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Books - आध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाय

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अध्यात्म ही है सब कुछ

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First 14 16 Last
सृष्टि में अनेकों प्रकार के आनन्ददायक पदार्थ हैं, पर वे जड़ होने के कारण स्वयं किसी को किसी प्रकार का सुख-दुख नहीं दे सकते। आत्मा की चेतना ही उन पदार्थों के साथ जब घुलती है तब पदार्थ में रस उत्पन्न होता है और तभी वे सुखदायक लगने लगते हैं। यदि आत्मा की अनुभूति उनके प्रतिकूल हुई तो वे दुःखदायक बन जाते हैं। इस संसार में पदार्थ कोई भी ऐसा नहीं है जो अपने आप किसी को सुख या दुख दे सके।

संसार में अनेकों सुन्दर दृश्य, पदार्थ मौजूद हैं पर यदि अपनी आंखें जाती रहें दिखाई न पड़े तो सृष्टि के सभी पदार्थ अदृश्य हो जावेंगे, सर्वत्र अन्धकार ही छाया दीखेगा। दृश्य पदार्थों की सारी सुन्दरता नष्ट हो जायगी। संसार में बहुत-बहुत मधुर शब्दों की ध्वनि होती है। पक्षियों का कलरव मेघ गर्जन, मधुर-भाषण, प्रमालाप, बालकों की तोतली बोली, गायन, वाद्य, प्रवचन आदि बहुत कुछ सुनने योग्य इस संसार में मौजूद हैं, पर यह सब हैं तभी तक जब तक अपने कानों में चैतन्यत्व जाग्रत है। यदि कानों की सजीवता जाती रहे, तो यह सारी शब्द धारा समाप्त हो जायेगी तब सर्वत्र नीरवता का साम्राज्य ही दीखेगा।

जिह्वा में कोई रोग हो जाये, मुंह में छाले भर जायं या स्वाद अनुभूति की इन्द्रिय में कोई विकार आ जाय तो फिर संसार के सुस्वादु पदार्थों में क्या विशेषता रह जायगी? उत्तम से उत्तम भोजन भी मिट्टी जैसे स्वादहीन लगेंगे। नपुंसकता या कोई और मूत्रेन्द्रिय का रोग हो जाये तो काम सेवन की सुविधाएं रहते हुए भी उस संबंध में कोई आनंद शेष न रहेगा। पेट की पाचन-क्रिया काम न करे तो पौष्टिक पदार्थों का सेवन भी भला शरीर का क्या पोषण कर सकेगा? यदि मस्तिष्क की सजीवता कुण्ठित हो जाय, मूढ़ता स्मरण शक्ति का लोप, उन्माद आदि कोई रोग घेर ले तो फिर ज्ञान सम्पादन के अगणित साधन होते हुए भी अपना क्या लाभ होगा? तब विद्यालयों, ग्रन्थों, शिक्षकों एवं अन्यान्य ज्ञान वर्धक सुविधाओं से भी क्या प्रयोजन सिद्ध होगा?

आत्मा की सूक्ष्म चेतना सारे शरीर का नियंत्रण और संचालन करती है। उस व्यवस्था में रत्ती भर भी अन्तर आ जाये तो यह सुन्दर सुगठित—स्वस्थ और सूक्ष्म लगने वाला शरीर भी भार रूप हो जाता है साधारण सा रोग उठ खड़ा होने पर पीड़ा और परेशानी का ठिकाना नहीं रहता। फिर कोढ़, क्षय, उपदंश, हैजा, प्लेग जैसा कोई संक्रामक-रोग हो जाय तब तो दूसरे लोगों का सहयोग भी कठिनता से मिलता है। लोग छूत से बचने के लिये दूर-दूर रहते हैं और स्वजन सम्बन्धी भी परिचर्या से कतराते हैं। इस प्रकार का कोई विकार खड़ा होने पर पहले जो लोग अपने ऊपर जान देते थे वे दूर रहने और अपना पिण्ड छुड़ाने का प्रयत्न करते हैं।

अपनी निज की विशेषताओं के कारण जो लोग प्रिय-पात्र थे वे ही उन विशेषताओं के समाप्त हो जाने पर उपेक्षा करने लगते हैं। शत्रु बन जाते हैं। जिस वेश्या पर यौवनकाल में प्रेमीजन चील कौओं की तरह मंडराते रहते थे वृद्धा होने पर उसके पास कोई दुःख-दर्द की भी सुधि लेने नहीं जाता। माता से जब तक बालक दूध तथा जीवन धारण करने की सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए उस पर निर्भर रहता है तब तक उससे अत्यधिक प्रेम करता है। माता जरा-सी देर के लिए भी बच्चे को छोड़कर कहीं चली जाय तो वह रोने लगता है। उसी की गोदी में चिपके रहने की इच्छा करता है। पर जब वही माता बूढ़ी हो जाती है, जवान बच्चे के लिए कुछ लाभदायक नहीं रहती तब बेटे का व्यवहार बदल जाता है। वह उपेक्षा ही नहीं करता तिरस्कृत भी करने लगता है।

यह परिस्थितियां बताती हैं कि आत्मा की सजीवता, सूक्ष्मता और सुदृढ़ स्थिति ही एक मात्र वह तथ्य है जिसके कारण पदार्थों और व्यक्तियों का सहयोग, सुख और स्नेह प्राप्त होता है, इसमें कमी आने पर व्यवहार ही बदल जाता है। अपने पराये हो जाते हैं मित्र शत्रु में बदल जाते हैं। अपने पास धन बहुत हो पर उसकी रखवाली के लायक शक्ति शेष न रहे तो वह धन ही प्राणों का ग्राहक बन जाता है। स्वजन सम्बन्धी भी मरने की प्रतीक्षा देखते हैं और चोर डाकुओं का लालच बढ़ जाता है। वे किसी बलवान और सुरक्षा सम्पन्न के ऊपर आक्रमण करने की अपेक्षा दुर्बलों को ही अपना शिकार बनाते हैं। अशक्त व्यक्ति के लिए धन उसकी जान का ग्राहक है। रूपवती स्त्री भी उसके लिए विपत्ति ही है। कारोबार व्यापार आदि में अनेक प्रतिद्वन्दी खड़े हो जाते हैं। अपनी मनमानी करने में जिसको भी वह कमजोर व्यक्ति कुछ बाधक लगता है वही उसे कांटा समझ कर रास्ते में से हटाने की कोशिश करता है। दुर्बल काया पर अगणित रोगों का आक्रमण होता है। बीमारियां उसे अपना घर बना लेती हैं। मरने पर तो इस देह को जल्दी घर से निकाल बाहर करने और उसे नष्ट करने की व्यवस्था करनी पड़ती है।

यह सब बातें अचरज की नहीं स्वाभाविक हैं। रोज ही आंखों के सामने इस प्रकार की घटनायें घटित होती रहती हैं संस्कृत में एक उक्ति है जिसका अर्थ है, दैव भी दुर्बलों के लिए घातक सिद्ध होता है। जितना बल है जीवन है, प्राण है उसके उतने ही सहायक और प्रशंसक हैं। जब इनमें कमी आरम्भ हुई कि अपने बिराने बनने लगते हैं और मित्र शत्रु का रूप धारण करने लगते हैं। दुर्बलता को देखकर अकिंचन जीव भी आक्रमण करने और आधिपत्य जमाने की चेष्टा करते हैं। रणक्षेत्र में घायल और अर्धमृत हुए सैनिकों की आंखें कौए निकाल ले जाते हैं और सियार उनका पेट चीर कर आंतें खींचते फिरते हैं। यदि वह सैनिक इस दशा में न होता, स्वस्थ और जीवित होता तो इन कौए और सियारों की हिम्मत पास आने की भी न पड़ती वरन् उससे डर कर अपने प्राण बचाने के लिए भागते फिरते। जीवित मनुष्य जिन चींटियों को पैरों से कुचलता रहता है मृतक होने पर वे ही चींटियां उस शरीर को नोंच नोंच कर खाने लगती हैं। गुलाब-सा सुन्दर शरीर वृद्ध या रोगी होने पर कुरूप एवं घृणास्पद बन जाता है।

यह सब बातें बताती हैं कि जब तक जीवनतत्व की प्रचुरता है तभी तक इस संसार के पदार्थ उपयोगी अनुकूल एवं सहायक सिद्ध होते हैं। जब प्राण घटा तभी स्थिति बदलने लगती है और शक्ति के क्षीण होते ही सब कुछ, प्रतिकूल हो जाता है। जो अग्नि मनुष्य की जीवन भर सेवा सहायता करती रही भोजन पकाने, सर्दी मिटाने, प्रकाश देने आदि कितने ही प्रयोजनों में जीवन संयोगिनी की तरह सहायक रही वह अग्नि शरीर के मृतक हो जाने पर उसे जला डालने के लिए चिता की ज्वालाओं के रूप में धू धू करती है। नौकर के बूढ़े होते ही नौकरी से हटा दिया जाता है, बढ़ा बैल कसाई के यहां अपनी गरदन कटाने को विवश होता है, रूप और यौवन के लोभी भौंरे जवानी ढलते ही पुष्प पर मंडराना छोड़ देते हैं। निर्धन का कौन मित्र बनता है। दुर्बल की कौन प्रशंसा करता है? अशक्त को किस का आश्रय मिलता है?

जितना ही गम्भीरतापूर्वक सोचा जाय उतना ही यह तथ्य स्पष्ट होता है कि अपनी आन्तरिक जीवनी शक्ति ही विभिन्न पदार्थों के ऊपर प्रभाव डाल कर उन्हें चमकीला बनाती है अन्यथा वे सब स्वभावतः कुरूप हैं कोयला काला कुरूप और निस्तेज है पर जब अग्नि के सम्पर्क में आता है वह भी तेज और उष्णता से भरपूर अग्नि जैसा दीखने लगता है। आत्मा ही अग्नि है वह जिस पदार्थ के साथ जितने अंशों में घुली मिली रहती है वह उतना ही प्रिय-पात्र एवं हितकारी बन जाता है। आत्मा का सम्बन्ध जितना ही शिथिल होता जायगा वह उतना ही व्यर्थ, अप्रिय एवं अनुपयोगी लगने लगेगा।

जिस मकान, जायदाद, कोठी, मोटर, धन, जेवर, घोड़ा, गाय के प्रति अपनी ममता है, मोह है, स्वामित्व की अनुभूति है, वह बहुत ही प्रिय लगते हैं, उनकी सुरक्षा, एवं सुन्दरता के लिए निरन्तर ध्यान रहता है। उन पर गर्व भी होता है। पर यदि यह वस्तुएं बिक जायें, पराई हो जायें तो उनकी ओर से उपेक्षा हो जाती है। किसी दूसरे के अधिकार में जाने के बाद वे भले ही आंखों के सामने बनी रहें, जहां पहले थीं भले ही वहीं रहती रहें पर उनके प्रति कुछ भी आकर्षण न रहेगा। ऐसा क्यों हुआ? यदि वस्तुओं से प्रेम रहा होता तो वे पराई होने पर भी पहले की भांति प्रिय लगती रही होतीं। इस प्रेम और उपेक्षा में केवल आत्मभाव का ही अन्तर होता है। आत्मा अपने आप को प्यार करता है, जिस चीज में आत्मा का प्रकाश झलकता है, अपनापन अनुभव होता है केवल वही प्रिय लगती है।

पड़ौसी के सुन्दर बच्चे भी अपने लिए कोई मूल्य नहीं रखते, पर अपने कुरूप बालक भी प्राणप्रिय लगते हैं। पड़ौसी के बच्चे बीमार पड़ें या मर जायं तो भी अपने को कुछ कष्ट नहीं होता पर यदि अपने बालक को थोड़ा भी कष्ट हो तो भारी चिन्ता हो जाती है और उसे निरोग बनाने के लिए भारी दौड़ धूप एवं बहुत धन खर्च करने में भी संकोच नहीं होता। अपने परिवार के प्रति जो ममता रहती है वह पड़ोसियों के प्रति अजनबियों के प्रति कहां दृष्टिगोचर होती है? अपने गुणहीन स्वजन भी बिराने गुणवान व्यक्तियों से अधिक महत्वपूर्ण एवं मूल्यवान लगते हैं। क्या पदार्थ, क्या व्यक्ति सभी का प्रिय अप्रिय लगना उनकी विशेषताओं पर नहीं अपनी ममता और आत्मीयता पर निर्भर है। जिसकी जैसी अभिरुचि है उसे वैसे ही दृश्य, पदार्थ या व्यक्ति पसन्द आते हैं। संसार में सभी कुछ होता रहता है, सभी कुछ मौजूद है पर अपने को अच्छा वही लगेगा जिसमें अपनी अभिरुचि होगी। सुखानुभूति का अभिरुचि पसन्दगी से सम्बन्ध है। एक आदमी को दूध पसन्द है तो दूसरे को शराब अच्छी लगती है। यहां दूध और शराब के गुण दोषों का प्रश्न नहीं, प्रश्न केवल अभिरुचि का है जिसके कारण बुरी वस्तुएं भी अच्छी लगने लगती हैं और अच्छी चीज बुरी प्रतीत होती हैं।

इस संसार में वस्तुतः कोई भी वस्तु न तो आकर्षक है और न सुन्दर। वहां सब कुछ जड़ पंच तत्वों का परायण है जो सर्वथा निर्जीव, निष्ठुर और निस्सार है। प्रिय केवल आत्मा है। आत्मा की आभा ही अपना विस्तार जहां जहां करती है वहीं प्रियता, मधुरता, सुन्दरता, सरसता का अनुभव होता है। आत्मा जितनी बलवान है उसी अनुपात से दूसरे पदार्थ या प्राणी अपने लिये उपयोगी एवं सहायक रहते हैं। यह तथ्य सत्य से नितान्त परिपूर्ण है। मोटे रूप से इसे हर कोई जानता भी है किन्तु कैसा आश्चर्य है कि जानते हुए भी हम अनजान बने हुए हैं। आत्मा के महत्व को भुलाए बैठे हैं और पदार्थों के पीछे पागल बने फिरते हैं।

वस्तुओं की, व्यक्तियों साधनों की परिस्थितियां अपने सुख-दुख का कारण मानी जाती हैं। उन्हें ही बदलने या सुधारने के लिए प्रयत्न किया जाता है। पर क्या कभी यह भी सोचा है कि अपनी आन्तरिक स्थिति में हेर फेर किये बिना क्या बाह्य परिवर्तन हमारे लिए अभीष्ट परिणाम उपस्थित कर सकेंगे?

इस कुरूप संसार में सुन्दरता कहां? यदि सौन्दर्य का अजस्र दर्शन करना हो तो अपनी अन्तरात्मा में सौन्दर्यानुभूति का विकास करना होगा, इस परिवर्तन के साथ ही हर वस्तु सुन्दर दीखने लगेगी। इस निर्जीव, निष्प्राण, निष्ठुर दुनिया में प्रेम कहां? यदि प्रेम की प्यास है तो अपनी आत्मा में भरे हुए प्रेम के अमृत को चारों ओर बखेरना पड़ेगा। उसके छींटे जहां कहीं भी पड़ें वहां सब कुछ प्रेमास्पद ही दीखने लगेगा। इस दुःखरूप जड़ जगत में भोगने योग्य क्या है? सब कुछ स्वाद रहित है। स्वाद तो अपनी इन्द्रियों में बसी हुई रसना में है। रसना नष्ट हो जाने पर यहां स्वादिष्ट रह ही क्या जायेगा? यदि स्वाद की लालसा हो तो अपनी शुद्ध रसना को जागृत करें हर पदार्थ रसमय लगने लगेगा।

हम निर्धन क्यों रहें? अपने सीमित धन को ही अपना मानने की सारी संपदा को अपने मां-बाप (परमात्मा) की ही जायदाद क्यों न मानें? हम मित्रों का, पुत्रों का, स्वजनों का अभाव क्यों अनुभव करें? इस सारी वसुधा को ही कुटुम्ब क्यों न मानें? हम असहाय एवं दुर्बल क्यों रहें? अपने आत्मा में भरे हुए अनन्त बल को ही विस्तृत एवं विकसित क्यों न करें? यह विचार जितना ही अग्रगामी होगा उतने ही अनुपात से संसार हमारे लिए सहायक एवं उपयोगी प्रतीत होने लगेगा।

अपने अन्दर बहुत कुछ है। बहुत कुछ ही नहीं सब कुछ भी है। बाहर तो केवल भीतर की छाया मात्र है। इस अन्दर के बहुत कुछ को ढूंढ़ना, सुधारना, बनाना और बढ़ाना यही अध्यात्म का महत्व है जो कुछ इस संसार में सुख सौन्दर्य, सहयोग, प्रिय, मधुर, लाभ, सन्तोष आनन्द एवं उल्लास दिखाई देता है वह सब अपने भीतरी तत्व का ही छाया दर्शन है छाया के पीछे न भाग कर हम उद्गम का आश्रय ग्रहण करें यही अध्यात्म है यही अध्यात्म का सन्देश है।
First 14 16 Last


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