
भगवान से प्रेम का मार्ग
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गायत्री तपोभूमि, मथुरा में 9 जुलाई 1968 को प्रातः दिया गया प्रवचन)
देवियो और भाइयो,
भौतिक सुख शरीर, विद्या और धन इन तीनों के आधार पर मिल जाता है। शरीर स्वस्थ है, तो मनुष्य सुखी रहेगा। धन यदि किसी के पास हो, तो उससे कोई भी वस्तु खरीदी जा सकती है। विद्या हो, तो संसार की सब गुत्थियां सुलझाई जा सकती हैं और नहीं हो, तो आदमी की समझ में कुछ नहीं आता। सारा समाज इन तीन सुखों को प्राप्त करने में लगा है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए घूमते, टहलते, व्यायाम करते हैं। धन कमाने के लिए दुकानदारी, व्यापार और नौकरी करते हैं। विद्या के लिए पढ़ते हैं। प्रत्येक मनुष्य इन गुणों को प्राप्त करने में लगा हुआ है।
अब मैं आपको दूसरे सुखों की बात बतलाता हूं। हमारा जीवन पंचतत्व और जीवात्मा दोनों से मिलकर बना है। शरीर पंचतत्व से बना है। शारीरिक सुख के लिए तीन सुखों की आवश्यकता पड़ती है। शरीर स्वस्थ रहना ही चाहिए, धन कमाना ही चाहिए, विद्या पढ़नी ही चाहिए, ये तो भौतिक सुख हैं। आध्यात्मिक सुख जीवात्मा के लिए होता है। अनायास ही कोई चीज नहीं मिलती। संसार का नियम है कि कीमत दिए बिना कोई चीज नहीं पाई जा सकती। भगवान के यहां भी पहले देना पड़ता है, फिर प्राप्त होता है। मन्दिर हम जाते हैं, भगवान से मांगते रहते हैं, क्या भगवान आपको देता है? भगवान ने आपको शरीर दे दिया, बुद्धि दे दी, आप इससे सब कुछ खरीद सकते हैं। इसके लिए कीमत चुकानी पड़ती है, परन्तु हम तो प्रार्थना से ही सब कुछ प्राप्त करना चाहते हैं। रूस, अमेरिका, जापान ने बुद्धि से ही सब चीजें प्राप्त की हैं, प्रार्थना से नहीं। हम सिर्फ अपने गुण, कर्म और स्वभाव को परिमार्जित कर लें, तो इसके बदले में चाहे जो वस्तु खरीद सकते हैं।
आप सेना में भर्ती होना चाहते हैं, तो इसके लिए क्या करना पड़ता है? कुछ नहीं करना पड़ता। आपका सीना चौड़ा होना चाहिए, लम्बाई ठीक होनी चाहिए। आप में अगर यह योग्यता नहीं है, तो आप कितनी ही प्रार्थना करते रहें, आपकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकती? जब ऐसा नहीं होता है, तो आप भगवान को गाली देते हैं, पूजा को छोड़कर नास्तिक बनते चले जाते हैं, क्योंकि भगवान ने आपकी मुरादें पूरी नहीं कीं। यदि भगवान से प्रेम करना है, तो हमें अपने गुण, कर्म, स्वभाव को बदलना होगा। यही कल्पवृक्ष है, कामधेनु है, पारस है।
अध्यात्म का नियम है कि गुण, कर्म, स्वभाव को जितना परिष्कृत करते चले जाओगे, उतना ही भगवान के समीप पहुंचते जाओगे। भगवान का एक विधान है। जो इन नियमों का पालन करेगा, वही उन्नति कर सकेगा। खुशामद से कोई चीज नहीं मिल सकती। योग्यता से ही लोगों ने बड़े-बड़े पद पाये हैं। मिडिल पास कोई व्यक्ति कलेक्टर नहीं बन सकता, उसके लिए आई.ए.एस. की परीक्षा पास करनी होगी। प्रधान मंत्री भी मिडिल पास को कलेक्टर नहीं बना सकते। जो कम्पटीशन में पास हो जाता है, वही कलेक्टर बन जाता है। हम लोगों में से बहुत से पूजा करने पर भी नास्तिक हैं। हमने पूजा करके भगवान से बड़ी-बड़ी कामनायें कीं और जब वह पूरी नहीं हुईं, तो हम भगवान को बेकार समझने लगे। यह नास्तिकता है। सारी नास्तिकता की जिम्मेदारी उन अध्यात्म विचार वालों की है, जिन्होंने प्रार्थना को ही सब कुछ बतलाया। आपको अपना स्वभाव बदलना होगा। मनुष्य को कामनायें करनी चाहिए, परन्तु यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इसकी कीमत भी चुकानी पड़ेगी। अगर आप कीमत देने को तैयार नहीं है, तो कुछ नहीं मिल सकता। आपने गुण, कर्म, स्वभाव को ठीक कर लिया, तो आप उन्नति की राह पर बढ़ते चले जायेंगे। जिस प्रकार भौतिक जीवन के लिए तीन सुख आवश्यक हैं, उसी प्रकार आध्यात्मिक जीवन के लिए भी गुण, कर्म, स्वभाव को ठीक करना होता है।
मन बड़ा ठग होता है, जिस प्रकार ठग बड़ी-बड़ी बातें बनाकर आदमी को ठग लेता है, बहकाकर सारा रुपया लूट लेता है, उसी प्रकार मन भी उल्टी-सीधी बातें बनाकर, निकम्मी सलाह देकर आदमी को पतन की ओर ले जाता है। मन हमेशा गलत सलाह देता रहता है। इस पर अकल का नियंत्रण रखना चाहिए। मन कहे उसे सौ बार परखा करो, जो उचित हो उसी को मानो। यह स्वभाव का शिक्षण है। मन ने गलत सलाह देकर हमको बुरी तरह मारा है। इस दुश्मन से बचना चाहिए। जिन्होंने परिश्रम किया, पसीना बहाया, वे न जाने क्या–क्या हो गये। सातवलेकर जी ने पेंशन होने के बाद, 55 वर्ष की उम्र के बाद संस्कृत सीखना शुरू किया, और वे संस्कृत के अप्रतिम विद्वान हुए। अपने परिश्रम के कारण ही विनोबा जी विश्व की सोलह भाषाओं के विद्वान हो गए। उन्होंने भूदान आन्दोलन में कितनी जमीन इकट्ठी की? परिश्रम के बिना उन्नति नहीं हो सकती। मेहनत से ही महापुरुषों ने सफलता पाई है।
बर्तन हो, कपड़ा हो या मन हो, सबको साफ-सुथरा और व्यवस्थित रखने का स्वभाव बनाया जाना चाहिए। चाहे योगी हो या गृहस्थी इन्हीं सीढ़ियों से चढ़कर प्रगति कर सकते हैं। स्वभाव बनाने से बनता है। जैसे वाल्मीकि, अंगुलिमाल और तुलसीदास ने अपने स्वभाव को बदला, तो वे क्या से क्या हो गये। उपदेश सुनने से काम नहीं चलता, उसको स्वभाव में, आचरण में ढालना चाहिए। कर्म में इन बातों को नहीं ढाला तो बात बनेगी नहीं। लोग कथा सुनने के लिए तो बड़ी श्रद्धा से जाते हैं, परन्तु उसको जीवन में लाने के नाम पर उनकी श्रद्धा छू मंतर हो जाती है।
एक सेठजी प्रतिदिन कथा सुनने जाया करते थे। एक दिन वे अपने लड़के को भी कथा सुनने साथ ले गए। उस दिन उसने कथा में सुना कि भगवान की सत्ता सबमें विद्यमान है। चींटी से लेकर हाथी और कण से लेकर पहाड़ तक में भगवान समाया हुआ है। दूसरे दिन उस लड़के ने दुकान खोली। दुकान में आटा, गुड़, घी, शक्कर आदि किराने का सामान था। दुकान खोलने के बाद कुछ देर में एक गाय आयी, वह आटा खाने लगी। लड़का बहुत खुश हुआ, उसने कहा—आज स्वयं भगवान कृष्ण ही हमारी दुकान पर आ गए। भगवान! आप सिर्फ आटा ही खायेंगे, तो आपके गले में अटकेगा। थोड़ा-सा रुकिये! मैं अभी घी-गुड़ मिलाता हूं। यह कहकर लड़का आटे में घी-गुड़ डालने लगा। इतने में सेठ जी आ गए। सेठ जी ने जब यह देखा तो सोचा कि लड़का पागल हो गया है। उन्होंने डण्डा उठाया और तीन डण्डे गाय को मारे और एक लड़के को मारा और कहा—बेवकूफ! तू यह क्या कर रहा है। लड़के ने कहा—मैं कल कथा सुनकर आया हूं। पण्डितजी ने कहा था कि सबमें भगवान समाया हुआ है। इस गाय में भी भगवान समाये हुए हैं, फिर मैं भगवान को क्यों नहीं खिलाता? सेठ जी ने कहा—बेवकूफ! कथा तो मैंने भी सुनी थी। कथा सुनने के लिए होती है, अकल में लाने के लिए नहीं होती। मैं कथा सुनकर वहीं झटक कर छोड़ आता हूं। यही हमारी और आपकी हालत है।
हमें अपने गुण, कर्म, स्वभाव में परिवर्तन लाना पड़ेगा। आपने गीता, भागवत, रामायण, वेद-शास्त्र पढ़ लिए। उनके श्लोक और चौपाई भी याद कर लिए, पर उनकी शिक्षाओं को आचरण में नहीं उतारा। उसे व्यवहार में लाओ, तभी उनकी सार्थकता है। गधे की पीठ पर मिठाई लाद दी जाये, तो क्या फायदा? मनुष्य के पास सद्गुणों का होना अति आवश्यक है। जिसके पास गुण नहीं वह कुछ नहीं कर सकता। पैसा कमाने के गुण तो बहुतों के पास होते हैं। परन्तु जिनके पास व्यावहारिक गुण नहीं हैं, बोलने कहने, समझाने का तरीका जिन्हें नहीं मालूम है, वे रोज झगड़ा ही करते रहते हैं। मनुष्य को मनुष्य बनकर रहना चाहिए। इसी में उसकी शोभा है।
आपको बोलना नहीं आता, तो आप दुश्मनी बढ़ा लेते हैं। आपको कहना चाहिए कि भाई हमारा-आपका तो बहुत प्यार रहा है। यह संसार चुगली करने वाला है। आपने जो सुना है, वह गलत है। आप जो कुछ कहते हो, नाराज होकर कहते हो। जिसको बोलना आया है, वही उन्नति कर सकेगा। मित्र बनाने की कला आनी चाहिए। आदमी के असफल होने का एक ही कारण है कि हमको बोलना नहीं आता। किसी को आप मीठे शब्दों में समझाते, तो बड़ा मजा आता। शंकराचार्य ने वाणी के माध्यम से भारतीय संस्कृति को एक सूत्र में बांधा था। स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ ने वाणी के द्वारा ही संसार को यह दिशा दिया था कि भारतीय संस्कृति सबसे बड़ी संस्कृति है।
गांधी जी बोलते थे, तो लाखों लोगों के हृदय पर असर होता था। बोलने की शैली हथियार है। बिना हथियार के आप युद्ध कैसे लड़ सकते हैं? भगवान हमेशा मेरे साथ है। भगवान को गुण, कर्म, स्वभाव के रूप में हमेशा साथ रखता हूं। हर मनुष्य की उन्नति उसके गुण, कर्म, स्वभाव के परिष्कार के आधार पर होती है। आपको हमारे विचार दुनिया में फैलाने हैं। आपको बोलने की शैली सीखनी पड़ेगी। ऊंचे आचरण और विचारों से ही आप दूसरों को बदल सकते हैं। अच्छे विचार फैलाने से ही सबको सुखी बनाया जा सकता है। जब तक लोगों को दिशा नहीं मिलेगी, उनके पास चाहे जितने सुख-सुविधा के साधन भरे पड़े रहें, शांति नहीं मिल सकती।
देवियो और भाइयो,
भौतिक सुख शरीर, विद्या और धन इन तीनों के आधार पर मिल जाता है। शरीर स्वस्थ है, तो मनुष्य सुखी रहेगा। धन यदि किसी के पास हो, तो उससे कोई भी वस्तु खरीदी जा सकती है। विद्या हो, तो संसार की सब गुत्थियां सुलझाई जा सकती हैं और नहीं हो, तो आदमी की समझ में कुछ नहीं आता। सारा समाज इन तीन सुखों को प्राप्त करने में लगा है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए घूमते, टहलते, व्यायाम करते हैं। धन कमाने के लिए दुकानदारी, व्यापार और नौकरी करते हैं। विद्या के लिए पढ़ते हैं। प्रत्येक मनुष्य इन गुणों को प्राप्त करने में लगा हुआ है।
अब मैं आपको दूसरे सुखों की बात बतलाता हूं। हमारा जीवन पंचतत्व और जीवात्मा दोनों से मिलकर बना है। शरीर पंचतत्व से बना है। शारीरिक सुख के लिए तीन सुखों की आवश्यकता पड़ती है। शरीर स्वस्थ रहना ही चाहिए, धन कमाना ही चाहिए, विद्या पढ़नी ही चाहिए, ये तो भौतिक सुख हैं। आध्यात्मिक सुख जीवात्मा के लिए होता है। अनायास ही कोई चीज नहीं मिलती। संसार का नियम है कि कीमत दिए बिना कोई चीज नहीं पाई जा सकती। भगवान के यहां भी पहले देना पड़ता है, फिर प्राप्त होता है। मन्दिर हम जाते हैं, भगवान से मांगते रहते हैं, क्या भगवान आपको देता है? भगवान ने आपको शरीर दे दिया, बुद्धि दे दी, आप इससे सब कुछ खरीद सकते हैं। इसके लिए कीमत चुकानी पड़ती है, परन्तु हम तो प्रार्थना से ही सब कुछ प्राप्त करना चाहते हैं। रूस, अमेरिका, जापान ने बुद्धि से ही सब चीजें प्राप्त की हैं, प्रार्थना से नहीं। हम सिर्फ अपने गुण, कर्म और स्वभाव को परिमार्जित कर लें, तो इसके बदले में चाहे जो वस्तु खरीद सकते हैं।
आप सेना में भर्ती होना चाहते हैं, तो इसके लिए क्या करना पड़ता है? कुछ नहीं करना पड़ता। आपका सीना चौड़ा होना चाहिए, लम्बाई ठीक होनी चाहिए। आप में अगर यह योग्यता नहीं है, तो आप कितनी ही प्रार्थना करते रहें, आपकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकती? जब ऐसा नहीं होता है, तो आप भगवान को गाली देते हैं, पूजा को छोड़कर नास्तिक बनते चले जाते हैं, क्योंकि भगवान ने आपकी मुरादें पूरी नहीं कीं। यदि भगवान से प्रेम करना है, तो हमें अपने गुण, कर्म, स्वभाव को बदलना होगा। यही कल्पवृक्ष है, कामधेनु है, पारस है।
अध्यात्म का नियम है कि गुण, कर्म, स्वभाव को जितना परिष्कृत करते चले जाओगे, उतना ही भगवान के समीप पहुंचते जाओगे। भगवान का एक विधान है। जो इन नियमों का पालन करेगा, वही उन्नति कर सकेगा। खुशामद से कोई चीज नहीं मिल सकती। योग्यता से ही लोगों ने बड़े-बड़े पद पाये हैं। मिडिल पास कोई व्यक्ति कलेक्टर नहीं बन सकता, उसके लिए आई.ए.एस. की परीक्षा पास करनी होगी। प्रधान मंत्री भी मिडिल पास को कलेक्टर नहीं बना सकते। जो कम्पटीशन में पास हो जाता है, वही कलेक्टर बन जाता है। हम लोगों में से बहुत से पूजा करने पर भी नास्तिक हैं। हमने पूजा करके भगवान से बड़ी-बड़ी कामनायें कीं और जब वह पूरी नहीं हुईं, तो हम भगवान को बेकार समझने लगे। यह नास्तिकता है। सारी नास्तिकता की जिम्मेदारी उन अध्यात्म विचार वालों की है, जिन्होंने प्रार्थना को ही सब कुछ बतलाया। आपको अपना स्वभाव बदलना होगा। मनुष्य को कामनायें करनी चाहिए, परन्तु यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इसकी कीमत भी चुकानी पड़ेगी। अगर आप कीमत देने को तैयार नहीं है, तो कुछ नहीं मिल सकता। आपने गुण, कर्म, स्वभाव को ठीक कर लिया, तो आप उन्नति की राह पर बढ़ते चले जायेंगे। जिस प्रकार भौतिक जीवन के लिए तीन सुख आवश्यक हैं, उसी प्रकार आध्यात्मिक जीवन के लिए भी गुण, कर्म, स्वभाव को ठीक करना होता है।
मन बड़ा ठग होता है, जिस प्रकार ठग बड़ी-बड़ी बातें बनाकर आदमी को ठग लेता है, बहकाकर सारा रुपया लूट लेता है, उसी प्रकार मन भी उल्टी-सीधी बातें बनाकर, निकम्मी सलाह देकर आदमी को पतन की ओर ले जाता है। मन हमेशा गलत सलाह देता रहता है। इस पर अकल का नियंत्रण रखना चाहिए। मन कहे उसे सौ बार परखा करो, जो उचित हो उसी को मानो। यह स्वभाव का शिक्षण है। मन ने गलत सलाह देकर हमको बुरी तरह मारा है। इस दुश्मन से बचना चाहिए। जिन्होंने परिश्रम किया, पसीना बहाया, वे न जाने क्या–क्या हो गये। सातवलेकर जी ने पेंशन होने के बाद, 55 वर्ष की उम्र के बाद संस्कृत सीखना शुरू किया, और वे संस्कृत के अप्रतिम विद्वान हुए। अपने परिश्रम के कारण ही विनोबा जी विश्व की सोलह भाषाओं के विद्वान हो गए। उन्होंने भूदान आन्दोलन में कितनी जमीन इकट्ठी की? परिश्रम के बिना उन्नति नहीं हो सकती। मेहनत से ही महापुरुषों ने सफलता पाई है।
बर्तन हो, कपड़ा हो या मन हो, सबको साफ-सुथरा और व्यवस्थित रखने का स्वभाव बनाया जाना चाहिए। चाहे योगी हो या गृहस्थी इन्हीं सीढ़ियों से चढ़कर प्रगति कर सकते हैं। स्वभाव बनाने से बनता है। जैसे वाल्मीकि, अंगुलिमाल और तुलसीदास ने अपने स्वभाव को बदला, तो वे क्या से क्या हो गये। उपदेश सुनने से काम नहीं चलता, उसको स्वभाव में, आचरण में ढालना चाहिए। कर्म में इन बातों को नहीं ढाला तो बात बनेगी नहीं। लोग कथा सुनने के लिए तो बड़ी श्रद्धा से जाते हैं, परन्तु उसको जीवन में लाने के नाम पर उनकी श्रद्धा छू मंतर हो जाती है।
एक सेठजी प्रतिदिन कथा सुनने जाया करते थे। एक दिन वे अपने लड़के को भी कथा सुनने साथ ले गए। उस दिन उसने कथा में सुना कि भगवान की सत्ता सबमें विद्यमान है। चींटी से लेकर हाथी और कण से लेकर पहाड़ तक में भगवान समाया हुआ है। दूसरे दिन उस लड़के ने दुकान खोली। दुकान में आटा, गुड़, घी, शक्कर आदि किराने का सामान था। दुकान खोलने के बाद कुछ देर में एक गाय आयी, वह आटा खाने लगी। लड़का बहुत खुश हुआ, उसने कहा—आज स्वयं भगवान कृष्ण ही हमारी दुकान पर आ गए। भगवान! आप सिर्फ आटा ही खायेंगे, तो आपके गले में अटकेगा। थोड़ा-सा रुकिये! मैं अभी घी-गुड़ मिलाता हूं। यह कहकर लड़का आटे में घी-गुड़ डालने लगा। इतने में सेठ जी आ गए। सेठ जी ने जब यह देखा तो सोचा कि लड़का पागल हो गया है। उन्होंने डण्डा उठाया और तीन डण्डे गाय को मारे और एक लड़के को मारा और कहा—बेवकूफ! तू यह क्या कर रहा है। लड़के ने कहा—मैं कल कथा सुनकर आया हूं। पण्डितजी ने कहा था कि सबमें भगवान समाया हुआ है। इस गाय में भी भगवान समाये हुए हैं, फिर मैं भगवान को क्यों नहीं खिलाता? सेठ जी ने कहा—बेवकूफ! कथा तो मैंने भी सुनी थी। कथा सुनने के लिए होती है, अकल में लाने के लिए नहीं होती। मैं कथा सुनकर वहीं झटक कर छोड़ आता हूं। यही हमारी और आपकी हालत है।
हमें अपने गुण, कर्म, स्वभाव में परिवर्तन लाना पड़ेगा। आपने गीता, भागवत, रामायण, वेद-शास्त्र पढ़ लिए। उनके श्लोक और चौपाई भी याद कर लिए, पर उनकी शिक्षाओं को आचरण में नहीं उतारा। उसे व्यवहार में लाओ, तभी उनकी सार्थकता है। गधे की पीठ पर मिठाई लाद दी जाये, तो क्या फायदा? मनुष्य के पास सद्गुणों का होना अति आवश्यक है। जिसके पास गुण नहीं वह कुछ नहीं कर सकता। पैसा कमाने के गुण तो बहुतों के पास होते हैं। परन्तु जिनके पास व्यावहारिक गुण नहीं हैं, बोलने कहने, समझाने का तरीका जिन्हें नहीं मालूम है, वे रोज झगड़ा ही करते रहते हैं। मनुष्य को मनुष्य बनकर रहना चाहिए। इसी में उसकी शोभा है।
आपको बोलना नहीं आता, तो आप दुश्मनी बढ़ा लेते हैं। आपको कहना चाहिए कि भाई हमारा-आपका तो बहुत प्यार रहा है। यह संसार चुगली करने वाला है। आपने जो सुना है, वह गलत है। आप जो कुछ कहते हो, नाराज होकर कहते हो। जिसको बोलना आया है, वही उन्नति कर सकेगा। मित्र बनाने की कला आनी चाहिए। आदमी के असफल होने का एक ही कारण है कि हमको बोलना नहीं आता। किसी को आप मीठे शब्दों में समझाते, तो बड़ा मजा आता। शंकराचार्य ने वाणी के माध्यम से भारतीय संस्कृति को एक सूत्र में बांधा था। स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ ने वाणी के द्वारा ही संसार को यह दिशा दिया था कि भारतीय संस्कृति सबसे बड़ी संस्कृति है।
गांधी जी बोलते थे, तो लाखों लोगों के हृदय पर असर होता था। बोलने की शैली हथियार है। बिना हथियार के आप युद्ध कैसे लड़ सकते हैं? भगवान हमेशा मेरे साथ है। भगवान को गुण, कर्म, स्वभाव के रूप में हमेशा साथ रखता हूं। हर मनुष्य की उन्नति उसके गुण, कर्म, स्वभाव के परिष्कार के आधार पर होती है। आपको हमारे विचार दुनिया में फैलाने हैं। आपको बोलने की शैली सीखनी पड़ेगी। ऊंचे आचरण और विचारों से ही आप दूसरों को बदल सकते हैं। अच्छे विचार फैलाने से ही सबको सुखी बनाया जा सकता है। जब तक लोगों को दिशा नहीं मिलेगी, उनके पास चाहे जितने सुख-सुविधा के साधन भरे पड़े रहें, शांति नहीं मिल सकती।