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Books - धर्म चेतना का जागरण और आह्वान

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


भगवान आपके घर चले आते

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गायत्री तपोभूमि, मथुरा में 27 अक्टूबर 1968 को प्रातः दिया गया प्रवचन)
देवियो और भाइयो
गायत्री को समझने के लिए तप, त्याग और तपस्या की आवश्यकता है। माला घुमाकर कामनायें पूरी होने की जिद रखना यह स्वरूप गायत्री का नहीं है। हमने इसको ही गायत्री का स्वरूप मान लिया है, परन्तु यह स्वरूप है नहीं। हमने रिश्तेदार, मिनिस्टर, पुलिस ऑफीसर का स्वरूप समझ लिया है। इसलिए हम जरूरी कामों का छोड़कर इनके आगे-पीछे फिरते हैं। इन छोटे-छोटे व्यक्तियों का स्वरूप मालूम है, इसलिए उन्हें नहीं बुलाते हैं और बड़े-बड़े व्यक्तियों का स्वरूप जानते हैं, इसलिए आप उन्हें पार्टी देते हैं, दावत देते हैं। सब जानते हैं, परन्तु हम उस महान शक्ति का ज्ञान न होने से उसका स्वरूप छोटा समझते हैं। यही कारण है कि हमारा मन उपासना करने में ढीला-पोला रहता है। उपासना करने से पहले गायत्री माता का स्वरूप समझना चाहिये। गायत्री के तीन चरण हैं। जमीन, आकाश और पाताल। सत, रज और तम, स्थूल, सूक्ष्म और कारण इन सबमें जो भी हलचल हो रही है, वह गायत्री महाशक्ति से ही चल रही है।
पुराणों में वर्णन आता है। ब्रह्माजी कमल के फूल पर बैठे हुए थे, उन्हें आकाशवाणी हुई, तुम्हें अब तप में लग जाना चाहिये। तप करना चाहिये। गायत्री मंत्र का जप करना चाहिये। ब्रह्माजी ने नो वर्ष तक तपस्या की। उन्हें दो शक्तियां प्राप्त हुईं—एक परा और दूसरी अपरा। एक जड़ और दूसरी चेतन। एक भौतिक और दूसरी आध्यात्मिक। दोनों शक्तियों से भगवान ने सृष्टि रचना का कार्य पूरा किया। गायत्री मंत्र में ही सारा ज्ञान समाया हुआ है। गायत्री मंत्र बीज मंत्र है। आपने कभी बरगद का बीज देखा होगा, कितना छोटा होता है। परन्तु उस बीज के भीतर एक विशाल वृक्ष छुपा हुआ होता है।
बरगद के पेड़ पर सैकड़ों पक्षियों का, जीवों का निवास रहता है। बीज तो छोटा-सा होता है, परन्तु उसका वृक्ष विशाल होता है। उसी प्रकार गायत्री महामंत्र तो चौबीस अक्षर का होता है, परन्तु इसमें सब कुछ समाया हुआ है। चौदह वर्ष पढ़ने के बाद हम बी.ए. पास करते हैं, परन्तु हमको नौकरी नहीं मिलती क्योंकि हमने उस महाशक्ति की ओर ध्यान ही नहीं दिया, अगर हमने ध्यान दिया होता, तो हमारे स्रोत ही अलग होते। रामचन्द्र जी ने चौदह वर्ष वनवास रहकर कितना बड़ा काम किया। सब राक्षसों को मारा और संस्कृति रूपी सीता को वापस ले आये।
हमारे पास है—आत्मा और शरीर। आत्मा श्रद्धा, निष्ठा और भावना है। इसी को प्राण कहते हैं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस काली जी की पूजा करते थे। काली देवी उनके चारों तरफ चलती थीं। जब स्वामी विवेकानन्द के घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ गयी थी, तब वे अपने गुरु परमहंस के पास पहुंचे। उन्होंने कहा—जाओ मां काली से मांग लो। स्वामी विवेकानन्द मां काली के पास नौकरी, पैसा मांगने गये थे, परन्तु उनने जब मां काली के स्वरूप को देखा कि वे तीनों लोकों में व्याप्त हैं, सारी धन सम्पत्ति उनके चरणों में पड़ी है, तब उन्होंने कहा—मां! मुझे शक्ति दो, ज्ञान दो, शांति दो। उन्होंने इतनी बड़ी शक्ति से छोटी और ओछी चीज मांगना उचित नहीं समझा। वे जानते थे कि अपने लिए तो अपने हाथों से ही कमा लूंगा। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के आशीर्वाद से स्वामी विवेकानन्द के परिवार की समस्याएं सुलझ गयीं। वे स्वामी विवेकानन्द थे, जिन्होंने काली को—भावना की देवी को भावना की दृष्टि से देखा। इन आंखों से नहीं भावना की आंख से आप गायत्री माता का स्वरूप देखते, तो आप स्वामी विवेकानन्द के समान सद्बुद्धि मांगते, विवेकानन्द बन जाते।
गायत्री को आपने इस भाव से देखा ही नहीं जिसके द्वारा हमको प्रकाश मिलता है। वह प्रकाश मिल जाता, तो आप धन्य हो जाते। एक बात बतलाता हूं। नानक के पिता ने नानक को व्यापार करने के लिए कुछ रुपये दिये थे। नानक व्यापार करने गये, परन्तु उन्होंने व्यापार तो किया नहीं सारा धन जरूरतमंदों की, दुखियों की सेवा में लगा दिया और खाली हाथ घर वापस आ गये। अपने पिता के पूछने पर उन्होंने उत्तर दिया—पिताजी! मैंने जो व्यापार किया है, उसमें बहुत बड़ा लाभ है। पिता ने उन्हें डांटा-फटकारा और घर से निकाल दिया था। आज वे पचास करोड़ के महल में सोये हैं। गुरु नानक ने भगवान का स्वरूप समझा और हिम्मत पैदा की। हमारे अन्दर भी ऐसा साहस, हिम्मत होती, तो हम अपनी वस्तुओं, अपने रुपयों का उपयोग भगवान के इस उद्यान को सुन्दर बनाने में करते। भगवान के स्वरूप को जानने के लिए आस्थायें लगानी होंगी। भगवान को जानने के लिए आपके पास श्रद्धा-विश्वास होना चाहिये। इसी से भगवान वश में आते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखने से पहले श्रद्धा-विश्वास के रूप में ही भवानी-शंकर की स्तुति की है।
भवानी शंकरौ वन्दे, श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति, सिद्धाः स्वान्तः स्थमीश्वरम् ।।
आपकी श्रद्धा और आपके विश्वास—इन दो बातों पर ही भगवान ठहरे हुए हैं। श्रद्धा-विश्वास जितना अधिक होगा भगवान को आप उतनी ही जल्दी पाने में समर्थ हो सकते हैं। गोपियां भगवान कृष्ण को नचाती थीं। यह गोपियों की श्रद्धा ही थी कि भगवान को उनके घर जाना पड़ा था। द्रौपदी की श्रद्धा ही थी जिसके कारण भगवान कृष्ण को उसकी लाज बचाने के लिए आना पड़ा। आपने गायत्री माता को समझा है। हमने भावनाओं का, निष्ठाओं का विकास किया होता तो भगवान आपके घर भागे चले आते। आप शरीर ही शरीर से मतलब रखते हैं। प्राण निकलने पर शरीर का क्या मूल्य है? जो शरीर से सम्बन्ध रखते हैं वे कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते। गांधी जी की मालिश करने वाले को एक रुपया मिलता था, परन्तु जिन्होंने गांधी जी की आत्मा को छुआ, वे जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बन गये और डॉ. राजेन्द्रप्रसाद राष्ट्रपति। जो शरीर से मतलब रखता है, वह असली लाभ से वंचित रहता है। जिसने आत्मा से सम्बन्ध जोड़ा, वे असामान्य लाभ के भागीदार बने। हमने गायत्री माता के चित्र की पूजा की, मूर्ति की सेवा की और गायत्री माता की आत्मा को नहीं छुआ, तो गायत्री माता से हमें क्या लाभ मिलने वाला है? मैंने श्रद्धा-निष्ठा के साथ गायत्री माता की उपासना की है, तब उपासना फलीभूत हुई। परमात्मा सामर्थ्यवान है, उससे प्यार करो, तब उपासना सफल होगी। पहली बात आपकी श्रद्धा, निष्ठा और विश्वास। इसके साथ आपके जीवन का शोधन भी होना चाहिये। जीवन का शोधन नहीं किया, तो आपकी उपासना बेकार जायगी। भगवान बुद्ध भिक्षा का भोजन ग्रहण करते थे। एक दिन एक सेठ के यहां गये, जो उनका शिष्य था। भगवान बुद्ध उस सेठ को जीवन शोधन की शिक्षा देने के लिए अपने कमण्डल में गोबर रखकर लाये थे। सेठ जी के घर गये। सेठजी भिक्षा देने के लिये खीर लाये। भगवान बुद्ध ने कमण्डल आगे बढ़ा दिया। सेठजी ने देखा कि कमण्डल में गोबर है। सेठजी ने कहा—कमण्डल मुझे दीजिये, मैं इसे साफ करके लाता हूं। भगवान बुद्ध ने कहा—तुम थोड़ी-सी कीमती खीर को इस गोबर वाले कमण्डल में नहीं डाल सकते, तो भगवान अपना कीमती अनुदान तुम्हें कैसे दे देगा? क्या तुमने अपने शरीर वाले कमण्डल को साफ करने की बात कभी सोची? तुम आज से शुद्ध, पवित्र, निर्मल, राग, द्वेष से रहित जीवन जीना। तुम्हें भगवान की कृपा भी मिलेगी। भगवान आवश्यकताओं को पूरी करता है, कामनायें पूरी नहीं करता। भगवान कामनाओं को तो तोड़ देता है। नारद जी विवाह करना चाहते थे। नारदजी की कामना थी कि उनकी शक्ल भगवान के समान हो जाये, परन्तु भगवान ने उनकी शक्ल बन्दर के समान बना दी। भगवान हमेशा भक्तों की कामनाओं को तोड़ देता है और सिर्फ उनकी आवश्यकता की पूर्ति करता है।
एक महात्मा थे। एक दिन अपनी लंगोटी सुखा रहे थे। एक चूहा आया और उसने लंगोटी काट दी। वह महात्मा उस चूहे को पकड़ने के लिए एक बिल्ली लाये। बिल्ली को दूध चाहिए। दूध के लिए एक गाय खरीदी। गाय के लिये चारा चाहिए, तो जमीन खरीदी। जमीन को जोतने के लिये बैल चाहिये, तो बैल खरीदे, सारे दिन उसी काम में लग गये। उन सबको संभालने के लिए साथी सहयोगी चाहिए तो महात्मा ने शादी कर ली। बाल-बच्चे हो गये। एक दिन उस महात्मा के गुरु आये और बोले बेटा—यह सब तेरी लंगोटी के बाल-बच्चे हैं। हमारी कामनायें भी ऐसी ही हैं। न मालूम हम भगवान से क्या-क्या मांगते हैं? भगवान आवश्यकतायें पूरी करेगा, कामनायें पूरी नहीं करेगा। भगवान शंकर से भस्मासुर ने वरदान मांग लिया, पर कामना पूरी नहीं कर सका। भगवान को प्यार से पाया जा सकता है। आपकी उपासना प्राणवान होनी चाहिये। आप कर्मकाण्ड तक ही सीमित रह गये हैं। जो मल-विक्षेप हों, उन्हें हटाना चाहिये। मुंह काला हो तो आप भगवान को कैसे पा सकते हैं? आप अपना चेहरा साफ करो। मल-विक्षेप हटाओ और शीशे में अपना चेहरा देखो। मन को उज्ज्वल कर लें, तो भगवान दौड़ते चले आयेंगे। तुम कामनाओं की तो उपासना नहीं कर रहे हो। कामना कभी पूरी नहीं होतीं। मेरी और देखो, क्या मैं सुखी नहीं हूं?जो आत्मबल मैं कमाता हूं, सब आपके लिए खर्च करता हूं। जिस प्रकार गुणा करने से संख्या बढ़ती है, उसी प्रकार दूसरों के लिए खर्च करने पर शक्ति बढ़ती है। अगर आप इन बातों को जीवन में धारण कर लें, तो अपना और अपने परिकर का कल्याण कर सकते हैं।
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