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Books - धर्म चेतना का जागरण और आह्वान

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मध्यकाल के अंधकार युग में न जाने किस प्रारब्ध के चलते हमने धर्म, अध्यात्म, दर्शन, आत्मज्ञान, ब्रह्मविद्या, साधना, स्वाध्याय आदि के ऐसे अर्थ ग्रहण किए, जिनसे उलटी दिशा मिली। इस बुद्धि विपर्यय के कारण हम उन्नति के शिखर पर चढ़ते-चढ़ते अचानक नीचे खिसकने और पतन के गर्त में गिरने-पड़ने लगे। विचार कीजिए प्राचीनकाल में, वैदिक युग में, रामराज्य में, मौर्य और गुप्तकाल के स्वर्ण युग में हमारा देश संसार का सिरमौर था। तब भी वही शास्त्र थे, वही वैदिक संहिताएं, उपनिषद्, ब्राह्मण, आरण्यक, दर्शन आदि थे। हम इन्हीं ग्रन्थों से कैसी प्रेरणाएं लेते थे, जिनसे लौकिक और आध्यात्मिक उत्कर्ष करते चले गये और बाद में क्या हुआ कि उन्हीं ग्रन्थों में वही शब्द ब्रह्म प्रतिष्ठित रहा फिर भी हमारी स्थिति बिगड़ती चली गई और हम गिरते-गिराते दिनों दिन दुरवस्था के शिकार होते गए।
बुद्धि विपर्यय ही वह कारण है जिसने सोने को लोहा और मणि को पत्थर मानना शुरू कर दिया तथा इन धातुओं से लाभ उठाने के बजाय अपने लिए प्राण संकट उपस्थित कर लिया। धर्म जो अभ्युदय और निःश्रेयस की—भौतिक उन्नति और आत्मिक कल्याण की प्रेरणा देता था, वह कुछेक कर्मकाण्डों और उनकी नीरस भावहीन यांत्रिक पुनरावृत्ति तक ही सिमट कर रह गया। अध्यात्म का मतलब एक-दूसरे को उपदेश देना और तत्वज्ञान समझाना मान लिया गया। साधना पाखण्ड बन गई कि जो जितना दिखावा कर सके, बन-ठन सके और अपने आध्यात्मिक होने का सिर्फ आभास भर देते रहें।
चिन्तन और मान्यता में, स्तर और गुणवत्ता में, आई इस गिरावट का ही परिणाम था कि ईश्वर को थोड़ी-सी पूजा-पत्री और प्रसाद में संतुष्ट होने वाली संज्ञा मान लिया गया। बेहद भ्रष्ट अदना-सा बाबू भी रिश्वत की कम से कम जो राशि स्वीकार करता है, उसका भी सौवां-हजारवां हिस्सा उस ओछी, भ्रष्ट और टुच्ची मान ली गई ईश्वरीय सत्ता के लिए पर्याप्त समझा जाने लगा। पौधे पर लगे फूल को तोड़ने में जितना श्रम लग सकता है, उतना श्रम और समय भी आध्यात्मिक लाभ के लिए अपव्यय समझा जाने लगा। उसके लिए जीभ की नोंक से उच्चारण करना और मन में कामना कर लेना भर पर्याप्त मान लिया गया। उसके लिए फूल चुनने और सड़क पर पड़ी हुई वस्तु उठाने जितना श्रम भी आवश्यक नहीं लगा। चिन्तन और चरित्र में घुस आये इस आलस्य और प्रमाद के लिए अपने आपके अलावा किसे उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
पिछले पच्चीस-पचास साल से नहीं बल्कि कम से कम हजार साल से यह विपर्यय चल रहा है। इसकी सड़ांध हमारे रक्त में, अस्थि-मांस और मज्जा में घुसी हुई है। उसका शोधन उपचार आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है अन्यथा हमारा अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा। संकट में तो वह आज भी है ही, कहना चाहिए अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। अस्थि-मज्जा में घुस आई इस विकृति का समाधान क्या है? इसका उपचार कैसे होगा? और कौन करेगा? इन प्रश्नों के मर्म को परमपूज्य गुरुदेव ने गहराई से उद्घाटित किया है। वे कहा करते थे कि गलती सुधारने का प्रारंभ उसे तुरन्त रोक देने, आगे और नहीं करते चले जाने से होता है। जो मान्यताएं और विचार हमारे मन-मस्तिष्क में घुस गए हैं, उन्हें और पोषण न देने से शुरू कर जो सही है उसकी ओर लौटने से ही बात बनती-सधती है। परम पूज्य गुरुदेव ने कई अवसरों पर स्पष्ट किया कि धर्म, अध्यात्म और ब्रह्मविद्या से लाभान्वित होने के लिए हमें उनके वास्तविक अर्थों की शोध कैसे करनी चाहिए और उन्हें किस तरह ग्रहण करना चाहिए।
उनके प्रवचनों की पुस्तक श्रृंखला के प्रस्तुत संकलन में परमपूज्य गुरुदेव के अलग-अलग अवसरों पर दिये गये प्रवचन जुटाये गये हैं। प्रत्येक प्रवचन स्वतंत्र है और उसे संकलन में इसलिए रखा गया है कि वह धर्म-अध्यात्म के किसी न किसी मर्म को उद्घाटित करता है। उन मर्म-बिन्दुओं को विभिन्न पक्षों से उद्घाटित करने के नाते संकलन नियमित स्वाध्याय के लिए उपयोगी है—एक बार नहीं बार-बार पढ़ने और मनन करने के लायक है, क्योंकि हर बार मन-मस्तिष्क में गहराई तक छाई हुई गुबार को साफ करेगा और स्वच्छ मनोभूमि को यह स्वाध्याय परिमार्जित  संस्कारित करेगा।
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