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Books - आध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाय

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अध्यात्म की अनन्त शक्ति-सामर्थ्य

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अध्यात्म विज्ञान आध्यात्मिक साधनायें इतनी सामर्थ्यवान, प्रभावशाली हैं कि उसके द्वारा भौतिक विज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण सफलतायें उपलब्ध की जा सकती हैं। हमारे देश में अनेकों ऋषियों, महर्षि—सन्त, महात्माओं, योगी, यतियों का जीवन इसका प्रमाण है। बिना साधनों के उन्होंने आज से हजारों वर्ष पूर्व अन्तरिक्ष, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा आदि के सम्बन्ध में अनेकों महत्वपूर्ण तथ्य खोज निकाले थे। अनेकों विद्यायें, कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान में उनकी गति असाधारण थी। बड़े-बड़े राजमुकुट उनके पैरों में झुकते थे। लेकिन अपनी आध्यात्म साधना के समक्ष वे सब कुछ महत्वहीन समझते थे और निरन्तर अपने ध्येय में संलग्न रहते थे।

आज उन्हीं अध्यात्मवेत्ताओं के देश में इस महान विज्ञान की जितनी दुर्गति हुई है, उस पर किसी विचारशील व्यक्ति का दुःखी होना स्वाभाविक ही है। आध्यात्म विज्ञान के प्रति आजकल हमारे मूल्यांकन की कसौटी, परिचय प्राप्ति के ढंग इतने बदल से गये हैं कि हम आध्यात्म विद्या से बहुत दूर भटक गये हैं। इसके वास्तविक मर्म को न जानने के कारण आध्यात्म के नाम पर बहुत से लोग जीवन के सहज पथ को छोड़कर अप्राकृतिक, असामाजिक, उत्तरदायित्वहीन जीवन बिताने लग जाते हैं। गलत अस्वाभाविक जीवन क्रम के कारण कई बार शारीरिक अथवा मानसिक रोगों से पीड़ित हो जाते हैं।

आज आध्यात्मिक जीवन बिताने का अर्थ जन-साधारण में लोक जीवन को उपेक्षित मानने से होता है। अक्सर लोगों में यह धारणा भी कम नहीं फैली है कि ‘यह संसार क्षण-भंगुर’ है, ‘माया है?’ इसका त्याग करने पर ही मोक्ष-कल्याण की मंजिल प्राप्त हो सकती है। और इसी धारणा से प्रेरित होकर बहुत से लोग अपना कर्तव्य अपनी जिम्मेदारियां छोड़ बैठते हैं। अपना घर-बार छोड़ बैठते हैं। लेकिन यदि घर गृहस्थी को छोड़ना, अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ना ही आध्यात्मिक पथ पर बढ़ने का प्रथम चिह्न है, तो सारे ऋषियों को हमें आध्यात्मिक इतिहास से हटाना पड़ेगा। क्योंकि प्रायः सभी ऋषि-महर्षि गृहस्थ थे। जन-साधारण का स्वाभाविक सहज जीवन बिताते थे। गुरुकुल पाठशालायें चलाते थे, जनता के धर्म—शिक्षण का कार्य पूरी तरह निभाते थे।

ऋषियों ने संन्यास आश्रम की व्यवस्था करके घर छोड़ने की बात भी कही थी लेकिन जीवन के शेष चौथे भाग में, वृद्धावस्था में वह भी मुक्ति के लिये नहीं अपितु जीवनभर अर्जित ज्ञान से समाज को लाभान्वित करने, परमार्थ का जीवन बिताने के लिये। सांसारिक दृष्टि से भी धर्म-अर्थ-काम के बाद फिर मोक्ष का नम्बर आता है। खेद होता है जब लोग विभिन्न परिस्थितियों में जीवन के निखरे बिना संस्कारित हुत बिना—अपने स्वाभाविक जीवन पथ को छोड़कर संसार को छोड़ते हैं, अपने कर्त्तव्य उत्तर-दायित्वों से मुंह मोड़ते हैं। चूंकि उनकी वृत्तियां परिमार्जित तो होती नहीं, इसलिये आगे चलकर अनेकों द्विविधाओं, द्वन्द्वों में पड़कर वे अशान्ति और असन्तोष का जीवन बिताते हैं। अपने आपको कोसने लगते हैं। संसार में क्षण भंगुरता के पाठ को पढ़कर न जाने कितने होनहार व्यक्तियों का जीवन नष्ट हो जाता है। अपने लिये या समाज के लिये वे जो कोई महत्वपूर्ण कार्य करते वह तो होता ही नहीं, उल्टे ऐसे लोग समाज पर भार-स्वरूप बनकर रहने लगते हैं। क्योंकि शरीर रहते कोई कितना ही त्यागी बने उसे भोजन वस्त्र आदि की नितान्त आवश्यकता तो होती ही है।

वस्तुतः ‘मुक्ति’ जीवन के सहज विकास क्रम की वह अवस्था है जहां मानवीय चेतना सर्वव्यापी विश्व-चेतना से युक्त होकर स्पन्दित होने लगती है और उसमें से परमार्थ कार्यों का मधुर संगीत गूंजने लगता है। तब व्यक्ति अपने सुख, अपने लाभ, अपनी मुक्ति को भूलकर सबके कल्याण के लिये लग जाता है। इस ऊंची मंजिल तक सांसारिक परिस्थितियों में साधनामय जीवन बिताने से ही पहुंचा जा सकता है। जिस तरह बिना सीढ़ियों के छत पर नहीं पहुंचा जा सकता उसी तरह संसार में अपने कर्तव्य उत्तरदायित्वों को पूर्ण किये बिना जीवन मुक्ति की मंजिल तक नहीं पहुंचा जा सकता। ऋषियों ने जीवन के सहज पथ का अनुगमन करके पारिवारिक जीवन में रहकर ही अपूर्व आध्यात्मिक उत्कर्ष प्राप्त किया था—ब्रह्म का साक्षात्कार भी।

जब तक शरीर है संसार में रहना है भूख, प्यास महसूस होती है तब तक इस संसार को नाशवान्, क्षण-भंगुर कहकर लोक-जीवन की उपेक्षा करना बहुत बड़ी भूल है अपने आपको धोखा देना है। ऐसी स्थिति में मुक्ति असम्भव है। अपने वैयक्तिक, सामाजिक तथा सांसारिक उत्तरदायित्वों को त्यागकर जीवन मुक्ति की चाह रखने वाले व्यक्ति को इस सम्बन्ध में निराश ही रहना पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं। आध्यात्म शास्त्र के प्रणेता ऋषियों ने तो मनुष्य को उत्तरोत्तर कर्तव्ययुक्त जीवन बिताने का निर्देश दिया था। चार आश्रमों में प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम में विद्याध्ययन, गुरु सेवा, आश्रम के कार्य, फिर इससे बढ़कर गृहस्थ में परिवार के भरण-पोषण का भार समाज के कर्तव्यों का उत्तरदायित्व सौंपा था। क्रमशः वानप्रस्थ और संन्यास लोक-शिक्षण जनसेवा के लिए निश्चित थे। इस व्यवस्था के अनुसार, एक क्षण भी मनुष्य उत्तरदायित्वहीन जीवन नहीं बिता सकता। कैसा था उनका अध्यात्म? जनक राजा होकर भी जीवन मुक्त थे। हरिश्चन्द्र सत्यवादी—राम अवतारी, कृष्ण भोगी होकर भी योगी थे। क्रोधी स्वभाव होने पर भी दुर्वासा महर्षि थे, श्री कृष्ण के गुरु।

जो लोक-जीवन को पुष्ट न कर सके, जो व्यक्ति का सर्वांगीण विकास साध न सके, जो जगपथ पर चलते हुए मनुष्य को शक्ति प्रेरणा न दे सके जो मनुष्य को व्यावहारिक जीवन का राज-मार्ग न दिखा सके, वह ‘अध्यात्म विज्ञान’ हो ही नहीं सकता।

अध्यात्म शास्त्र में तो अपने लाभ की बात अपने सुख की इच्छा को बिल्कुल ही स्थान नहीं है, चाहे वह लौकिक हो या पारलौकिक। वहां तो अपने से सबमें प्रयाण होता है। संकीर्ण से महान की ओर, सीमित से असीम की ओर गति होती है। ऋषि कहता है ‘‘मुझे राज्य की, स्वर्ग की, मोक्ष की कामना नहीं है। मुझे यदि कोई चाह है तो वह दुःखी आर्त लोगों की सेवा करने उनके दुःख दर्द को दूर करने की।’’ कैसा महान था हमारा अध्यात्म शास्त्र जो मोक्ष, स्वर्ग, राज्य की सम्पदाओं को भी ठुकरा देता था। एक हम हैं कि सन्तान, धन, पद, यश, स्वर्ग की प्राप्ति के लिये अध्यात्मवादी बनने का प्रपंच रचते हैं, अपनी आत्मा को धोखा देते हैं। वस्तुतः जो अन्तर-बाह्य, लौकिक-पारलौकिक सभी क्षेत्रों में हमें व्यक्तिवाद से हटाकर समष्ठित करे, व्यक्तिगत चेतना से उठाकर विश्व-चेतना में गति प्रदान करे वहीं से अध्यात्म की साधना प्रारब्ध होती है। अध्यात्म के नाम पर हमारे यहां गलत आचरण, विचित्र रहन-सहन, अजीब आदतें, कौतूहलपूर्ण हरकतों को भी बड़ा महत्व मिल गया है और इनसे समाज को गलत प्रेरणा भी मिलती है। अक्सर देखा जाता है कि जो अन्न न खाये पर फल, दूध खूब उड़ाये, लेटे नहीं खड़ा ही खड़ा रहे, भस्म रमाये या तिलक छापे बढ़िया रेशमी वस्त्रों से शृंगार करे, मौन रखे—बोले नहीं, विक्षित-सा आचरण करे, तात्पर्य यह है कि अपने रहन-सहन आहार-विहार में कोई विचित्रता रखे, उसे बड़ा आध्यात्मिक व्यक्ति माना जाता है। ऐसे कई व्यक्ति तो बेहूदी गालियां भी बकते हैं और फिर भी लोग उतना ही उनकी कृपा के लिये उनसे चिपकते हैं कैसी विडम्बना है? अप्राकृतिक-जीवन, विकृत आचरण, फूहड़ रहन-सहन भी हमारे यहां अध्यात्मिक गुण समझे जाते हैं। विचार कीजिए कभी ऐसा अध्यात्म जो जीवन को अस्वाभाविक बनाये, मनुष्य का कल्याण कर सकता है? कदापि नहीं।

आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने अध्यात्म विज्ञान के महत्व को समझें उसके बारे में पर्याप्त जानकारी करें। और इसके नाम पर जो गलत बातें प्रचलित हो रही हैं उनसे अपना बचाव करें। अध्यात्म को अपने जीवन विश्वास का आधार बनावें।
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