
अध्यात्म को ग्रहण करने की तैयारी
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(गायत्री तपोभूमि, मथुरा में 14 सितम्बर 1968 को प्रातः दिया गया प्रवचन)
देवियो और भाइयो,
प्रातः घूमने-टहलने, व्यायाम करने से शरीर स्वस्थ रहता है। निरोग रहता है, लेकिन सिर्फ निरोग और स्वस्थ ही रहता है, उससे शरीर बलवान नहीं बन जाता। शरीर को बलवान बनाने के लिए व्यायामशाला में जाना पड़ता है। आध्यात्मिक शक्ति अर्जित करने के लिए विशेष उपासना करनी पड़ती है। यहां आप भी वही प्रयोग कर रहे हैं। बन्दूक से शिकार तभी मारा जा सकता है, जब आप बन्दूक चलाना जानते हों। अगर आप ठीक प्रकार से बन्दूक चलाना नहीं जानते तो आपको धक्का लगेगा और आप गिर पड़ेंगे। अगर आप बन्दूक चलाना जानते भी हैं और आपका मन ठीक नहीं है तो आपका निशाना दूसरी जगह लग जायेगा। उपासना का भी ठीक यही हाल है। मुझे भी मेरे गुरु ने ऐसी ही कड़ी तपस्या करने के लिए कहा था। बड़ा वजन उठाने के लिए बड़ी क्रेन की आवश्यकता होती है। छोटी क्रेन से रेलगाड़ी का पटरी से उतरा डिब्बा पटरी पर नहीं चढ़ाया जा सकता। मुझे भी बड़ी जिम्मेदारी निभाने के लिए बड़ी तपस्या का रास्ता मेरे गुरु ने बताया। सिद्धान्त दोनों के एक ही हैं। जिस प्रकार बड़ी घड़ी और छोटी घड़ी के सिद्धान्त एक ही हैं।
मैंने बड़े पुरश्चरण किये। आप छोटे पुरश्चरण कर रहे हैं। सिद्धान्त दोनों के एक ही हैं। मैं अपने जीवन के अनुभव सुनाऊंगा। उद्देश्य यह है कि आप गलती कर रहे हों, भूल कर रहे हों, तो सुधार लें। मैंने भी भूलें की थीं, सुधार लीं। आप भी उसी प्रकार सुधारें। मैं पन्द्रह वर्ष का छोटा-सा बालक था। मेरे पिता श्रीमद् भागवत के प्रकाण्ड विद्वान थे। मैंने उनसे कुछ संस्कृत सीख ली थी। मैं नियमित गायत्री उपासना करता था। बसंत पंचमी का दिन था। मैं उपासना कर रहा था। अचानक पूजा की कोठरी में मुझे एक प्रकाश पुंज दिखाई दिया। उस प्रकाश पुंज में मनुष्य जैसी परछांई दिखाई दी। मैंने आंखें मलकर देखीं, तो उसमें एक मनुष्य दिखाई दिया। मैं भय से कांपने लगा। मैंने समझा कि कोई भूत-प्रेत है। तब उस मनुष्य ने मेरा भय दूर करने के लिए आंखें बन्द करने के लिए कहा। मैंने आंखें बन्द कीं, उन्होंने मुझे मेरे पिछले तीन जन्मों को दिखाया और बतलाया कि वे पिछले तीन जन्मों से मेरे गुरु रहे हैं। मैंने उनको प्रणाम किया और कहा—मेरा भय अब दूर हो गया है और गुरु ने हमें कहा—अब तेरा दूसरा जन्म हो गया है। अब तुझे क्या करना है? यह बताने आया हूं। रास्ता दिखाने आया हूं। तुम्हारा जीवन असामान्य मनुष्य का जीवन है। सामान्य और असामान्य मनुष्य शरीर रचना की दृष्टि से तो एक जैसे ही होते हैं। कान, नाक, आंख सब एक जैसे होते हैं, परन्तु लक्ष्य सबका एक जैसा नहीं होता। छोटे आदमी की कामनायें, विचारणायें छोटे दायरे में घूमती हैं और वे पेट पालने और बच्चे पैदा करने की पशु-पक्षी जैसी जिन्दगी तक ही सीमित रहते हैं। जिनके जीवन में मात्र पेट-प्रजनन ही है, वे नर-पशु हैं। सामान्य मनुष्य के जीवन में ये दो ही भूख होती हैं, परन्तु असामान्य मनुष्य की भूख कुछ दूसरी ही होती है। असामान्य मनुष्य का लक्ष्य महान होता है। उसके विचार महान होते हैं। आदमी काम करता तो बड़प्पन के लिए है, परन्तु मुझे तुमको महापुरुष बनाना है। इसीलिए यहां तुम्हें बुलाया है। मैंने अपने जीवन में समय को बहुत प्यार किया है। भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण और भरत को बहुत प्यार किया करते थे, परन्तु मैंने अपने भाई समय को बहुत प्यार किया है। यह घड़ी मेरे हाथों में रहती है। यह मेरी सहधर्मिणी है। मैंने समय को समझा, उसका सदुपयोग किया। जिस प्रकार मैंने समय से प्यार किया है। आप भी समय से प्यार करें। आप समय को बर्बाद न करें।
मैंने जीवन के अनुभवों से निष्कर्ष निकाला है कि हमें क्या करना चाहिए? महान व्यक्ति बनना चाहिए। हम आत्मशक्ति अर्जित करें, आत्मबल अर्जित करें। आत्मबल रहा तो सारे बल मिल जाते हैं। महापुरुष आत्मबल के धनी होते हैं। धन से केवल मकान, शारीरिक सुख की वस्तुओं की पूर्ति होती है। धन एक शक्ति है लेकिन इस शक्ति से भी बड़ी एक और शक्ति है, वह है—आत्मबल। आत्मबल से सब कुछ मिल सकता है। संसार की सारी चीजें आत्मबल से मिल जाती हैं। जिसकी आत्मा बलवान है, वह मल्लाह की तरह दूसरों को भी नाव में बिठाकर पार लगा सकता है। जीवन के सिद्धान्तों को आचरण में उतारते चले जाइये।
मुझे मेरे गुरु ने आत्मबल दिया और मैं भी आपको आत्मबल देना चाहता हूं। जो व्यक्ति स्वयं सही रास्ते पर चले, साथ ही औरों को भी सही रास्ते पर चलाये वह सौभाग्यशाली है। हमारे गुरु ने कहा—भगवान का नाम तो लेना चाहिए, परन्तु उसके साथ तप भी जोड़ना चाहिए। भजन और तप दोनों होना चाहिए। इन दोनों का जोड़ा है। हमारे गुरु हमसे कह रहे हैं और मैं आपसे कह रहा हूं। सिद्धान्त एक है। जिस उपासना में तपस्या नहीं वह प्राणहीन उपासना है। केवल उपासना ही भला नहीं कर सकती। आपने देखा है, कारतूस कितना बड़ा काम कर देते हैं। शेर को कारतूस से मार दिया जाता है, दुश्मन को कारतूस से मार दिया जाता है, परन्तु बिना बन्दूक के कारतूस यह कमाल नहीं दिखा सकता। कारतूस और बन्दूक दोनों का जोड़ा है। बगैर बन्दूक के कारतूस से आप शिकार मार सकते हैं क्या? आपको हम एक कारतूस की पेटी दे दें, तो क्या आप फेंककर शेर का शिकार कर लेंगे? नहीं। उपासना कारतूस है और तपश्चर्या बन्दूक। मैं इस भ्रम को दूर करना चाहता हूं। जैसे मेरे गुरु ने मेरे भ्रम को दूर किया था। मेरे गुरु ने कहा—राम, कृष्ण, अल्लाह का नाम ही पर्याप्त नहीं है। इसके साथ तपश्चर्या भी करनी पड़ती है। इसके लिए बन्दूक की आवश्यकता है। कारतूस और बन्दूक ठीक है तो वह शेर का शिकार कर देगी। आप काठ की बन्दूक, जिससे बच्चे खेलते हैं, उससे शेर पर निशाना लगायेंगे तो शेर नहीं मर सकता। उसके लिए तो असली बन्दूक ही चाहिए। आप कीमती वस्तु खरीदने जायेंगे तो उसकी आपको पूरी कीमत देनी होगी। कम कीमत में कीमती वस्तु नहीं मिलेगी। हमको भी भगवान से कुछ पाने के लिए कीमत चुकानी पड़ती है।
छोटे बालक आम की डाली तोड़कर ले आते हैं और मिट्टी में गाढ़कर बगीचा लगा देते हैं। बच्चे कहते हैं, यह हमारा बगीचा है और शाम को बच्चा बगीचा बिगाड़ देता है। यह बालकपन ही है कि हम भगवान से बिना मेहनत के लेना ही लेना चाहते हैं। आपको अच्छा बगीचा लगाना है तो पौधे लगाकर खाद-पानी, निराई-गुड़ाई करनी पड़ेगी। दस वर्ष इंतजार भी करना पड़ेगा। कम कीमत में कोई चीज नहीं खरीदी जा सकती। मुझे मेरे गुरु ने तपश्चर्या भी लम्बी अवधि की बताई। जौ की रोटी खाना और छाछ पीना बताया। चौबीस वर्ष तक घी, दूध, मिठाई, अचार सब बन्द। मैं चौबीस वर्ष तक तपस्या करता रहा। मेरे मन में एक सन्देह बना रहा, जो आपके मन में भी होगा। मेरा संदेह था कि बहुत से लोग पूजा-पाठ करते हैं, पर उन्हें अच्छा जीवन जीते देखा जाता है जो पूजा-पाठ नहीं करते। जो पूजा-पाठ करते हैं उनके दांये-बांये कुछ नहीं रहता। मोटर गाड़ी, सम्मान आदि इनको कहां मिलता है? मैं हर बात को परखता हूं कि इसमें सत्यता है या नहीं। मुझे गुरु ने सतहत्तर माला नित्य जपने को कहा—कोठरी में अपने आप अकेले जुआ खेलता रहा। बाल सफेद हो गये, परन्तु मेरा सन्देह जिन्दा है। मैंने कहा—हिन्दुस्तान में छप्पन लाख बाबा हैं, जो भजन के नाम पर जिन्दा हैं, जो भगवान का भोग खाते हैं, हाथ-पांव से काम नहीं करते हैं। भगवान की कमाई खाते हैं। यदि इतने लोग काम करते, इतनी जनशक्ति काम करती तो हिन्दुस्तान की यह हालत नहीं रहती। यही आपके मन में भी होगा। मेरा सन्देह दूर करने चालीस वर्ष की उम्र में फिर वही गुरु आये। उन्होंने कहा—बेटा! तुम्हारा तप पूरा हुआ। आदमी सब कुछ करता है, पर भगवान का काम नहीं करता। तुम्हें भगवान का काम करना है। समाज के उलटे प्रवाह को मोड़कर सीधा करना है। मानवता की रक्षा करनी है।
लोग हमसे शिकायत करते हैं कि हम इतने दिनों से साधना करते आ रहे हैं, हमें तो कुछ नहीं मिला? आपने साधना की? नहीं। आप बीड़ी से प्यार करते हैं? यदि आप उतना प्यार गायत्री माता से करते, तो आनन्द आ जाता। आप तो चाहते हैं कि आज जप किया और फिर भी हमें बेटा नहीं मिला, मकान नहीं मिला, शादी नहीं हुई, हमारा तो कोई काम नहीं हुआ, बस दूसरे दिन माला उठाकर अलग रख देते हैं। सारा विवेक, श्रद्धा सब खो दिया है। कर्तव्य के प्रति ध्यान नहीं दिया तो आपको कैसे भगवान मिलेगा। हमने चौबीस वर्ष तक नमक-मिर्च, मिठाई, खीर तक नहीं खाई। मेरे मन में ऐसा अनुभव हुआ, विश्वास हुआ कि मैं व्यक्त नहीं कर सकता। मुझे रात में हनुमानजी, गायत्री माता ने दर्शन नहीं दिये। मुझे अब तक यकीन था कि भागवत की कथा सुनने से कल्याण हो जाता है, वह यकीन चला गया। मैं आप लोगों को कथा सुनने के लिए नहीं बुलाता हूं। मैं तो जिस प्रकार कोई मल्लाह अपने बच्चों को नाव चलाना सिखाता है उसी प्रकार मैं भी अपने बालकों को जीवन की नैया चलाना सिखाऊंगा। खजूर का बीज एक वर्ष में उगता है, तो खजूर के पेड़ की उम्र भी लम्बी होती है। परन्तु फूल के पौधे इत्यादि थोड़े समय में पैदा होते हैं और कुछ दिनों में नष्ट हो जाते हैं। जो मैंने जीवन भर सीखा वह बताऊंगा वह टिकाऊ होगा।
पार्वतीजी शंकर भगवान से विवाह करना चाहती थीं। शंकर जी ने उसके अन्दर धैर्य है या नहीं इसकी परीक्षा लेने के लिए ऋषियों को भेजा। ऋषियों ने पार्वतीजी से कहा—बेटी! तुम शंकर भगवान से शादी करने के लिए तप कर रही हो, परन्तु शंकर जी ने कामदेव को भस्म कर दिया है और हजारों वर्ष के लिए समाधि लगाई है। तब तक तो तुम बूढ़ी हो जाओगी। लोग तुम्हारी हंसी करेंगे कि देखो! बुढ़िया को क्या सूझ रही है। चला तो जाता नहीं है और विवाह कर रही है। पार्वतीजी ने कहा—हम हजार तो क्या करोड़ों वर्ष तक तप करेंगे। ऋषियों ने कहा—तुम्हारी शादी विष्णु भगवान से करा दें? पार्वती जी ने कहा—नहीं! मैं तो शंकर भगवान से ही शादी करूंगी। अध्यात्मवादी ऐसा ही होता है। जल्दबाजी ठीक नहीं होती। आप यह मत समझो कि पांच माला जपने और पांच आने का प्रसाद बांटने से भगवान खुश हो जायेंगे। इससे भगवान खुश नहीं होते।
बालकों को आप मिठाई दे दो तो वह आप जैसा कहेंगे, वैसा ही करेंगे। क्या आपने भगवान को नाबालिग समझ रखा है? आप असली अध्यात्म को अपनाएं। नकली अध्यात्म को छोड़ें। आप नकली अध्यात्म पर चलते हैं, इससे अच्छा तो नास्तिक बनना है। आप जो उपासना करते हैं उसमें श्रद्धा नहीं है, मनोयोग नहीं है, यह भी कोई उपासना है, आप तो मखौल करना चाहते हैं। हमने भजन तो इतना किया, परन्तु भगवान ने हमको कुछ नहीं दिया। आप अपने विचारों को नया मोड़ दें। छोटी कीमत पर छोटी चीजें ही मिलती हैं। बड़ी चीजें बड़ी कीमत देकर खरीदी जाती हैं। मैं तीन जन्मों से गायत्री की उपासना में लगा हूं। ढाई सौ वर्ष से यही उपासना करता आ रहा हूं। आदमी को धैर्यवान होना चाहिए। पेड़ में फल आने से पूर्व फूल आते हैं। भगवान हमेशा मनुष्यों के धैर्य, कर्म एवं व्यवहार को परखता रहता है।
आप शंकर भगवान पर पानी का घड़ा नहाने के लिए रख देते हैं, परन्तु साबुन का, कपड़े का इन्तजाम नहीं करते। चेला चौबीसों घण्टे पानी की ही बात करता है और बेलपत्र चढ़ाता रहता है और शंकर भगवान से कहता है—बेलपत्र खा लो। उसको शंकर भगवान के दिल दिमाग का पता नहीं है। वह समझता है, शंकर भगवान बेअकल हैं। भांग-गांजा पीकर नशे में पड़े रहते हैं। शंकरजी, गणेशजी, हनुमानजी का दिल-दिमाग नहीं है, ऐसा समझ रखा है, परन्तु ऐसा है नहीं। हनुमानजी, गायत्री माता, शंकरजी को खुश करना चाहते हो तो बाह्य क्रियाकलाप बेकार हैं। भगवान को खुश करने के लिए आन्तरिक उत्कृष्टता का, तपश्चर्या का सहारा लेना पड़ेगा। तपश्चर्या का मतलब धूप में खड़े रहना, भूखों मरना नहीं है। तपश्चर्या का मतलब है, अपनी आत्मा का निरीक्षण करें और एक-एक मिनट का हिसाब रखें। आत्मा के बावत आपने जीवन के बहीखाते को कब देखा? यदि देखा होता तो हमारे क्रियाकलाप अलग होते।
चौबीस वर्ष तक हमारा फूल खिलता रहा, अब फल आया है। आपको अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। मैंने आपको रिश्तेदार की तरह बुलाया है। आपको खास काम के लिए बुलाया है। आप सब यहां आये, आपको यहां से खाली हाथ नहीं जाने दूंगा। आपको ज्यादा कीमती चीज देकर भेजूंगा। आपका दृष्टिकोण पाशविक न होकर मानवीय होना चाहिए। भगवान ने बच्चा पैदा करने और रोटी खाने के लिए हमें यहां नहीं भेजा है। यदि भगवान का यही उद्देश्य होता, तो केंचुआ जैसा बनाकर पटक देता। सांप-बिच्छु बना देता। मनुष्य बनाने में इतना परिश्रम क्यों करता? हमारे मस्तिष्क की क्षमता असीम है। हम अपनी क्षमता जागृत कहां कर पाते हैं? अब तक हमारे मस्तिष्क की केवल सात प्रतिशत शक्ति को हमने जाना, उपयोग किया है। त्रानवे प्रतिशत शक्ति प्रसुप्त है। मनुष्य की देह बनाने में, दिमाग बनाने में भगवान ने कितना परिश्रम किया होगा। दिमाग जैसा कम्प्यूटर दुनिया में आज तक नहीं बना है। आंखों के समान लैंस आज तक दुनिया में नहीं बना। कितना परिश्रम करना पड़ा है आपके जीवन के लिए। विचार करना पड़ेगा। आदमी शरीर नहीं आत्मा है। आपके अन्दर एक नई जागृति एक नई दिशा नहीं आयेगी तो आप अध्यात्मवादी नहीं कहलायेंगे। जब तक ऊंची आकांक्षा की इच्छा नहीं होगी, तब तक मनुष्य पशु बना रहेगा। मैंने इस जीवन की दिशाओं को बदला है। जो संसार की आंखों में बेवकूफ है वही सच्चा अध्यात्मवादी है। अध्यात्म की मंजिल अकेला आदमी पूरी नहीं कर सकता, उसको सहारे की आवश्यकता होती है। जब मैं हिमालय गया था तो मेरे साथ एक लाठी थी, अगर लाठी मुझसे छीन ली गयी होती तो मैं ऊपर नहीं चढ़ सकता था। मंजिल पर चढ़ने के लिए सीढ़ी की आवश्यकता होती है। आध्यात्मिक प्रगति के लिए भी एक मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है। हमारे गुरु ने हमारी इसी तरह की सहायता की है, जिस प्रकार बाप-बेटे को पढ़ाता है। उनके गुरु ने उनकी सहायता की होगी और आपका गुरु आपकी सहायता करेगा। यह परम्परा चली आ रही है।
देवियो और भाइयो,
प्रातः घूमने-टहलने, व्यायाम करने से शरीर स्वस्थ रहता है। निरोग रहता है, लेकिन सिर्फ निरोग और स्वस्थ ही रहता है, उससे शरीर बलवान नहीं बन जाता। शरीर को बलवान बनाने के लिए व्यायामशाला में जाना पड़ता है। आध्यात्मिक शक्ति अर्जित करने के लिए विशेष उपासना करनी पड़ती है। यहां आप भी वही प्रयोग कर रहे हैं। बन्दूक से शिकार तभी मारा जा सकता है, जब आप बन्दूक चलाना जानते हों। अगर आप ठीक प्रकार से बन्दूक चलाना नहीं जानते तो आपको धक्का लगेगा और आप गिर पड़ेंगे। अगर आप बन्दूक चलाना जानते भी हैं और आपका मन ठीक नहीं है तो आपका निशाना दूसरी जगह लग जायेगा। उपासना का भी ठीक यही हाल है। मुझे भी मेरे गुरु ने ऐसी ही कड़ी तपस्या करने के लिए कहा था। बड़ा वजन उठाने के लिए बड़ी क्रेन की आवश्यकता होती है। छोटी क्रेन से रेलगाड़ी का पटरी से उतरा डिब्बा पटरी पर नहीं चढ़ाया जा सकता। मुझे भी बड़ी जिम्मेदारी निभाने के लिए बड़ी तपस्या का रास्ता मेरे गुरु ने बताया। सिद्धान्त दोनों के एक ही हैं। जिस प्रकार बड़ी घड़ी और छोटी घड़ी के सिद्धान्त एक ही हैं।
मैंने बड़े पुरश्चरण किये। आप छोटे पुरश्चरण कर रहे हैं। सिद्धान्त दोनों के एक ही हैं। मैं अपने जीवन के अनुभव सुनाऊंगा। उद्देश्य यह है कि आप गलती कर रहे हों, भूल कर रहे हों, तो सुधार लें। मैंने भी भूलें की थीं, सुधार लीं। आप भी उसी प्रकार सुधारें। मैं पन्द्रह वर्ष का छोटा-सा बालक था। मेरे पिता श्रीमद् भागवत के प्रकाण्ड विद्वान थे। मैंने उनसे कुछ संस्कृत सीख ली थी। मैं नियमित गायत्री उपासना करता था। बसंत पंचमी का दिन था। मैं उपासना कर रहा था। अचानक पूजा की कोठरी में मुझे एक प्रकाश पुंज दिखाई दिया। उस प्रकाश पुंज में मनुष्य जैसी परछांई दिखाई दी। मैंने आंखें मलकर देखीं, तो उसमें एक मनुष्य दिखाई दिया। मैं भय से कांपने लगा। मैंने समझा कि कोई भूत-प्रेत है। तब उस मनुष्य ने मेरा भय दूर करने के लिए आंखें बन्द करने के लिए कहा। मैंने आंखें बन्द कीं, उन्होंने मुझे मेरे पिछले तीन जन्मों को दिखाया और बतलाया कि वे पिछले तीन जन्मों से मेरे गुरु रहे हैं। मैंने उनको प्रणाम किया और कहा—मेरा भय अब दूर हो गया है और गुरु ने हमें कहा—अब तेरा दूसरा जन्म हो गया है। अब तुझे क्या करना है? यह बताने आया हूं। रास्ता दिखाने आया हूं। तुम्हारा जीवन असामान्य मनुष्य का जीवन है। सामान्य और असामान्य मनुष्य शरीर रचना की दृष्टि से तो एक जैसे ही होते हैं। कान, नाक, आंख सब एक जैसे होते हैं, परन्तु लक्ष्य सबका एक जैसा नहीं होता। छोटे आदमी की कामनायें, विचारणायें छोटे दायरे में घूमती हैं और वे पेट पालने और बच्चे पैदा करने की पशु-पक्षी जैसी जिन्दगी तक ही सीमित रहते हैं। जिनके जीवन में मात्र पेट-प्रजनन ही है, वे नर-पशु हैं। सामान्य मनुष्य के जीवन में ये दो ही भूख होती हैं, परन्तु असामान्य मनुष्य की भूख कुछ दूसरी ही होती है। असामान्य मनुष्य का लक्ष्य महान होता है। उसके विचार महान होते हैं। आदमी काम करता तो बड़प्पन के लिए है, परन्तु मुझे तुमको महापुरुष बनाना है। इसीलिए यहां तुम्हें बुलाया है। मैंने अपने जीवन में समय को बहुत प्यार किया है। भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण और भरत को बहुत प्यार किया करते थे, परन्तु मैंने अपने भाई समय को बहुत प्यार किया है। यह घड़ी मेरे हाथों में रहती है। यह मेरी सहधर्मिणी है। मैंने समय को समझा, उसका सदुपयोग किया। जिस प्रकार मैंने समय से प्यार किया है। आप भी समय से प्यार करें। आप समय को बर्बाद न करें।
मैंने जीवन के अनुभवों से निष्कर्ष निकाला है कि हमें क्या करना चाहिए? महान व्यक्ति बनना चाहिए। हम आत्मशक्ति अर्जित करें, आत्मबल अर्जित करें। आत्मबल रहा तो सारे बल मिल जाते हैं। महापुरुष आत्मबल के धनी होते हैं। धन से केवल मकान, शारीरिक सुख की वस्तुओं की पूर्ति होती है। धन एक शक्ति है लेकिन इस शक्ति से भी बड़ी एक और शक्ति है, वह है—आत्मबल। आत्मबल से सब कुछ मिल सकता है। संसार की सारी चीजें आत्मबल से मिल जाती हैं। जिसकी आत्मा बलवान है, वह मल्लाह की तरह दूसरों को भी नाव में बिठाकर पार लगा सकता है। जीवन के सिद्धान्तों को आचरण में उतारते चले जाइये।
मुझे मेरे गुरु ने आत्मबल दिया और मैं भी आपको आत्मबल देना चाहता हूं। जो व्यक्ति स्वयं सही रास्ते पर चले, साथ ही औरों को भी सही रास्ते पर चलाये वह सौभाग्यशाली है। हमारे गुरु ने कहा—भगवान का नाम तो लेना चाहिए, परन्तु उसके साथ तप भी जोड़ना चाहिए। भजन और तप दोनों होना चाहिए। इन दोनों का जोड़ा है। हमारे गुरु हमसे कह रहे हैं और मैं आपसे कह रहा हूं। सिद्धान्त एक है। जिस उपासना में तपस्या नहीं वह प्राणहीन उपासना है। केवल उपासना ही भला नहीं कर सकती। आपने देखा है, कारतूस कितना बड़ा काम कर देते हैं। शेर को कारतूस से मार दिया जाता है, दुश्मन को कारतूस से मार दिया जाता है, परन्तु बिना बन्दूक के कारतूस यह कमाल नहीं दिखा सकता। कारतूस और बन्दूक दोनों का जोड़ा है। बगैर बन्दूक के कारतूस से आप शिकार मार सकते हैं क्या? आपको हम एक कारतूस की पेटी दे दें, तो क्या आप फेंककर शेर का शिकार कर लेंगे? नहीं। उपासना कारतूस है और तपश्चर्या बन्दूक। मैं इस भ्रम को दूर करना चाहता हूं। जैसे मेरे गुरु ने मेरे भ्रम को दूर किया था। मेरे गुरु ने कहा—राम, कृष्ण, अल्लाह का नाम ही पर्याप्त नहीं है। इसके साथ तपश्चर्या भी करनी पड़ती है। इसके लिए बन्दूक की आवश्यकता है। कारतूस और बन्दूक ठीक है तो वह शेर का शिकार कर देगी। आप काठ की बन्दूक, जिससे बच्चे खेलते हैं, उससे शेर पर निशाना लगायेंगे तो शेर नहीं मर सकता। उसके लिए तो असली बन्दूक ही चाहिए। आप कीमती वस्तु खरीदने जायेंगे तो उसकी आपको पूरी कीमत देनी होगी। कम कीमत में कीमती वस्तु नहीं मिलेगी। हमको भी भगवान से कुछ पाने के लिए कीमत चुकानी पड़ती है।
छोटे बालक आम की डाली तोड़कर ले आते हैं और मिट्टी में गाढ़कर बगीचा लगा देते हैं। बच्चे कहते हैं, यह हमारा बगीचा है और शाम को बच्चा बगीचा बिगाड़ देता है। यह बालकपन ही है कि हम भगवान से बिना मेहनत के लेना ही लेना चाहते हैं। आपको अच्छा बगीचा लगाना है तो पौधे लगाकर खाद-पानी, निराई-गुड़ाई करनी पड़ेगी। दस वर्ष इंतजार भी करना पड़ेगा। कम कीमत में कोई चीज नहीं खरीदी जा सकती। मुझे मेरे गुरु ने तपश्चर्या भी लम्बी अवधि की बताई। जौ की रोटी खाना और छाछ पीना बताया। चौबीस वर्ष तक घी, दूध, मिठाई, अचार सब बन्द। मैं चौबीस वर्ष तक तपस्या करता रहा। मेरे मन में एक सन्देह बना रहा, जो आपके मन में भी होगा। मेरा संदेह था कि बहुत से लोग पूजा-पाठ करते हैं, पर उन्हें अच्छा जीवन जीते देखा जाता है जो पूजा-पाठ नहीं करते। जो पूजा-पाठ करते हैं उनके दांये-बांये कुछ नहीं रहता। मोटर गाड़ी, सम्मान आदि इनको कहां मिलता है? मैं हर बात को परखता हूं कि इसमें सत्यता है या नहीं। मुझे गुरु ने सतहत्तर माला नित्य जपने को कहा—कोठरी में अपने आप अकेले जुआ खेलता रहा। बाल सफेद हो गये, परन्तु मेरा सन्देह जिन्दा है। मैंने कहा—हिन्दुस्तान में छप्पन लाख बाबा हैं, जो भजन के नाम पर जिन्दा हैं, जो भगवान का भोग खाते हैं, हाथ-पांव से काम नहीं करते हैं। भगवान की कमाई खाते हैं। यदि इतने लोग काम करते, इतनी जनशक्ति काम करती तो हिन्दुस्तान की यह हालत नहीं रहती। यही आपके मन में भी होगा। मेरा सन्देह दूर करने चालीस वर्ष की उम्र में फिर वही गुरु आये। उन्होंने कहा—बेटा! तुम्हारा तप पूरा हुआ। आदमी सब कुछ करता है, पर भगवान का काम नहीं करता। तुम्हें भगवान का काम करना है। समाज के उलटे प्रवाह को मोड़कर सीधा करना है। मानवता की रक्षा करनी है।
लोग हमसे शिकायत करते हैं कि हम इतने दिनों से साधना करते आ रहे हैं, हमें तो कुछ नहीं मिला? आपने साधना की? नहीं। आप बीड़ी से प्यार करते हैं? यदि आप उतना प्यार गायत्री माता से करते, तो आनन्द आ जाता। आप तो चाहते हैं कि आज जप किया और फिर भी हमें बेटा नहीं मिला, मकान नहीं मिला, शादी नहीं हुई, हमारा तो कोई काम नहीं हुआ, बस दूसरे दिन माला उठाकर अलग रख देते हैं। सारा विवेक, श्रद्धा सब खो दिया है। कर्तव्य के प्रति ध्यान नहीं दिया तो आपको कैसे भगवान मिलेगा। हमने चौबीस वर्ष तक नमक-मिर्च, मिठाई, खीर तक नहीं खाई। मेरे मन में ऐसा अनुभव हुआ, विश्वास हुआ कि मैं व्यक्त नहीं कर सकता। मुझे रात में हनुमानजी, गायत्री माता ने दर्शन नहीं दिये। मुझे अब तक यकीन था कि भागवत की कथा सुनने से कल्याण हो जाता है, वह यकीन चला गया। मैं आप लोगों को कथा सुनने के लिए नहीं बुलाता हूं। मैं तो जिस प्रकार कोई मल्लाह अपने बच्चों को नाव चलाना सिखाता है उसी प्रकार मैं भी अपने बालकों को जीवन की नैया चलाना सिखाऊंगा। खजूर का बीज एक वर्ष में उगता है, तो खजूर के पेड़ की उम्र भी लम्बी होती है। परन्तु फूल के पौधे इत्यादि थोड़े समय में पैदा होते हैं और कुछ दिनों में नष्ट हो जाते हैं। जो मैंने जीवन भर सीखा वह बताऊंगा वह टिकाऊ होगा।
पार्वतीजी शंकर भगवान से विवाह करना चाहती थीं। शंकर जी ने उसके अन्दर धैर्य है या नहीं इसकी परीक्षा लेने के लिए ऋषियों को भेजा। ऋषियों ने पार्वतीजी से कहा—बेटी! तुम शंकर भगवान से शादी करने के लिए तप कर रही हो, परन्तु शंकर जी ने कामदेव को भस्म कर दिया है और हजारों वर्ष के लिए समाधि लगाई है। तब तक तो तुम बूढ़ी हो जाओगी। लोग तुम्हारी हंसी करेंगे कि देखो! बुढ़िया को क्या सूझ रही है। चला तो जाता नहीं है और विवाह कर रही है। पार्वतीजी ने कहा—हम हजार तो क्या करोड़ों वर्ष तक तप करेंगे। ऋषियों ने कहा—तुम्हारी शादी विष्णु भगवान से करा दें? पार्वती जी ने कहा—नहीं! मैं तो शंकर भगवान से ही शादी करूंगी। अध्यात्मवादी ऐसा ही होता है। जल्दबाजी ठीक नहीं होती। आप यह मत समझो कि पांच माला जपने और पांच आने का प्रसाद बांटने से भगवान खुश हो जायेंगे। इससे भगवान खुश नहीं होते।
बालकों को आप मिठाई दे दो तो वह आप जैसा कहेंगे, वैसा ही करेंगे। क्या आपने भगवान को नाबालिग समझ रखा है? आप असली अध्यात्म को अपनाएं। नकली अध्यात्म को छोड़ें। आप नकली अध्यात्म पर चलते हैं, इससे अच्छा तो नास्तिक बनना है। आप जो उपासना करते हैं उसमें श्रद्धा नहीं है, मनोयोग नहीं है, यह भी कोई उपासना है, आप तो मखौल करना चाहते हैं। हमने भजन तो इतना किया, परन्तु भगवान ने हमको कुछ नहीं दिया। आप अपने विचारों को नया मोड़ दें। छोटी कीमत पर छोटी चीजें ही मिलती हैं। बड़ी चीजें बड़ी कीमत देकर खरीदी जाती हैं। मैं तीन जन्मों से गायत्री की उपासना में लगा हूं। ढाई सौ वर्ष से यही उपासना करता आ रहा हूं। आदमी को धैर्यवान होना चाहिए। पेड़ में फल आने से पूर्व फूल आते हैं। भगवान हमेशा मनुष्यों के धैर्य, कर्म एवं व्यवहार को परखता रहता है।
आप शंकर भगवान पर पानी का घड़ा नहाने के लिए रख देते हैं, परन्तु साबुन का, कपड़े का इन्तजाम नहीं करते। चेला चौबीसों घण्टे पानी की ही बात करता है और बेलपत्र चढ़ाता रहता है और शंकर भगवान से कहता है—बेलपत्र खा लो। उसको शंकर भगवान के दिल दिमाग का पता नहीं है। वह समझता है, शंकर भगवान बेअकल हैं। भांग-गांजा पीकर नशे में पड़े रहते हैं। शंकरजी, गणेशजी, हनुमानजी का दिल-दिमाग नहीं है, ऐसा समझ रखा है, परन्तु ऐसा है नहीं। हनुमानजी, गायत्री माता, शंकरजी को खुश करना चाहते हो तो बाह्य क्रियाकलाप बेकार हैं। भगवान को खुश करने के लिए आन्तरिक उत्कृष्टता का, तपश्चर्या का सहारा लेना पड़ेगा। तपश्चर्या का मतलब धूप में खड़े रहना, भूखों मरना नहीं है। तपश्चर्या का मतलब है, अपनी आत्मा का निरीक्षण करें और एक-एक मिनट का हिसाब रखें। आत्मा के बावत आपने जीवन के बहीखाते को कब देखा? यदि देखा होता तो हमारे क्रियाकलाप अलग होते।
चौबीस वर्ष तक हमारा फूल खिलता रहा, अब फल आया है। आपको अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। मैंने आपको रिश्तेदार की तरह बुलाया है। आपको खास काम के लिए बुलाया है। आप सब यहां आये, आपको यहां से खाली हाथ नहीं जाने दूंगा। आपको ज्यादा कीमती चीज देकर भेजूंगा। आपका दृष्टिकोण पाशविक न होकर मानवीय होना चाहिए। भगवान ने बच्चा पैदा करने और रोटी खाने के लिए हमें यहां नहीं भेजा है। यदि भगवान का यही उद्देश्य होता, तो केंचुआ जैसा बनाकर पटक देता। सांप-बिच्छु बना देता। मनुष्य बनाने में इतना परिश्रम क्यों करता? हमारे मस्तिष्क की क्षमता असीम है। हम अपनी क्षमता जागृत कहां कर पाते हैं? अब तक हमारे मस्तिष्क की केवल सात प्रतिशत शक्ति को हमने जाना, उपयोग किया है। त्रानवे प्रतिशत शक्ति प्रसुप्त है। मनुष्य की देह बनाने में, दिमाग बनाने में भगवान ने कितना परिश्रम किया होगा। दिमाग जैसा कम्प्यूटर दुनिया में आज तक नहीं बना है। आंखों के समान लैंस आज तक दुनिया में नहीं बना। कितना परिश्रम करना पड़ा है आपके जीवन के लिए। विचार करना पड़ेगा। आदमी शरीर नहीं आत्मा है। आपके अन्दर एक नई जागृति एक नई दिशा नहीं आयेगी तो आप अध्यात्मवादी नहीं कहलायेंगे। जब तक ऊंची आकांक्षा की इच्छा नहीं होगी, तब तक मनुष्य पशु बना रहेगा। मैंने इस जीवन की दिशाओं को बदला है। जो संसार की आंखों में बेवकूफ है वही सच्चा अध्यात्मवादी है। अध्यात्म की मंजिल अकेला आदमी पूरी नहीं कर सकता, उसको सहारे की आवश्यकता होती है। जब मैं हिमालय गया था तो मेरे साथ एक लाठी थी, अगर लाठी मुझसे छीन ली गयी होती तो मैं ऊपर नहीं चढ़ सकता था। मंजिल पर चढ़ने के लिए सीढ़ी की आवश्यकता होती है। आध्यात्मिक प्रगति के लिए भी एक मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है। हमारे गुरु ने हमारी इसी तरह की सहायता की है, जिस प्रकार बाप-बेटे को पढ़ाता है। उनके गुरु ने उनकी सहायता की होगी और आपका गुरु आपकी सहायता करेगा। यह परम्परा चली आ रही है।