
हमारा दृष्टिकोण अध्यात्मवादी बने
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यं लब्घ्धा च परं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थिा न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ।।
योगी परमेश्वर की प्राप्ति रूप लाभ से अधिक लाभ कुछ नहीं मानता आत्मा को प्राप्त कर लेने से दुःख चलायमान नहीं करते।
कितना ही धन कमा लिया जाये, कितनी ही विद्या प्राप्त कर ली जाय, कितनी ही शक्ति संचय कर ली जाय—तब भी संसार के दुःखों से सर्वथा मुक्ति नहीं पायी जा सकती। धन अभावों एवं आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है। विद्या, बौद्धिक विकास कर सकती है और शक्ति से किन्हीं दूसरों को वश में किया जा सकता है। किन्तु इस प्रकार की कोई सफलता दुःखों से मुक्ति नहीं दिला सकती। धनवानों को दुःख होता है, विद्वान् शोक मनाते देखे जाते हैं और शक्तिमानों को पराजित होते देखा गया है। धन हो और विद्या न हो तो जड़ता से मिलकर धन विनाश का हेतु बन जाता है। विद्या हो पर स्वास्थ्य न हो तो विद्या का कोई समुचित उपयोग संभव नहीं। दिन-रात स्वास्थ्य की चिन्ता लगी रहेगी। थोड़ा काम किया नहीं कि कभी सिर दर्द है तो कभी अजीर्ण हो गया। कभी सर्दी है तो कभी ज्वर घेर रहा है। इस प्रकार न जाने कितनी बाधायें और व्याधायें लगी रहती हैं। केवल विद्या के बल पर उनसे छुटकारा नहीं मिल पाता। इस प्रकार शक्ति तो हो पर धन और विद्या न हो तब भी पद पद पर संकट खड़े रहते हैं। धन के अभाव से शक्ति निष्क्रिय रह जाती है और यदि उसके बल पर धन संचय भी कर लिया जाये तो विद्या के अभाव में उसका कोई समुचित उपयोग नहीं किया जा सकता। विद्या रहित शक्ति भयानक होती है। मनुष्य को आततायी, अन्यायी और अत्याचारी बना देती है। ऐसी अवस्था में संकटों का वारापार नहीं रहता। धन, विद्या और शक्ति तीनों वस्तुयें संसार में किसी को कदाचित ही मिलती हैं।
यदि एक बार यह तीनों वस्तुयें किसी को मिल भी जायें तो हानि-लाभ, वियोग-विछोह, ईर्ष्या-आदि के न जाने कितने कारण मनुष्य को दुःखी और उद्विग्न करते रहते हैं। ऐसा नहीं हो पाता कि धन, विद्या और शक्ति को पाकर भी मनुष्य सदा सुखी, सन्तुष्ट एवं शांत बना रहे। संसार की कोई भी ऐसी उपलब्धि नहीं, जिसके मिल जाने से मनुष्य दुःख क्लेशों की ओर से सर्वथा निश्चिन्त हो जाये।
मनुष्य जीवन का लक्ष्य आनन्द की प्राप्ति ही है। उसी को पाने के लिये सारे प्रयत्न किये जाते हैं। भौतिक विभूतियों की सहायता से वह मिल नहीं पाता। मनुष्य दुःखी तथा उद्विग्न बना रहता है। तब कौन-सा उपाय हो सकता है, जिसके आधार पर इस असफलता को सफलता में बदला जा सके? उसका एक मात्र उपाय यदि कोई है तो वह है ‘अध्यात्म’। अध्यात्म की महिमा अपार है। उसके द्वारा प्राप्त होने वाले अहेतुक सुख की तुलना संसार की किसी भी विभूति से मिलने वाले क्षणिक सुख से नहीं की जा सकती। मानव-जीवन की सर्वोत्कृष्ट विभूति वही है। उसकी सहायता से मनुष्य देवताओं की भांति सदा आनन्दित रह सकता है। देवत्व प्राप्त हो जाने पर दुःख की संभावना ही समाप्त हो जाती है।
अध्यात्म भव रोगों की अमोघ औषधि मानी गई है। दुःखों के निवारण के लिए भौतिक प्रयत्नों के साथ-साथ यदि अध्यात्म की भी साधना की जाती रहे तो निश्चित ही भव रोगों से सहज ही छुटकारा पाया जा सकता है। आध्यात्मिक औषधि का महत्व जानने वाले प्राचीन ऋषि मुनियों ने भौतिक विभूतियों को त्याग कर भी सुखी और उपयोगी जीवन-यापन कर इसकी अमोघता को सिद्ध कर दिखलाया है। आज भी इसमें वही विशेषता मौजूद है। पर खेद है आज हमारे प्रमाद, भ्रम, अज्ञान, आलस्य एवं अनास्था आदि दोषों ने हमारी दृष्टि और अध्यात्म के महत्त्व के बीच परदा डाल दिया है। हम अध्यात्म के सारे महत्व को भूले जा रहे हैं। भौतिक उपलब्धि में संलग्न रहने और अध्यात्म साधना की सर्वथा उपेक्षा करने से ही आज मनुष्य जाति इतनी उन्नति और प्रगति के बाद भी दुःखी और दीन बनी हुई है।
बाह्य ज्ञान, भौतिक विभूतियां और जड़ विज्ञान, उनका कितना ही विकास क्यों न हो जाये मनुष्य के जीवन लक्ष्य आनन्द को प्राप्त नहीं करा सकते। उसके लिए तो अध्यात्म तत्व को धारण करना होगा। बाह्य विकास और भौतिक उन्नति मनुष्य को कुछ सामयिक सुविधा का सुख भले ही प्रदान कर सकें पर इससे श्रेयपूर्ण स्थायी सुख की उपलब्धि सम्भव नहीं। वह तो अध्यात्म से ही मिल सकता है। भौतिक विभूतियां मात्र इन्द्रिय सुख की सम्भावना उपस्थित कर सकती हैं। इनके द्वारा वह अखण्ड आनन्द सम्भव नहीं, जो अध्यात्म के आधार पर इन्द्रिय निग्रह द्वारा प्राप्त होता है। संसार में चारों ओर जो दुःखों का जाल फैला हुआ है, उससे तभी मुक्ति मिल सकती है, जब सर्वथा सांसारिक लिप्साओं को कम कर अध्यात्म के श्रेय-पथ का प्रतिपादन किया जाय। सांसारिक कर्त्तव्यों के साथ-साथ आत्म-साधना में लगा जाय।
आज मनुष्य जाति जीवन का जितना समय भौतिक प्रगति में लगा रही है, यदि उसका एक अंश भी आत्म-क्षेत्र को उन्नत एवं उबार बनाने में लगा सके तो कोई कारण नहीं कि वह अपने जीवन लक्ष्य आनन्द को न पा पाये। इसी एक मात्र भौतिक दृष्टिकोण के कारण ही तो वह अध्यात्म के शुभ परिणामों से वंचित बनी हुई है। आत्मा परमात्मा के ज्ञान से रहित जड़-ज्ञान से उत्पन्न होने वाली दुःखदायी परिणामों को भोग रही है। मनुष्य ने जितनी प्रगति भौतिक क्षेत्र में की है, उससे कहीं अधिक सम्भावना आध्यात्मिक क्षेत्र में भरी पड़ी है। किन्तु उसको पाने के लिये भी अपने चेतना और शक्ति को उसी प्रकार आत्म-विकास में लगाना होगा, जिस प्रकार भौतिक प्रगति में लगाई जा रही है। एक बार आत्मिक आनन्द को पा लेने पर संसार के सारे वैभव और भोग-विलास तुच्छ लगने लगेंगे।
मनुष्य जा जीवन, लक्ष्य नश्वर भोगों को प्राप्त करना नहीं है। वह तो संसार में अमृतत्व प्राप्त करने के लिए अवतरित हुआ है। संसार में यदि कुछ अमृत है, अविनाशी और अक्षर है तो नई आत्मा ही है। मनुष्य जन्म का उद्देश्य ही अध्यात्म मार्ग द्वारा आत्मा और आत्मा द्वारा परमात्मा को प्राप्त करना है। इस श्रेय को विस्मृत कर जो व्यक्ति केवल सांसारिक भोगों द्वारा शरीर की ही उपासना में लगे रहते हैं, वे अपनी बड़ी भारी हानि करते हैं। ऐसे अबोध लोगों को ही शास्त्रों में अज्ञानी एवं प्रमादी कहा गया है।
हमारी दुःखपूर्ण परिस्थितियों का उत्तरदायित्व हमारे एक मात्र भौतिक वादी दृष्टिकोण पर है। यदि हम अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन कर उसे थोड़ा भी आध्यात्मिक बना सकें तो बहुत अंशों तक हमारी ये दुःखद स्थिति बदल सकती है। आत्मा की उपेक्षा करते रहने पर भौतिक सम्पदायें कभी भी हमारी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती। शाश्वत सुख की प्राप्ति अथवा जीवन लक्ष्य की सिद्धि एक ही मार्ग से सम्भव है और यह मार्ग है आध्यात्मिक जीवन पद्धति। इस पुण्य पथ का अवलम्ब लिए बिना निस्तार होना कठिन है।
अध्यात्म मानव-जीवन का बहुत बड़ा आधार है, उसकी महानतम सम्पदा है। मनुष्य के भौतिक एवं आत्मिक चिर उत्कर्ष के लिए इसका ग्रहण नितान्त आवश्यक है। मनुष्य जीवन की अगणित समस्याओं को हल करने और सुख शांतिपूर्वक जीने के लिए इससे बढ़कर अन्य कोई उपाय नहीं है। इसकी उपेक्षा करने के कारण ही मनुष्य जाति सब कुछ पाकर भी दीन-हीन बनी आत्मिक दरिद्रता का जीवन-यापन कर रही है। इस भयानक पतन का एक ही कारण है और वह है आत्मा की उपेक्षा करके अनाध्यात्मिक जीवन बिताना।
शरीर को भोग का साधन मानना एक अकल्याणकारी दृष्टिकोण है अनाध्यात्मिक भाव है। इसी के कारण ही तो आज हम सब पतन के गर्त में गिरे हुए शोक-सन्तापों और दुःख-क्लेशों में फंसे हुए हैं। शरीर आध्यात्मिक साधना का एक महान माध्यम है। इसी की सहायता से आत्मा का ज्ञान और परमात्मा का साक्षात्कार होता है। इसे संसार के अपवित्र भोगों में लिप्त कर डालना अकल्याणकर प्रमाद है, जिसे कभी भी न करना चाहिये शरीर को भगवान् का मन्दिर समझकर आत्म-संयम तथा अध्यात्म साधना द्वारा श्रेय-पथ पर बढ़ना चाहिये। अध्यात्म भाव के कारण ही शरीर, बना हुआ है अन्यथा यह एक चमत्कारी साधन है, जिसका सदुपयोग करके इसी जीवन में आत्मा को पाया और परमात्मा में साक्षात्कार किया जा सकता है। शरीर को अपनी सम्पत्ति मानकर भोग-विलासों से लगाये रहना अहंकार है। वस्तुतः शरीर आत्मा की सम्पत्ति है, उसका ही उपादान है, अस्तु इसे ऐसे साधनों में ही लगाया जाना चाहिये जिससे भवबन्धन में आबद्ध आत्मा में मुक्त हों और जीव को शाश्वत सुख का लाभ प्राप्त हो।
भव-रोगों में फंसे मनुष्यों की इस पतितावस्था से उद्धार का एक ही मार्ग है और वह है अध्यात्मवाद। भौतिकवाद के उन्माद ने आज मानव जाति को उन्मत्त बना रखा है। वह अकल्याण, के ज्ञान से सर्वथा रिक्त होती जा रही है। आज लोगों की मनोभूमियाँ इस सीमा तक दूषित हो गई हैं कि अमंगल में ही मंगल दीखने लगा है। मानसिक, विकारों, आवेगों, प्रलोभनों और पाप पर नियन्त्रण कर सकना उनके लिये कठिन हो गया है। तनिक-सा प्रलोभन सामने आते ही पाप करने को उद्यत हो जाना, जरा-सा भय उपस्थित होते ही कर्त्तव्य-पथ का त्याग कर देना साधारण बात बन गई है।
चित्त की अस्थिरता और जीवन की निरुद्देश्यता ने लोगों को विक्षिप्त बना रखा है। लोग न करने योग्य व्यवहार करते और उसके परिणामों स्वरूप शोक-सन्तापों में गिरते चले जा रहे हैं। उपेक्षणीय प्रतिकूलतायें कठिनाइयां असफलतायें, भी उनको तुरन्त क्षोभ, क्रोध, आशंका, निराशा और निरुत्साह के वशीभूत बना देती हैं। स्वार्थ, ईर्ष्या, कामुकता, निष्ठुरता, असहिष्णुता, विषय और वासनाओं ने लोगों का मनुष्य जीवन निकृष्ट और गर्हित बना रखा है। ऐसी भयानक मनोभूमि और ऐसे पापपूर्ण व्यवहार के रहते हुए कैसे आशा की जा सकती है कि मनुष्य अपने जीवन लक्ष्य परमानन्द को प्राप्त कर सकता है।
इन सब विकारों और विपरीतताओं का एक मात्र कारण है अध्यात्मवाद की उपेक्षा। यदि संसार के साथ आत्मा का भी ध्यान रखा जाये, उसके विकास और मुक्ति का प्रयत्न करते रहा जाये तो शीघ्र ही इन सारे भव रोगों से मुक्त होकर मनुष्य आनन्द की ओर अग्रसर हो चले। आत्म लाभ ही सर्वश्रेष्ठ लाभ माना गया है, उसको प्राप्त करना श्रेय है और उसी को पाने के लिए प्रयत्न भी किया जाना चाहिये।
योगी परमेश्वर की प्राप्ति रूप लाभ से अधिक लाभ कुछ नहीं मानता आत्मा को प्राप्त कर लेने से दुःख चलायमान नहीं करते।
कितना ही धन कमा लिया जाये, कितनी ही विद्या प्राप्त कर ली जाय, कितनी ही शक्ति संचय कर ली जाय—तब भी संसार के दुःखों से सर्वथा मुक्ति नहीं पायी जा सकती। धन अभावों एवं आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है। विद्या, बौद्धिक विकास कर सकती है और शक्ति से किन्हीं दूसरों को वश में किया जा सकता है। किन्तु इस प्रकार की कोई सफलता दुःखों से मुक्ति नहीं दिला सकती। धनवानों को दुःख होता है, विद्वान् शोक मनाते देखे जाते हैं और शक्तिमानों को पराजित होते देखा गया है। धन हो और विद्या न हो तो जड़ता से मिलकर धन विनाश का हेतु बन जाता है। विद्या हो पर स्वास्थ्य न हो तो विद्या का कोई समुचित उपयोग संभव नहीं। दिन-रात स्वास्थ्य की चिन्ता लगी रहेगी। थोड़ा काम किया नहीं कि कभी सिर दर्द है तो कभी अजीर्ण हो गया। कभी सर्दी है तो कभी ज्वर घेर रहा है। इस प्रकार न जाने कितनी बाधायें और व्याधायें लगी रहती हैं। केवल विद्या के बल पर उनसे छुटकारा नहीं मिल पाता। इस प्रकार शक्ति तो हो पर धन और विद्या न हो तब भी पद पद पर संकट खड़े रहते हैं। धन के अभाव से शक्ति निष्क्रिय रह जाती है और यदि उसके बल पर धन संचय भी कर लिया जाये तो विद्या के अभाव में उसका कोई समुचित उपयोग नहीं किया जा सकता। विद्या रहित शक्ति भयानक होती है। मनुष्य को आततायी, अन्यायी और अत्याचारी बना देती है। ऐसी अवस्था में संकटों का वारापार नहीं रहता। धन, विद्या और शक्ति तीनों वस्तुयें संसार में किसी को कदाचित ही मिलती हैं।
यदि एक बार यह तीनों वस्तुयें किसी को मिल भी जायें तो हानि-लाभ, वियोग-विछोह, ईर्ष्या-आदि के न जाने कितने कारण मनुष्य को दुःखी और उद्विग्न करते रहते हैं। ऐसा नहीं हो पाता कि धन, विद्या और शक्ति को पाकर भी मनुष्य सदा सुखी, सन्तुष्ट एवं शांत बना रहे। संसार की कोई भी ऐसी उपलब्धि नहीं, जिसके मिल जाने से मनुष्य दुःख क्लेशों की ओर से सर्वथा निश्चिन्त हो जाये।
मनुष्य जीवन का लक्ष्य आनन्द की प्राप्ति ही है। उसी को पाने के लिये सारे प्रयत्न किये जाते हैं। भौतिक विभूतियों की सहायता से वह मिल नहीं पाता। मनुष्य दुःखी तथा उद्विग्न बना रहता है। तब कौन-सा उपाय हो सकता है, जिसके आधार पर इस असफलता को सफलता में बदला जा सके? उसका एक मात्र उपाय यदि कोई है तो वह है ‘अध्यात्म’। अध्यात्म की महिमा अपार है। उसके द्वारा प्राप्त होने वाले अहेतुक सुख की तुलना संसार की किसी भी विभूति से मिलने वाले क्षणिक सुख से नहीं की जा सकती। मानव-जीवन की सर्वोत्कृष्ट विभूति वही है। उसकी सहायता से मनुष्य देवताओं की भांति सदा आनन्दित रह सकता है। देवत्व प्राप्त हो जाने पर दुःख की संभावना ही समाप्त हो जाती है।
अध्यात्म भव रोगों की अमोघ औषधि मानी गई है। दुःखों के निवारण के लिए भौतिक प्रयत्नों के साथ-साथ यदि अध्यात्म की भी साधना की जाती रहे तो निश्चित ही भव रोगों से सहज ही छुटकारा पाया जा सकता है। आध्यात्मिक औषधि का महत्व जानने वाले प्राचीन ऋषि मुनियों ने भौतिक विभूतियों को त्याग कर भी सुखी और उपयोगी जीवन-यापन कर इसकी अमोघता को सिद्ध कर दिखलाया है। आज भी इसमें वही विशेषता मौजूद है। पर खेद है आज हमारे प्रमाद, भ्रम, अज्ञान, आलस्य एवं अनास्था आदि दोषों ने हमारी दृष्टि और अध्यात्म के महत्त्व के बीच परदा डाल दिया है। हम अध्यात्म के सारे महत्व को भूले जा रहे हैं। भौतिक उपलब्धि में संलग्न रहने और अध्यात्म साधना की सर्वथा उपेक्षा करने से ही आज मनुष्य जाति इतनी उन्नति और प्रगति के बाद भी दुःखी और दीन बनी हुई है।
बाह्य ज्ञान, भौतिक विभूतियां और जड़ विज्ञान, उनका कितना ही विकास क्यों न हो जाये मनुष्य के जीवन लक्ष्य आनन्द को प्राप्त नहीं करा सकते। उसके लिए तो अध्यात्म तत्व को धारण करना होगा। बाह्य विकास और भौतिक उन्नति मनुष्य को कुछ सामयिक सुविधा का सुख भले ही प्रदान कर सकें पर इससे श्रेयपूर्ण स्थायी सुख की उपलब्धि सम्भव नहीं। वह तो अध्यात्म से ही मिल सकता है। भौतिक विभूतियां मात्र इन्द्रिय सुख की सम्भावना उपस्थित कर सकती हैं। इनके द्वारा वह अखण्ड आनन्द सम्भव नहीं, जो अध्यात्म के आधार पर इन्द्रिय निग्रह द्वारा प्राप्त होता है। संसार में चारों ओर जो दुःखों का जाल फैला हुआ है, उससे तभी मुक्ति मिल सकती है, जब सर्वथा सांसारिक लिप्साओं को कम कर अध्यात्म के श्रेय-पथ का प्रतिपादन किया जाय। सांसारिक कर्त्तव्यों के साथ-साथ आत्म-साधना में लगा जाय।
आज मनुष्य जाति जीवन का जितना समय भौतिक प्रगति में लगा रही है, यदि उसका एक अंश भी आत्म-क्षेत्र को उन्नत एवं उबार बनाने में लगा सके तो कोई कारण नहीं कि वह अपने जीवन लक्ष्य आनन्द को न पा पाये। इसी एक मात्र भौतिक दृष्टिकोण के कारण ही तो वह अध्यात्म के शुभ परिणामों से वंचित बनी हुई है। आत्मा परमात्मा के ज्ञान से रहित जड़-ज्ञान से उत्पन्न होने वाली दुःखदायी परिणामों को भोग रही है। मनुष्य ने जितनी प्रगति भौतिक क्षेत्र में की है, उससे कहीं अधिक सम्भावना आध्यात्मिक क्षेत्र में भरी पड़ी है। किन्तु उसको पाने के लिये भी अपने चेतना और शक्ति को उसी प्रकार आत्म-विकास में लगाना होगा, जिस प्रकार भौतिक प्रगति में लगाई जा रही है। एक बार आत्मिक आनन्द को पा लेने पर संसार के सारे वैभव और भोग-विलास तुच्छ लगने लगेंगे।
मनुष्य जा जीवन, लक्ष्य नश्वर भोगों को प्राप्त करना नहीं है। वह तो संसार में अमृतत्व प्राप्त करने के लिए अवतरित हुआ है। संसार में यदि कुछ अमृत है, अविनाशी और अक्षर है तो नई आत्मा ही है। मनुष्य जन्म का उद्देश्य ही अध्यात्म मार्ग द्वारा आत्मा और आत्मा द्वारा परमात्मा को प्राप्त करना है। इस श्रेय को विस्मृत कर जो व्यक्ति केवल सांसारिक भोगों द्वारा शरीर की ही उपासना में लगे रहते हैं, वे अपनी बड़ी भारी हानि करते हैं। ऐसे अबोध लोगों को ही शास्त्रों में अज्ञानी एवं प्रमादी कहा गया है।
हमारी दुःखपूर्ण परिस्थितियों का उत्तरदायित्व हमारे एक मात्र भौतिक वादी दृष्टिकोण पर है। यदि हम अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन कर उसे थोड़ा भी आध्यात्मिक बना सकें तो बहुत अंशों तक हमारी ये दुःखद स्थिति बदल सकती है। आत्मा की उपेक्षा करते रहने पर भौतिक सम्पदायें कभी भी हमारी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती। शाश्वत सुख की प्राप्ति अथवा जीवन लक्ष्य की सिद्धि एक ही मार्ग से सम्भव है और यह मार्ग है आध्यात्मिक जीवन पद्धति। इस पुण्य पथ का अवलम्ब लिए बिना निस्तार होना कठिन है।
अध्यात्म मानव-जीवन का बहुत बड़ा आधार है, उसकी महानतम सम्पदा है। मनुष्य के भौतिक एवं आत्मिक चिर उत्कर्ष के लिए इसका ग्रहण नितान्त आवश्यक है। मनुष्य जीवन की अगणित समस्याओं को हल करने और सुख शांतिपूर्वक जीने के लिए इससे बढ़कर अन्य कोई उपाय नहीं है। इसकी उपेक्षा करने के कारण ही मनुष्य जाति सब कुछ पाकर भी दीन-हीन बनी आत्मिक दरिद्रता का जीवन-यापन कर रही है। इस भयानक पतन का एक ही कारण है और वह है आत्मा की उपेक्षा करके अनाध्यात्मिक जीवन बिताना।
शरीर को भोग का साधन मानना एक अकल्याणकारी दृष्टिकोण है अनाध्यात्मिक भाव है। इसी के कारण ही तो आज हम सब पतन के गर्त में गिरे हुए शोक-सन्तापों और दुःख-क्लेशों में फंसे हुए हैं। शरीर आध्यात्मिक साधना का एक महान माध्यम है। इसी की सहायता से आत्मा का ज्ञान और परमात्मा का साक्षात्कार होता है। इसे संसार के अपवित्र भोगों में लिप्त कर डालना अकल्याणकर प्रमाद है, जिसे कभी भी न करना चाहिये शरीर को भगवान् का मन्दिर समझकर आत्म-संयम तथा अध्यात्म साधना द्वारा श्रेय-पथ पर बढ़ना चाहिये। अध्यात्म भाव के कारण ही शरीर, बना हुआ है अन्यथा यह एक चमत्कारी साधन है, जिसका सदुपयोग करके इसी जीवन में आत्मा को पाया और परमात्मा में साक्षात्कार किया जा सकता है। शरीर को अपनी सम्पत्ति मानकर भोग-विलासों से लगाये रहना अहंकार है। वस्तुतः शरीर आत्मा की सम्पत्ति है, उसका ही उपादान है, अस्तु इसे ऐसे साधनों में ही लगाया जाना चाहिये जिससे भवबन्धन में आबद्ध आत्मा में मुक्त हों और जीव को शाश्वत सुख का लाभ प्राप्त हो।
भव-रोगों में फंसे मनुष्यों की इस पतितावस्था से उद्धार का एक ही मार्ग है और वह है अध्यात्मवाद। भौतिकवाद के उन्माद ने आज मानव जाति को उन्मत्त बना रखा है। वह अकल्याण, के ज्ञान से सर्वथा रिक्त होती जा रही है। आज लोगों की मनोभूमियाँ इस सीमा तक दूषित हो गई हैं कि अमंगल में ही मंगल दीखने लगा है। मानसिक, विकारों, आवेगों, प्रलोभनों और पाप पर नियन्त्रण कर सकना उनके लिये कठिन हो गया है। तनिक-सा प्रलोभन सामने आते ही पाप करने को उद्यत हो जाना, जरा-सा भय उपस्थित होते ही कर्त्तव्य-पथ का त्याग कर देना साधारण बात बन गई है।
चित्त की अस्थिरता और जीवन की निरुद्देश्यता ने लोगों को विक्षिप्त बना रखा है। लोग न करने योग्य व्यवहार करते और उसके परिणामों स्वरूप शोक-सन्तापों में गिरते चले जा रहे हैं। उपेक्षणीय प्रतिकूलतायें कठिनाइयां असफलतायें, भी उनको तुरन्त क्षोभ, क्रोध, आशंका, निराशा और निरुत्साह के वशीभूत बना देती हैं। स्वार्थ, ईर्ष्या, कामुकता, निष्ठुरता, असहिष्णुता, विषय और वासनाओं ने लोगों का मनुष्य जीवन निकृष्ट और गर्हित बना रखा है। ऐसी भयानक मनोभूमि और ऐसे पापपूर्ण व्यवहार के रहते हुए कैसे आशा की जा सकती है कि मनुष्य अपने जीवन लक्ष्य परमानन्द को प्राप्त कर सकता है।
इन सब विकारों और विपरीतताओं का एक मात्र कारण है अध्यात्मवाद की उपेक्षा। यदि संसार के साथ आत्मा का भी ध्यान रखा जाये, उसके विकास और मुक्ति का प्रयत्न करते रहा जाये तो शीघ्र ही इन सारे भव रोगों से मुक्त होकर मनुष्य आनन्द की ओर अग्रसर हो चले। आत्म लाभ ही सर्वश्रेष्ठ लाभ माना गया है, उसको प्राप्त करना श्रेय है और उसी को पाने के लिए प्रयत्न भी किया जाना चाहिये।