
भगवान से कृपा की भीख न मांगें
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गायत्री तपोभूमि, मथुरा में 28 अक्टूबर 1968 को प्रातः दिया गया प्रवचन)
देवियो और भाइयो,
मैं आपको अपनी उपासना की सारी प्रक्रिया बताता चला आ रहा हूं। इससे आपको सांगोपांग अध्यात्म का ज्ञान होगा। एक घटना चौबीस वर्ष तक उपासना पूरी करने के पश्चात् की सुनाता हूं। मेरे गुरु की छाया फिर आयी और गुरु ने कहा—इस उपासना से तुम्हें जो आत्मबल मिला है, यह किसी भौतिक कार्य के लिए नहीं है। इसे दैवी प्रयोग में इस्तेमाल किया जाना चाहिये। छोटी-मोटी कामनायें तो पुरुषार्थ से ही पूरी की जानी चाहिये। उनके लिये इस उपासना की कमाई खर्च नहीं की जानी चाहिए। भोजन की पूर्ति तो पुरुषार्थ से—श्रम से ही पूरी हो जाती है। मेरे गुरु ने मुझे बतलाया इसलिये मैंने कभी कामनायें नहीं कीं। मैं बीमार हुआ तो इलाज करवाया। मनुष्य को चाहिये कि छोटी-मोटी कामनाओं के लिए भगवान के पास कृपा की भीख न मांगें। आपने चोरी जिस शान से की है, उसी शान से जेल भी भुगतनी चाहिये। यदि मनोविकार नहीं हटते हैं तो भगवान से प्रार्थना करनी चाहिये कि भगवान इनको हटाओ। चाणक्य चन्द्रगुप्त का प्रधानमंत्री था, चाहता तो महलों में रहता, किन्तु चाणक्य दुपट्टा पहनता था, झोंपड़ी में रहता था और पैदल चलता था। वह कंद-मूल खाता था। गरीबी का जीवन जिया, किसने? चाणक्य ने। चाणक्य ने गरीबी का जीवन शान से जीया। गरीबी का जीवन भी तमीज से जीया जा सकता है। जिसके पास बहुत पैसा आता है, बेकार खर्च होता है, फिर रोते-फिरते हैं कि खर्च नहीं चलता। मैं आपको भी अध्यात्म के सही रास्ते पर लाना चाहता हूं। जो भी दया, कृपा मैंने भगवान से पायी है, वह दूसरों के लिए ही खर्च की है। मैंने कभी बुखार, फोड़ा हो जाने पर उसकी मुक्ति के लिए भगवान से प्रार्थना नहीं की। जो हम भोग रहे हैं, वह हमारे कर्मों का फल है। मुझे हमेशा दूसरों के दुःखों की चिन्ता रहती है। अपने कष्ट की परवाह नहीं करनी चाहिए। अपने कष्टों से समझना चाहिए कि जो भूल हो गयी है, वह भोग रहे हैं। समाज का हमारे ऊपर कितना ऋण है? आप नहीं जानते, यदि आप समाज के बीच रहते, तो बोलना, चलना, खाना, व्यवहार करना सब कहां से सीखते? आपने सुना होगा कि रामू नाम का एक छोटा-सा बच्चा भेड़ियों के साथ रहकर भेड़ियों के समान ही चलता था। भेड़ियों के जैसा ही बोलता था। वह जिस जगह रहा, वहां से वैसा ही सीख पाया। उस रामू भेड़िये को अस्पताल में रखकर डॉक्टरों ने कितने ही प्रयास किये कि वह मनुष्यों की तरह बोलना सीख जाये, परन्तु सारे प्रयास विफल हो गये। सारा ज्ञान हमें कहां से मिलता है, समाज से। समाज के अगणित अनुदान हमको मिले हैं। आप कपड़ा पहनते हैं वह कितने लोगों के सहयोग से बनकर आपके पास तक आया है। इन्सान करोड़ों अहसानों से दबा पड़ा है। जानवर किसी से सहयोग की आशा नहीं करता। हम बचपन में तीन-चार वर्ष तक दूसरों पर आश्रित रहते हैं। यदि मां जन्म देने के बाद हमारी देख रेख नहीं करती, तो हमारा क्या हाल होता? जिसने समाज का ऋण नहीं चुकाया वह पापी है। दिये बिना शान्ति संतोष नहीं मिलता। हर व्यक्ति की यही वृत्ति आज बन गयी है कि जितना हो सके लाभ उठाओ। यज्ञीय भावना द्वारा आदमी को बदला जा सकता है। नये युग में मनुष्यों के विचार करने के तरीके बदल जायेंगे। मनुष्य के लिए सदाचार व संयम का जीवन हर प्रकार से श्रेयस्कर है। संयम से रहने से हनुमानजी, विनोबा भावे, स्वामी विवेकानन्द ने सब कुछ पाया। संयम से आदमी पाता है, खोता नहीं। वेस्टर्न वाच कम्पनी वाले घड़ी बनाकर उसको एक वर्ष तक दीवार पर लटकाकर देखते हैं कि सही चलती है या नहीं। जांच करने पर ही घड़ी बाहर भेजी जाती है। उनने प्रतिज्ञा की है कि सही घड़ी ही भेजेंगे। आज उस कम्पनी की घड़ियां सबसे अधिक बिकती हैं। इसमें कंपनी का फायदा है। ईमानदारी में घाटा नहीं होता। बेईमानी, चालाकी बड़े घाटे की चीज है। जिन्होंने ईमानदारी का जीवन जीया, वे दुःखी नहीं रहे। सेवा की, सहयोग की वृत्ति पैदा करनी चाहिये। जब तक घर-घर में राम-भरत का मिलाप होता था, तब तक घर-घर में स्वर्ग था। यज्ञीय जीवन जीने के लिए मुझे गुरुदेव ने कहा। हवन केवल वायु शुद्ध करने के लिए नहीं है। आज संसार में हर जगह जहरीले धुएं निकल रहे हैं। हवन के माध्यम से व्यक्तियों को जीवन जीने का तरीका सिखाया जा रहा है। यज्ञ पिता है और गायत्री माता। मैं अपने माता-पिता से सुबह-शाम मिलता हूं। कर्मकाण्ड में भी और भावना की दृष्टि से भी, यज्ञीय वृत्ति जीवित रखने के लिए मैं यज्ञ करता हूं। अध्यात्मवादी कभी गरीब नहीं होता। गांधी जी क्या गरीब थे? ईमानदार, श्रमशील कभी गरीब नहीं होते।
मेरे गुरु ने कहा—यज्ञीय भावना पैदा कर और गायत्री को जन-जन तक पहुंचा। गायत्री माता को वर्षों से लोगों ने बंधन में बांधकर रखा है। गायत्री को विश्वमाता के रूप में व्यक्तियों के सामने लाना। हम गायत्री माता का जप सारी दुनियां से करायेंगे। तुम अपने माता-पिता की सेवा करना। तुम यज्ञ पिता और गायत्री माता की सेवा करना। मैंने कहा—मैं श्रवणकुमार की तरह अपने माता-पिता को सारे विश्व की तीर्थयात्रा कराऊंगा। मैंने अपने गुरु को वचन दिया है, जिसे आज तक पूरा कर रहा हूं। गायत्री का, तत्वज्ञान का लाभ तभी मिलेगा जब आप अपनी भावनाओं का विकास करना सीख लें। अपने विचारों को भावनाओं से ऊंचा उठाओ। गायत्री का प्राण यही है। क्रियायें तो कलेवर हैं। माइक बिजली के करन्ट से बोलता है। इसी प्रकार गायत्री मंत्र से मनुष्य की भावना और विचारणा में करन्ट आता है। चारों धामों की यात्रा कर ली। गंगास्नान दर्शन कर लिये, किन्तु लोभ, मोह, अहंकार जैसा का तैसा रहा तो सब बेकार है। तीर्थयात्रा इसलिए करते थे कि वहां से लोग भावना लेकर आते थे। ईमानदार बन कर आते थे। नेक, सज्जन और शरीफ बन कर आते थे। यज्ञ एक नीति शास्त्र है, भावना है। मां बच्चे को नौ माह पेट में रखती है, अपना खून देती है। मां बच्चे के लिए कितना त्याग और बलिदान करती है? यज्ञ हमारे साथ-साथ पैदा होता है। हमारा जन्म यज्ञ से होता है। आप हाथ से मेहनत करके धन कमाकर लाते हो। हाथ श्रम करता है। हाथ के श्रम से जो पैसा पैदा होता है, उसको वह अपने पास नहीं रखता। वह उस पैसे का अनाज खरीदकर लाता है। भोजन बनाकर हाथ मुंह को देता है। पेट उसे अपने पास नहीं रखता। वह उस भोजन को पचाकर उसका खून बनाकर नाड़ियों को देता है। नाड़ियों द्वारा खून हाथ तक पहुंच जाता है। हाथ को पुनः शक्ति मिल जाती है। आजकल कष्ट, क्लेश दुःख का कारण है—स्वार्थ वृत्ति।
आत्मिक विचार ऊंचे होने चाहिये। परमार्थ का जीवन जीना चाहिये। इसी में शान है। इसी में कल्याण है। हमने गाय का दूध पीया है, मां का दूध पीया है, सब्जियां खायीं, पेड़े और फल खाये हैं। भेड़ों की ऊन का उपयोग किया है। मनुष्य के ऊपर कर्जा ही कर्जा है। हवन के द्वारा हम शिक्षण करते हैं कि हम वितरण करना सीखें। यज्ञीय भावना जीवन में लाओ। आज समाज जल रहा है। संसार में किसी प्रकार का कष्ट नहीं है, सिर्फ बेअकली आ गयी है। इस बेअकली से संसार के चार अरब मनुष्य जल रहे हैं। अरे भागीरथो! इन ज्ञान की गंगा को उन तक ले जाओ, जिससे इन्सान इन्सान की परिभाषा को समझ सके। उल्लास पूर्ण जीवन जीये। शांति का मूल्य समझे। आपको आत्म शांति देने वाली शक्ति का नाम है—गायत्री और यज्ञ। आप आत्मा का कल्याण करना चाहते हो, तो यज्ञीय भावना जीवन में लाओ। आप उन मालाओं को काम में लाओ, जो संयमी, सदाचारी बनाती हैं। यदि आप ऐसा जीवन जी सको, तो परिवार का, समाज का और अपना कल्याण कर सकते हो। यही हमारा संदेश है।
देवियो और भाइयो,
मैं आपको अपनी उपासना की सारी प्रक्रिया बताता चला आ रहा हूं। इससे आपको सांगोपांग अध्यात्म का ज्ञान होगा। एक घटना चौबीस वर्ष तक उपासना पूरी करने के पश्चात् की सुनाता हूं। मेरे गुरु की छाया फिर आयी और गुरु ने कहा—इस उपासना से तुम्हें जो आत्मबल मिला है, यह किसी भौतिक कार्य के लिए नहीं है। इसे दैवी प्रयोग में इस्तेमाल किया जाना चाहिये। छोटी-मोटी कामनायें तो पुरुषार्थ से ही पूरी की जानी चाहिये। उनके लिये इस उपासना की कमाई खर्च नहीं की जानी चाहिए। भोजन की पूर्ति तो पुरुषार्थ से—श्रम से ही पूरी हो जाती है। मेरे गुरु ने मुझे बतलाया इसलिये मैंने कभी कामनायें नहीं कीं। मैं बीमार हुआ तो इलाज करवाया। मनुष्य को चाहिये कि छोटी-मोटी कामनाओं के लिए भगवान के पास कृपा की भीख न मांगें। आपने चोरी जिस शान से की है, उसी शान से जेल भी भुगतनी चाहिये। यदि मनोविकार नहीं हटते हैं तो भगवान से प्रार्थना करनी चाहिये कि भगवान इनको हटाओ। चाणक्य चन्द्रगुप्त का प्रधानमंत्री था, चाहता तो महलों में रहता, किन्तु चाणक्य दुपट्टा पहनता था, झोंपड़ी में रहता था और पैदल चलता था। वह कंद-मूल खाता था। गरीबी का जीवन जिया, किसने? चाणक्य ने। चाणक्य ने गरीबी का जीवन शान से जीया। गरीबी का जीवन भी तमीज से जीया जा सकता है। जिसके पास बहुत पैसा आता है, बेकार खर्च होता है, फिर रोते-फिरते हैं कि खर्च नहीं चलता। मैं आपको भी अध्यात्म के सही रास्ते पर लाना चाहता हूं। जो भी दया, कृपा मैंने भगवान से पायी है, वह दूसरों के लिए ही खर्च की है। मैंने कभी बुखार, फोड़ा हो जाने पर उसकी मुक्ति के लिए भगवान से प्रार्थना नहीं की। जो हम भोग रहे हैं, वह हमारे कर्मों का फल है। मुझे हमेशा दूसरों के दुःखों की चिन्ता रहती है। अपने कष्ट की परवाह नहीं करनी चाहिए। अपने कष्टों से समझना चाहिए कि जो भूल हो गयी है, वह भोग रहे हैं। समाज का हमारे ऊपर कितना ऋण है? आप नहीं जानते, यदि आप समाज के बीच रहते, तो बोलना, चलना, खाना, व्यवहार करना सब कहां से सीखते? आपने सुना होगा कि रामू नाम का एक छोटा-सा बच्चा भेड़ियों के साथ रहकर भेड़ियों के समान ही चलता था। भेड़ियों के जैसा ही बोलता था। वह जिस जगह रहा, वहां से वैसा ही सीख पाया। उस रामू भेड़िये को अस्पताल में रखकर डॉक्टरों ने कितने ही प्रयास किये कि वह मनुष्यों की तरह बोलना सीख जाये, परन्तु सारे प्रयास विफल हो गये। सारा ज्ञान हमें कहां से मिलता है, समाज से। समाज के अगणित अनुदान हमको मिले हैं। आप कपड़ा पहनते हैं वह कितने लोगों के सहयोग से बनकर आपके पास तक आया है। इन्सान करोड़ों अहसानों से दबा पड़ा है। जानवर किसी से सहयोग की आशा नहीं करता। हम बचपन में तीन-चार वर्ष तक दूसरों पर आश्रित रहते हैं। यदि मां जन्म देने के बाद हमारी देख रेख नहीं करती, तो हमारा क्या हाल होता? जिसने समाज का ऋण नहीं चुकाया वह पापी है। दिये बिना शान्ति संतोष नहीं मिलता। हर व्यक्ति की यही वृत्ति आज बन गयी है कि जितना हो सके लाभ उठाओ। यज्ञीय भावना द्वारा आदमी को बदला जा सकता है। नये युग में मनुष्यों के विचार करने के तरीके बदल जायेंगे। मनुष्य के लिए सदाचार व संयम का जीवन हर प्रकार से श्रेयस्कर है। संयम से रहने से हनुमानजी, विनोबा भावे, स्वामी विवेकानन्द ने सब कुछ पाया। संयम से आदमी पाता है, खोता नहीं। वेस्टर्न वाच कम्पनी वाले घड़ी बनाकर उसको एक वर्ष तक दीवार पर लटकाकर देखते हैं कि सही चलती है या नहीं। जांच करने पर ही घड़ी बाहर भेजी जाती है। उनने प्रतिज्ञा की है कि सही घड़ी ही भेजेंगे। आज उस कम्पनी की घड़ियां सबसे अधिक बिकती हैं। इसमें कंपनी का फायदा है। ईमानदारी में घाटा नहीं होता। बेईमानी, चालाकी बड़े घाटे की चीज है। जिन्होंने ईमानदारी का जीवन जीया, वे दुःखी नहीं रहे। सेवा की, सहयोग की वृत्ति पैदा करनी चाहिये। जब तक घर-घर में राम-भरत का मिलाप होता था, तब तक घर-घर में स्वर्ग था। यज्ञीय जीवन जीने के लिए मुझे गुरुदेव ने कहा। हवन केवल वायु शुद्ध करने के लिए नहीं है। आज संसार में हर जगह जहरीले धुएं निकल रहे हैं। हवन के माध्यम से व्यक्तियों को जीवन जीने का तरीका सिखाया जा रहा है। यज्ञ पिता है और गायत्री माता। मैं अपने माता-पिता से सुबह-शाम मिलता हूं। कर्मकाण्ड में भी और भावना की दृष्टि से भी, यज्ञीय वृत्ति जीवित रखने के लिए मैं यज्ञ करता हूं। अध्यात्मवादी कभी गरीब नहीं होता। गांधी जी क्या गरीब थे? ईमानदार, श्रमशील कभी गरीब नहीं होते।
मेरे गुरु ने कहा—यज्ञीय भावना पैदा कर और गायत्री को जन-जन तक पहुंचा। गायत्री माता को वर्षों से लोगों ने बंधन में बांधकर रखा है। गायत्री को विश्वमाता के रूप में व्यक्तियों के सामने लाना। हम गायत्री माता का जप सारी दुनियां से करायेंगे। तुम अपने माता-पिता की सेवा करना। तुम यज्ञ पिता और गायत्री माता की सेवा करना। मैंने कहा—मैं श्रवणकुमार की तरह अपने माता-पिता को सारे विश्व की तीर्थयात्रा कराऊंगा। मैंने अपने गुरु को वचन दिया है, जिसे आज तक पूरा कर रहा हूं। गायत्री का, तत्वज्ञान का लाभ तभी मिलेगा जब आप अपनी भावनाओं का विकास करना सीख लें। अपने विचारों को भावनाओं से ऊंचा उठाओ। गायत्री का प्राण यही है। क्रियायें तो कलेवर हैं। माइक बिजली के करन्ट से बोलता है। इसी प्रकार गायत्री मंत्र से मनुष्य की भावना और विचारणा में करन्ट आता है। चारों धामों की यात्रा कर ली। गंगास्नान दर्शन कर लिये, किन्तु लोभ, मोह, अहंकार जैसा का तैसा रहा तो सब बेकार है। तीर्थयात्रा इसलिए करते थे कि वहां से लोग भावना लेकर आते थे। ईमानदार बन कर आते थे। नेक, सज्जन और शरीफ बन कर आते थे। यज्ञ एक नीति शास्त्र है, भावना है। मां बच्चे को नौ माह पेट में रखती है, अपना खून देती है। मां बच्चे के लिए कितना त्याग और बलिदान करती है? यज्ञ हमारे साथ-साथ पैदा होता है। हमारा जन्म यज्ञ से होता है। आप हाथ से मेहनत करके धन कमाकर लाते हो। हाथ श्रम करता है। हाथ के श्रम से जो पैसा पैदा होता है, उसको वह अपने पास नहीं रखता। वह उस पैसे का अनाज खरीदकर लाता है। भोजन बनाकर हाथ मुंह को देता है। पेट उसे अपने पास नहीं रखता। वह उस भोजन को पचाकर उसका खून बनाकर नाड़ियों को देता है। नाड़ियों द्वारा खून हाथ तक पहुंच जाता है। हाथ को पुनः शक्ति मिल जाती है। आजकल कष्ट, क्लेश दुःख का कारण है—स्वार्थ वृत्ति।
आत्मिक विचार ऊंचे होने चाहिये। परमार्थ का जीवन जीना चाहिये। इसी में शान है। इसी में कल्याण है। हमने गाय का दूध पीया है, मां का दूध पीया है, सब्जियां खायीं, पेड़े और फल खाये हैं। भेड़ों की ऊन का उपयोग किया है। मनुष्य के ऊपर कर्जा ही कर्जा है। हवन के द्वारा हम शिक्षण करते हैं कि हम वितरण करना सीखें। यज्ञीय भावना जीवन में लाओ। आज समाज जल रहा है। संसार में किसी प्रकार का कष्ट नहीं है, सिर्फ बेअकली आ गयी है। इस बेअकली से संसार के चार अरब मनुष्य जल रहे हैं। अरे भागीरथो! इन ज्ञान की गंगा को उन तक ले जाओ, जिससे इन्सान इन्सान की परिभाषा को समझ सके। उल्लास पूर्ण जीवन जीये। शांति का मूल्य समझे। आपको आत्म शांति देने वाली शक्ति का नाम है—गायत्री और यज्ञ। आप आत्मा का कल्याण करना चाहते हो, तो यज्ञीय भावना जीवन में लाओ। आप उन मालाओं को काम में लाओ, जो संयमी, सदाचारी बनाती हैं। यदि आप ऐसा जीवन जी सको, तो परिवार का, समाज का और अपना कल्याण कर सकते हो। यही हमारा संदेश है।