव के होते हैं उन्हें कहीं न कहीं से आगे बढ़ाने वाली सहायताएं प्राप्त होती रहती हैं। कभी कभी तो अचानक ऐसी मदद मिल जाती है जिसकी पहले कुछ भी आशा नहीं थी। छोटे छोटे आदमी बड़े-बड़े काम कर डालते हैं उन्हें अनायास ऐसे अवसर मिल जाते हैं जिससे बहुत बड़ी उन्नति का रास्ता खुल जाता है। साधारण बुद्धि के लोग उन्हें देखकर ऐसा कहते हैं कि—अमुक व्यक्ति का भाग्योदय हुआ, उसके भाग्य ने अचानक ऐसे कारण उपस्थित कर दिये जिससे वह तरक्की की ओर बढ़ गया। हम इसे ईश्वर की कृपा कहते हैं। पिता अपने बालकों की आदतों और इच्छाओं को परखता है, जो लड़का पढ़ने के लिये बेचैन है उसे स्कूल भेजता है, जो व्यापार चाहता है उसे दुकान खुलवाता है, जो ठल्ल है उसे पशु चराने का काम सौंप देता है व्यापार में पैसे की जरूरत समझता है तो पिता उसके लिये व्यवस्था करता है, पढ़ने वाले की पढ़ाई का खर्च जुटाता है। पढ़ाई खर्च के लिये अचानक पहुंचा हुआ मनीआर्डर देखकर कोई नादान लड़का यह खयाल कर सकता है कि यह पैसा अकस्मात कहीं से आ टूटा है पर असल में इस व्यवस्थित विश्व में अकस्मात् कुछ नहीं है सब कार्य व्यवस्था पूर्वक चल रहे हैं। पढ़ने की उत्कट इच्छा रखने वाला बालक पिता का ध्यान बलात् अपनी ओर खींचता है और उसे पढ़ाई में मदद करने के लिये बाध्य करता है ऐसे बालक को तो वह निरालम्ब नहीं ही छोड़ सकता।
जो मनुष्य आगे बढ़ने की तीव्र इच्छा करते हैं, उन्नति के लिये सच्चे हृदय से जांफिसानी के साथ प्रयत्नशील हैं, उसके प्रशंसनीय उद्योग को देखकर ईश्वर प्रसन्न होता है अपना सच्चा आज्ञा पालक समझता है और उसे प्यार करता है। जिस पर उस परम पिता का विशेष स्नेह है उसे यदि वह कुछ विशेष सहायता दे देता है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। एक प्रसिद्ध कहावत है कि—‘‘ईश्वर उसकी मदद करता है—जो अपनी मदद आप करता है।’’ उन्नतिशील स्वभाव के लोगों को—उनकी उचित प्रवृत्ति में सहायता करने के लिये, परम पिता परमात्मा ऐसे साधन उपस्थिति कर देता है जिनसे उसकी यात्रा सरल हो जाती है। अचानक, अनिश्चित एवं अज्ञात सहायताओं का मिल जाना इसी प्रकार सम्भव होता है। बाइबिल का वचन है कि—जो मांगता है उसे दिया जाता है, जो (द्वार) खड़खड़ाता है उसके लिए खोला जाता है। रामायण कहती है कि—‘‘जिहि कर जिहि पर सत्य सनेहू। सी तेहि मिलहिं न कछु संदेहू, विश्व प्रभु की सर्वांग पूर्ण कृति है, यहां किसी वस्तु का अभाव नहीं है। सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है बशर्ते कि पाने की उत्कृट लालसा के साथ तीव्र प्रयत्न भी हो। छोटा बच्चा जब घुटनों चलता है तो माता उसे खड़ा होकर चलना सिखाती है। वह मिठाई का टुकड़ा जरा ऊंचा रखकर दिखाती है ताकि बालक उसे लेने के लिए पैरों के बल खड़ा हो जाय। जब खड़ा होना सीख जाता है तो फल, मिठाई, खिलौना आदि का लालच देकर पैरों के बल चलना सिखाती है माता बार बार लालच देती है और बच्चे को प्रोत्साहित करती है इसमें उसका यह उद्देश्य छिपा रहता है कि बच्च घुटनों चलना छोड़कर खड़ा होना और पैरों के बल चलना सीखे, उन्नति करने की यात्रा को जारी रखे। परमात्मा ने हमें धन, सम्पत्ति, विद्वत्ता, बल, पदवी आदि के लालच इसलिये उपस्थित किये हैं कि उनको पाने के लिए हम घोर प्रयत्न करें और उस प्रयत्न के साथ-साथ अपनी मनोभूमि को उन्नत-बलवान-विकसित बनावें।
हम लोग उन छोटे बालकों की भांति कार्य कर रहे हैं जो मिठाई के लालच में खड़े होकर चलना सीखने का प्रयत्न करते हैं। भौतिक ऐश्वर्य नाशवान है, थोड़ी देर ठहरते हैं, जल्दी नष्ट हो जाते हैं। यह ठीक है, वे सदा किसी के पास नहीं रहते, यह भी ठीक है, पर इसी कारण उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं छोड़ा जा सकता। मिठाई का टुकड़ा बच्चे की जन्म भर की भूख नहीं बुझा सकता; यह हमेशा रखा भी नहीं रहेगा उसकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करता यह ठीक है, तो भी यदि बालक उसे लेने का प्रयत्न करता है तो उसे हानि नहीं वरन् लाभ ही है। छोटा टुकड़ा मिला-सही-पर चख तो, टुकड़े को प्राप्त करने पर थोड़ी देर प्रसन्नता हुई—सही पर—हुई तो। कुछ न कुछ उसने पाया ही, गंवाया तो नहीं। अप्रत्यक्ष रूप से देखा जाय तो टुकड़े की अपेक्षा बहुत मूल्यवान वस्तु पाई, पैरों की शक्ति बढ़ी, खड़े होने की आदत पड़ी, उन्नति करने का प्रोत्साहन मिला, आत्म विश्वास बढ़ा, मन में मजबूती आई, यह सब क्या कम लाभ है?
यदि यह बालक आज कल के निराशावादियों की तरह कहता—‘यह टुकड़ा तो जरा-सा है, झट पेट में चला जायगा, इसे लेकर क्या करूंगा मैं इसे नहीं लेता, इसके लिए खड़ा होने की मेहनत नहीं करता।’’ क्या ऐसे उत्तर से माता प्रसन्न होती? क्या ऐसे विचार से उसे खुद लाभ होता? इस तरह का सोचना सब दृष्टियों से उसी के लिये हानिकर सिद्ध होता है।
भौतिक संपदा त्याज्य, घृणित या अछूत नहीं है। इन्द्रियों के द्वारा जो भोग भोगे जाते हैं। वे पातक नहीं हैं पेट में भूख उत्पन्न करके परमात्मा ने मनुष्य को निरन्तर काम में लगे रहने का एक चक्र बना दिया है जिससे उसका निरन्तर कार्य करने का, आगे बढ़ने का, क्रम बन्द न होने पावे। इसी प्रकार इन्द्रिय जन्य, अन्य भूखों की रचना हुई है, काम वासना बुरी नहीं है, मानव तत्व के गम्भीर अन्वेषकों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि साधारण श्रेणी के मनुष्यों के लिये काम सेवन आवश्यक है, इसके अभाव में कुछ शारीरिक और अनेक मानसिक रोग उपज खड़े होते हैं। संसार भर की मृत्यु गणना से स्पष्ट हो गया है कि विवाहितों की अपेक्षा विधवा एवं विधुर अल्पायु होते हैं और अधिक संख्या में मरते हैं। इससे प्रकट है कि प्राकृतिक भूख को दबाने का क्या परिणाम होता है नासिका स्वच्छ वायु पसन्द करती है। यदि उसकी भूख को दबा कर बदबूदार स्थान में रहेंगे तो घाटा उठाना पड़ेगा नेत्र मनोहर दृश्य देखना पसन्द करते हैं यदि उनकी भूख को कुचल कर घृणित अरुचिकर दृश्य देखेंगे तो उसका बुरा फल भोगेंगे। प्राकृतिक भूखों की एक ऐसी कसौटी मनुष्य के पास मौजूद है जिसकी सहायता से वह आसानी से जान सकता है कि मेरे लिए क्या ईश्वरीय आज्ञा है क्या नहीं? कभी मनुष्य मध्यम मार्ग छोड़कर अति की ओर भटक जाता है यह अति ही पाप है, इसी को रोकने के लिए धर्म शास्त्रों का अंकुश है। अन्यथा स्वाभाविक आवश्यकताओं को पूर्ण करने में कुछ बुराई नहीं है, छोटे मोटे आकर्षण जो सामने आते हैं उन्हें प्राप्त करने की इच्छा से उद्योग करें तो इसमें हानि कुछ नहीं, लाभ शारीरिक भी है और आत्मिक भी।
आप ‘उन्नति करना’ अपने जीवन का मूल मन्त्र बना लीजिए, शान को अधिक बढ़ाइए, शरीर को स्वस्थ बलवान और सुन्दर बनाने की दिशा में अधिक प्रगति करते जाइये, प्रतिष्ठावान हूजिए, ऊंचे पद पर चढ़ने का उद्योग कीजिये, मित्र और स्नेहियों की संख्या बढ़ाइए, पुण्य संचय करिए, संचय करिए सद्गुणों से परिपूर्ण हूजिये, आत्म-बल बुद्धि को तीव्र करिए, अनुभव बढ़ाइये, विवेक को जागृत होने दीजिये। बढ़ना-आगे बढ़ना और आगे बढ़ना—यात्री का यही कार्यक्रम होना चाहिए।
अपने को असमर्थ, अशक्त एवं असहाय मत समझिये, ऐसे विचारों का परित्याग कर दीजिये कि साधनों के अभाव में हम किस प्रकार आगे बढ़ सकेंगे। स्मरण रखिए—शक्ति का स्रोत साधन में नहीं भावना में है। यदि आपकी आकांक्षाएं आगे बढ़ने के लिये व्यग्र हो रही हैं, उन्नति करने की तीव्र इच्छाएं बलवती हो रही हैं तो विश्वास रखिए साधन आपको प्राप्त होकर रहेंगे, ईश्वर उन लोगों की पीठ पर अपना वरद हस्त रखता है जो हिम्मत के साथ आगे कदम चढ़ाते हैं। पिता आपकी प्रयत्न शीलता को, बहादुरी की आकांक्षा को पसन्द करता है और वह चाहे तामसी ही क्यों न हो बढ़ने में मदद करता है।
प्रकृति विज्ञान के महापण्डित डॉक्टर ई.बी. जेम्स ने अनेक तर्क और प्रमाणों से यह सिद्ध किया है कि ‘योग्यतम का चुनाव’ प्रकृति का नियम है। जो बलवान है उसकी रक्षा के लिये अनेक कमजोरों को वह नष्ट हो जाने देती है। आंधी, ओले, तूफान, कमजोर पेड़ों को उखाड़ फेंकते हैं किन्तु बलवान वृक्ष जहां के तहां दृढ़तापूर्वक खड़े रहते हैं। बीमारी, गरीबी, लड़ाई के संघर्ष में कमजोर पिस जाते हैं किन्तु बलवान उन आघातों को सह जाते हैं। बड़ी मछली की जीवन रक्षा के लिए हजारों छोटी मछलियों को प्राण देने पड़ते हैं, बड़े पेड़ को खुराक देने के लिये छोटे पौधों को भूखा मर जाना पड़ता है, एक पशु का पेट भरने के लिए घास पात की असंख्य वनस्पति नष्ट हो जाती हैं, सिंह की जीवन रक्षा के लिए अनेक पशु अपने जीवन से हाथ धोते हैं। यह कड़ुई सचाई अपने निष्ठुर स्वर में घोषणा करती है कि जीवन एक संघर्ष है इसमें वे ही लोग स्थिर रहेंगे जो अपने को सब दृष्टियों से बलवान बनावेंगे यह वीर भोग्या वसुन्धरा निर्बलों के लिए नहीं है यह तो पराक्रमियों की क्रीड़ा भूमि है। यहां पुरुषार्थियों को विजयमाल पहनाई जाती है और निर्बलों को निष्ठुरता पूर्वक निकाल बाहर किया जाता है।
सावधान हूजिये, गफलत को त्याग दीजिए, कहीं ऐसा न हो कि आप शक्ति सम्पादन की ओर से उपेक्षा करके ‘चैन करने’ में रस लेने लगें और प्रकृति के निष्ठुर नियम आपको निर्बल पाकर दबोच दें। कहीं ऐसी स्थिति में न पड़ जावें कि निर्बलता के दण्ड स्वरूप असह्य वेदनाओं की चक्की में पिसने को विवश होना पड़े। इसलिये पहले से ही सजग रहिये। आत्म रक्षा के लिये सावधान हूजिए, जीवन संग्राम में अपने को बर्बाद होने से बचने के लिए शक्ति का सम्पादन कीजिये, बलवान बनिए सुदृढ़ आधारों पर अपने को खड़ा कीजिए।
अध्यात्मवाद कहता है कि—ईश्वर की आज्ञा का पालन यह है कि आप आगे चलें ऊंचे उठें, आत्म रक्षा के लिए दृढ़ता चाहिये, विपत्ति से बचने के लिए मजबूती चाहिये, भोग ऐश्वर्यों का सुख भोगने के लिए शक्ति चाहिए, परमार्थ प्राप्ति के लिये तेज चाहिए दशों दिशाओं की एक ही पुकार है—आगे बढ़िये, अधिक इकट्ठा कीजिये। हम कहते हैं कि आत्मोन्नति कीजिए ईश्वर को प्राप्त करने की साधनाओं को जारी रखिए, उस महान पथ को पूरा करने की योग्यताओं को बनाये रखने के लिये सांसारिक उन्नतियों को एकत्रित कीजिए उच्च प्रतिष्ठित, शक्तिशाली और वैभववान बनने की दिशा में सदैव प्रगति करते रहिये।