
धन से भी ज्यादा मूल्यवान समय
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(गायत्री तपोभूमि, मथुरा में 12 सितम्बर 1968 को प्रातः दिया गया प्रवचन)
देवियो और भाइयो,
मैंने जिन्दगी में समय का मूल्य सबसे अधिक समझा है और समय का सदुपयोग किया है। मैंने समय को समझा है, समय ने मुझको समझा है। समय और हम दोनों राम-लक्ष्मण जैसे भाई हैं। समय को मैंने ठीक प्रकार से उपयोग नहीं किया होता, तो मैं इतना काम नहीं कर सकता था। मैंने समय से बहुत प्यार किया है। आजकल लोग कथा सुनते हैं, भजन-पूजन करते हैं, शुरू में उत्साह भी रहता है, पर बाद में सब छोड़ देते हैं। मेरा रात के दो बजे से सुबह छः बजे तक पूजा का समय है। मैंने समय का विभाजन कर दिया है। मन कभी जल्दी उठना नहीं चाहता, सर्दी में तो बिल्कुल ही उठना नहीं चाहता। यह प्रायः व्यक्तियों की शिकायत है। पानी बरसता है, तो छतरी लगा कर भी बाहर नहीं जाना चाहता। सब की शिकायत है कि मन नहीं लगता, परन्तु हमने मन को लगाकर रखा है। अध्यात्मवादी के लिए समय की पाबन्दी पहला गुण है। आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। चोरी करना, बिना कमाये हुए पैसों का उपयोग करना, इससे तो दूसरों को नुकसान होता है, परन्तु समय हमें स्वयं भी नुकसान पहुंचाता है।
जिस घर में मां-बाप, बच्चे आलसी हो जाते हैं, उनका किसी काम में मन नहीं लगता, वे धन को बरबाद करते हैं और अपना लोग और परलोक भी बिगाड़ते हैं। पापों में सबसे बड़ा पाप है ‘‘समय का दुरुपयोग’’। जो आलस्य करता है, समय का दुरुपयोग करता है, वह पापी है। पुण्यात्मा वह है, जो समय के एक-एक क्षण का उपयोग करता है। मुझे निन्दा, चुगली करने की फुरसत ही नहीं मिलती है। इसके लिए समय कहां से लाऊं? मेरे पास इसके लिए समय ही नहीं है। आपने आनन्द को कहां देखा है? शराब में आनन्द समझते हो? मेले में घूमने में तुम्हें आनन्द आता होगा, परन्तु सात्विक आनन्द समय के सदुपयोग करने में मिलता है। मुझे समय के उपयोग में बड़ा आनन्द आता है। अभी भी मैं बीस घण्टे काम करता हूं। केवल चार घण्टे सोता हूं। मैं अकेला सामान्य लोगों से सौ गुना ज्यादा काम करता हूं। मैं समय को बड़ा मूल्यवान समझता हूं।
गांधी जी का एक पैसा भीड़ में खो गया था। गांधी जी उसे ढूंढ़ने लगे। लोगों ने कहा—आप एक पैसे को ढूंढ़ने में इतना समय क्यों लगा रहे हैं? हम आपको एक रुपया देते हैं। गांधी जी ने कहा—सवाल एक पैसे का नहीं! उस भावना का है, जिस भावना से किसी ने एक पैसा दिया है? गांधी जी को एक पैसा ढूंढ़ कर ही शांति मिली। बिल्कुल वही स्थिति मेरी है। मैं समय की पाबन्दी पैसे से अधिक समझता हूं। सब चीजें मिल जाती हैं, परन्तु समय वापस नहीं बुलाया जा सकता।
मैं यह नहीं कहता कि श्रीं क्लीं लगाकर जप करो, तो चमक आ जायेगी। मैं बतलाता हूं दण्ड-बैठक करने, व्यायाम करने, अच्छा भोजन करने से चमक आ जायेगी। किसी महात्मा के आशीर्वाद से आपका काम नहीं हो जायेगा। परिश्रम करने से भगवान मिलेगा और आत्म कल्याण होगा। पूजा-पाठ के छोटे से खेल से आपका कल्याण नहीं हो सकता। जब तक आपका आन्तरिक जीवन शुद्ध नहीं होता, तब तक जीवन का लक्ष्य नहीं मिल सकता। हल्के-फुल्के प्रयोग से आत्म-कल्याण हुआ होता, तो ऋषि इतना परिश्रम नहीं करते। ऋषि लोग सारी उम्र कष्टसाध्य जीवन जीते रहे, तब उन्होंने भगवान को पाया। हमको घण्टी बजाना आदि खिलौनों को बता दिया गया है, जिनमें परिश्रम नहीं करना पड़ता। इतने सस्ते में भगवान मिल गये होते, तो ऋषि कष्ट साध्य जीवन क्यों जीते? माला घुमाने, गंगा स्नान करने से लक्ष्य प्राप्ति नहीं होती। आनन्दमय जीवन जीने से लक्ष्य प्राप्त होता है। इसके लिए कितना परिश्रम करना पड़ता है? अच्छे और शानदार जीवन के लिए परिश्रम करना ही पड़ेगा। आज बादल छाये हुए हैं, और हम सूरज देखना चाहते हैं, तो सूरज कैसे दीखेगा? एक हजार वर्ष से ऐसे ही बादल आये और सूरज को ढक लिया। सब मालदार जीवन जीने की ही सोचने लगे, जिसे देखकर दूसरा आदमी भी मालदार जीवन जीना चाहता है। हमको भी मालदार बनना चाहिए, यही सोचते रहते हैं। जीवन लक्ष्य प्राप्त करना हो, तो उन्हीं का अनुसरण करते, जिन्होंने शानदार जीवन जिया।
मैंने टेलीफोन भावनगर मिलाया, मिल भी गया। वहां हल्ला मच रहा था, वे कुछ सुन न सके, इसी प्रकार मैं आपको टेलीफोन मिलाता रहा हूं, परन्तु आप कब सुनते हैं? जैसे बालक खेल-खेल में बगीचा लगाते हैं। वे यह नहीं जानते कि इसके लिए जमीन खरीदनी पड़ेगी, पौधे खरीदने पड़ेंगे, जोत लगानी पड़ेगी। बालक जल्दबाज होते हैं, वे दूसरे पेड़ की डालियां तोड़कर ले आते हैं, उन्हें लगा देते हैं और कहते हैं कि बगीचा लग गया। यह तो बच्चों का अपने आपको बहलाने का काम है। यह बाग स्थाई नहीं है। आज बालकों जैसा ही समाज हो गया है। यही सोचते रहते हैं कि किसी प्रकार स्वर्ग मिल जाय। वहां अच्छा भोजन, अच्छा खान-पान, रहने को मकान, सब आनन्द मिलेंगे। लड़कियों से पूछो भोजन बनाने में कितना श्रम करना पड़ता है। आप एक छोटा-सा मकान लीजिये। ढाई सौ रुपये माहवार में मिलेगा। आपको तो अशोका जैसा होटल चाहिए। उसके लिए कितना श्रम और पैसा चाहिए। एक मकान बनाने में कितना श्रम और पैसा चाहिए। आप सब स्वर्ग जाना चाहते हैं। वहां मकान, भोजन, टेलीफोन सब खर्चे चाहिए। यह सब तो आप चाहते हैं, किन्तु इसकी कीमत क्या है? आपके पास, केवल माला, जप-पूजा है, यह तो बालकों का मनोरंजन है।
मात्र मन बहलाने के तरीके हैं। थोड़ी-सी चीजों से आप स्वर्ग पाना चाहते हैं। यह सब फिजूल की बातें हैं। जीवन के लक्ष्य के लिए थोड़े से प्रयोग किये होते, तो मजा आ जाता। हमको कोई बतलाता कि रास्ता यह है, तो मजा आ जाता। एक जड़ी होती है, जिस पर पैर रखने से रास्ता भूल जाता है। ऐसा मौका मुझे भी मिला। रात भर मैं घूमता रहा। जहां से चलता फिर उसी जगह आ जाता। पूरी रात बेकार चली गयी। सुबह जहां जाना था, वहां पहुंच पाया। आपकी रात भी ऐसे ही बेकार जाती है। थर्मामीटर बताता है कि बुखार कितना है? उसी प्रकार अध्यात्म का भी थर्मामीटर है, उसे देखकर असली-नकली बता सकते हैं। हमारी आत्मिक प्रगति हो रही है या नहीं? आप इससे पता लगा सकते हैं कि आप में संकीर्णता, लोभ, मोह, लालसायें हैं या उदारता के भाव आ रहे हैं। यदि लोभ, मोह, अहंकार, संकीर्णता कम हो रही हो, तो समझना चाहिए कि भगवान हमारे पास आ रहे हैं और हम भगवान के पास जा रहे हैं। अगर आपकी मनोभूमि पर असर नहीं है, तो आपको समझना चाहिए कि हम भटक रहे हैं। आप कोल्हू के बैल की तरह चक्कर लगा रहे हैं। हम भक्त हैं, तो हमारे जीवन के क्रिया-कलाप अलग होने चाहिए। आज हर आदमी माला लेकर घूम रहा है। हर आदमी आशीर्वाद लेने के चक्कर में लगा हुआ है। कुछ अपने पैर छुआने और आशीर्वाद देने के चक्कर में लगे हुए हैं। कोई आदमी केवल पैर छूने मात्र से अपना सारा तप आपको दे देगा, क्या यह सत्य है? बिल्कुल गलत है। क्या अध्यात्म का यही मतलब समझे हैं कि फूंक लगाओ और सब मामला ठीक हो जायेगा।
असली अध्यात्मवादी वह है, जिसने गुण, कर्म, स्वभाव में परिष्कार किया है। अगर मुझे मोक्ष मिल जाय, तो मेरा वहां दम घुट जायेगा। मुझे तो स्वर्ग से, मुक्ति से घृणा है। मैं तो कन्धे से कन्धा मिलाकर सबके बीच रहकर दीन-दुखियों की सेवा करने में आनन्द मानता हूं। मैं ऐसा बाबाजी बनना चाहता हूं, जो हंसी-खुशी का जीवन जिला सके। मैं ऐसा बाजीगर नहीं बनना चाहता, जो दाढ़ी के बाल बढ़ा रहे हैं। महन्त बन गये हैं, ऐसा नहीं। बाजीगरों के पास आपको जाने की आवश्यकता नहीं। ऐसा बनने की आवश्यकता है, जो दूसरों को हंसा सके। गायत्री माता का चमत्कार आपको मिलेगा किन्तु आप हमारे जैसा जीवन जी कर तो देखो। आप यहां से सही अध्यात्म को लेकर जायें। भगवान के बारे में आपको अपनी मान्यता बदल लेनी चाहिए। आप क्या समझते हैं? नाम लेने से भगवान खुश हो जाता है। भगवान तो आपके कर्मों को परखता है। हनुमान जी पांच आने के प्रसाद से खुश नहीं होते। यह तो आपका भ्रम मात्र है। भगवान को पहले जान लें। आप बिना जाने कहीं जायेंगे, तो भटक जायेंगे।
अध्यात्मवादी बड़े से बड़ा संकट आने पर भी हंसता ही रहता है। हनुमान जी ने समुद्र पार किया था। आप भी छलांग लगा सकते हैं। आप कभी ऐसे स्वर्ग में मत जाना जहां काम नहीं करना पड़े। आपने स्वर्ग वहां समझ रखा है, जहां आराम है। स्वर्ग आराम नहीं है। स्वर्ग है—आंख में। जहां सब अपने लगते हैं। स्वामी रामतीर्थ अपने को बादशाह कहते थे। वे कहते थे कि सारी जमीन हमारी है। गंगा-यमुना सब हमारी हैं। यह सब हमारे पिता भगवान की हैं, इसलिए हमारी हैं। जो सबके भीतर एक ही आत्मा को देखता है, वह स्वर्ग में रहता है। स्वर्ग आपकी आंखों के नीचे है। भ्रम फैलाने वालों ने आपको उल्टे विचार बतला दिये हैं इससे सब भटक रहे हैं। आप अपना दृष्टिकोण बदल दें, तो आपका जीवन सुखी रहेगा।
आपके ऊपर समस्यायें हैं। आपके भीतर अमृत का भण्डार है। आप उस भण्डार को पा सकते हो। स्वामी विवेकानन्द भी अपने परिवार-कुटुम्ब की गरीबी से दुःखी होकर नौकरी मांगने के लिए स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास जाते थे। वे अपनी समस्या स्वयं नहीं सुलझा सकते थे, परन्तु जब उन्होंने अपने अन्दर के अमृत भण्डार को खोज निकाला, आत्मबल पैदा कर लिया, तो सारी समस्याओं को हल कर लिया। अपनी सारी समस्याओं का हल आप स्वयं निकाल सकते हैं। ऐसे कितने ही लोग हुए हैं, जिनको बड़ी-बड़ी बीमारियां थीं, असाध्य रोग थे, परन्तु जब उन्होंने आत्मबल जगाया, तो उनके रोगों का पता नहीं चला।
अम्बपाली गाने-बजाने वाली थी। उसने जब अपने विचारों को बदला, तो बुद्ध की सबसे बड़ी शिष्या हुई। उसने समाज की कितनी सेवा की? आप भी हिम्मत पैदा कर सकते हैं। अपने में आत्मबल जगा सकते हैं। नकली विचार आपको भ्रम में डालते रहते हैं। छोटे बच्चों को भ्रम में डालकर आप बच्चे के मुंह में चूसनी लगा देते हैं, वैसे ही हमारे मुंह में भी चूसनी लगा दी गयी है। इससे पेट की भूख नहीं मिट सकती। आप कपड़ा बुनकर, जूता सी कर भक्त हो गये होते, अगर आपके गुण, कर्म, स्वभाव अच्छे होते। आपके दिमाग में जो गन्दे विचार हैं, उन्हें उखाड़कर फेंक दीजिये। झाड़ू लगाने पर कितना कूड़ा निकलता है। हमें अपने मन को साफ करने के लिए नित्य झाड़ू लगानी चाहिए। कितने दोष-दुर्गुण हमारे अन्दर भरे पड़े हैं, उनको निकालो। अध्यात्मवादी के विचार लोगों से अलग होते हैं। लोग उसे पागल समझते हैं। आप आध्यात्मवादी हैं, तो आपको नित्य आत्म निरीक्षण करना चाहिए। हर रोज नया जन्म और हर रात नई मौत को ध्यान में रखना चाहिए। जैसे और लोग सोचते रहते हैं, वैसे ही आप भी सोचते रहे, तो आप उन्नति नहीं कर सकते।
खेती करना, दुकान चलाना तो सब जानते हैं, परन्तु अध्यात्मवादी बनना सब नहीं जानते। आप नित्य उपासना करें। यह उपासना पद्धति बड़ी मजेदार है। मैं तो निरन्तर गुणों को देखता रहा हूं और गुणों को बढ़ाता रहा हूं। मेरे वे साथी जहां के तहां ही हैं, जो केवल माला घुमाने और चालीसा पढ़ने को ही सब कुछ समझते थे। यह आन्तरिक उन्नति मैंने माला के बल पर नहीं की है। मैंने अपने गुणों को बढ़ाया है। आध्यात्मिकता का स्वरूप यही है, जो आदिकाल से चला आ रहा है। बीच में लोग भ्रम में पड़ गये। अब भ्रम मिटाने होंगे। तभी शांति मिल पायेगी
देवियो और भाइयो,
मैंने जिन्दगी में समय का मूल्य सबसे अधिक समझा है और समय का सदुपयोग किया है। मैंने समय को समझा है, समय ने मुझको समझा है। समय और हम दोनों राम-लक्ष्मण जैसे भाई हैं। समय को मैंने ठीक प्रकार से उपयोग नहीं किया होता, तो मैं इतना काम नहीं कर सकता था। मैंने समय से बहुत प्यार किया है। आजकल लोग कथा सुनते हैं, भजन-पूजन करते हैं, शुरू में उत्साह भी रहता है, पर बाद में सब छोड़ देते हैं। मेरा रात के दो बजे से सुबह छः बजे तक पूजा का समय है। मैंने समय का विभाजन कर दिया है। मन कभी जल्दी उठना नहीं चाहता, सर्दी में तो बिल्कुल ही उठना नहीं चाहता। यह प्रायः व्यक्तियों की शिकायत है। पानी बरसता है, तो छतरी लगा कर भी बाहर नहीं जाना चाहता। सब की शिकायत है कि मन नहीं लगता, परन्तु हमने मन को लगाकर रखा है। अध्यात्मवादी के लिए समय की पाबन्दी पहला गुण है। आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। चोरी करना, बिना कमाये हुए पैसों का उपयोग करना, इससे तो दूसरों को नुकसान होता है, परन्तु समय हमें स्वयं भी नुकसान पहुंचाता है।
जिस घर में मां-बाप, बच्चे आलसी हो जाते हैं, उनका किसी काम में मन नहीं लगता, वे धन को बरबाद करते हैं और अपना लोग और परलोक भी बिगाड़ते हैं। पापों में सबसे बड़ा पाप है ‘‘समय का दुरुपयोग’’। जो आलस्य करता है, समय का दुरुपयोग करता है, वह पापी है। पुण्यात्मा वह है, जो समय के एक-एक क्षण का उपयोग करता है। मुझे निन्दा, चुगली करने की फुरसत ही नहीं मिलती है। इसके लिए समय कहां से लाऊं? मेरे पास इसके लिए समय ही नहीं है। आपने आनन्द को कहां देखा है? शराब में आनन्द समझते हो? मेले में घूमने में तुम्हें आनन्द आता होगा, परन्तु सात्विक आनन्द समय के सदुपयोग करने में मिलता है। मुझे समय के उपयोग में बड़ा आनन्द आता है। अभी भी मैं बीस घण्टे काम करता हूं। केवल चार घण्टे सोता हूं। मैं अकेला सामान्य लोगों से सौ गुना ज्यादा काम करता हूं। मैं समय को बड़ा मूल्यवान समझता हूं।
गांधी जी का एक पैसा भीड़ में खो गया था। गांधी जी उसे ढूंढ़ने लगे। लोगों ने कहा—आप एक पैसे को ढूंढ़ने में इतना समय क्यों लगा रहे हैं? हम आपको एक रुपया देते हैं। गांधी जी ने कहा—सवाल एक पैसे का नहीं! उस भावना का है, जिस भावना से किसी ने एक पैसा दिया है? गांधी जी को एक पैसा ढूंढ़ कर ही शांति मिली। बिल्कुल वही स्थिति मेरी है। मैं समय की पाबन्दी पैसे से अधिक समझता हूं। सब चीजें मिल जाती हैं, परन्तु समय वापस नहीं बुलाया जा सकता।
मैं यह नहीं कहता कि श्रीं क्लीं लगाकर जप करो, तो चमक आ जायेगी। मैं बतलाता हूं दण्ड-बैठक करने, व्यायाम करने, अच्छा भोजन करने से चमक आ जायेगी। किसी महात्मा के आशीर्वाद से आपका काम नहीं हो जायेगा। परिश्रम करने से भगवान मिलेगा और आत्म कल्याण होगा। पूजा-पाठ के छोटे से खेल से आपका कल्याण नहीं हो सकता। जब तक आपका आन्तरिक जीवन शुद्ध नहीं होता, तब तक जीवन का लक्ष्य नहीं मिल सकता। हल्के-फुल्के प्रयोग से आत्म-कल्याण हुआ होता, तो ऋषि इतना परिश्रम नहीं करते। ऋषि लोग सारी उम्र कष्टसाध्य जीवन जीते रहे, तब उन्होंने भगवान को पाया। हमको घण्टी बजाना आदि खिलौनों को बता दिया गया है, जिनमें परिश्रम नहीं करना पड़ता। इतने सस्ते में भगवान मिल गये होते, तो ऋषि कष्ट साध्य जीवन क्यों जीते? माला घुमाने, गंगा स्नान करने से लक्ष्य प्राप्ति नहीं होती। आनन्दमय जीवन जीने से लक्ष्य प्राप्त होता है। इसके लिए कितना परिश्रम करना पड़ता है? अच्छे और शानदार जीवन के लिए परिश्रम करना ही पड़ेगा। आज बादल छाये हुए हैं, और हम सूरज देखना चाहते हैं, तो सूरज कैसे दीखेगा? एक हजार वर्ष से ऐसे ही बादल आये और सूरज को ढक लिया। सब मालदार जीवन जीने की ही सोचने लगे, जिसे देखकर दूसरा आदमी भी मालदार जीवन जीना चाहता है। हमको भी मालदार बनना चाहिए, यही सोचते रहते हैं। जीवन लक्ष्य प्राप्त करना हो, तो उन्हीं का अनुसरण करते, जिन्होंने शानदार जीवन जिया।
मैंने टेलीफोन भावनगर मिलाया, मिल भी गया। वहां हल्ला मच रहा था, वे कुछ सुन न सके, इसी प्रकार मैं आपको टेलीफोन मिलाता रहा हूं, परन्तु आप कब सुनते हैं? जैसे बालक खेल-खेल में बगीचा लगाते हैं। वे यह नहीं जानते कि इसके लिए जमीन खरीदनी पड़ेगी, पौधे खरीदने पड़ेंगे, जोत लगानी पड़ेगी। बालक जल्दबाज होते हैं, वे दूसरे पेड़ की डालियां तोड़कर ले आते हैं, उन्हें लगा देते हैं और कहते हैं कि बगीचा लग गया। यह तो बच्चों का अपने आपको बहलाने का काम है। यह बाग स्थाई नहीं है। आज बालकों जैसा ही समाज हो गया है। यही सोचते रहते हैं कि किसी प्रकार स्वर्ग मिल जाय। वहां अच्छा भोजन, अच्छा खान-पान, रहने को मकान, सब आनन्द मिलेंगे। लड़कियों से पूछो भोजन बनाने में कितना श्रम करना पड़ता है। आप एक छोटा-सा मकान लीजिये। ढाई सौ रुपये माहवार में मिलेगा। आपको तो अशोका जैसा होटल चाहिए। उसके लिए कितना श्रम और पैसा चाहिए। एक मकान बनाने में कितना श्रम और पैसा चाहिए। आप सब स्वर्ग जाना चाहते हैं। वहां मकान, भोजन, टेलीफोन सब खर्चे चाहिए। यह सब तो आप चाहते हैं, किन्तु इसकी कीमत क्या है? आपके पास, केवल माला, जप-पूजा है, यह तो बालकों का मनोरंजन है।
मात्र मन बहलाने के तरीके हैं। थोड़ी-सी चीजों से आप स्वर्ग पाना चाहते हैं। यह सब फिजूल की बातें हैं। जीवन के लक्ष्य के लिए थोड़े से प्रयोग किये होते, तो मजा आ जाता। हमको कोई बतलाता कि रास्ता यह है, तो मजा आ जाता। एक जड़ी होती है, जिस पर पैर रखने से रास्ता भूल जाता है। ऐसा मौका मुझे भी मिला। रात भर मैं घूमता रहा। जहां से चलता फिर उसी जगह आ जाता। पूरी रात बेकार चली गयी। सुबह जहां जाना था, वहां पहुंच पाया। आपकी रात भी ऐसे ही बेकार जाती है। थर्मामीटर बताता है कि बुखार कितना है? उसी प्रकार अध्यात्म का भी थर्मामीटर है, उसे देखकर असली-नकली बता सकते हैं। हमारी आत्मिक प्रगति हो रही है या नहीं? आप इससे पता लगा सकते हैं कि आप में संकीर्णता, लोभ, मोह, लालसायें हैं या उदारता के भाव आ रहे हैं। यदि लोभ, मोह, अहंकार, संकीर्णता कम हो रही हो, तो समझना चाहिए कि भगवान हमारे पास आ रहे हैं और हम भगवान के पास जा रहे हैं। अगर आपकी मनोभूमि पर असर नहीं है, तो आपको समझना चाहिए कि हम भटक रहे हैं। आप कोल्हू के बैल की तरह चक्कर लगा रहे हैं। हम भक्त हैं, तो हमारे जीवन के क्रिया-कलाप अलग होने चाहिए। आज हर आदमी माला लेकर घूम रहा है। हर आदमी आशीर्वाद लेने के चक्कर में लगा हुआ है। कुछ अपने पैर छुआने और आशीर्वाद देने के चक्कर में लगे हुए हैं। कोई आदमी केवल पैर छूने मात्र से अपना सारा तप आपको दे देगा, क्या यह सत्य है? बिल्कुल गलत है। क्या अध्यात्म का यही मतलब समझे हैं कि फूंक लगाओ और सब मामला ठीक हो जायेगा।
असली अध्यात्मवादी वह है, जिसने गुण, कर्म, स्वभाव में परिष्कार किया है। अगर मुझे मोक्ष मिल जाय, तो मेरा वहां दम घुट जायेगा। मुझे तो स्वर्ग से, मुक्ति से घृणा है। मैं तो कन्धे से कन्धा मिलाकर सबके बीच रहकर दीन-दुखियों की सेवा करने में आनन्द मानता हूं। मैं ऐसा बाबाजी बनना चाहता हूं, जो हंसी-खुशी का जीवन जिला सके। मैं ऐसा बाजीगर नहीं बनना चाहता, जो दाढ़ी के बाल बढ़ा रहे हैं। महन्त बन गये हैं, ऐसा नहीं। बाजीगरों के पास आपको जाने की आवश्यकता नहीं। ऐसा बनने की आवश्यकता है, जो दूसरों को हंसा सके। गायत्री माता का चमत्कार आपको मिलेगा किन्तु आप हमारे जैसा जीवन जी कर तो देखो। आप यहां से सही अध्यात्म को लेकर जायें। भगवान के बारे में आपको अपनी मान्यता बदल लेनी चाहिए। आप क्या समझते हैं? नाम लेने से भगवान खुश हो जाता है। भगवान तो आपके कर्मों को परखता है। हनुमान जी पांच आने के प्रसाद से खुश नहीं होते। यह तो आपका भ्रम मात्र है। भगवान को पहले जान लें। आप बिना जाने कहीं जायेंगे, तो भटक जायेंगे।
अध्यात्मवादी बड़े से बड़ा संकट आने पर भी हंसता ही रहता है। हनुमान जी ने समुद्र पार किया था। आप भी छलांग लगा सकते हैं। आप कभी ऐसे स्वर्ग में मत जाना जहां काम नहीं करना पड़े। आपने स्वर्ग वहां समझ रखा है, जहां आराम है। स्वर्ग आराम नहीं है। स्वर्ग है—आंख में। जहां सब अपने लगते हैं। स्वामी रामतीर्थ अपने को बादशाह कहते थे। वे कहते थे कि सारी जमीन हमारी है। गंगा-यमुना सब हमारी हैं। यह सब हमारे पिता भगवान की हैं, इसलिए हमारी हैं। जो सबके भीतर एक ही आत्मा को देखता है, वह स्वर्ग में रहता है। स्वर्ग आपकी आंखों के नीचे है। भ्रम फैलाने वालों ने आपको उल्टे विचार बतला दिये हैं इससे सब भटक रहे हैं। आप अपना दृष्टिकोण बदल दें, तो आपका जीवन सुखी रहेगा।
आपके ऊपर समस्यायें हैं। आपके भीतर अमृत का भण्डार है। आप उस भण्डार को पा सकते हो। स्वामी विवेकानन्द भी अपने परिवार-कुटुम्ब की गरीबी से दुःखी होकर नौकरी मांगने के लिए स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास जाते थे। वे अपनी समस्या स्वयं नहीं सुलझा सकते थे, परन्तु जब उन्होंने अपने अन्दर के अमृत भण्डार को खोज निकाला, आत्मबल पैदा कर लिया, तो सारी समस्याओं को हल कर लिया। अपनी सारी समस्याओं का हल आप स्वयं निकाल सकते हैं। ऐसे कितने ही लोग हुए हैं, जिनको बड़ी-बड़ी बीमारियां थीं, असाध्य रोग थे, परन्तु जब उन्होंने आत्मबल जगाया, तो उनके रोगों का पता नहीं चला।
अम्बपाली गाने-बजाने वाली थी। उसने जब अपने विचारों को बदला, तो बुद्ध की सबसे बड़ी शिष्या हुई। उसने समाज की कितनी सेवा की? आप भी हिम्मत पैदा कर सकते हैं। अपने में आत्मबल जगा सकते हैं। नकली विचार आपको भ्रम में डालते रहते हैं। छोटे बच्चों को भ्रम में डालकर आप बच्चे के मुंह में चूसनी लगा देते हैं, वैसे ही हमारे मुंह में भी चूसनी लगा दी गयी है। इससे पेट की भूख नहीं मिट सकती। आप कपड़ा बुनकर, जूता सी कर भक्त हो गये होते, अगर आपके गुण, कर्म, स्वभाव अच्छे होते। आपके दिमाग में जो गन्दे विचार हैं, उन्हें उखाड़कर फेंक दीजिये। झाड़ू लगाने पर कितना कूड़ा निकलता है। हमें अपने मन को साफ करने के लिए नित्य झाड़ू लगानी चाहिए। कितने दोष-दुर्गुण हमारे अन्दर भरे पड़े हैं, उनको निकालो। अध्यात्मवादी के विचार लोगों से अलग होते हैं। लोग उसे पागल समझते हैं। आप आध्यात्मवादी हैं, तो आपको नित्य आत्म निरीक्षण करना चाहिए। हर रोज नया जन्म और हर रात नई मौत को ध्यान में रखना चाहिए। जैसे और लोग सोचते रहते हैं, वैसे ही आप भी सोचते रहे, तो आप उन्नति नहीं कर सकते।
खेती करना, दुकान चलाना तो सब जानते हैं, परन्तु अध्यात्मवादी बनना सब नहीं जानते। आप नित्य उपासना करें। यह उपासना पद्धति बड़ी मजेदार है। मैं तो निरन्तर गुणों को देखता रहा हूं और गुणों को बढ़ाता रहा हूं। मेरे वे साथी जहां के तहां ही हैं, जो केवल माला घुमाने और चालीसा पढ़ने को ही सब कुछ समझते थे। यह आन्तरिक उन्नति मैंने माला के बल पर नहीं की है। मैंने अपने गुणों को बढ़ाया है। आध्यात्मिकता का स्वरूप यही है, जो आदिकाल से चला आ रहा है। बीच में लोग भ्रम में पड़ गये। अब भ्रम मिटाने होंगे। तभी शांति मिल पायेगी