
धर्म की सामर्थ्य अधर्म से बढ़कर
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(गायत्री तपोभूमि, मथुरा में 10 जुलाई 1968 को प्रातः दिया गया प्रवचन)
देवियो और भाइयो,
जिनके पास बुद्धि है, परन्तु वे सही दिशा में नहीं चल रहे हैं, तो उनके पास बुद्धि होने का कोई फायदा नहीं है, वे कुछ नहीं कर सकते। दिमाग बहुत होता है, परन्तु आपके पास सद्विचार नहीं हैं, तो आप महान नहीं बन सकते। विचार करने का तरीका सही हो जाय, तो आदमी क्या से क्या बन जाता है। ऋषियों ने इस बात को सबसे ज्यादा अधिक महत्व देकर, विचारों को बदलकर ही मनुष्य को सुखी बनाने का कार्य किया है।
ऋषियों ने देखा कि फोकट की रोटी खिलाने, पानी पिलाने, कंबल बांटने से कुछ फायदा होने वाला नहीं है। कोई अपाहिज हो, तो बात दूसरी है। जिनके पास हाथ-पैर हैं, तो क्या वे पेट के लिए कमा नहीं सकते? कई ऐसे अंधे आदमी हैं, जिनने विश्व विद्यालय की डिग्रियां ली हैं और अपनी आजीविका के अनेक साधन अपना लिए हैं। केरल में एक ऐसी महिला थी, जो गूंगी और अंधी थी, परन्तु उसने स्नातकोत्तर तक शिक्षा प्राप्त की थी। तैमूरलंग एक टांग वाला था, उसने सारे हिन्दुस्तान में तहलका बचा दिया था।
श्रावणी पर्व पर हम सप्तऋषि की पूजा करते हैं और वह इसलिए करते हैं कि उन्होंने हमारे ऊपर बड़ा उपकार किया है। हमें ऋषियों ने विचार करने की फिलॉसफी दी है। राजा के कुत्ते और घोड़े भी दशहरा के दिन अच्छे-अच्छे कपड़े और सोने के जेवर पहनकर निकलते हैं, तो क्या वे बड़े हो जाते हैं। नहीं वे जानवर ही रहते हैं। चाहे कुत्ते को कार में सैर कराओ, तो भी कुत्ता ही रहेगा।
आदमी धन से या पद से बड़ा नहीं होता, विचारों से बड़ा होता है। भारत देश ऋषियों का, गुरुओं का देश है, जहां से विश्व को प्रकाश मिलता रहा है। आर्ष ग्रन्थों में स्वर्ग का जो भी वर्णन है, वह सब भारत में देखने को मिलता है। स्वर्ग में सुमेरु पर्वत का वर्णन है। भारत में हिमालय पर जब बर्फ पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं, तो बर्फ स्वर्ण के समान दिखाई देती है। ‘‘नन्दन वन’’ भी मैंने हिमालय पर देखा है। फूलों का कालीन-सा बिछा हुआ ‘‘नन्दन वन’’ वैकुण्ठ में है, ऐसा पुराणों में वर्णन है। सारा स्वर्गीय वातावरण हिमालय पर है।
यहीं से ऋषियों ने उच्चकोटि के विचार करने की शैली दी थी। पहले विचार करने की शैली भी उच्चकोटि की थी, इसीलिए सबका जीवन भी उत्कृष्ट था। आजकल विचार करने की शैली निम्न स्तर की हो गयी है। ओछे विचार करने वाले और स्वार्थ की ही इच्छायें रखने वाले कभी लोकमंगल की बात नहीं सोचते। पहले ब्राह्मण दिशा देने का, विचार बदलने का काम करते थे, आज तो पण्डित वह कहलाता है, जो पंचांग देखना जानता हो। देश निकम्मा बन गया है। आज यह उक्ति चरितार्थ होती है।
ब्राह्मणत्व डूब गया है, ऐसे समय में आपके ऊपर एक जिम्मेदारी आ गयी है। वह है ‘‘ऋषि परम्परा का पुनर्जीवन’’। आज भारतीय समाज इन रूढ़िवादियों के कारण बीमार हो गया है। हर वर्ष लाखों हिन्दू अपना धर्म बदल रहे हैं, जिस प्रकार कुष्ठ रोगी की एक-एक उंगली दिनों-दिन गलती है, वैसे ही इस समाज का पतन हो रहा है। विवाहों में कितना कमर तोड़ खर्च किया जा रहा है। ऐसी शादी को बरबादी ही कहा जा सकता है, जिसमें जिन्दगी भर लड़की के पिता को कर्जदार ही रहना पड़ता है। विचारशीलों की जिम्मेदारी है कि वे इस गये-गुजरे जमाने को बदलें। भेड़ की तरह अंधी दौड़ नहीं लगायें। भगवान का अवतार वह है, जो विचारों को बदल दे। जो विचारशील हैं, वे भगवान हैं, औरों को तो मैं हैवान कहूंगा। जो स्वयं खाते-पीते हैं और दूसरों की कुछ भी परवाह नहीं करते, वे हैवान ही हैं। जो माला जपने में लगे रहे, जिन्होंने दूसरों की चिन्ता नहीं की, वे हैवान हैं। जिनके दिमाग में स्वार्थ भरा पड़ा हो, उनकी कुण्डलिनी नहीं जगेगी। जिनके विचार उल्टे हैं, उनकी कुण्डलिनी नहीं जग सकती। स्वार्थपूर्ण व्यक्ति आत्मा और परमात्मा को क्या जाने? भगवान को खुशामद की आवश्यकता नहीं है। आपके सुपारी चढ़ाने से भगवान को खुशी नहीं होती। चापलूसी करने वाले से भगवान कभी प्रसन्न नहीं होते।
कुंभकर्ण सोता था, तो उसको जगाने के लिए उसके ऊपर भैंसा चढ़ाना पड़ता था। हमारा भी ज्ञान सोया पड़ा है, उसको भी जगाना पड़ेगा। राजशक्ति दण्ड द्वारा लोगों को बदलती है, परन्तु अध्यात्मवादी विचारों को बदलते हैं। राज की शक्ति से धर्म की शक्ति बड़ी है। गांधी जी ने कहा था—‘‘तुम आपस में धर्म सम्प्रदाय के नाम पर मत झगड़ो। ऐसा करने से आपस में ही कट-मर जाओगे और देश बरबाद हो जायेगा। विचारों को बदलो, यही धर्म है।’’
हर वर्ष चार सोमवती अमावस्या आती हैं। एक अमावस्या पर एक करोड़ लोग गंगा स्नान करने जाते हैं, तो चार अमावस्याओं पर चार करोड़ व्यक्ति गंगास्नान करने जाते हैं। इसमें करोड़ों रुपया खर्च होता है। और मन्दिरों का हाल बताऊं, तो कई मन्दिर ऐसे हैं, जहां एक-एक भगवान को एक-एक लाख रुपये का भोग लगता है। सब जगह बरबादी ही बरबादी है।
ईसाई धर्म वाले चार करोड़ रुपये प्रचार में खर्च करते हैं। हमारा तो सब पैसा बरबादी में ही चला जाता है। हम धर्म की लाश ढो रहे हैं। अब ऋषियों के विचार फैलाने ही पड़ेंगे। आकाश में रहने वाले देवता अब हमारे काम नहीं आयेंगे। आपके भीतर के देवता आपका भला करेंगे। भीतर वाले देवत्व को जगाकर तो देखिये, कितना चमत्कार होता है। पांच पैसे की दियासलाई की एक सींक लाखों रुपये की रुई को जलाकर भस्म कर देती है, क्योंकि उसमें सच्चाई है। इसी प्रकार हम भी ऋषियों की परम्परा को लेकर चले हैं। अन्धकार को अब सिर पर पैर रखकर भागना ही पड़ेगा। पचास डाकू पूरे क्षेत्र को परेशान कर देते हैं। जब पाप करने वाले, दूसरों को कष्ट देने वाले सब को परेशान कर देते हैं, तो पचास धर्म प्रचार करने वाले क्या देश को जगा नहीं सकते? चिनगारी लेकर जायें और बुराइयों को भस्मसात करे। यदि इतनी हिम्मत पैदा कर सको, तो हमारे हृदय का दर्द सार्थक होगा। हम आपके साथ हैं। संकट आये, तो भी घबराना मत। विजय सदा देवत्व की ही होती है।
देवियो और भाइयो,
जिनके पास बुद्धि है, परन्तु वे सही दिशा में नहीं चल रहे हैं, तो उनके पास बुद्धि होने का कोई फायदा नहीं है, वे कुछ नहीं कर सकते। दिमाग बहुत होता है, परन्तु आपके पास सद्विचार नहीं हैं, तो आप महान नहीं बन सकते। विचार करने का तरीका सही हो जाय, तो आदमी क्या से क्या बन जाता है। ऋषियों ने इस बात को सबसे ज्यादा अधिक महत्व देकर, विचारों को बदलकर ही मनुष्य को सुखी बनाने का कार्य किया है।
ऋषियों ने देखा कि फोकट की रोटी खिलाने, पानी पिलाने, कंबल बांटने से कुछ फायदा होने वाला नहीं है। कोई अपाहिज हो, तो बात दूसरी है। जिनके पास हाथ-पैर हैं, तो क्या वे पेट के लिए कमा नहीं सकते? कई ऐसे अंधे आदमी हैं, जिनने विश्व विद्यालय की डिग्रियां ली हैं और अपनी आजीविका के अनेक साधन अपना लिए हैं। केरल में एक ऐसी महिला थी, जो गूंगी और अंधी थी, परन्तु उसने स्नातकोत्तर तक शिक्षा प्राप्त की थी। तैमूरलंग एक टांग वाला था, उसने सारे हिन्दुस्तान में तहलका बचा दिया था।
श्रावणी पर्व पर हम सप्तऋषि की पूजा करते हैं और वह इसलिए करते हैं कि उन्होंने हमारे ऊपर बड़ा उपकार किया है। हमें ऋषियों ने विचार करने की फिलॉसफी दी है। राजा के कुत्ते और घोड़े भी दशहरा के दिन अच्छे-अच्छे कपड़े और सोने के जेवर पहनकर निकलते हैं, तो क्या वे बड़े हो जाते हैं। नहीं वे जानवर ही रहते हैं। चाहे कुत्ते को कार में सैर कराओ, तो भी कुत्ता ही रहेगा।
आदमी धन से या पद से बड़ा नहीं होता, विचारों से बड़ा होता है। भारत देश ऋषियों का, गुरुओं का देश है, जहां से विश्व को प्रकाश मिलता रहा है। आर्ष ग्रन्थों में स्वर्ग का जो भी वर्णन है, वह सब भारत में देखने को मिलता है। स्वर्ग में सुमेरु पर्वत का वर्णन है। भारत में हिमालय पर जब बर्फ पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं, तो बर्फ स्वर्ण के समान दिखाई देती है। ‘‘नन्दन वन’’ भी मैंने हिमालय पर देखा है। फूलों का कालीन-सा बिछा हुआ ‘‘नन्दन वन’’ वैकुण्ठ में है, ऐसा पुराणों में वर्णन है। सारा स्वर्गीय वातावरण हिमालय पर है।
यहीं से ऋषियों ने उच्चकोटि के विचार करने की शैली दी थी। पहले विचार करने की शैली भी उच्चकोटि की थी, इसीलिए सबका जीवन भी उत्कृष्ट था। आजकल विचार करने की शैली निम्न स्तर की हो गयी है। ओछे विचार करने वाले और स्वार्थ की ही इच्छायें रखने वाले कभी लोकमंगल की बात नहीं सोचते। पहले ब्राह्मण दिशा देने का, विचार बदलने का काम करते थे, आज तो पण्डित वह कहलाता है, जो पंचांग देखना जानता हो। देश निकम्मा बन गया है। आज यह उक्ति चरितार्थ होती है।
ब्राह्मणत्व डूब गया है, ऐसे समय में आपके ऊपर एक जिम्मेदारी आ गयी है। वह है ‘‘ऋषि परम्परा का पुनर्जीवन’’। आज भारतीय समाज इन रूढ़िवादियों के कारण बीमार हो गया है। हर वर्ष लाखों हिन्दू अपना धर्म बदल रहे हैं, जिस प्रकार कुष्ठ रोगी की एक-एक उंगली दिनों-दिन गलती है, वैसे ही इस समाज का पतन हो रहा है। विवाहों में कितना कमर तोड़ खर्च किया जा रहा है। ऐसी शादी को बरबादी ही कहा जा सकता है, जिसमें जिन्दगी भर लड़की के पिता को कर्जदार ही रहना पड़ता है। विचारशीलों की जिम्मेदारी है कि वे इस गये-गुजरे जमाने को बदलें। भेड़ की तरह अंधी दौड़ नहीं लगायें। भगवान का अवतार वह है, जो विचारों को बदल दे। जो विचारशील हैं, वे भगवान हैं, औरों को तो मैं हैवान कहूंगा। जो स्वयं खाते-पीते हैं और दूसरों की कुछ भी परवाह नहीं करते, वे हैवान ही हैं। जो माला जपने में लगे रहे, जिन्होंने दूसरों की चिन्ता नहीं की, वे हैवान हैं। जिनके दिमाग में स्वार्थ भरा पड़ा हो, उनकी कुण्डलिनी नहीं जगेगी। जिनके विचार उल्टे हैं, उनकी कुण्डलिनी नहीं जग सकती। स्वार्थपूर्ण व्यक्ति आत्मा और परमात्मा को क्या जाने? भगवान को खुशामद की आवश्यकता नहीं है। आपके सुपारी चढ़ाने से भगवान को खुशी नहीं होती। चापलूसी करने वाले से भगवान कभी प्रसन्न नहीं होते।
कुंभकर्ण सोता था, तो उसको जगाने के लिए उसके ऊपर भैंसा चढ़ाना पड़ता था। हमारा भी ज्ञान सोया पड़ा है, उसको भी जगाना पड़ेगा। राजशक्ति दण्ड द्वारा लोगों को बदलती है, परन्तु अध्यात्मवादी विचारों को बदलते हैं। राज की शक्ति से धर्म की शक्ति बड़ी है। गांधी जी ने कहा था—‘‘तुम आपस में धर्म सम्प्रदाय के नाम पर मत झगड़ो। ऐसा करने से आपस में ही कट-मर जाओगे और देश बरबाद हो जायेगा। विचारों को बदलो, यही धर्म है।’’
हर वर्ष चार सोमवती अमावस्या आती हैं। एक अमावस्या पर एक करोड़ लोग गंगा स्नान करने जाते हैं, तो चार अमावस्याओं पर चार करोड़ व्यक्ति गंगास्नान करने जाते हैं। इसमें करोड़ों रुपया खर्च होता है। और मन्दिरों का हाल बताऊं, तो कई मन्दिर ऐसे हैं, जहां एक-एक भगवान को एक-एक लाख रुपये का भोग लगता है। सब जगह बरबादी ही बरबादी है।
ईसाई धर्म वाले चार करोड़ रुपये प्रचार में खर्च करते हैं। हमारा तो सब पैसा बरबादी में ही चला जाता है। हम धर्म की लाश ढो रहे हैं। अब ऋषियों के विचार फैलाने ही पड़ेंगे। आकाश में रहने वाले देवता अब हमारे काम नहीं आयेंगे। आपके भीतर के देवता आपका भला करेंगे। भीतर वाले देवत्व को जगाकर तो देखिये, कितना चमत्कार होता है। पांच पैसे की दियासलाई की एक सींक लाखों रुपये की रुई को जलाकर भस्म कर देती है, क्योंकि उसमें सच्चाई है। इसी प्रकार हम भी ऋषियों की परम्परा को लेकर चले हैं। अन्धकार को अब सिर पर पैर रखकर भागना ही पड़ेगा। पचास डाकू पूरे क्षेत्र को परेशान कर देते हैं। जब पाप करने वाले, दूसरों को कष्ट देने वाले सब को परेशान कर देते हैं, तो पचास धर्म प्रचार करने वाले क्या देश को जगा नहीं सकते? चिनगारी लेकर जायें और बुराइयों को भस्मसात करे। यदि इतनी हिम्मत पैदा कर सको, तो हमारे हृदय का दर्द सार्थक होगा। हम आपके साथ हैं। संकट आये, तो भी घबराना मत। विजय सदा देवत्व की ही होती है।