
समय और परिस्थिति के अनुरूप
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(गायत्री तपोभूमि, मथुरा में 9 सितम्बर 1968 को प्रातः दिया गया प्रवचन)
मेरे साथ मंत्र बोलें,
ॐ भूर्भुवः सवः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि
धियो योनः प्रचोदयात् ।
देवियो और भाइयो,
देश, काल और परिस्थिति का ध्यान रखकर जो कार्य नहीं करते हैं, वे बड़ी भूल करते हैं। ऋषि लोग समय को देखकर दिशाओं का निर्धारण करते थे। हम जिस मिशन को लेकर चले हैं और जो काम कर रहे हैं, वह देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप ही कर रहे हैं। सतयुग था, उस समय ऐसी बेईमानी, चोरी नहीं थी। गाय जंगल में छोड़ दी जाती थी। गाय का आधा दूध निकालते थे। आधा दूध बछड़े के लिए छोड़ देते थे। उस जमाने में इतनी बीमारियां भी नहीं थीं। कोई बीमार हो जाये, तो भी घरेलू इलाज से ठीक हो जाता था।
एक बार एक राजा ने एक ग्रामीण क्षेत्र में अस्पताल खुलवा दिया और डाक्टरों की व्यवस्था करा दी। डॉक्टर गांव-गांव जाते और कहते फिरते कि हमारे पास दवायें हैं, इंजेक्शन हैं। दवायें लो, इंजेक्शन लगवा लो, परन्तु किन्तु ने कोई इलाज नहीं करवाया। कुछ दिनों बाद राजा राज्य का निरीक्षण करते हुए वहीं पहुंचा, जहां अस्पताल खुल गया था। डाक्टरों ने राजा से कहा—राजन्! यहां तो कोई इलाज कराने ही नहीं आता। दवाइयां जैसी की तैसी भरी पड़ी हैं। राजा डाक्टरों के साथ घर-घर पूछने गया। लोगों से पूछा—क्या यहां कोई बीमार नहीं होता? लोगों ने उत्तर दिया—यहां कोई बीमार नहीं होता, हम सब कम खाते हैं और अधिक श्रम करते हैं। हमारे अच्छे स्वास्थ्य का यही कारण है। राजा ने वह अस्पताल बन्द कराया और शहरी क्षेत्र में अस्पताल खुलवाया। पहले सब सुखी थे। किसी को कष्ट नहीं थे, तब सेवा की क्या आवश्यकता? इसलिए उस समय लोग भजन किया करते थे। मां-बाप की जिम्मेदारी थी कि बालकों को पढ़ायें-लिखायें और संस्कारवान बनायें, परन्तु वे संस्कारवान नहीं बना सकते थे। ऋषियों ने देखा कि लोग बालकों को पढ़ा-लिखा नहीं सकते हैं। उनको संस्कारवान बनाने पर ध्यान नहीं देते हैं। तब मनीषियों ने सोचा कि अब भजन करने से काम नहीं चलेगा। उन्होंने विद्यालय खोले जिनमें पच्चीस वर्ष तक बालकों को ऋषियों के पास रखा जाता था। वे बालक ऋषि आश्रम में सारी विद्यायें सीखते थे। ऋषियों ने तालमेल बिठाया और दिन भर भजन करते रहना छोड़कर सुबह-शाम भजन करते और दिन भर छात्रों को पढ़ाने, सिखाने और उनके भावनात्मक नवनिर्माण में लगे रहते।
शिक्षा भौतिक प्रयोजन पूरा करती है। भौतिक जीवन में शिक्षा की आवश्यकता होती है। केवल शिक्षा ही दी जाय, तो लोग जीवन का वास्तविक लक्ष्य भी प्राप्त नहीं कर पायेंगे और न ही सुख-शान्ति से रह सकेंगे। हर आदमी ज्ञानवान, सदाचारी, कर्तव्य परायण बने, इसके लिए विद्या की आवश्यकता थी। ऋषियों ने विद्या और शिक्षा दोनों काम अपने हाथ में लिए और समाज की समस्याओं का समाधान निकाला। ज्ञान के अभाव से ही समाज में दोष पैदा हुए। जिस प्रकार शरीर से सारा रक्त निकल जाने पर प्राण निकल जाते हैं, उसी प्रकार चेतना में से ज्ञान निकल जाने पर आदमी निष्प्राण हो जाता है। सिद्धान्तनिष्ठा निकल जाती है। जब समाज में दुःख-कष्ट बढ़ने लगें, तब ऋषियों ने सोचा कि अब सेवा करनी चाहिए। माला घुमाने से काम नहीं चलेगा। जो कर्तव्य छोड़कर माला घुमाते हैं, वह बेकार व्यक्ति हैं। ऋषि उसे कहते हैं, जो समाज का, संस्कृति का दर्द समझता हो। समाज में विकृतियां आयीं तो परशुराम जी ने माला खूंटी पर टांग दी और फरसा उठाया और अनाचारियों, आतताइयों को परास्त किया।
पहले ऋषि समय और परिस्थिति के अनुसार निर्धारण करते थे। ऋषि लकीर नहीं पीटते थे। जैसा समय आया वैसा ही कार्य किया। ऋषियों का काम यही है। समस्या का मूल्यांकन करना और उसका हल निकालना। नालंदा विश्वविद्यालय में सारे विश्व के विद्यार्थी पढ़ने आते थे। चाणक्य स्वयं विद्यालय चलाते थे और वे चंद्रगुप्त के मंत्री भी थे। राज को भी चलाते थे और गुरुकुल को भी।
वशिष्ठ जी रघुवंशियों के कुल गुरु थे। वशिष्ठ जी के बिना राज्य में पत्ता भी नहीं हिलता था। राजा सब काम गुरु से आज्ञा लेकर करते थे। धर्मतंत्र हमेशा राजतन्त्र को निर्देशन देता था। धर्म का अंकुश राजतंत्र पर नहीं रहे तो समाज में भ्रष्टता फैल जाती है।
एक राजकुमार भगवान का भजन कर रहे थे। उनकी आत्मा ने कहा—चल उठ, यह भजन करने का समय नहीं है। चल! काम कर। वे भगवान बुद्ध थे जिन्होंने जीवन भर समाज की विकृतियों को समाप्त करने के लिए काम किया। गुरु गोविन्दसिंह ऐसे गुरु थे, जिन्होंने कहा—माला घुमाने से ही काम नहीं चलेगा। ‘‘एक हाथ में माला और एक हाथ में भाला।’’ का नारा देने वाले गुरु गोविन्दसिंह ने कहा—यही मुक्ति का मार्ग है। हम आपको देश, काल और परिस्थितियों के आधार पर ऋषि-मुनियों के कार्य के बारे में बता रहे हैं। भगवान चापलूस, बेईमान और चोर नहीं है कि तुम्हारी खुशामद से खुश हो जायें। भगवान कर्तव्य परायणों से से खुश होते हैं। गुरु गोविन्दसिंह ने सिखों के माथे पर माला बंधवा दी और कहा—तलवार चलाओ, राष्ट्र की संस्कृति की रक्षा करो। उस समय वही आवश्यक भजन था।
भगवान के भक्तों की एक ही पहचान है, ऋषियों की एक ही पहचान है—वे समय के मुताबिक देश, काल को देखकर कार्य करते हैं और नई दिशा देते रहे हैं। आदिकाल से अब तक कई ऋषि हुए हैं सबने समय के अनुसार कार्य किये। नये कानून बनाये हैं। मनु महाराज पहले ऋषि हैं। सबने समाज की हालत देखकर कार्य पद्धति बनाई है। ऋषि बाल रखने वाले, माला घुमाने वाले, एक पांव पर खड़े होकर जप करने वाले को नहीं कहते। ऋषि की नजर बड़ी तेज और पैनी होती हैं। ऋषि की आंखें दूर-दूर तक देखती हैं। वे दूरदर्शी होते हैं। ऋषि समाज के दोष देखते और उसके मुताबिक ही काम करते हैं और उनका वह कर्तव्य ही भजन होता है। ऋषि समय की नब्ज को जानते हैं और समय के ही मुताबिक पूजा करते हैं। एक समय था जब फरसा का जमाना था लोग उसी से लड़ते और आत्मरक्षा करते थे। फिर तीर-कमान का जमाना आया, गदा का जमाना आया, लेकिन अब जमाना बदल गया है। अब तीर कमान, गदा, फरसे की कोई उपयोगिता नहीं रह गई। इस जमाने के लिए वे सब अस्त्र-शस्त्र बेकार हैं। अब बम का जमाना आ गया है। अब समय की हालत बदल गई है।
हमारे पास बड़े कार्यक्रम हैं। हमने आज भी समस्याओं के निवारण के लिए, आस्था संकट को दूर करने के लिए योजना बनाई है। ईसा मसीह के आदर्श और सिद्धान्त ऊंचे थे, इसलिए वे फलते-फूलते चले गये। रोटी तो हर किसी को मिल जाती है—चूहे, कुत्ते, बिल्ली को भी मिल जाती है। तुम्हारी रोटी की जिम्मेदारी मेरी है। जब चोर भूखे नहीं मर सकते, तो आप भी भूखे नहीं मर सकते। जब टाटा और बाटा अपनी मेहनत, ईमानदारी और लगन से करोड़पति बन सकते हैं, तो आप भी आदर्शवान, ईमानदार बनकर सब कुछ पैदा कर सकते हो। अच्छे आदमी की लोग परिक्रमा किया करते हैं। वानप्रस्थियो! आपको हमने यहां बुलाया था, चान्द्रायण व्रत करने, सवा लाख जप का अनुष्ठान करने, परन्तु इसके साथ आप जो कार्यक्रम लेकर जायेंगे, चलायेंगे, तो आपको सवा लाख के जप से अधिक पुण्य मिलने वाला है। आप लोग जाकर लोगों की पीड़ा समझना, उनके बुरे विचारों को बदलना, उनको उनका लक्ष्य बताना। जिस व्यक्ति के पास लक्ष्य नहीं, विचार नहीं हैं, वह तो उन भेड़ों के समान हैं, जो एक के पीछे एक कुएं में गिर जाती हैं और मर जाती हैं। जब तक स्वार्थ दीखता है, तब तक ही दोस्ती रखना, यह बीमारी तेजी से फैल रही है। सारा समाज मृत्यु के कगार पर बैठा है। सब बस दौलत, दौलत, दौलत में लगे हैं और कुछ दिखाई ही नहीं देता। बताओ ऐसा अन्धा समाज क्या सुख पायेगा?
एक सूर्य सारे अन्धकार को नष्ट कर देता है। यही बात अज्ञान की है। दुराचार की हस्ती की अपेक्षा सदाचार की हस्ती बड़ी है। हम इस बात को क्यों नहीं फैला सकते? एक बीड़ी पीने वाला क्या दूसरे बीड़ी पीने वाले की बीड़ी की आदत को छुड़ा सकता है? बेईमान और झूठे व्यक्ति ज्ञान को नहीं फैला सकते। एक वेश्या हजार लड़कों को दुराचारी बना सकती है क्योंकि वह दुराचार में विश्वास करती है, उसको आचरण में लाती है और समाज की परवाह नहीं करती। बेईमान व्यक्ति जबान से भले ही उपदेश दें, परन्तु वे दूसरों को सुधारने में इसलिए असफल रहते हैं कि वे उन उपदेशों को अपने आचरण में, कार्य रूप में परिणत नहीं करते। आप सब अपने जीवन को आदर्शों में ढाल कर जा रहे हैं। ‘‘खुद को बदलो, जमाना बदल जायेगा’’। समाज को बदलने का मतलब है, समाज के विचारों को बदल डालना। घर, मकान, पेड़-पौधे आदि सब कुछ वैसे ही रहेंगे, आपको तो सिर्फ विचारों को बदलना है।
गाने वाले, जीभ बेचने वालों की क्या कमी है? वे जीभ की नोंक से बोलते हैं और सारा धन ले जाते हैं। आत्मा जानती है, आत्मा को परख है कि क्या वास्तविक है और क्या अवास्तविक है। आप रोटी बनाना नहीं जानते, परन्तु परख सकते हैं कि रोटी कच्ची है या पक्की। अगर हमारे आदर्श ऊंचे हों तो समाज पर अवश्य ही उसकी छाप पड़ेगी। सन्त इब्राहीम का किस्सा आपने सुना होगा। एक सेठ ने उसे नौकर के रूप में आम के बाग की रखवाली के लिए रखा था। एक दिन मालिक बाग देखने आया और नौकर से कहा—एक पका आम मेरे लिए लाओ। वह नौकर एक पका आम ले आया। मालिक ने आम खाया, तो वह खट्टा था। मालिक ने डांटकर कहा—तुम मेरे लिए मीठा आम क्यों नहीं लाये? नौकर ने कहा—मुझे तो बाग की रखवाली के लिए रखा गया था, मुझे क्या अधिकार कि आम खाऊं। मालिक ने कहा—ऐसा ईमानदार आदमी कहां मिलेगा? मालिक ने उसके गुणों की प्रशंसा की और कहा कि तुम यहीं रहो और केवल भजन किया करो। जब लोगों ने मालिक के द्वारा उनकी प्रशंसा सुनी, तो हजारों लोग उसके दर्शनों के लिए आने लगे। अपनी ईमानदारी, निस्पृहता और ज्ञान के कारण वह संत कहलाया। इतिहास में वह संत इब्राहीम के नाम से मशहूर हो गया। लोगों से संत इब्राहीम ने कहा—मैं भीड़ से बचने के लिए यहां आया, परन्तु यह भीड़ यहां भी आ गयी। संत ने कहा—अब मैं जाता हूं, वहां रहूंगा, जहां भीड़ नहीं होगी।
आप भी संत इब्राहीम की तरह महान हो सकते हैं, परन्तु आप अपने विचारों को बदल दें तो! आज की समस्या है अचिन्त्य चिंतन और भ्रष्ट आचरण। आज मन्दिर, धर्मशाला कुआं बनवाने की नहीं, विचारों के परिवर्तन की आवश्यकता है। नारदजी एक जगह नहीं ठहरते थे, निरन्तर घूमते थे। आप भी लोक कल्याण के लिए घर-घर, गांव-गांव जाइये और विचार क्रान्ति का बीज बोइये, खाद-पानी दीजिये, तो आप देखेंगे, एक नया परिवर्तन, आदर्शों पर चलते हुए समाज को, और सर्वत्र सदाचार का वातावरण। मेरी आग! यह पापों को जला देगी। हमारे यह विचार आप ले जाइये। आप देखेंगे कि पाप धूं-धूं करके जल जायेगा। हमारा यह संकल्प अधूरा नहीं रहेगा, जो भी इसमें सहयोगी होगा, वही शक्ति और श्रेय पायेगा।
मेरे साथ मंत्र बोलें,
ॐ भूर्भुवः सवः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि
धियो योनः प्रचोदयात् ।
देवियो और भाइयो,
देश, काल और परिस्थिति का ध्यान रखकर जो कार्य नहीं करते हैं, वे बड़ी भूल करते हैं। ऋषि लोग समय को देखकर दिशाओं का निर्धारण करते थे। हम जिस मिशन को लेकर चले हैं और जो काम कर रहे हैं, वह देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप ही कर रहे हैं। सतयुग था, उस समय ऐसी बेईमानी, चोरी नहीं थी। गाय जंगल में छोड़ दी जाती थी। गाय का आधा दूध निकालते थे। आधा दूध बछड़े के लिए छोड़ देते थे। उस जमाने में इतनी बीमारियां भी नहीं थीं। कोई बीमार हो जाये, तो भी घरेलू इलाज से ठीक हो जाता था।
एक बार एक राजा ने एक ग्रामीण क्षेत्र में अस्पताल खुलवा दिया और डाक्टरों की व्यवस्था करा दी। डॉक्टर गांव-गांव जाते और कहते फिरते कि हमारे पास दवायें हैं, इंजेक्शन हैं। दवायें लो, इंजेक्शन लगवा लो, परन्तु किन्तु ने कोई इलाज नहीं करवाया। कुछ दिनों बाद राजा राज्य का निरीक्षण करते हुए वहीं पहुंचा, जहां अस्पताल खुल गया था। डाक्टरों ने राजा से कहा—राजन्! यहां तो कोई इलाज कराने ही नहीं आता। दवाइयां जैसी की तैसी भरी पड़ी हैं। राजा डाक्टरों के साथ घर-घर पूछने गया। लोगों से पूछा—क्या यहां कोई बीमार नहीं होता? लोगों ने उत्तर दिया—यहां कोई बीमार नहीं होता, हम सब कम खाते हैं और अधिक श्रम करते हैं। हमारे अच्छे स्वास्थ्य का यही कारण है। राजा ने वह अस्पताल बन्द कराया और शहरी क्षेत्र में अस्पताल खुलवाया। पहले सब सुखी थे। किसी को कष्ट नहीं थे, तब सेवा की क्या आवश्यकता? इसलिए उस समय लोग भजन किया करते थे। मां-बाप की जिम्मेदारी थी कि बालकों को पढ़ायें-लिखायें और संस्कारवान बनायें, परन्तु वे संस्कारवान नहीं बना सकते थे। ऋषियों ने देखा कि लोग बालकों को पढ़ा-लिखा नहीं सकते हैं। उनको संस्कारवान बनाने पर ध्यान नहीं देते हैं। तब मनीषियों ने सोचा कि अब भजन करने से काम नहीं चलेगा। उन्होंने विद्यालय खोले जिनमें पच्चीस वर्ष तक बालकों को ऋषियों के पास रखा जाता था। वे बालक ऋषि आश्रम में सारी विद्यायें सीखते थे। ऋषियों ने तालमेल बिठाया और दिन भर भजन करते रहना छोड़कर सुबह-शाम भजन करते और दिन भर छात्रों को पढ़ाने, सिखाने और उनके भावनात्मक नवनिर्माण में लगे रहते।
शिक्षा भौतिक प्रयोजन पूरा करती है। भौतिक जीवन में शिक्षा की आवश्यकता होती है। केवल शिक्षा ही दी जाय, तो लोग जीवन का वास्तविक लक्ष्य भी प्राप्त नहीं कर पायेंगे और न ही सुख-शान्ति से रह सकेंगे। हर आदमी ज्ञानवान, सदाचारी, कर्तव्य परायण बने, इसके लिए विद्या की आवश्यकता थी। ऋषियों ने विद्या और शिक्षा दोनों काम अपने हाथ में लिए और समाज की समस्याओं का समाधान निकाला। ज्ञान के अभाव से ही समाज में दोष पैदा हुए। जिस प्रकार शरीर से सारा रक्त निकल जाने पर प्राण निकल जाते हैं, उसी प्रकार चेतना में से ज्ञान निकल जाने पर आदमी निष्प्राण हो जाता है। सिद्धान्तनिष्ठा निकल जाती है। जब समाज में दुःख-कष्ट बढ़ने लगें, तब ऋषियों ने सोचा कि अब सेवा करनी चाहिए। माला घुमाने से काम नहीं चलेगा। जो कर्तव्य छोड़कर माला घुमाते हैं, वह बेकार व्यक्ति हैं। ऋषि उसे कहते हैं, जो समाज का, संस्कृति का दर्द समझता हो। समाज में विकृतियां आयीं तो परशुराम जी ने माला खूंटी पर टांग दी और फरसा उठाया और अनाचारियों, आतताइयों को परास्त किया।
पहले ऋषि समय और परिस्थिति के अनुसार निर्धारण करते थे। ऋषि लकीर नहीं पीटते थे। जैसा समय आया वैसा ही कार्य किया। ऋषियों का काम यही है। समस्या का मूल्यांकन करना और उसका हल निकालना। नालंदा विश्वविद्यालय में सारे विश्व के विद्यार्थी पढ़ने आते थे। चाणक्य स्वयं विद्यालय चलाते थे और वे चंद्रगुप्त के मंत्री भी थे। राज को भी चलाते थे और गुरुकुल को भी।
वशिष्ठ जी रघुवंशियों के कुल गुरु थे। वशिष्ठ जी के बिना राज्य में पत्ता भी नहीं हिलता था। राजा सब काम गुरु से आज्ञा लेकर करते थे। धर्मतंत्र हमेशा राजतन्त्र को निर्देशन देता था। धर्म का अंकुश राजतंत्र पर नहीं रहे तो समाज में भ्रष्टता फैल जाती है।
एक राजकुमार भगवान का भजन कर रहे थे। उनकी आत्मा ने कहा—चल उठ, यह भजन करने का समय नहीं है। चल! काम कर। वे भगवान बुद्ध थे जिन्होंने जीवन भर समाज की विकृतियों को समाप्त करने के लिए काम किया। गुरु गोविन्दसिंह ऐसे गुरु थे, जिन्होंने कहा—माला घुमाने से ही काम नहीं चलेगा। ‘‘एक हाथ में माला और एक हाथ में भाला।’’ का नारा देने वाले गुरु गोविन्दसिंह ने कहा—यही मुक्ति का मार्ग है। हम आपको देश, काल और परिस्थितियों के आधार पर ऋषि-मुनियों के कार्य के बारे में बता रहे हैं। भगवान चापलूस, बेईमान और चोर नहीं है कि तुम्हारी खुशामद से खुश हो जायें। भगवान कर्तव्य परायणों से से खुश होते हैं। गुरु गोविन्दसिंह ने सिखों के माथे पर माला बंधवा दी और कहा—तलवार चलाओ, राष्ट्र की संस्कृति की रक्षा करो। उस समय वही आवश्यक भजन था।
भगवान के भक्तों की एक ही पहचान है, ऋषियों की एक ही पहचान है—वे समय के मुताबिक देश, काल को देखकर कार्य करते हैं और नई दिशा देते रहे हैं। आदिकाल से अब तक कई ऋषि हुए हैं सबने समय के अनुसार कार्य किये। नये कानून बनाये हैं। मनु महाराज पहले ऋषि हैं। सबने समाज की हालत देखकर कार्य पद्धति बनाई है। ऋषि बाल रखने वाले, माला घुमाने वाले, एक पांव पर खड़े होकर जप करने वाले को नहीं कहते। ऋषि की नजर बड़ी तेज और पैनी होती हैं। ऋषि की आंखें दूर-दूर तक देखती हैं। वे दूरदर्शी होते हैं। ऋषि समाज के दोष देखते और उसके मुताबिक ही काम करते हैं और उनका वह कर्तव्य ही भजन होता है। ऋषि समय की नब्ज को जानते हैं और समय के ही मुताबिक पूजा करते हैं। एक समय था जब फरसा का जमाना था लोग उसी से लड़ते और आत्मरक्षा करते थे। फिर तीर-कमान का जमाना आया, गदा का जमाना आया, लेकिन अब जमाना बदल गया है। अब तीर कमान, गदा, फरसे की कोई उपयोगिता नहीं रह गई। इस जमाने के लिए वे सब अस्त्र-शस्त्र बेकार हैं। अब बम का जमाना आ गया है। अब समय की हालत बदल गई है।
हमारे पास बड़े कार्यक्रम हैं। हमने आज भी समस्याओं के निवारण के लिए, आस्था संकट को दूर करने के लिए योजना बनाई है। ईसा मसीह के आदर्श और सिद्धान्त ऊंचे थे, इसलिए वे फलते-फूलते चले गये। रोटी तो हर किसी को मिल जाती है—चूहे, कुत्ते, बिल्ली को भी मिल जाती है। तुम्हारी रोटी की जिम्मेदारी मेरी है। जब चोर भूखे नहीं मर सकते, तो आप भी भूखे नहीं मर सकते। जब टाटा और बाटा अपनी मेहनत, ईमानदारी और लगन से करोड़पति बन सकते हैं, तो आप भी आदर्शवान, ईमानदार बनकर सब कुछ पैदा कर सकते हो। अच्छे आदमी की लोग परिक्रमा किया करते हैं। वानप्रस्थियो! आपको हमने यहां बुलाया था, चान्द्रायण व्रत करने, सवा लाख जप का अनुष्ठान करने, परन्तु इसके साथ आप जो कार्यक्रम लेकर जायेंगे, चलायेंगे, तो आपको सवा लाख के जप से अधिक पुण्य मिलने वाला है। आप लोग जाकर लोगों की पीड़ा समझना, उनके बुरे विचारों को बदलना, उनको उनका लक्ष्य बताना। जिस व्यक्ति के पास लक्ष्य नहीं, विचार नहीं हैं, वह तो उन भेड़ों के समान हैं, जो एक के पीछे एक कुएं में गिर जाती हैं और मर जाती हैं। जब तक स्वार्थ दीखता है, तब तक ही दोस्ती रखना, यह बीमारी तेजी से फैल रही है। सारा समाज मृत्यु के कगार पर बैठा है। सब बस दौलत, दौलत, दौलत में लगे हैं और कुछ दिखाई ही नहीं देता। बताओ ऐसा अन्धा समाज क्या सुख पायेगा?
एक सूर्य सारे अन्धकार को नष्ट कर देता है। यही बात अज्ञान की है। दुराचार की हस्ती की अपेक्षा सदाचार की हस्ती बड़ी है। हम इस बात को क्यों नहीं फैला सकते? एक बीड़ी पीने वाला क्या दूसरे बीड़ी पीने वाले की बीड़ी की आदत को छुड़ा सकता है? बेईमान और झूठे व्यक्ति ज्ञान को नहीं फैला सकते। एक वेश्या हजार लड़कों को दुराचारी बना सकती है क्योंकि वह दुराचार में विश्वास करती है, उसको आचरण में लाती है और समाज की परवाह नहीं करती। बेईमान व्यक्ति जबान से भले ही उपदेश दें, परन्तु वे दूसरों को सुधारने में इसलिए असफल रहते हैं कि वे उन उपदेशों को अपने आचरण में, कार्य रूप में परिणत नहीं करते। आप सब अपने जीवन को आदर्शों में ढाल कर जा रहे हैं। ‘‘खुद को बदलो, जमाना बदल जायेगा’’। समाज को बदलने का मतलब है, समाज के विचारों को बदल डालना। घर, मकान, पेड़-पौधे आदि सब कुछ वैसे ही रहेंगे, आपको तो सिर्फ विचारों को बदलना है।
गाने वाले, जीभ बेचने वालों की क्या कमी है? वे जीभ की नोंक से बोलते हैं और सारा धन ले जाते हैं। आत्मा जानती है, आत्मा को परख है कि क्या वास्तविक है और क्या अवास्तविक है। आप रोटी बनाना नहीं जानते, परन्तु परख सकते हैं कि रोटी कच्ची है या पक्की। अगर हमारे आदर्श ऊंचे हों तो समाज पर अवश्य ही उसकी छाप पड़ेगी। सन्त इब्राहीम का किस्सा आपने सुना होगा। एक सेठ ने उसे नौकर के रूप में आम के बाग की रखवाली के लिए रखा था। एक दिन मालिक बाग देखने आया और नौकर से कहा—एक पका आम मेरे लिए लाओ। वह नौकर एक पका आम ले आया। मालिक ने आम खाया, तो वह खट्टा था। मालिक ने डांटकर कहा—तुम मेरे लिए मीठा आम क्यों नहीं लाये? नौकर ने कहा—मुझे तो बाग की रखवाली के लिए रखा गया था, मुझे क्या अधिकार कि आम खाऊं। मालिक ने कहा—ऐसा ईमानदार आदमी कहां मिलेगा? मालिक ने उसके गुणों की प्रशंसा की और कहा कि तुम यहीं रहो और केवल भजन किया करो। जब लोगों ने मालिक के द्वारा उनकी प्रशंसा सुनी, तो हजारों लोग उसके दर्शनों के लिए आने लगे। अपनी ईमानदारी, निस्पृहता और ज्ञान के कारण वह संत कहलाया। इतिहास में वह संत इब्राहीम के नाम से मशहूर हो गया। लोगों से संत इब्राहीम ने कहा—मैं भीड़ से बचने के लिए यहां आया, परन्तु यह भीड़ यहां भी आ गयी। संत ने कहा—अब मैं जाता हूं, वहां रहूंगा, जहां भीड़ नहीं होगी।
आप भी संत इब्राहीम की तरह महान हो सकते हैं, परन्तु आप अपने विचारों को बदल दें तो! आज की समस्या है अचिन्त्य चिंतन और भ्रष्ट आचरण। आज मन्दिर, धर्मशाला कुआं बनवाने की नहीं, विचारों के परिवर्तन की आवश्यकता है। नारदजी एक जगह नहीं ठहरते थे, निरन्तर घूमते थे। आप भी लोक कल्याण के लिए घर-घर, गांव-गांव जाइये और विचार क्रान्ति का बीज बोइये, खाद-पानी दीजिये, तो आप देखेंगे, एक नया परिवर्तन, आदर्शों पर चलते हुए समाज को, और सर्वत्र सदाचार का वातावरण। मेरी आग! यह पापों को जला देगी। हमारे यह विचार आप ले जाइये। आप देखेंगे कि पाप धूं-धूं करके जल जायेगा। हमारा यह संकल्प अधूरा नहीं रहेगा, जो भी इसमें सहयोगी होगा, वही शक्ति और श्रेय पायेगा।