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Books - आध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाय

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अध्यात्म लक्ष्य की सर्वांगपूर्णता

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First 25 27 Last
विश्व शान्ति और लोक मंगल का आधार यह है कि सब लोग स्वभावतः एक दूसरे के प्रति, आत्मीयता, उदारता, सेवा एवं सहानुभूति का व्यवहार करें। एक दूसरे के दुःख दर्द को समझें और उसे घटाने एवं मिटाने का भी ऐसा ही प्रयत्न करें जैसा कि अपने निज के कष्ट को मिटाने के लिए किया जाता है। दूसरों की उन्नति सुविधा एवं प्रसन्नता में लोग वैसा ही आनन्द अनुभव करें जैसा अपने आपको कोई लाभ मिलने पर होता है। दूसरों की प्रसन्नता एवं उन्नति के लिए लोग वैसा ही प्रयत्न करें जैसा अपने उत्कर्ष के लिये किया जाता है। आत्मीयता की—आत्मिक एकता की—इस परिधि को बढ़ाना आध्यात्मिकता का व्यवहारिक बाह्य रूप है।

जिस प्रकार भगवान के दो रूप हैं एक निराकार और दूसरा साकार, दोनों का मिला हुआ रूप ही भगवान का सर्वांगपूर्ण रूप है। इसी प्रकार आध्यात्म का निराकार रूप वह है जो हमारे अन्तःकरण में आस्तिकता धार्मिकता एवं भक्ति भावना को ओत-प्रोत रखता है। पूजा, उपासना, ध्यान, भजन, स्वाध्याय चिन्तन आदि उसके उपाय हैं। पर इतने मात्र को ही अध्यात्म का पूर्ण स्वरूप नहीं माना जा सकता। यह तो उसका एक अंश मात्र है। पूर्णता तब आती है जब बाह्य वातावरण में भी वह अध्यात्म भावनाएं साकार रूप से दिखाई देती हैं। जैसे हमारा मन अध्यात्म तत्व में डूबा रहने पर सुख प्राप्त करता है वैसे ही हमारा समाज यदि आध्यात्मिक आदर्शों को अपनाकर धर्म नीति पर चले तो शांति की स्थापना हो सकती है। भीतर उत्पन्न होने वाली दुर्भावनाओं की बाहर फैलने वाली सड़ांद ही अशांति के रूप में प्रकट होती है। यदि समाज में उपस्थित अनेकों समस्याओं, बुराइयों, उलझनों संघर्षों का स्थायी समाधान करना है तो मनुष्य के भीतर भरी हुई दुर्भावनाओं की सड़ांद को साफ करना पड़ेगा। अन्यथा बाह्य उपचार इसके लिये कुछ विशेष कारगर एवं सफल न होंगे।

अलग-अलग समस्याओं के अलग-अलग उपाय एवं समाधान भी हो सकते हैं, पर वे सब होंगे सामयिक ही, तात्कालिक ही। उनसे स्थायी हल न निकलेगा। रक्त विषैला हो रहा हो तो एक फुंसी को मरहम लगा कर अच्छा भले ही कर लिया जाय अन्य नई फुन्सियां उठने से रोक सकने में बेचारी मरहम कैसे सफल होगी? रक्त को शुद्ध करने वाले उपचार से ही फुन्सियों की स्थायी चिकित्सा हो सकती है। इसी प्रकार बाह्य जीवन में, व्यापक समाज क्षेत्र में जो अशान्ति दीख पड़ती है, उसका शमन तभी सम्भव है जब मूल कारणों को, आन्तरिक दुर्भावनाओं को हटाया जाये।

अध्यात्म तब तक एकांगी एवं अपूर्ण है जब तक कि अपने भीतर के सीमित क्षेत्र में ही अवरुद्ध है। उसका प्रकाश एवं विकास बाहर भी होना चाहिये। पूजा के साथ-साथ हमें बाह्य वातावरण को भी—समाज को भी—अपना ही शरीर, अपना ही परिवार मानकर उसका सुव्यवस्थित निर्माण करने का प्रयत्न करना चाहिये। कोई स्त्री स्वयं तो फैशन बनाये बैठी हो पर उसके बाल-बच्चे गन्दगी में लिपटे, फूहड़पन के साथ अव्यवस्थित रीति से विचर रहे हों तो वह फैशन बनाये बैठी स्त्री निन्दा ही नहीं उपहास की पात्र भी होगी। उसका फैशन बनाना तभी सार्थक होगा, तभी उसकी सुरुचि को प्रमाणित करेगा जब वह अपने बाल बच्चों को भी साफ सुथरा बनाये होगी। बच्चों के प्रति उपेक्षा बरतने से तो यही सिद्ध होता है कि उसके स्वभाव में सफाई या सौंदर्य नहीं है केवल अपने शरीर का आडम्बर बनाए बैठी है। यदि उसे वस्तुतः सुरुचि का अभ्यास होता तो जरूर अपने बच्चों को, घर को तथा अन्य वस्तुओं को भी सुसज्जित एवं शोभनीय ढंग से रख रही होती। ठीक यही बात उन लोगों पर लागू होती है जो अपने आपको अध्यात्मवादी एवं भजनानन्दी कहते हैं। अग्नि के समान ही अध्यात्म भी एक प्रभावशाली तत्व है, जहां अग्नि रहेगी वहां गर्मी और रोशनी भी दीख पड़ेगी। जहां अध्यात्म रहेगा वहां का समीपवर्ती वातावरण भी श्रेष्ठता एवं उत्कृष्टता की विशेषताओं से प्रभावित हो रहा होगा। यदि हम सच्चे अध्यात्मवादी होंगे तो यह हो नहीं सकता कि उस तथ्य से निकटवर्ती वातावरण बिना प्रभावित हुये बना रहे।

जिस विश्व शान्ति का, युग निर्माण का, लक्ष्य लेकर हम अग्रसर हो रहे हैं वह तभी संभव है जब मनुष्य समाज में आदर्शवाद, कर्तव्य परायणता, आत्मीयता, उदारता, सेवा भावना जैसे गुणों का विकास हो। श्रेष्ठ गुणों से ही मनुष्य की महानता प्रकाश में आती है। सम्पत्ति, शिक्षा, स्वास्थ्य, सत्ता, आदि विभूतियां कितनी ही बड़ी मात्रा में उपलब्ध हो जाने से मनुष्य श्रेष्ठ नहीं बन सकता और यदि उसका अन्तःकरण दुष्टता से भरा रहे तो इनके द्वारा वह और भी अधिक अनर्थ करेगा। इसलिये विश्व-शान्ति की दृष्टि से श्रेष्ठ सद्गुणों की सम्पदा को ही इस संसार में बढ़ाया जाना आवश्यक है। इसका ही गीताकार ने ‘‘दैवी संपदा’’ के रूप में वर्णन किया है। इस संसार की सबसे बड़ी दैवी सम्पत्ति एवं विभूति, दैवी संपदा ही है। इसकी जितनी अभिवृद्धि होगी उतना ही मानव-जीवन में सुख शान्ति का आधार सुदृढ़ होता चला जायगा।

आत्म-कल्याण का लक्ष्य निश्चित रूप में तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक बाह्य परिस्थितियां अनीति एवं अव्यवस्था से भरी रहेंगी। त्रेता युग में रावण की अनीति ने बेचारे तपस्वियों को तप करना दुर्लभ कर दिया था, उनकी हड्डियों के बड़े-बड़े ढेर भगवान राम ने वनवास के समय जहां तहां देखे तो उनकी आंखें बरसने लगीं और तत्काल उन्होंने भुजायें उठाकर ‘निश्चर हीन करहुं महि’ की प्रतिज्ञा कर डाली। इस कार्य को सम्पन्न किये बिना भगवान राम अवतार के लक्ष्य को पूरा भी नहीं कर सकते थे। धर्म की स्थापना के साथ-साथ अधर्म का उन्मूलन भी तो अवतार का लक्ष्य होता है। यदि वे केवल ऋषियों की भक्ति भावना का उपदेश मात्र ही देते रहते और उधर असुर अपने उपद्रव यथावत् जारी रखते तो रामचन्द्रजी का उद्देश्य कैसे पूरा होता। बेचारे तपस्वी उसी प्रकार सताये जाते और असुरों द्वारा खाये जाते रहते बन्धन में बंधे हुए देवता रावण के बन्दीगृह में कराहते रहते। ऐसी दशा में ऋषियों का ज्ञान ध्यान और देवताओं की पूजा अर्चा से भी कितना प्रयोजन सिद्ध होता? इन तथ्यों को समझते हुए भगवान ने असुरता का उन्मूलन ही अपना लक्ष्य बनाया था।

हमें अध्यात्म को एकांगी नहीं, सर्वांगीण एवं परिपूर्ण बनाना होगा। हम पूजा उपासना को अपना एक प्रिय एवं आवश्यक कार्यक्रम मानते हैं। सही दिशा में चलने का यह प्राथमिक महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली कदम है जो उपासना नहीं करता उसका मार्ग अन्धेरे से, कंटकों से भरा हुआ है। जिसका आधार सही है, अवलम्बन सच्चा है वह आज न सही कल, अब न सही फिर गन्तव्य लक्ष्य तक पहुंचेगा ही। पर यहां एक ही बात ध्यान रखने की है कि लक्ष और दिशा सही हो जाने पर भी दोनों पैरों से चलने का प्रबन्ध करना पड़ेगा। लंगड़े व्यक्ति भी लकड़ी की टांग लगाकर या हाथों का सहारा लेकर घिसटने की व्यवस्था बनाकर आगे बढ़ते हैं। यदि ऐसी कोई सहायक व्यवस्था न बनाई जाय तो केवल एक टांग से सही रास्ता मिल जाने पर उस पर चल सकना और गन्तव्य स्थान तक पहुंच सकना सम्भव न होगा। अध्यात्म मार्ग में भी दो टांगों की जरूरत है। एक टांग है साधना, दूसरी है सेवा। भीतर अन्तःकरण की सफाई के साथ साथ, बाहरी सामाजिक सफाई के लिए भी सक्रिय होना आवश्यक है। इसी प्रयत्नशील पर युग निर्माण का आज का सपना कल सार्थक एवं मूर्तिमान होकर सामने प्रस्तुत हो सकता है।

मनुष्य अपनी स्वार्थपरता पर अंकुश लगाना और परमार्थ वृत्ति को बढ़ाना आरम्भ करे तभी यह सम्भव है कि सभ्य समाज की रचना हो सके। चूंकि विश्व शान्ति का आधार सभ्य समाज की रचना ही है और वह मानसिक स्वच्छता के आधार पर अवलम्बित है इसलिए हमें सभ्य समाज और स्वच्छ मन के अनुकूल परिस्थितियां बनाने में जुटना होगा। शारीरिक अस्वस्थता का निवारण, स्वस्थ शरीर का लाभ भी तभी मिलेगा जब मनोभूमि में आत्म-संयम का समुचित स्थान हो। असंयमी लोगों का न शरीर स्वस्थ रहता है और न मन, फिर उन्हीं लोगों का समूह—समाज भी सभ्य कैसे रह सकेगा? इन सब बातों पर विचार करते हुए हमें अपनी आत्मिक प्रगति को सर्वांगपूर्ण बनाने की दृष्टि से भी और विश्वशांति की दृष्टि से भी अपने समीपवर्ती समाज की मनोभूमि उत्कृष्ट बनाने का कार्य-क्रम हाथ में लेना होगा। विचारों से ही क्रिया उत्पन्न होती है। अवांछनीय क्रियाएं रोकनी हैं तो उनकी जड़ खोदनी होंगी। पाप या पुण्य की जड़ मन में रहती है। मन को पवित्र बनाने का धर्म अभियान जब तक संगठित एवं व्यवस्थित रूप में न चलाया जायगा तब तक अन्य राजनैतिक एवं आर्थिक आधार पर चलने वाले आन्दोलन से कदापि कोई ठोस परिणाम निकल न सकेगा।

पारस्परिक सद्भावनाएं जिस प्रकार बढ़ सकें, व्यक्ति अपनी तृष्णा और वासना पर जिस प्रकार नियंत्रण रख सके, दूसरों की सेवा सहायता करते हुए जिस प्रकार वह सन्तोष लाभ कर सके, उसी आधार को बलवान् करने से मनुष्य अधिक सभ्य, अधिक पवित्र, अधिक श्रेष्ठ एवं अधिक महान बन सकेगा। यह श्रेष्ठता ही देवत्व है। मनुष्य असुर भी है और देवता भी! दुर्बुद्धि और दुष्टता को अपना कर वह असुर बन जाता है, सद्बुद्धि एवं सज्जनता को धारण कर देवता के रूप से परिलक्षित होता है। बढ़ी हुई असुरता के कारण आज चारों ओर अन्धकार एवं विपत्तियों की काली घटाएं घुमड़ रही हैं इनको हटाया जाना तभी सम्भव है जब देवत्व का तूफानी पवन चलने और आध्यात्मिकता का प्रचण्ड सूर्य उदय होने लगे। हमारे सत्प्रयत्नों से यह सर्वथा सम्भव है। मनुष्य की आत्मिक शक्ति की महत्ता अत्यधिक प्रबल है। साधारण लोगों का संघबल असाधारण लगने वाले, आश्चर्यजनक दीखने वाले कठिन कार्यों को पूरा कर दिया करता है, फिर अध्यात्म का आधार लेकर चलने वाले, सदुद्देश्य एवं विश्व शांति के लिये आत्म-त्याग करने वाले लोगों का समूह यदि अपनी गहन श्रद्धा का सम्बल पकड़कर अग्रसर होगा तो क्या युग-निर्माण का सपना, सपना ही बना रहेगा, या वह योजना योजना मात्र ही बनी रहेगी? नहीं ऐसा हो नहीं सकता। युग, अपनी पुकार किन्हीं भी छोटे-बड़े लोगों को निमित्त बनाकर अपने आप पूरा कर लिया करता है। समय की आवश्यकतायें किसी न किसी माध्यम से पूरी होकर रहती हैं। अशांति की विपन्न परिस्थितियों से संत्रस्त मानवता की आज एक ही पुकार है—मानवता का युग आये। यह पुकार अनसुनी नहीं रह सकती और न उपेक्षित। वह सुनी भी जायगी और पूर्ण भी होगी। फिर उस सफलता का श्रेय लाभ करने में हम भी सम्मिलित क्यों न हों? अपनी आध्यात्मिक साधना को अधूरी, लंगड़ी एवं एकांगी रखने की अपेक्षा उसे सर्वांगपूर्ण बनाने का प्रयत्न क्यों न करें?
First 25 27 Last


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