
उपासना और साधना विधिपूर्वक
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गायत्री तपोभूमि, मथुरा में 24 सितम्बर 1968 को प्रातः दिया गया प्रवचन)
देवियो और भाइयो,
मेरे जीवन के अनुभव उदाहरण आपके काम आयें इसलिए मैं उन्हें आपके सामने रखता जा रहा हूं। हम जिस रास्ते पर चले, उस रास्ते पर चलकर दूसरा व्यक्ति भी अवश्य मंजिल तक पहुंच जायेगा। अगर भगवान का आंचल पकड़ लिया जाय, तो अवश्य कल्याण होगा। हम बुद्धिवादी युग में जन्मे हैं। आपसे लोग पूछेंगे उपासना से आपको क्या लाभ मिलेगा? आप कहेंगे कि अब तो लाभ नहीं मिला, परन्तु मरने के बाद इसका फल मिलेगा। इस जीवन में स्वर्ग नहीं, शांति नहीं, तो मरने के बाद स्वर्ग कहां मिलेगा? ऋषियों का कर्तव्य था कि शिष्यों का व्यक्तित्व निखारें। भगवान राम का जीवन शानदार जीवन था। भगवान ईसा का जीवन शानदार जीवन था।
एक राजा ने एक बांस गाड़ दिया और उसके ऊपर कमण्डल बांध दिया और कहा, जो इस कमण्डल को उतार लायेगा वह संत कहलायेगा, सिद्ध पुरुष कहलायेगा। भगवान बुद्ध का एक शिष्य पिण्डौल भारद्वाज उस बांस पर चढ़ गया और कमण्डल उतार कर ले आया। उस व्यक्ति ने भगवान बुद्ध के पास जाकर बतलाया कि मैं बांस पर से कमण्डल उतार लाया हूं। अब मैं सिद्ध पुरुष हो गया हूं। भगवान बुद्ध ने कहा—यह सिद्ध पुरुष का काम नहीं, यह तो नट का काम है।
लोग बताते हैं कि हनुमान जी ने सूर्य को मुंह में रख लिया था, यह नहीं बताते कि वे ब्रह्मचारी थे। उन्होंने भगवान राम के कार्य के लिए अपनी जान जोखिम में डाल दी थी। उनके समर्पण, निष्ठा और पुरुषार्थ की बात बतानी चाहिए। हम चमत्कारों की बात नहीं करते, हम अध्यात्म की बात बताते हैं। अच्छे गुण, अच्छी वृत्ति को विकसित करने की बात बताते हैं। इसी पर संसार ठहरा हुआ है। अच्छे गुणों को बढ़ा सकें, तो यह एक चमत्कार होगा। राजा हरिश्चन्द्र ने सत्य को नहीं छोड़ा था। अपनी पत्नी को, बच्चे को बेच दिया था। खुद भी बिक गये थे, परन्तु सत्य को नहीं छोड़ा था। यह एक चमत्कार है। इतिहास में राजा हरिश्चन्द्र का नाम अमर है। मैंने आपके ऊपर ऐसा रंग चढ़ाने के लिए यहां बुलाया है कि आप अपने जीवन को धन्य बना सकें। ऐसा चमत्कार दिखा सकें, जिससे लोग कहें कि यह तो देवता है देवता। रंगने से पहले कपड़े को धोना पड़ता है। मैले-कुचैले कपड़े पर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मैं तीन दिन से आपके सड़े-गले विचारों को निकालने में लगा हूं। आपने तो शादी की, बच्चे की बात करते रहे। गुरुजी हमें बच्चे देंगे कि नहीं, हमें नौकरी मिलेगी कि नहीं, आप सब यही मांगते रहे, परन्तु मैं आपके विचारों की सफाई करता रहा। मैं अपने जीवन को अपने चरित्र को अच्छे से अच्छा बनाता चला आया हूं, ताकि मंत्र सफल हो सके। आप अपनी उपासना में उत्कृष्टता का समावेश करना और वैसा ही जीवन जीना जैसा कि हमने जिया है।
जो ‘‘हर दिन नया जन्म’’ और ‘‘हर रात नयी मौत’’ के मंत्र को याद रखता है—आत्मचिन्तन करता है वह ईमानदार बना रहता है। आदमी सोचता है कि आज के जीवन को क्यों गंदा बनाऊं? क्यों किसी से लड़ूं? क्यों बेईमानी करूं? आज के दिन सबकी सेवा करूंगा। अच्छा व्यवहार करूंगा। ऊंचे विचार और ऊंचे कर्म जिसके भी हैं—वह संत है। बांस के ऊपर से कमण्डल लाने वाला संत नहीं हो सकता। वेश बदलने, दाढ़ी रखने और तिलक लगाने से संत का कोई सम्बन्ध नहीं है। आप इस मंत्र पर चलें तो आपकी उपासना सफल हो सकती है। जप करें, तो उसके लिए नियत समय, नियत स्थान और नियत संख्या होनी चाहिए। जैसे आप नियत समय पर भोजन करते हैं, नियत समय पर सोते हैं, उसी प्रकार उपासना का भी क्रम होना चाहिए। सुबह चार बजे जल्दी उठकर उपासना कर लिया करें। जिस दिन आप उपासना नहीं करेंगे उस दिन आपको ऐसा लगेगा कि जैसे कोई काम ही नहीं किया। जिस प्रकार आप एक दिन एक पाव दूध पियेंगे, दूसरे दिन आधा किलो और तीसरे दिन एक किलो तो वह आपको फायदा नहीं करेगा। आप नियत समय पर उठकर नियत संख्या में जप करोगे तो आपको फल अवश्य मिलेगा। माला पुराने जमाने की घड़ी है। ग्यारह माला जप एक घण्टे में पूरा हो जाता है। आप यहां से घर जायें, तो कम से कम पंद्रह मिनट की उपासना अवश्य किया करें।
उपासना में नियम का बड़ा महत्व है। आप स्थान, समय और संख्या इन तीन बातों का ध्यान रखेंगे तो आपकी पूजा अवश्य सफल होगी। ऋषियों के आश्रमों के पास शेर, गाय, हिरण सब एक घाट पर पानी पीते थे, साथ-साथ बैठते थे। यह वहां के वातावरण का प्रभाव था। यह वातावरण का संस्कार है, जिसके कारण हिंसक जानवर की हिंसक वृत्ति भी वहां समाप्त हो जाती थी। तीर्थ वह स्थान है, जहां ऋषियों ने उपासना की थी। उपासना के साथ स्थान का भी ध्यान रखना चाहिए। जप के साथ-साथ ध्यान भी करना शुरू कर दें। ध्यान से मन को एकाग्र किया जाता है। जैसे आतिशी कांच पर सूर्य की किरणों को इकट्ठा करने से आग पैदा हो जाती है। उसी प्रकार ध्यान से चित्त की बिखरी हुई वृत्तियां केन्द्रित हो जाती हैं। हम अपने मन की भाग-दौड़ रोकने के लिए गायत्री माता के चित्र का ध्यान करते हैं। आप शंकरजी, हनुमानजी, कृष्ण जी, रामचन्द्रजी जिसकी भी पूजा करते हों, उनके रूप में ध्यान लगाकर चित्त को एकाग्र करना चाहिए। मन को उसी दायरे में घुमाना चाहिए। गायत्री माता के बाल कैसे हैं? पीली साड़ी पहली है। हंस की सवारी है। गायत्री माता के हाथ में पुस्तक, कमण्डल, माला है। मन को कहो आगे मत भाग। इसी दायरे में घूम। ध्यान से मन एक ही दायरे में घूमा करता है। ध्यान अन्त में प्रकाश में परिवर्तित हो जाता है। अन्त में प्रकाश का ध्यान किया जाता है। निराकार का ध्यान नहीं कर सकते हैं। जिसकी कोई शक्ल होती है, मन उसका ही ध्यान कर सकता है। मन को केन्द्रित करने के लिए मूर्ति पूजा की जाती है। आप मूर्ति पूजा को नहीं मानते हैं, तो आप अपनी शकल शीशे में देखकर उस पर ध्यान केन्द्रित कीजिये, इससे आपका मन भागेगा नहीं, आपको उपासना में थकान नहीं आयेगी। जब आप शरीर का ध्यान रखते हैं, तब थकान आती है। शरीर स्थूल है, विचार सूक्ष्म हैं। एक ब्रह्म और एक प्रकृति दोनों मिलकर जीवन बनता है। गंगा नहाना, व्रत करना, तीर्थयात्रा करना, मन्दिर की परिक्रमा करना, यह शरीर की क्रिया है। यह सब स्थूल क्रिया है। आपने भगवान को भोग लगाया। गायत्री माता को साड़ी पहनाई, फूल माला पहनाई, आरती उतारी, यह स्थूल शरीर से स्थूल भगवान की पूजा है। हवन भी स्थूल पूजा है। यह उपासना का पहला चरण है। उपासना में पहले यही बतलाया जाता है। जिस प्रकार बच्चों को पहले अ, आ, इ, ई—एक, दो, तीन का अक्षर ज्ञान और संख्या ज्ञान कराते हैं। उसके बाद गणित-ज्यामिति इत्यादि पढ़ाते हैं।
दूसरी पूजा मस्तिष्क की पूजा है। दिमाग के बिना ध्यान नहीं होता है, जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं। पहली पूजा शरीर से—स्थूल पूजा, दूसरी पूजा मन को ध्यान में लगाना। गायत्री माता हँस रही है। हंस पर सवार है, यह ध्यान के लिए है। इसके बाद तीसरी पूजा कारण शरीर से होती है। इन दोनों पूजा के साथ भावना का भी समावेश होना चाहिए। यह तीनों को मिला देने पर हमारी उपासना पूर्ण होती है। आपने प्रेम का समावेश किया। भगवान के साथ प्रेम जोड़ दिया। प्रेम अन्तःकरण में प्रवेश करेगा उससे श्रद्धा-निष्ठा बनेगी। मस्तिष्क के पास विचार, शरीर के पास क्रिया और आत्मा के पास प्रेम है। इसी का नाम दया, सेवा, करुणा है। अपने लिए कम खर्च करना चाहिए दूसरे कि लिए अधिक यही संयम है।
जैसे पतंगा दीपक को समर्पण कर देता है। आत्मा भी परमात्मा में मिल जाती है, एक हो जाते हैं। आप अपने भगवान को समर्पण कर दो और एक हो जाइये। द्वैत से अद्वैत की उपासना की जाती है। योगी जैसी अवस्था हो जाने पर भगवान और जीव एक हो जाता है। मैं ब्रह्म हूं। ‘‘अयमात्मा ब्रह्म’’ जैसी स्थिति हो जाती है। तन्मयता इसी को कहते हैं। इससे ही उपासना सफल होती है।
देवियो और भाइयो,
मेरे जीवन के अनुभव उदाहरण आपके काम आयें इसलिए मैं उन्हें आपके सामने रखता जा रहा हूं। हम जिस रास्ते पर चले, उस रास्ते पर चलकर दूसरा व्यक्ति भी अवश्य मंजिल तक पहुंच जायेगा। अगर भगवान का आंचल पकड़ लिया जाय, तो अवश्य कल्याण होगा। हम बुद्धिवादी युग में जन्मे हैं। आपसे लोग पूछेंगे उपासना से आपको क्या लाभ मिलेगा? आप कहेंगे कि अब तो लाभ नहीं मिला, परन्तु मरने के बाद इसका फल मिलेगा। इस जीवन में स्वर्ग नहीं, शांति नहीं, तो मरने के बाद स्वर्ग कहां मिलेगा? ऋषियों का कर्तव्य था कि शिष्यों का व्यक्तित्व निखारें। भगवान राम का जीवन शानदार जीवन था। भगवान ईसा का जीवन शानदार जीवन था।
एक राजा ने एक बांस गाड़ दिया और उसके ऊपर कमण्डल बांध दिया और कहा, जो इस कमण्डल को उतार लायेगा वह संत कहलायेगा, सिद्ध पुरुष कहलायेगा। भगवान बुद्ध का एक शिष्य पिण्डौल भारद्वाज उस बांस पर चढ़ गया और कमण्डल उतार कर ले आया। उस व्यक्ति ने भगवान बुद्ध के पास जाकर बतलाया कि मैं बांस पर से कमण्डल उतार लाया हूं। अब मैं सिद्ध पुरुष हो गया हूं। भगवान बुद्ध ने कहा—यह सिद्ध पुरुष का काम नहीं, यह तो नट का काम है।
लोग बताते हैं कि हनुमान जी ने सूर्य को मुंह में रख लिया था, यह नहीं बताते कि वे ब्रह्मचारी थे। उन्होंने भगवान राम के कार्य के लिए अपनी जान जोखिम में डाल दी थी। उनके समर्पण, निष्ठा और पुरुषार्थ की बात बतानी चाहिए। हम चमत्कारों की बात नहीं करते, हम अध्यात्म की बात बताते हैं। अच्छे गुण, अच्छी वृत्ति को विकसित करने की बात बताते हैं। इसी पर संसार ठहरा हुआ है। अच्छे गुणों को बढ़ा सकें, तो यह एक चमत्कार होगा। राजा हरिश्चन्द्र ने सत्य को नहीं छोड़ा था। अपनी पत्नी को, बच्चे को बेच दिया था। खुद भी बिक गये थे, परन्तु सत्य को नहीं छोड़ा था। यह एक चमत्कार है। इतिहास में राजा हरिश्चन्द्र का नाम अमर है। मैंने आपके ऊपर ऐसा रंग चढ़ाने के लिए यहां बुलाया है कि आप अपने जीवन को धन्य बना सकें। ऐसा चमत्कार दिखा सकें, जिससे लोग कहें कि यह तो देवता है देवता। रंगने से पहले कपड़े को धोना पड़ता है। मैले-कुचैले कपड़े पर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मैं तीन दिन से आपके सड़े-गले विचारों को निकालने में लगा हूं। आपने तो शादी की, बच्चे की बात करते रहे। गुरुजी हमें बच्चे देंगे कि नहीं, हमें नौकरी मिलेगी कि नहीं, आप सब यही मांगते रहे, परन्तु मैं आपके विचारों की सफाई करता रहा। मैं अपने जीवन को अपने चरित्र को अच्छे से अच्छा बनाता चला आया हूं, ताकि मंत्र सफल हो सके। आप अपनी उपासना में उत्कृष्टता का समावेश करना और वैसा ही जीवन जीना जैसा कि हमने जिया है।
जो ‘‘हर दिन नया जन्म’’ और ‘‘हर रात नयी मौत’’ के मंत्र को याद रखता है—आत्मचिन्तन करता है वह ईमानदार बना रहता है। आदमी सोचता है कि आज के जीवन को क्यों गंदा बनाऊं? क्यों किसी से लड़ूं? क्यों बेईमानी करूं? आज के दिन सबकी सेवा करूंगा। अच्छा व्यवहार करूंगा। ऊंचे विचार और ऊंचे कर्म जिसके भी हैं—वह संत है। बांस के ऊपर से कमण्डल लाने वाला संत नहीं हो सकता। वेश बदलने, दाढ़ी रखने और तिलक लगाने से संत का कोई सम्बन्ध नहीं है। आप इस मंत्र पर चलें तो आपकी उपासना सफल हो सकती है। जप करें, तो उसके लिए नियत समय, नियत स्थान और नियत संख्या होनी चाहिए। जैसे आप नियत समय पर भोजन करते हैं, नियत समय पर सोते हैं, उसी प्रकार उपासना का भी क्रम होना चाहिए। सुबह चार बजे जल्दी उठकर उपासना कर लिया करें। जिस दिन आप उपासना नहीं करेंगे उस दिन आपको ऐसा लगेगा कि जैसे कोई काम ही नहीं किया। जिस प्रकार आप एक दिन एक पाव दूध पियेंगे, दूसरे दिन आधा किलो और तीसरे दिन एक किलो तो वह आपको फायदा नहीं करेगा। आप नियत समय पर उठकर नियत संख्या में जप करोगे तो आपको फल अवश्य मिलेगा। माला पुराने जमाने की घड़ी है। ग्यारह माला जप एक घण्टे में पूरा हो जाता है। आप यहां से घर जायें, तो कम से कम पंद्रह मिनट की उपासना अवश्य किया करें।
उपासना में नियम का बड़ा महत्व है। आप स्थान, समय और संख्या इन तीन बातों का ध्यान रखेंगे तो आपकी पूजा अवश्य सफल होगी। ऋषियों के आश्रमों के पास शेर, गाय, हिरण सब एक घाट पर पानी पीते थे, साथ-साथ बैठते थे। यह वहां के वातावरण का प्रभाव था। यह वातावरण का संस्कार है, जिसके कारण हिंसक जानवर की हिंसक वृत्ति भी वहां समाप्त हो जाती थी। तीर्थ वह स्थान है, जहां ऋषियों ने उपासना की थी। उपासना के साथ स्थान का भी ध्यान रखना चाहिए। जप के साथ-साथ ध्यान भी करना शुरू कर दें। ध्यान से मन को एकाग्र किया जाता है। जैसे आतिशी कांच पर सूर्य की किरणों को इकट्ठा करने से आग पैदा हो जाती है। उसी प्रकार ध्यान से चित्त की बिखरी हुई वृत्तियां केन्द्रित हो जाती हैं। हम अपने मन की भाग-दौड़ रोकने के लिए गायत्री माता के चित्र का ध्यान करते हैं। आप शंकरजी, हनुमानजी, कृष्ण जी, रामचन्द्रजी जिसकी भी पूजा करते हों, उनके रूप में ध्यान लगाकर चित्त को एकाग्र करना चाहिए। मन को उसी दायरे में घुमाना चाहिए। गायत्री माता के बाल कैसे हैं? पीली साड़ी पहली है। हंस की सवारी है। गायत्री माता के हाथ में पुस्तक, कमण्डल, माला है। मन को कहो आगे मत भाग। इसी दायरे में घूम। ध्यान से मन एक ही दायरे में घूमा करता है। ध्यान अन्त में प्रकाश में परिवर्तित हो जाता है। अन्त में प्रकाश का ध्यान किया जाता है। निराकार का ध्यान नहीं कर सकते हैं। जिसकी कोई शक्ल होती है, मन उसका ही ध्यान कर सकता है। मन को केन्द्रित करने के लिए मूर्ति पूजा की जाती है। आप मूर्ति पूजा को नहीं मानते हैं, तो आप अपनी शकल शीशे में देखकर उस पर ध्यान केन्द्रित कीजिये, इससे आपका मन भागेगा नहीं, आपको उपासना में थकान नहीं आयेगी। जब आप शरीर का ध्यान रखते हैं, तब थकान आती है। शरीर स्थूल है, विचार सूक्ष्म हैं। एक ब्रह्म और एक प्रकृति दोनों मिलकर जीवन बनता है। गंगा नहाना, व्रत करना, तीर्थयात्रा करना, मन्दिर की परिक्रमा करना, यह शरीर की क्रिया है। यह सब स्थूल क्रिया है। आपने भगवान को भोग लगाया। गायत्री माता को साड़ी पहनाई, फूल माला पहनाई, आरती उतारी, यह स्थूल शरीर से स्थूल भगवान की पूजा है। हवन भी स्थूल पूजा है। यह उपासना का पहला चरण है। उपासना में पहले यही बतलाया जाता है। जिस प्रकार बच्चों को पहले अ, आ, इ, ई—एक, दो, तीन का अक्षर ज्ञान और संख्या ज्ञान कराते हैं। उसके बाद गणित-ज्यामिति इत्यादि पढ़ाते हैं।
दूसरी पूजा मस्तिष्क की पूजा है। दिमाग के बिना ध्यान नहीं होता है, जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं। पहली पूजा शरीर से—स्थूल पूजा, दूसरी पूजा मन को ध्यान में लगाना। गायत्री माता हँस रही है। हंस पर सवार है, यह ध्यान के लिए है। इसके बाद तीसरी पूजा कारण शरीर से होती है। इन दोनों पूजा के साथ भावना का भी समावेश होना चाहिए। यह तीनों को मिला देने पर हमारी उपासना पूर्ण होती है। आपने प्रेम का समावेश किया। भगवान के साथ प्रेम जोड़ दिया। प्रेम अन्तःकरण में प्रवेश करेगा उससे श्रद्धा-निष्ठा बनेगी। मस्तिष्क के पास विचार, शरीर के पास क्रिया और आत्मा के पास प्रेम है। इसी का नाम दया, सेवा, करुणा है। अपने लिए कम खर्च करना चाहिए दूसरे कि लिए अधिक यही संयम है।
जैसे पतंगा दीपक को समर्पण कर देता है। आत्मा भी परमात्मा में मिल जाती है, एक हो जाते हैं। आप अपने भगवान को समर्पण कर दो और एक हो जाइये। द्वैत से अद्वैत की उपासना की जाती है। योगी जैसी अवस्था हो जाने पर भगवान और जीव एक हो जाता है। मैं ब्रह्म हूं। ‘‘अयमात्मा ब्रह्म’’ जैसी स्थिति हो जाती है। तन्मयता इसी को कहते हैं। इससे ही उपासना सफल होती है।