
परम पूज्य गुरुदेव के अनुग्रह-अनुदान
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परम पूज्य गुरुदेव का लिखा विपुल साहित्य उपलब्ध है। उनकी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या दो हजार के आस-पास पहुंचती है। विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित उनके अनुवाद इस संख्या में नहीं हैं। कदाचित ही किसी मनीषी ने इतना विपुल साहित्य रचा हो। इतिहास के ज्ञात युगों में तो ऐसी कोई विभूति दिखाई नहीं देती। इस साहित्य में पूज्य गुरुदेव ने जीवन के सभी पक्षों को छुआ। कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं रहा, जिसमें उन्होंने हमारा मार्गदर्शन न किया हो। उनकी लेखनी से निःसृत इस आलोक के अलावा भी एक अमृत और है, जो उनकी वाणी से प्रसरित हुआ है। लाखों लोगों ने उनके सामने बैठ कर इस अमृत का पान किया। ऑडियो-वीडियो कैसेटों में उसकी झंकार अभी भी कुछ अंशों में सुरक्षित है। कुछ अंशों में इसलिए कि सन् 1952 से 1990 तक उन्होंने जो कुछ भी कहा, वह सब का सब रिकार्ड नहीं हुआ। उसका नगण्य-सा हिस्सा ही ऑडियो-वीडियो रीलों में समेटा जा सका। जबकि व्यक्तिगत चर्चाओं, साधना शिविरों और सार्वजनिक प्रवचनों में उन्होंने जो और जितना कुछ कहा वह भी अति महत्वपूर्ण है। उसका उपलब्ध न होना एक अभाव ही है और प्रस्तुत प्रयास उस अभाव को पूरा करने की दिशा में एक विनम्र प्रयास है।
यह प्रयास ‘‘स्वांतः सुखाय’’ है। बहुत पहले इसे आरंभ हो जाना चाहिए था, पर इसके लिए अपनी कोई शिकायत नहीं है। अपने जीवन में जब भी जो कुछ घटा, उसे पूज्य गुरुदेव की इच्छा, आकांक्षा और निर्देश से घटा माना और वह अच्छा हो या बुरा, उसी में संतोष किया तो इस विलंब के लिए ही क्यों खिन्न हुआ जाए? लेकिन इस प्रयास की आवश्यकता और प्रेरणा का उल्लेख किया जाना चाहिए ताकि इसके महत्व को समझा जा सके। प्रयास की प्रेरणा पूज्य गुरुदेव से अपने दीर्घकालिक संबंध, उनके और वंदनीया माताजी के प्रति अपने समर्पण तथा उनके अनुग्रह और महती कृपा से जुड़ी हुई है। व्यक्तिगत या लौकिक जीवन की एक-एक घटना का भी इससे संबंध है और प्रयास की पृष्ठभूमि में उसे भी देखना चाहिए।
युग निर्माण योजना, गायत्री परिवार और प्रज्ञा अभियान से जुड़े सभी परिजनों से अपना वही संबंध रहा है, जो परिवार में अग्रज और अनुज का होता है। कोई परिजन अपना अग्रज और अनुज का होता है। कोई परिजन अपना अग्रज हो सकता है, तो कोई अनुज। यह अंतर स्वाभाविक रूप से किसी परिवार में देखा जा सकता है और अपने युग निर्माण आन्दोलन का संगठनात्मक स्वरूप भी परिवार ही है, तो इतनी वरिष्ठता-कनिष्ठता तो रहेगी ही। सन् 1967 से हम गायत्री तपोभूमि आए और परिजनों को तब से पूज्य गुरुदेव द्वारा सौंपे दायित्व निभाते दिखाई दे रहे हैं। उसके बाद की अपनी गतिविधियां, उपलब्धियां और त्रुटियां प्रायः सभी स्वजनों की जानकारी में हैं। लेकिन जो अपरिचित हैं और तपोभूमि में आने से पूर्व का जो जीवन क्रम है, वह भी पूज्य गुरुदेव और वंदनीया माताजी के स्नेह अनुदानों से परिपूर्ण रहा है। पिछले जीवन की ओर मुड़कर देखते और उसकी उपलब्धियों-सफलताओं की समीक्षा करते हैं, तो पाते हैं कि उनकी कृपा आरंभ से ही अपने पर बरसती रही है। यह बात अलग है कि उसका आभास आगे चलकर हुआ। यदि उनकी कृपा सुलभ न रही होती तो सफलता की सीढ़ियां दर सीढ़ियां पार करते चले जाना कदापि संभव नहीं होता और सफलताएं भी सामान्य स्तर की नहीं असामान्य स्तर की। तपोभूमि आने से पूर्व लौकिक जीवन में इतनी उपलब्धियां हासिल हुईं कि धन-कुबेरों और यशस्वी परिवारों में जन्म लेने वाले सफलतम व्यक्तियों से सहज ही तुलना की जा सके। तुलना करने पर वे उपलब्धियां इक्कीस ही साबित होंगी उन्नीस नहीं। उन सफलताओं के साथ पूज्य गुरुदेव और वंदनीया माताजी के स्नेहाशीष ने आंतरिक जीवन को भी कृत-कृत्य किया।
आज पीछे मुड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि जीवन का आरंभ जिस स्थिति में हुआ था वहां से आगे बढ़ना सामान्य परिस्थितियों में संभव ही नहीं था। एक साधारण ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ, भरतपुर रियासत (अब राजस्थान का एक जिला) के एक गांव में। वैसे ही परिस्थितियां अनुकूल नहीं थीं, तिस पर भाग्य ने जैसे आरंभ से ही खिलवाड़ करने की ठानी हुई थी। जन्म लेने के कुछ समय बाद ही माता का स्वर्गवास हो गया। तब अपनी अवस्था साल डेढ़ साल की थी और इस अवस्था में मां का आश्रय छिन जाए तो शिशु का जीवन और अस्तित्व किन संकटों से ग्रस्त हो उठता है, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। पिता को संरक्षण भी ज्यादा नहीं रहा। आठ-दस साल की आयु में वह भी अपने से छिन गया। इस संसार में अब अपना अस्तित्व एकाकी और असहाय था। भाई-बहिन कोई थे नहीं कि उनका सहारा मिलता। ऐसे कोई निकट संबंधी भी नहीं थे कि उनसे सहयोग की आशा की जा सके। निर्वाह के लिए अपने पैरों पर खड़े होने की तभी कमर कस ली। इधर-उधर ढूंढ़-खोज की और लोगों को अपनी श्रम निष्ठा का वास्ता दिया। और तो क्या था, जिसे योग्यता और गारंटी के तौर पर बताया जा सकता था। जो काम सौंपेंगे उसे पूरी मेहनत से करने और शिकायत का कोई मौका न आने देने की गारंटी आखिर एक जगह काम आई और अपने को छोटी-सी नौकरी मिली। जो वेतन तय हुआ अत्यल्प ही था और उसके लिए दिन भर काम में लगे रहना पड़ता। यहां तक कि भोजन बनाने का समय भी नहीं मिलता। इसके लिए बाजार के भोजनालय पर ही निर्भर रहना पड़ता। इस तरह गाड़ी धीरे-धीरे चलने लगी।
अपने ब्राह्मण होने का बोध तो आरंभ से ही था। जीवन यापन के लिए दौड़-धूप करते हुए लोगों से संपर्क हुआ तो उनमें से कुछ जाने माने लोगों से थोड़ा-बहुत जानने-समझने को भी मिला। ऐसे ही संपर्क के क्षणों में जाना कि ब्राह्मण का यज्ञोपवीत भी होना चाहिए। ब्राह्मणत्व की प्रारंभिक सिद्धि यज्ञोपवीत से ही होती है। विद्वत्ता अर्जित करने के लिए जैसे अक्षर ज्ञान आरंभिक अनिवार्यता है, उसी प्रकार ब्राह्मणत्व की सीढ़ी यज्ञोपवीत से आरंभ होती है। यह जानने के बाद मन यज्ञोपवीत संस्कार के लिए कसमसाने लगा, लेकिन विवशताएं भी कम नहीं थीं। वे रास्ता रोके आड़े आ रही थीं। उस जमाने में यज्ञोपवीत संस्कार बेहद खर्चीले थे। ब्याह-शादियों जैसा आयोजन होता था, उसी तरह सगे-संबंधी इकट्ठे होते, धूमधाम होती और भोज आदि दिए जाते। यहां स्वयं की स्थिति ही अकिंचन थी, सो ऐसे आयोजन की व्यवस्था कहां से बनती। व्यवस्था बनना तो दूर रहा, उसकी कल्पना तक करना अपने लिए विलास था, लेकिन मन भी हुलसता था। ब्राह्मण पुत्र है, तो यज्ञोपवीत तो होना ही चाहिए। नहीं हुआ तो द्विजत्व नहीं मिलेगा और द्विज नहीं हुए, तो ब्राह्मण कुछ में जन्म लेकर भी जीवन वृथा ही रहेगा। इस चिंतन से मन बड़ा खिन्न रहता और मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना चलती रहती कि तू ही रास्ता दिखा।
उन दिनों स्वतंत्रता आंदोलन उफान पर था। एक से एक मनस्वी और तेजस्वी लोग भारत माता के पैरों में पड़ी परतंत्रता की बेड़ियां काटने के लिए संघर्षरत थे। जहां इस आंदोलन की चिनगारी नहीं पहुंचती थी, वहां दूसरे ग्राम-नगर के लोग आंदोलन के बीज बो जाते थे। भरतपुर में कोई स्थानीय प्रेरणा नहीं थी, तो वहां आगरा से पण्डित रेवतीशरण आ गए और उन्होंने लोगों में स्वातंत्र्य चेतना जगाने का अभियान शुरू किया। पण्डितजी की सनातन धर्म के क्षेत्र में भी अच्छी प्रतिष्ठा थी और वे आंदोलनकारियों को देश सेवा के लिए प्रेरित करने के साथ धर्म, अध्यात्म विषयों पर भी उद्बोधन देते थे। जी को लगा कि शायद उनके पास जाने से कोई रास्ता निकल आए। सोचा कि उनके पास जाकर अपनी समस्या कहें और एक दिन थोड़ी हिम्मत बटोरकर पण्डितजी के पास पहुंच गए। डरते-सकुचाते उनके सामने अपनी व्यथा रखी। अपनी स्थिति से भी उन्हें अवगत कराया। सब कुछ सुनकर पण्डितजी कुछ देर चुप रहे और फिर बोले—कल सुबह धोती पहनकर आ जाना। मैं तुम्हारा यज्ञोपवीत संस्कार कराऊंगा। सुनकर मन बाग-बाग हो गया, जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई। अगले दिन जैसे बताया था वैसी ही तैयारी के साथ उपस्थित हुआ। पण्डितजी ने विधिवत् यज्ञोपवीत संस्कार संपन्न कराया और गायत्री मंत्र की दीक्षा दी। उद्बोधन के इस अवसर पर उन्होंने तीन बातें गांठ बांधने के लिए कहा। इनमें एक बात श्रमशील बने रहने की थी। कहा—श्रम से कभी जी न चुराना। श्रम देवता है, इसकी जितनी आराधना करोगे, उतना ही यह प्रसन्न होगा और जीवन को धन्य बनाएगा। दूसरी शिक्षा ईमानदारी की थी। कहा—ईमानदारी सर्वश्रेष्ठ जीवन नीति है। इसे अपनाने वाले निश्चित रूप से सफल होते हैं। आरंभ में कुछ लोग घाटे में रहते भले ही दिखाई दें, लेकिन वस्तुतः वह घाटा नहीं होता, अनभ्यस्त परिस्थितियों से आने वाली कठिनाइयां ही होती हैं। कुछ ही समय बाद वे अपने आप दूर हो जाती हैं और ईमानदारी का परिणाम मिलने लगता है। तीसरी बात उन्होंने योग्यता बढ़ाते रहने के संबंध में कही और बोले कि यही उन्नति का मार्ग है। योग्यता बढ़ाते रहें तो श्रमशील बनने और ईमानदारी बरतने के परिणाम दिन दूने रात चौगुने फलते फूलते जाएंगे। इन तीनों में से एक भी शिक्षा कम महत्व की नहीं है। तीनों व्रतों का पालन किया जाना चाहिए, जीवन तभी धन्य बनेगा। पण्डितजी की ये बातें गांठ बांध लीं और आगे का जीवन इन्हीं व्रतों का पालन करते हुए बिताने की तैयारी में जुट गए।
यज्ञोपवीतधारी द्विज को प्रतिदिन नियमपूर्वक संध्या-वंदन और गायत्री का जप भी करना चाहिए। यह बताते हुए पण्डितजी ने गायत्री उपासना की विधि सिखा दी और कम से कम तीन माला गायत्री जप करते रहने के लिए कहा। जप के समय सूर्य के रूप में सविता देवता की ध्यान धारणा करने और परमात्मा से सद्गुणों का, सत्कर्मों का और सद्बुद्धि का प्रसाद ग्रहण करने के लिए भी उन्होंने कहा। यह क्रम अपना लिया गया। संध्या, गायत्री जप की प्रक्रिया तो कुछ ही समय में संपन्न हो जाती, लेकिन उस अवधि में की गई प्रार्थना भावना का ध्यान पूरे दिन रहता। दफ्तर में और दफ्तर के बाहर सभी से मिलजुल कर रहने, सहयोग सद्भाव बरतने की नीति अपनाई। अपने से बड़े हों या छोटे, जब भी जिसने जिस काम या सहयोग के लिए कहा, उसके लिए सदैव प्रस्तुत रहे। कभी किसी का अहित नहीं किया और न चाहा। इस नीति ने अपने को सभी का प्रिय पात्र बना दिया।
दफ्तर में एक पण्डितजी एकाउन्टेंट थे। उन्होंने अतिरिक्त सद्भाव दर्शाया और कहा कि पढ़ना शुरू करो। कौन पढ़ाए? अपनी समस्या बताई तो कहा सुबह-शाम जब भी सुविधा हो घर पर आ जाया करो। एक घण्टा रोज पढ़ा दिया करेंगे। इस अवसर को वरदान की तरह समझा और अगले दिन से पढ़ने जाने लगे। समय से कुछ पहले ही उनके घर पहुंचना होता और खाली समय में उनके घर का कोई छोटा-मोटा काम कर दिया करते। उनकी गृहिणी का स्नेह भी प्राप्त हुआ और वे भोजन के समय भी घर ही रहने के लिए कहतीं। अपने पुत्र की भांति रखने लगीं और मां की तरह भोजन बनाकर खिलातीं। लाड़-दुलार करतीं। घर रहकर अध्ययन का क्रम तो चलता ही रहा। धीरे-धीरे ऐसी स्थिति बन गई कि दफ्तर के लोगों ने एक स्वर से अधिकारियों को हमारे बारे में बताया। हमारी तरक्की ऊंचे पद पर करने के लिए कहा और अधिकारियों ने उनकी बात मानकर उस समय मिल रहे वेतन से दो-गुने अधिक वेतन वाले पद पर प्रमोशन कर दिया। अब सुविधा और दायित्व दोनों ही पूर्वापेक्षा अधिक थे। दायित्वों का निर्वाह अपनी पूरी योग्यता और मनोयोग से करने का व्रत यहां भी बराबर निभता रहा।
नौकरी में अपना मन देर तक लगा नहीं रह सका। प्रतीत हुआ कि इसमें उन्नति के अवसर सीमित ही हैं। उन्नति का अर्थ तब लौकिक उन्नति ही ज्यादा समझ आता था और उसके लिए मन में छटपटाहट बनी रहती थी। ऐसा अवसर भी आया और राशनिंग विभाग ने भरतपुर में गल्ला वितरण का जिम्मा लिया। उन दिनों क्षेत्र में अकाल पड़ा था और बाजार में दूसरे महायुद्ध से पहले की मंदी अलग छाई हुई थी। चीजों के दाम बेतहाशा बढ़ रहे थे, अर्थव्यवस्था बुरी तरह लड़खड़ा रही थी। उस विपदा की मार लोगों पर कम पड़े, इसके लिए राशनिंग व्यवस्था की गई। उस जमाने के लोग उस समय को आज भी कंट्रोल का जमाना कह कर याद करते हैं। राशनिंग विभाग ने जो जिम्मा सौंपा था या यों कहें कि जो बीड़ा हमने उठाया था, वह कुशलता और प्रामाणिकता के साथ संपन्न हुआ। इसका लाभ भी मिला। व्यापार व्यवसाय के क्षेत्र में अपनी साख बनी।
नदवई (भरतपुर) में शुरू किया गया व्यापार दिनोंदिन बढ़ने लगा। परिस्थितियों ने कुछ ऐसी करवट ली कि नदवई में अपना व्यापार समेट कर बाजार में लेनदारों की पाई-पाई चुका कर डबरा चले गए। वहां मिल उद्योग में जाने का निश्चय किया, तो पता चला कि उद्योग से जुड़े लोग हाथों-हाथ ले रहे हैं। नदवई के व्यापारियों ने हमारी साख हमारे यहां आने से पहले ही पहुंचा दी थी। कुछ मिल मालिकों से तो पुराना संबंध भी था। शायद वह भी एक कारण रहा कि सभी ने मिल कर इस व्यवसाय में हमारा स्वागत किया। डबरा में तब चालीस मिल थे। मिल मालिकों ने प्रस्ताव किया कि ऐसोसिएशन का अध्यक्ष पद संभालें। यह दायित्व बहुत ही महत्वपूर्ण था। चालीस मिलों में सामंजस्य रखना और किन्हीं भी दो या अधिक प्रतिष्ठानों में कड़वाहट न आने देना, कड़वाहट आ जाय तो उसका निवारण करना साथ ही उद्योग पर आने वाले बाहरी संकटों का हल भी ढूंढ़ना इस पद का दायित्व था। साथी प्रबन्धकों और मिल मालिकों ने अपने को इस योग्य समझा और विश्वास किया तो हमने भी ठान लिया कि उस विश्वास का निर्वाह करना अपना धर्म कर्तव्य है। धर्म कर्तव्य का पालन हर हालत में होना चाहिए और अगर यह चुनौती है तो उसे भी स्वीकार करना चाहिए। चुनौती भरी स्थितियों से मुंह मोड़ना कभी जाना नहीं था। वे स्थितियां अपने को और भी ज्यादा प्रेरित करतीं, उत्साह भरतीं और संकल्पवान बनाती थीं, सो अध्यक्ष पद का दायित्व खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया।
परमपूज्य गुरुदेव तब मथुरा में युग निर्माण आंदोलन का उद्घोष कर चुके थे। गायत्री तपोभूमि का निर्माण तब शुरू ही हुआ था। गायत्री उपासना का प्रचार, यज्ञ अभियान और सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के कार्यक्रम चलने लगे थे। मिशन का तब युग निर्माण योजना नामकरण शायद नहीं हुआ था। पूज्य गुरुदेव तब विशुद्ध अध्यात्म पर ही ज्यादा जोर देते थे। मिशन के उस प्रकट प्रारंभिक दौर में गुरुदेव से संपर्क हुआ। प्रथम परिचय अत्यंत सहज और सामान्य स्तर का था। लेकिन जब वह संपन्न हो गया, तो लगा कि इस दिव्य विभूति की कृपा अनुकंपा तो न जाने कब से अपने पर बरसती रही है। हालांकि प्रकट तौर पर संपर्क संबंध धीरे-धीरे ही प्रगाढ़ होते गए।
पहला परिचय डबरा में गायत्री महायज्ञ के समय हुआ। स्थानीय कार्यकर्त्ताओं ने मिलकर यज्ञ का आयोजन किया था। उसके प्रबन्ध के लिए सहयोग चाहा था और स्वयं कुछ पहल करने के साथ मिल उद्योग एसोसिएशन के प्रेसीडेंट के नाते डबरा के सभी उद्योगपतियों को हमने एक पत्र लिखा तो अपेक्षा से छः गुना ज्यादा साधन जुट गए। मिल मालिकों ने न केवल सहयोग किया बल्कि पूज्य गुरुदेव की अगवानी करने स्टेशन तक भी गए। पूज्यवर का तब तक प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हुआ था और जैसा अब तक सुना जाता था या गुरु नामक संत-साधु जनों को देखा था, उसी से पूज्यवर की एक काल्पनिक छवि ही मन में बना रखी थी। उस छवि के अनुसार गुरुदेव भगवा वेशधारी, संन्यासी होने चाहिए, लंबी दाढ़ी-मूंछ और सिर पर जटा जैसे बाल होने चाहिए, माथे पर तिलक, हाथ में कमण्डल और माला रहने चाहिए। ऐसी कितनी ही विशेषताएं इस छवि के साथ जुड़ी हुई थीं। जब गाड़ी आई और यात्री उतरे तो अपनी आंखें इस छवि वाले गुरुदेव को ढूंढ़ती रहीं। वह आकृति कहीं दिखाई नहीं दी, तो कार्यकर्ताओं से कहा कि गुरुदेव नहीं आए। कार्यकर्त्ताओं ने कहा कि गुरुदेव आ गए हैं—यह रहे। देखा साधारण धोती-कुर्त्ता पहने, साधारण दर्जे के डिब्बे से उतर कर आए, साथ में थोड़ा-सा सामान लिए खड़े भद्र पुरुष की ओर वे संकेत कर रहे हैं। यकायक विश्वास ही नहीं हुआ कि जिनके लिखे शब्द मन-प्राण को तरंगित करते रहे हैं, वे पूज्य गुरुदेव यही होंगे। ‘‘अखण्ड ज्योति’’ और पूज्य गुरुदेव के साहित्य से तब कुछ ही समय पहले परिचय हुआ था और उसे पढ़कर लेखक की मेधा, साधना, चिंतन और सूक्ष्म दृष्टि ने भीतर तक झकझोर कर रख दिया था। लेखनी के उस धनी मनीषी के आगे साहित्य देखकर ही नतमस्तक हो जाना पड़ा था। गुरुदेव के संबंध में वह प्रभाव भी था और अब कार्यकर्त्ता जब बता रहे थे कि यह रहे गुरुदेव तो अभिभूत होने का एक और प्रसंग बन गया था। अब तक उन्हें महान लेखक के रूप में जाना था। सामने खड़े गुरुदेव को देखकर सादगी में छिपी उनकी महानता के दर्शन हुए। उनके प्रवचन सुनकर, वार्त्ताओं में भाग लेकर महसूस किया कि इस युग के महान विचारक को सुनने का अवसर मिल रहा था।
यज्ञ कार्य संपन्न हो गया। गुरुदेव से प्रत्यक्ष परिचय भी थोड़ा प्रगाढ़ हुआ और उन्होंने कभी समय निकाल कर मथुरा आने के लिए कहा। उनका आमंत्रण मन को आदेश की तरह बांध गया लेकिन अब तक का अभ्यस्त स्वभाव बाधक भी हो रहा था। गुरुदेव के संबंध में सोचते, उनका स्मरण आते समय कई बार इस तरह के भाव भी आते कि धर्म-अध्यात्म की उस दुनिया से वास्ता क्यों रखें, जो अपना ऐश-आराम का जीवन छोड़ने और सादगी का जीवन जीने के लिए प्रेरित करती हो। गुरुदेव की सादगी ने प्रभावित किया था जरूर, लेकिन उसे स्वयं भी अपनाया जाए, ऐसी कोई इच्छा-आकांक्षा नहीं थी। ‘‘अखण्ड-ज्योति’’ तब नियमित रूप से पढ़ी जाने लगी थी। हर महीने उसकी आतुरता से प्रतीक्षा रहती और जब वह मिल जाती, तो उसे आद्योपांत पढ़ लेने तक चैन नहीं मिलता था। ‘‘अखण्ड ज्योति’’ के अलावा उनकी लिखी पुस्तकें भी एक-एक कर पढ़ लीं और पढ़ने से ज्यादा सुन लीं। उनकी प्रेरणाओं को आत्मसात् करने लगे—अपने व्यवहार में उबारने की चेष्टा करने लगे। इस प्रकार पूज्य गुरुदेव की प्रेरणाओं से संस्कारित होने का क्रम चल पड़ा।
समय निकाल कर एक दिन मथुरा गए। घीया मण्डी स्थित पूज्य गुरुदेव के निवास ‘‘अखण्ड ज्योति’’ कार्यालय पहुंचे, तो वंदनीया माताजी से भेंट हुई। माताजी से यह प्रथम परिचय था। गुरुदेव तब थे, तो मथुरा में ही पर कार्यालय में नहीं थे। अतः वंदनीया माताजी से ही बातचीत करने लगे। माताजी ने बातचीत में कुशलक्षेम ही पूछा और उसके तुरंत बाद भोजन का प्रबंध करने रसोई में चली गयीं। अपने हाथ से भोजन तैयार किया और जैसे मां सामने बैठकर बच्चे को भोजन कराती है, उसी प्रकार स्नेह से भोजन कराने लगीं। यह वृत्तांत कहने, लिखने में जितना आसान है, अनुभव करने में उतना ही गूढ़ भी है। हमने तो कभी जाना भी नहीं था कि मां का प्यार कैसा होता है? बचपन में अपनी उम्र के बच्चों से ही सुना-जाना था कि मां ऐसे लाड़-लड़ाती है और मां वैसे दुलार करती है। सुन-सुनकर उन बच्चों के भाग्य से ईर्ष्या होती थी और अपने आप से ग्लानि भी। ऐसे कई प्रसंग आंखों के सामने से चलचित्र की भांति घूम गए, जब अपने को मां का अभाव खला था और उस खलने को एकांत में जाकर रो-रोक हल्का किया था। उन सारे प्रसंगों में हुई पीड़ा को माताजी के प्रथम संपर्क ने जैसे धो-पोंछ दिया और लगा कि कौन कहता है कि अपनी मां नहीं है। मां यह सामने बैठती तो है। जन्म के बाद से तब तक अनुभव होती रही मां की कमी कुछ ही पलों में समाप्त हो गई और तरसते पुत्र को मां का स्नेह, वात्सल्य मिला। मजे की बात यह है कि कुछ देर बाद गुरुदेव आ गए, तब उन्होंने माताजी को हमारे बारे में बताया। इससे पहले हम अपना सामान्य परिचय नाम, गांव आदि ही बता पाए थे।
गुरुदेव ने बातचीत के दौरान बताया कि वे सहस्रकुण्डीय गायत्री महायज्ञ करने जा रहे हैं। महायज्ञ गायत्री तपोभूमि के क्षेत्र में होना है और उस अवसर पर तुम्हें भी आना है। गुरुदेव ने अब तक बुद्धि चेतना को प्रभावित किया था, कुछ देर पहले माताजी के स्नेह, ममत्व ने अपनी भाव श्रद्धा को भी समर्पित करा लिया। गुरुदेव ने सहस्रकुण्डीय यज्ञ में समय से पहले आने के लिए कहा तो न करने का कोई प्रश्न ही नहीं था। समय से पूर्व ही मथुरा पहुंच गए और निवेदन किया कि काम बताया जाए। गायत्री महायज्ञ अति विशाल था। बताया गया था कि इसमें लाखों लोगों को निमंत्रण भेजे गए हैं। सब नहीं आए, तो भी पांच लाख लोगों का आना निश्चित है। इतने बड़े आयोजन में स्वयं सेवकों की एक पूरी फौज चाहिए। पता नहीं इस संबंध में क्या तैयारी हुई है। लेकिन स्वयं भी उस फौज का एक सदस्य होना चाहिए। यह सोच कर अपने आपको प्रस्तुत कर दिया। पूज्य गुरुदेव ने कहा—तुम आयोजन का हिसाब-किताब देखना। जिसे जहां खर्च की जरूरत पड़े, उसकी पूर्ति करना और जहां से जो सहयोग प्राप्त हो उसे संभालना।
हिसाब लगाकर देखा, महायज्ञ में पांच लाख लोग आएंगे। ये लोग चार दिन रहेंगे। चार दिन तक दो समय भोजन करेंगे और एक व्यक्ति पर एक समय के भोजन का खर्च दो रुपया भी मानें तो सिर्फ भोजन पर ही चालीस लाख रुपए खर्च होगा। उन्हें ठहराने, यज्ञ कराने, पण्डितों को दक्षिणा देने, आयोजन स्थल की व्यवस्था करने और दूसरे खर्च तो इस सब के अलावा थे। जो पैसा आया था, वह टैन्ट वालों को दे दिया, चिन्ता हुई कि बाकी का इंतजाम कहां से होगा? गुरुदेव के सामने इसकी चिंता रखी तो उन्होंने बड़ी सहजता से कहा—इसकी चिन्ता हम क्यों करे? यह काम भगवान का है, भगवान ही इसका प्रबन्ध करेंगे और सचमुच भगवान ने प्रबंध किया। चार दिन का यह विराट आयोजन-अभिनव महाकुंभ इतनी कुशलता से संपन्न हो गया कि जिन लोगों ने उसमें भाग लिया वे आज भी ‘‘न भूतो न भविष्यति’’ कहते हुए उसका गुणगान करते नहीं थकते हैं। गुरुदेव के व्यक्तित्व का भागवत पक्ष यहीं हमारे सामने खुलकर आया। यह आस्था गहराई तक जड़ जमा गई कि पूज्य गुरुदेव व्यक्ति नहीं शक्ति हैं। स्वयं भगवान उनके रूप में अवतरित हुए हैं। एक समय में जो राम थे और एक युग में जो कृष्ण थे, वही भगवान समन्वित रूप से उनके कलेवर में प्रकट हुए हैं। अपनी मान्यताओं में यह चौथा मोड़ था। पहले हमने गुरुदेव को एक महान लेखक के रूप में जाना, फिर उन्हें क्रान्तिकारी विचारक के रूप में समझा, फिर वे भारतीय संस्कृति के जीते-जागते प्रतीक लगे और अब वे साक्षात् भगवान के रूप में दिखाई दिए।
पूज्य गुरुदेव का भाष्य किया हुआ आर्ष साहित्य तब तक प्रकाशित हो चुका था। इस साहित्य का एक सैट उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल विश्वनाथदास को भेंट किया गया। राज्यपाल महोदय गायत्री तपोभूमि आए हुए थे और उनकी आवभगत में हम भी लगे हुए थे। तपोभूमि और उनके संस्थापक अधिष्ठाता पूज्य गुरुदेव से वे बहुत प्रभावित हुए। जाते-जाते उन्होंने कहा कि ‘हम यहां भगवान कृष्ण की नगरी में तीर्थ दर्शन करने आए। भगवान के साक्षात् दर्शन तो नहीं हुए, पर आपको देखकर आप में भगवान कृष्ण के दर्शन अवश्य हो गए।’ राज्यपाल महोदय की यह टिप्पणी सुनकर अपनी आस्था और पुष्ट हुई कि पूज्य गुरुदेव व्यक्ति नहीं शक्ति हैं, वे साक्षात् भगवान हैं।
इसके बाद गुरुदेव के सान्निध्य में दिनों दिन अपने आपको घुलाने-मिलाने की तत्परता बढ़ने लगी। शिविर आयोजनों का क्रम महायज्ञ के बाद ही चला। प्रत्येक शिविर में उपस्थित होने की चेष्टा होती और इस चेष्टा में कदाचित ही कोई शिविर वर्ग छूटा हो। जातीय सम्मेलन, नवरात्रि साधन, पंचकोशी साधना, शिक्षा सम्मेलन, स्वास्थ्य-आयुर्वेद-प्राकृतिक चिकित्सा, योग, सूर्य चिकित्सा, संस्कार शिविर, गीता शिविर, रामायण शिविर, भागवत सत्र आदि कितने ही वर्गों की शिविर श्रृंखला चली और प्रत्येक वर्ग में सम्मिलित रहने का अपना क्रम भी बना रहा। पूज्य गुरुदेव के साधना कक्ष में जल रहे अखण्ड दीपक से प्रभावित होकर हमने भी अपने घर में अखण्ड दीपक की स्थापना की थी। अज्ञातवास से लौटने के बाद गुरुदेव ने हमें जब गायत्री तपोभूमि आने का आदेश दिया तो उसकी तैयारी में वह अखण्ड दीपक भी गुरुदेव ने अपने कक्ष में स्थानांतरित कर लिया। शिष्य की चेतना जिस प्रकार गुरु की चेतना से तदाकार होनी चाहिए उसी के प्रतीक रूप में उस दीपक की ज्योति गुरुदेव के साधना कक्ष में जलने वाली ज्योति में समा गई। स्वतंत्र रूप से दीपक कोई दस वर्ष तक प्रज्ज्वलित रहा था।
मथुरा आने की तैयारी के दिनों में अच्छी तरह याद है कि गायत्री तपोभूमि में शिविरों की श्रृंखला अनवरत चलने लगी थी। लेकिन तब शिविरार्थियों की संख्या सीमित ही रखी जाती थी। एक शिविर में सौ-पचास परिजनों को लिया जाता था। संख्या जानबूझ कर सीमित रखी जाती थी। साधक तब गायत्री तपोभूमि में ठहरते थे। पूज्य गुरुदेव और वंदनीया माताजी प्रतिदिन प्रातः अखण्ड ज्योति कार्यालय से तपोभूमि आते। पूज्य गुरुदेव एक घण्टे का प्रवचन करते। प्रवचन से पहले वंदनीया माताजी संगीत देतीं। प्रवचन समाप्त होने के बाद सभी साधक गुरुदेव के निवास पर जाते और वहां भोजन कर वापस लौटते। साधकों के साथ तपोभूमि से चलकर अखण्ड ज्योति तक गुरुदेव के साथ जाना और वापस लौटना एक अनूठे अनुभव से गुजरना था। लौटकर हम लोग भावी कार्यक्रमों और योजनाओं पर विचार विमर्श करते थे।
सन् 1967 में हम स्थाई रूप से मथुरा आ गए। पूज्य गुरुदेव के हरिद्वार जाने की तैयारी चलने लगी थी। तय हुआ था कि बाद में उनके प्रवासीय कार्यक्रम लगभग नहीं होंगे। देश भर में फैली युग निर्माण परिवार शाखाओं में इसीलिए होड़ मची हुई थी कि पूज्य गुरुदेव शांतिकुंज में एकान्त वास से पहले एक बार उनके यहां अवश्य आएं। इस कारण देश भर से गायत्री महायज्ञ और युग निर्माण सम्मेलनों के प्रस्ताव आते। यथा सुविधा उनकी स्वीकृति और व्यवस्था दी जाती। इन आयोजनों में प्रायः गुरुदेव के साथ जाना होता तब यह कल्पना भी नहीं थी कि इस प्रकार साथ रहकर वे अपने परिवार से मिला-जुला और परिचय करा रहे हैं। मथुरा आने से पूर्व हम अपने पारिवारिक दायित्वों को लगभग पूरा कर चुके थे। एक पुत्री का विवाह काफी समय पहले ही हो गया था। दो पुत्र थे—उन्हें स्वावलंबी बनने की राह पर लगा दिया। विवाह दोनों में से एक का भी नहीं हुआ था।
मथुरा आने के बाद यह इच्छा तो बनी ही रही कि दोनों का विवाह कर दें। बड़ा पुत्र राम था, छोटे सतीश का विवाह तो बाद में होता रह सकता है, राम का तो हो ही जाए। इस संबंध में गुरुदेव से निवेदन किया तो उन्होंने न जाने क्या सोचकर कहा कि राम का विवाह रहने दो। शादी करना हो तो सतीश की कर दो। राम बड़ा था, बड़ा पुत्र कुंवारा ही रहे और छोटे की शादी पहले कर दें, कुछ समझ में नहीं आया। हवाला भी दिया कि लोग क्या कहेंगे? राम की शादी नहीं की और छोटे की शादी कर दी। अपनी बात गुरुदेव के सामने बार-बार रखी और हर बार वे यही कहते।
सन् 1971 में पूज्य गुरुदेव के विदाई समारोह की तैयारियां चल रही थीं। इसी समारोह में आदर्श विवाह भी संपन्न होने थे। आदर्श विवाहों का निर्धारण हो ही रहा था कि हमने इस बार फिर निवेदन कर दिया। कहा कि गुरुदेव राम की शादी भी इसी अवसर पर करवा दीजिए। हमारी बड़ी इच्छा है। वंदनीया माताजी वहीं विराजमान थीं। उन्होंने कहा ठीक है, राम का आदर्श विवाह कर दो। मेरी निगाह में लड़की भी है। मृत्युंजय (पूज्य गुरुदेव के पुत्र) की साली इन्दिरा से संबंध तय समझो। राम भी वहीं मौजूद था। और जून 1971 में दोनों का विवाह संपन्न हो गया। पूज्य गुरुदेव और वंदनीया माताजी के आशीर्वाद से बनी यह युगल जोड़ी देखकर हम पति-पत्नी अपने भाग्य पर इठलाने लगे।
विदाई समारोह में पूज्य गुरुदेव और वंदनीया माताजी को मथुरावासियों ने भारी मन से विदाई दी। उस समारोह में गुरुदेव ने घोषित किया था कि लीलापत को हम अपने मिशन का संगठनात्मक उत्तराधिकारी घोषित किए जा रहे हैं। सब लोग उन्हें अपना बड़ा भाई समझें। अपने व्यक्तिगत पत्रों और निजी चर्चाओं में तो उन्होंने यह बात अनेक बार दोहराई थी। विदाई से पहले लगभग तीन साल क्षेत्रों में गायत्री महायज्ञ और युग निर्माण सम्मेलनों के धुआंधार आयोजन हुए। इनमें प्रायः सभी में गुरुदेव के साथ रहना हुआ। कार्यकर्त्ता गोष्ठियों में वे परिचय कराते और कहते कि हमारे बाद संगठन का काम लीलापत ही देखेंगे। सन् 1971 में गायत्री जयंती के दिन पूज्य गुरुदेव मथुरा से चले गए। उस दिन के बाद से अब तक ऐसी कोई घटना हमें याद नहीं है, जग लगा हो कि परिजनों ने पूज्य गुरुदेव के इस निर्देश की अवहेलना की है। अपने संबंध में भी ऐसा कोई क्षण याद नहीं पड़ता, जिसमें अपना कर्तव्य पूरा करने में प्रमाद किया हो।
विदाई से पूर्व पूज्य गुरुदेव ने यह भी स्पष्ट किया कि हमारे ज्ञान यज्ञ के विचार क्रान्ति अभियान के दो पक्ष हैं। एक पक्ष है सत्संग और दूसरा स्वाध्याय। पक्षी के दो पंखों की भांति, गाड़ी के दो पहियों की तरह, गायत्री के दो पांवों की तरह और सिक्के के दो पहलुओं की भांति दोनों ही महत्वपूर्ण हैं और हमारे दोनों प्रतिष्ठा इनमें से एक-एक पक्ष का निर्वाह करेंगे। इस निर्धारण में सत्संग का पक्ष शांतिकुंज के जिम्मे आया और स्वाध्याय गायत्री तपोभूमि के हिस्से। परिजनों की विदाई के बाद शांतिकुंज में पूज्य गुरुदेव के सान्निध्य में एक के बाद एक असंख्य महत्वपूर्ण शिविर चले और गायत्री तपोभूमि ने सैकड़ों नई पुस्तकों का प्रकाशन किया। सौ पुस्तकों का एक सैट तो पूज्य गुरुदेव की विदाई के साल भर के भीतर ही प्रकाशित हुआ था और इसे हाथों-हाथ लिया गया। तब से अब तक दोनों प्रतिष्ठान अपना दायित्व कुशलतापूर्वक निभाते आ रहे हैं।
पुत्रों की ओर से हम लोग निश्चिंत हो ही गए थे। राम का व्यवसाय ठीक-ठाक चलने लगा। छोटे बेटे सतीश का घरबार भी यथासमय बस गया। डाक्टरी पास कर उसने चिकित्सा कर्म अपना लिया। दोनों की गृहस्थी भलीभांति चलने लगी और बीस वर्ष तक सब कुछ निर्बाध चलता रहा है। कहीं कोई गतिरोध नहीं आया। हाल ही में कुछ माह पहले ग्वालियर से एक दिन खबर आती है कि राम की तबियत बहुत खराब है। दौड़े हुए वहां गए, देखा वास्तव में राम की हालत चिंताजनक थी। श्वांस लेने में भारी कठिनाई हो रही थी। पेट में कुछ टिक नहीं रहा था। दवाएं भी निकल जातीं। ग्वालियर में अच्छे डॉक्टरों को दिखाया। डाक्टरों ने कहा—हालत बहुत बिगड़ी हुई है, जीवन खतरे में है, तुरंत अच्छी चिकित्सा उपलब्ध कराएं। ग्वालियर से मथुरा लाए, वहां से आगरा और आगरा से दिल्ली के अस्पतालों में इलाज कराया। खतरे की घड़ी तो आरंभ में ही टल गई। डाक्टरों ने जैसे निराशा व्यक्त की थी, उसे देखते हुए राम का बचना मुश्किल ही था, पर जैसे चमत्कार हुआ और खतरा टल गया। फिर भी ठीक होने में चार महीने लगे।
राम और इंदिरा समेत बच्चों को हमने तब ग्वालियर नहीं जाने दिया, मथुरा में ही रोक लिया। हालांकि राम तब लगभग स्वस्थ ही थे कि एक दिन अचानक तबियत बिगड़ी। पिछली बीमारी को ध्यान में रखते हुए इलाज के लिए उन्हें दिल्ली ले गए। डॉक्टरों ने आश्वस्त किया कि चिंता की कोई बात नहीं है। सब ठीक हो जाएगा। सोचा, जब डॉक्टर प्राण संकट बता रहे थे, तब कुछ नहीं बिगड़ा तो अब क्या बिगड़ेगा? लेकिन अघटित इसी समय हुआ। बीमारी की हालत में राम की तबियत अचानक बहुत बुरी तरह बिगड़ी और संभालने का कोई प्रयत्न करें, डॉक्टर आएं, इसके पहले ही उनके प्राण-पखेरू उड़ गए। अस्पताल में तब हमारे अपने अलावा हमारी बहू इंदिरा ही थी। मृत्युंजय कोई दवा लाने अस्पताल से बाहर गए थे। इंदिरा ने राम के चले जाने का वज्रपात किस प्रकार सहा, कहना कठिन है। उल्टे हमें ढांढस बंधाया, कहा—कि पिताजी अब मैं ही आपके लिए राम हूं। तभी मृत्युंजय भी आ गए और बहू ने कहा कि अब इन्हें घर ले चलूं। इंदिरा को इतना निश्चल और दृढ़ हमने पहले कभी नहीं देखा था। पुत्र के असमय स्वर्गवास से कोई भी पिता टूट सकता है और पति की असमय मौत पत्नी के लिए उससे भी ज्यादा त्रासद होती है, लेकिन बहु इंदिरा ने हमें जिस तरह संभाला, धीरज बंधाया, उसे हम ही जानते हैं।
वज्रपात के इन क्षणों में कई बार यह विचार भी आया कि अब तक की गई उपासना का, किए गए समर्पण का क्या यही परिणाम मिलना था? किस मुंह से हम कहें कि अध्यात्म का मार्ग उन्नति और सुख-शांति का सुनिश्चित मार्ग है? कई परिजनों ने गायत्री उपासना पर ही प्रश्न चिन्ह लगाते हुए पत्र लिखे। लेकिन अपना मन यह सब मानने के लिए तैयार नहीं था। गायत्री की कृपा पर किंचित भी संदेह नहीं होता बल्कि अपनी ही त्रुटि के कारण यह अनहोनी हुई लगती थी। फिर भी मन में दरार तो आई ही। एक नहीं अनेक बार कभी अपनी निष्ठा पर तो कभी अपनी साधना-उपासना की, सेवा-समर्पण की महत्ता पर मन में संदेह के बादल उठते रहे। दिन-रात इस मनोदशा से गुजरना होता। नियमित उपासना और गायत्री माता के दर्शन को जाते समय भी यही पीड़ा सालती, पूज्य गुरुदेव की पादुकाओं को प्रणाम करते हुए भी मन इन्हीं बिजलियों की गड़गड़ाहट से कांपता रहता।
उपासना के क्षणों में एक बार व्यथा इतनी घनीभूत हुई कि लगा सिर फट जाएगा। उस घनघोर पीड़ा के क्षणों में अंतःकरण में पूज्य गुरुदेव की आवाज गूंजी। वे कह रहे थे—न साधना उपासना मिथ्या है और न समर्पण। लोग सेवा का जो मार्ग तुमने अपनाया है, वह भी खरा है। यह क्यों सोचते हों कि राम इस सबके बावजूद तुमसे बिछुड़ गया। सचाई यह है कि राम इस सबके कारण ही तुम लोगों के साथ इतने समय तक रहा वरना उसे तो काफी समय पहले चला जाना चाहिए था।
उनकी वाणी सुनते-सुनते ही बोध हुआ कि विदाई सम्मेलन के समय पूज्य गुरुदेव राम की शादी के लिए क्यों मना कर रहे थे? लगा कि माताजी ने अपने विशेष अधिकार का प्रयोग कर राम की शादी करवा दी और पूज्य गुरुदेव ने अपने बेटे की या पौत्र की आयु बढ़वा दी। अंतःकरण में वही आवाज फिर गूंजी, प्रकृति के नियमों को कौन बदल सकता है? भगवान कृष्ण अपनी मौत को नहीं टाल सके, हम स्वयं अपने पर आया संकट स्थगित नहीं कर सके। इस होनहार को टालना क्या उचित होता और कहां तक टालते रहते?
उन्हीं की वाणी अन्तर्मन में गूंज रही थी। कहा—प्रकृति के नियमों में हस्तक्षेप कर, विधान को उलटकर, कर्म संस्कारों को रोककर राम की आयु जितनी बढ़ाई जा सकती थी, उतनी बढ़ा दी गई। यह अवधि बीस वर्ष से ज्यादा तक जाती है। बढ़ाई गई आयु तो अप्रैल 1991 में ही पूरी हो गई। ग्वालियर में उसी समय राम का जीवन पूर्ण हो रहा था, लेकिन इसे वंदनीया माताजी का ही अनुग्रह मानना चाहिए कि उन्होंने अपने तप का एक अंश दे कर चार माह का समय और बढ़ाया। इसके पीछे उनकी दृष्टि यही थी कि बच्चे अपने पूर्व स्थान से हटकर सुरक्षित जगह में जम जाएं। वह स्थान मथुरा के सिवाय और कहां हो सकता था। चार माह की अवधि में वह कार्य सम्पन्न हो गया। आयु के इस विस्तार के लिए माताजी को क्या विशेष अनुष्ठान और तप करने पड़े, इसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। बस यही जानना और संतोष करना चाहिए कि ग्वालियर से मथुरा तक का आयुदान माताजी का ही विशिष्ट अनुग्रह है।
पूज्यवर की आवाज सुनाई दे रही थी, तुम्हारा हृदय भग्न हुआ है, यह स्वाभाविक है, पर अपने दुःख को इंदिरा के दुख की तुलना में रखकर देखो। उसका दुःख कितना भारी है। तुम्हारा दुःख तो भावनात्मक ही ज्यादा है। बेटी इंदिरा के सामने तो अपना और अपने तीन बच्चों के भविष्य का भी सवाल है। उस सवाल और अनिश्चितता से जूझते हुए भी वह चुप और गंभीर है। उसकी तुलना में तुम्हारा क्षोभ हल्का ही है। अतः इस दुःख को सहना सीखो। याद है हमने तुम्हें हमेशा अपने साथ दौरों में रखा। विदाई सम्मेलन से पूर्व के दौरों में भी तुम साथ रहते थे और बाद में शक्तिपीठों के उद्घाटन कार्यक्रमों में भी तुम साथ रहे। तुम्हारा साथ चलना संभव न रहा, तो हमने उद्घाटन कार्यक्रमों में जाना स्थगित कर दिया। तुम मुझसे अभिन्न रूप से जुड़े हुए हो।
हमने पूछा कि अब क्या आदेश है। उत्तर अन्तःकरण में ही मिला-लिखो। हमने कहा—‘‘गुरुदेव हमें स्कूल जाने का कहां मौका मिला। किताब पढ़ लेते हैं और चिट्ठियों का जवाब दे लेते हैं, इतनी योग्यता है......।’’ अपनी बात पूरी करते इससे पहले ही उन्होंने कहा—‘‘इसकी चिन्ता क्यों करते हो? कबीर कहां पढ़े-लिखे थे? उन्हें अक्षरज्ञान तक नहीं था। फिर भी उनकी अन्तःचेतना में दिव्य आलोक का अवतरण हुआ और प्रेरणा जगी कि वे अपनी अनुभूतियों को गाएं। उन्होंने गाना शुरू किया, तो ऐसा साहित्य सामने आया कि आज विश्व विद्यालयों के प्रकाण्ड विद्वान भी उसे समझने में अपना पूरा समय और पूरी प्रतिभा झोंक देते हैं, फिर भी उन्हें संतोष नहीं होता कि कबीर के उद्बोधन की वे हृदयंगम कर पाए हैं।’’
पूज्य गुरुदेव की वाणी सुनाई दी—‘‘अंतस् में प्रेरणा उमगने लगे, मार्गदर्शक सत्ता अगर माध्यम चुन ले और युग की पुकार किसी कण्ठ का वरण कर ले तो दूसरी किन्हीं योग्यताओं की जरूरत नहीं है। कबीर की तरह, सूर की तरह और मीरा की तरह तुम भी अपने आपको बांस की पोंगरी समझो, जो किसी के अधरों पर सिर्फ रखी जानी है और जिसे उस मुख से निकली वायु को अपने भीतर मार्ग भर देना है। स्वर लहरी तो फिर अपने आप गूंजेगी।’’
बहू इंदिरा के संबंध में भी भीतर से आश्वासन मिला—‘‘जब चौबीस वर्ष पहले तुमने अपना समर्पण कर दिया, अपना योगक्षेम हमें सौंप दिया तो फिर अब चिंता क्यों करते हो? इंदिरा के प्रति तुम्हें नहीं, हमें अपना दायित्व निभाना है। वह मिशन के काम में लगेगी। बहू होने के नाते परोक्ष रूप से तो वह पहले भी मिशन का ही काम कर रही थी लेकिन अब प्रकट रूप से भी वह युग निर्माण की गतिविधियों में सहयोगी सिद्ध होगी।
लिखने के संबंध में निर्देश था कि सुबह के समय कुछ देर बैठा करो। हम स्वयं बताएंगे कि तुम्हें क्या लिखना है? एक दिन इसी प्रयास क्रम में प्रेरणा हुई कि विदाई सम्मेलन से पहले शिविरों में पूज्य गुरुदेव जो प्रवचन देते थे, उन्हें ही इसके लिए लिपिबद्ध कर लिया जाए। उन शिविरों में दिए गए प्रवचनों के नोट्स कहां रखे हैं? यह सब भी याद नहीं था। लग रहा था कि मथुरा में आई 1978 की प्रचण्ड बाढ़ के समय कहीं वे भी बह गए हैं। परिजनों को ध्यान होगा कि तब मथुरा में कई महत्वपूर्ण रिकार्ड यमुना की बाढ़ में बह गए थे या नष्ट हो गए थे। लेकिन अन्तःकरण में गूंज रही उनकी वाणी उनका उल्लेख कर रही थी, तो निश्चित था कि वे नष्ट नहीं हुए होंगे। ढूंढ़ा, तो उन्हें एक जगह सुरक्षित पाया। लेकिन वह लिखावट और संदर्भ समझना मुश्किल था। गुरुदेव ने यहां भी आश्वस्त किया और एक बार जमकर बैठना भर पर्याप्त बताया।
उस प्रेरणा के बाद से नियमित बैठना जारी है। निश्चित समय पर वे नोट्स लेकर बैठ जाते हैं। गायत्री माता, पूज्य गुरुदेव और वंदनीया माताजी का स्मरण करते हैं, तो अनुभव होता है कि जिन तारीखों में ये नोट्स लिए गए हैं, उन तारीखों के प्रवचन पूज्य गुरुदेव के श्रीमुख से ही सुन रहे हैं। यही नहीं वही लिखा भी रहे हैं और कभी कोई अंश छूट जाता है तो उसे पूरा भी कराते हैं।
पूज्य गुरुदेव के इन प्रवचनों में धर्म और अध्यात्म का व्यावहारिक पक्ष मुखरित हुआ है। उनके प्रवचनों की भाषा इतनी सुबोध और मर्मस्पर्शी है कि सीधे अंतःस्थल तक पहुंचती है। यह भी उल्लेखनीय है कि प्रवचन उस समय के हैं, जब पूज्य गुरुदेव जीवन के विभिन्न पक्षों को अध्यात्म की दृष्टि से देख और अपने चिंतन को उद्घाटित कर रहे थे। इसलिए भी इनका महत्व विशेष है।
यह प्रयास ‘‘स्वांतः सुखाय’’ है। बहुत पहले इसे आरंभ हो जाना चाहिए था, पर इसके लिए अपनी कोई शिकायत नहीं है। अपने जीवन में जब भी जो कुछ घटा, उसे पूज्य गुरुदेव की इच्छा, आकांक्षा और निर्देश से घटा माना और वह अच्छा हो या बुरा, उसी में संतोष किया तो इस विलंब के लिए ही क्यों खिन्न हुआ जाए? लेकिन इस प्रयास की आवश्यकता और प्रेरणा का उल्लेख किया जाना चाहिए ताकि इसके महत्व को समझा जा सके। प्रयास की प्रेरणा पूज्य गुरुदेव से अपने दीर्घकालिक संबंध, उनके और वंदनीया माताजी के प्रति अपने समर्पण तथा उनके अनुग्रह और महती कृपा से जुड़ी हुई है। व्यक्तिगत या लौकिक जीवन की एक-एक घटना का भी इससे संबंध है और प्रयास की पृष्ठभूमि में उसे भी देखना चाहिए।
युग निर्माण योजना, गायत्री परिवार और प्रज्ञा अभियान से जुड़े सभी परिजनों से अपना वही संबंध रहा है, जो परिवार में अग्रज और अनुज का होता है। कोई परिजन अपना अग्रज और अनुज का होता है। कोई परिजन अपना अग्रज हो सकता है, तो कोई अनुज। यह अंतर स्वाभाविक रूप से किसी परिवार में देखा जा सकता है और अपने युग निर्माण आन्दोलन का संगठनात्मक स्वरूप भी परिवार ही है, तो इतनी वरिष्ठता-कनिष्ठता तो रहेगी ही। सन् 1967 से हम गायत्री तपोभूमि आए और परिजनों को तब से पूज्य गुरुदेव द्वारा सौंपे दायित्व निभाते दिखाई दे रहे हैं। उसके बाद की अपनी गतिविधियां, उपलब्धियां और त्रुटियां प्रायः सभी स्वजनों की जानकारी में हैं। लेकिन जो अपरिचित हैं और तपोभूमि में आने से पूर्व का जो जीवन क्रम है, वह भी पूज्य गुरुदेव और वंदनीया माताजी के स्नेह अनुदानों से परिपूर्ण रहा है। पिछले जीवन की ओर मुड़कर देखते और उसकी उपलब्धियों-सफलताओं की समीक्षा करते हैं, तो पाते हैं कि उनकी कृपा आरंभ से ही अपने पर बरसती रही है। यह बात अलग है कि उसका आभास आगे चलकर हुआ। यदि उनकी कृपा सुलभ न रही होती तो सफलता की सीढ़ियां दर सीढ़ियां पार करते चले जाना कदापि संभव नहीं होता और सफलताएं भी सामान्य स्तर की नहीं असामान्य स्तर की। तपोभूमि आने से पूर्व लौकिक जीवन में इतनी उपलब्धियां हासिल हुईं कि धन-कुबेरों और यशस्वी परिवारों में जन्म लेने वाले सफलतम व्यक्तियों से सहज ही तुलना की जा सके। तुलना करने पर वे उपलब्धियां इक्कीस ही साबित होंगी उन्नीस नहीं। उन सफलताओं के साथ पूज्य गुरुदेव और वंदनीया माताजी के स्नेहाशीष ने आंतरिक जीवन को भी कृत-कृत्य किया।
आज पीछे मुड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि जीवन का आरंभ जिस स्थिति में हुआ था वहां से आगे बढ़ना सामान्य परिस्थितियों में संभव ही नहीं था। एक साधारण ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ, भरतपुर रियासत (अब राजस्थान का एक जिला) के एक गांव में। वैसे ही परिस्थितियां अनुकूल नहीं थीं, तिस पर भाग्य ने जैसे आरंभ से ही खिलवाड़ करने की ठानी हुई थी। जन्म लेने के कुछ समय बाद ही माता का स्वर्गवास हो गया। तब अपनी अवस्था साल डेढ़ साल की थी और इस अवस्था में मां का आश्रय छिन जाए तो शिशु का जीवन और अस्तित्व किन संकटों से ग्रस्त हो उठता है, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। पिता को संरक्षण भी ज्यादा नहीं रहा। आठ-दस साल की आयु में वह भी अपने से छिन गया। इस संसार में अब अपना अस्तित्व एकाकी और असहाय था। भाई-बहिन कोई थे नहीं कि उनका सहारा मिलता। ऐसे कोई निकट संबंधी भी नहीं थे कि उनसे सहयोग की आशा की जा सके। निर्वाह के लिए अपने पैरों पर खड़े होने की तभी कमर कस ली। इधर-उधर ढूंढ़-खोज की और लोगों को अपनी श्रम निष्ठा का वास्ता दिया। और तो क्या था, जिसे योग्यता और गारंटी के तौर पर बताया जा सकता था। जो काम सौंपेंगे उसे पूरी मेहनत से करने और शिकायत का कोई मौका न आने देने की गारंटी आखिर एक जगह काम आई और अपने को छोटी-सी नौकरी मिली। जो वेतन तय हुआ अत्यल्प ही था और उसके लिए दिन भर काम में लगे रहना पड़ता। यहां तक कि भोजन बनाने का समय भी नहीं मिलता। इसके लिए बाजार के भोजनालय पर ही निर्भर रहना पड़ता। इस तरह गाड़ी धीरे-धीरे चलने लगी।
अपने ब्राह्मण होने का बोध तो आरंभ से ही था। जीवन यापन के लिए दौड़-धूप करते हुए लोगों से संपर्क हुआ तो उनमें से कुछ जाने माने लोगों से थोड़ा-बहुत जानने-समझने को भी मिला। ऐसे ही संपर्क के क्षणों में जाना कि ब्राह्मण का यज्ञोपवीत भी होना चाहिए। ब्राह्मणत्व की प्रारंभिक सिद्धि यज्ञोपवीत से ही होती है। विद्वत्ता अर्जित करने के लिए जैसे अक्षर ज्ञान आरंभिक अनिवार्यता है, उसी प्रकार ब्राह्मणत्व की सीढ़ी यज्ञोपवीत से आरंभ होती है। यह जानने के बाद मन यज्ञोपवीत संस्कार के लिए कसमसाने लगा, लेकिन विवशताएं भी कम नहीं थीं। वे रास्ता रोके आड़े आ रही थीं। उस जमाने में यज्ञोपवीत संस्कार बेहद खर्चीले थे। ब्याह-शादियों जैसा आयोजन होता था, उसी तरह सगे-संबंधी इकट्ठे होते, धूमधाम होती और भोज आदि दिए जाते। यहां स्वयं की स्थिति ही अकिंचन थी, सो ऐसे आयोजन की व्यवस्था कहां से बनती। व्यवस्था बनना तो दूर रहा, उसकी कल्पना तक करना अपने लिए विलास था, लेकिन मन भी हुलसता था। ब्राह्मण पुत्र है, तो यज्ञोपवीत तो होना ही चाहिए। नहीं हुआ तो द्विजत्व नहीं मिलेगा और द्विज नहीं हुए, तो ब्राह्मण कुछ में जन्म लेकर भी जीवन वृथा ही रहेगा। इस चिंतन से मन बड़ा खिन्न रहता और मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना चलती रहती कि तू ही रास्ता दिखा।
उन दिनों स्वतंत्रता आंदोलन उफान पर था। एक से एक मनस्वी और तेजस्वी लोग भारत माता के पैरों में पड़ी परतंत्रता की बेड़ियां काटने के लिए संघर्षरत थे। जहां इस आंदोलन की चिनगारी नहीं पहुंचती थी, वहां दूसरे ग्राम-नगर के लोग आंदोलन के बीज बो जाते थे। भरतपुर में कोई स्थानीय प्रेरणा नहीं थी, तो वहां आगरा से पण्डित रेवतीशरण आ गए और उन्होंने लोगों में स्वातंत्र्य चेतना जगाने का अभियान शुरू किया। पण्डितजी की सनातन धर्म के क्षेत्र में भी अच्छी प्रतिष्ठा थी और वे आंदोलनकारियों को देश सेवा के लिए प्रेरित करने के साथ धर्म, अध्यात्म विषयों पर भी उद्बोधन देते थे। जी को लगा कि शायद उनके पास जाने से कोई रास्ता निकल आए। सोचा कि उनके पास जाकर अपनी समस्या कहें और एक दिन थोड़ी हिम्मत बटोरकर पण्डितजी के पास पहुंच गए। डरते-सकुचाते उनके सामने अपनी व्यथा रखी। अपनी स्थिति से भी उन्हें अवगत कराया। सब कुछ सुनकर पण्डितजी कुछ देर चुप रहे और फिर बोले—कल सुबह धोती पहनकर आ जाना। मैं तुम्हारा यज्ञोपवीत संस्कार कराऊंगा। सुनकर मन बाग-बाग हो गया, जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई। अगले दिन जैसे बताया था वैसी ही तैयारी के साथ उपस्थित हुआ। पण्डितजी ने विधिवत् यज्ञोपवीत संस्कार संपन्न कराया और गायत्री मंत्र की दीक्षा दी। उद्बोधन के इस अवसर पर उन्होंने तीन बातें गांठ बांधने के लिए कहा। इनमें एक बात श्रमशील बने रहने की थी। कहा—श्रम से कभी जी न चुराना। श्रम देवता है, इसकी जितनी आराधना करोगे, उतना ही यह प्रसन्न होगा और जीवन को धन्य बनाएगा। दूसरी शिक्षा ईमानदारी की थी। कहा—ईमानदारी सर्वश्रेष्ठ जीवन नीति है। इसे अपनाने वाले निश्चित रूप से सफल होते हैं। आरंभ में कुछ लोग घाटे में रहते भले ही दिखाई दें, लेकिन वस्तुतः वह घाटा नहीं होता, अनभ्यस्त परिस्थितियों से आने वाली कठिनाइयां ही होती हैं। कुछ ही समय बाद वे अपने आप दूर हो जाती हैं और ईमानदारी का परिणाम मिलने लगता है। तीसरी बात उन्होंने योग्यता बढ़ाते रहने के संबंध में कही और बोले कि यही उन्नति का मार्ग है। योग्यता बढ़ाते रहें तो श्रमशील बनने और ईमानदारी बरतने के परिणाम दिन दूने रात चौगुने फलते फूलते जाएंगे। इन तीनों में से एक भी शिक्षा कम महत्व की नहीं है। तीनों व्रतों का पालन किया जाना चाहिए, जीवन तभी धन्य बनेगा। पण्डितजी की ये बातें गांठ बांध लीं और आगे का जीवन इन्हीं व्रतों का पालन करते हुए बिताने की तैयारी में जुट गए।
यज्ञोपवीतधारी द्विज को प्रतिदिन नियमपूर्वक संध्या-वंदन और गायत्री का जप भी करना चाहिए। यह बताते हुए पण्डितजी ने गायत्री उपासना की विधि सिखा दी और कम से कम तीन माला गायत्री जप करते रहने के लिए कहा। जप के समय सूर्य के रूप में सविता देवता की ध्यान धारणा करने और परमात्मा से सद्गुणों का, सत्कर्मों का और सद्बुद्धि का प्रसाद ग्रहण करने के लिए भी उन्होंने कहा। यह क्रम अपना लिया गया। संध्या, गायत्री जप की प्रक्रिया तो कुछ ही समय में संपन्न हो जाती, लेकिन उस अवधि में की गई प्रार्थना भावना का ध्यान पूरे दिन रहता। दफ्तर में और दफ्तर के बाहर सभी से मिलजुल कर रहने, सहयोग सद्भाव बरतने की नीति अपनाई। अपने से बड़े हों या छोटे, जब भी जिसने जिस काम या सहयोग के लिए कहा, उसके लिए सदैव प्रस्तुत रहे। कभी किसी का अहित नहीं किया और न चाहा। इस नीति ने अपने को सभी का प्रिय पात्र बना दिया।
दफ्तर में एक पण्डितजी एकाउन्टेंट थे। उन्होंने अतिरिक्त सद्भाव दर्शाया और कहा कि पढ़ना शुरू करो। कौन पढ़ाए? अपनी समस्या बताई तो कहा सुबह-शाम जब भी सुविधा हो घर पर आ जाया करो। एक घण्टा रोज पढ़ा दिया करेंगे। इस अवसर को वरदान की तरह समझा और अगले दिन से पढ़ने जाने लगे। समय से कुछ पहले ही उनके घर पहुंचना होता और खाली समय में उनके घर का कोई छोटा-मोटा काम कर दिया करते। उनकी गृहिणी का स्नेह भी प्राप्त हुआ और वे भोजन के समय भी घर ही रहने के लिए कहतीं। अपने पुत्र की भांति रखने लगीं और मां की तरह भोजन बनाकर खिलातीं। लाड़-दुलार करतीं। घर रहकर अध्ययन का क्रम तो चलता ही रहा। धीरे-धीरे ऐसी स्थिति बन गई कि दफ्तर के लोगों ने एक स्वर से अधिकारियों को हमारे बारे में बताया। हमारी तरक्की ऊंचे पद पर करने के लिए कहा और अधिकारियों ने उनकी बात मानकर उस समय मिल रहे वेतन से दो-गुने अधिक वेतन वाले पद पर प्रमोशन कर दिया। अब सुविधा और दायित्व दोनों ही पूर्वापेक्षा अधिक थे। दायित्वों का निर्वाह अपनी पूरी योग्यता और मनोयोग से करने का व्रत यहां भी बराबर निभता रहा।
नौकरी में अपना मन देर तक लगा नहीं रह सका। प्रतीत हुआ कि इसमें उन्नति के अवसर सीमित ही हैं। उन्नति का अर्थ तब लौकिक उन्नति ही ज्यादा समझ आता था और उसके लिए मन में छटपटाहट बनी रहती थी। ऐसा अवसर भी आया और राशनिंग विभाग ने भरतपुर में गल्ला वितरण का जिम्मा लिया। उन दिनों क्षेत्र में अकाल पड़ा था और बाजार में दूसरे महायुद्ध से पहले की मंदी अलग छाई हुई थी। चीजों के दाम बेतहाशा बढ़ रहे थे, अर्थव्यवस्था बुरी तरह लड़खड़ा रही थी। उस विपदा की मार लोगों पर कम पड़े, इसके लिए राशनिंग व्यवस्था की गई। उस जमाने के लोग उस समय को आज भी कंट्रोल का जमाना कह कर याद करते हैं। राशनिंग विभाग ने जो जिम्मा सौंपा था या यों कहें कि जो बीड़ा हमने उठाया था, वह कुशलता और प्रामाणिकता के साथ संपन्न हुआ। इसका लाभ भी मिला। व्यापार व्यवसाय के क्षेत्र में अपनी साख बनी।
नदवई (भरतपुर) में शुरू किया गया व्यापार दिनोंदिन बढ़ने लगा। परिस्थितियों ने कुछ ऐसी करवट ली कि नदवई में अपना व्यापार समेट कर बाजार में लेनदारों की पाई-पाई चुका कर डबरा चले गए। वहां मिल उद्योग में जाने का निश्चय किया, तो पता चला कि उद्योग से जुड़े लोग हाथों-हाथ ले रहे हैं। नदवई के व्यापारियों ने हमारी साख हमारे यहां आने से पहले ही पहुंचा दी थी। कुछ मिल मालिकों से तो पुराना संबंध भी था। शायद वह भी एक कारण रहा कि सभी ने मिल कर इस व्यवसाय में हमारा स्वागत किया। डबरा में तब चालीस मिल थे। मिल मालिकों ने प्रस्ताव किया कि ऐसोसिएशन का अध्यक्ष पद संभालें। यह दायित्व बहुत ही महत्वपूर्ण था। चालीस मिलों में सामंजस्य रखना और किन्हीं भी दो या अधिक प्रतिष्ठानों में कड़वाहट न आने देना, कड़वाहट आ जाय तो उसका निवारण करना साथ ही उद्योग पर आने वाले बाहरी संकटों का हल भी ढूंढ़ना इस पद का दायित्व था। साथी प्रबन्धकों और मिल मालिकों ने अपने को इस योग्य समझा और विश्वास किया तो हमने भी ठान लिया कि उस विश्वास का निर्वाह करना अपना धर्म कर्तव्य है। धर्म कर्तव्य का पालन हर हालत में होना चाहिए और अगर यह चुनौती है तो उसे भी स्वीकार करना चाहिए। चुनौती भरी स्थितियों से मुंह मोड़ना कभी जाना नहीं था। वे स्थितियां अपने को और भी ज्यादा प्रेरित करतीं, उत्साह भरतीं और संकल्पवान बनाती थीं, सो अध्यक्ष पद का दायित्व खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया।
परमपूज्य गुरुदेव तब मथुरा में युग निर्माण आंदोलन का उद्घोष कर चुके थे। गायत्री तपोभूमि का निर्माण तब शुरू ही हुआ था। गायत्री उपासना का प्रचार, यज्ञ अभियान और सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के कार्यक्रम चलने लगे थे। मिशन का तब युग निर्माण योजना नामकरण शायद नहीं हुआ था। पूज्य गुरुदेव तब विशुद्ध अध्यात्म पर ही ज्यादा जोर देते थे। मिशन के उस प्रकट प्रारंभिक दौर में गुरुदेव से संपर्क हुआ। प्रथम परिचय अत्यंत सहज और सामान्य स्तर का था। लेकिन जब वह संपन्न हो गया, तो लगा कि इस दिव्य विभूति की कृपा अनुकंपा तो न जाने कब से अपने पर बरसती रही है। हालांकि प्रकट तौर पर संपर्क संबंध धीरे-धीरे ही प्रगाढ़ होते गए।
पहला परिचय डबरा में गायत्री महायज्ञ के समय हुआ। स्थानीय कार्यकर्त्ताओं ने मिलकर यज्ञ का आयोजन किया था। उसके प्रबन्ध के लिए सहयोग चाहा था और स्वयं कुछ पहल करने के साथ मिल उद्योग एसोसिएशन के प्रेसीडेंट के नाते डबरा के सभी उद्योगपतियों को हमने एक पत्र लिखा तो अपेक्षा से छः गुना ज्यादा साधन जुट गए। मिल मालिकों ने न केवल सहयोग किया बल्कि पूज्य गुरुदेव की अगवानी करने स्टेशन तक भी गए। पूज्यवर का तब तक प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हुआ था और जैसा अब तक सुना जाता था या गुरु नामक संत-साधु जनों को देखा था, उसी से पूज्यवर की एक काल्पनिक छवि ही मन में बना रखी थी। उस छवि के अनुसार गुरुदेव भगवा वेशधारी, संन्यासी होने चाहिए, लंबी दाढ़ी-मूंछ और सिर पर जटा जैसे बाल होने चाहिए, माथे पर तिलक, हाथ में कमण्डल और माला रहने चाहिए। ऐसी कितनी ही विशेषताएं इस छवि के साथ जुड़ी हुई थीं। जब गाड़ी आई और यात्री उतरे तो अपनी आंखें इस छवि वाले गुरुदेव को ढूंढ़ती रहीं। वह आकृति कहीं दिखाई नहीं दी, तो कार्यकर्ताओं से कहा कि गुरुदेव नहीं आए। कार्यकर्त्ताओं ने कहा कि गुरुदेव आ गए हैं—यह रहे। देखा साधारण धोती-कुर्त्ता पहने, साधारण दर्जे के डिब्बे से उतर कर आए, साथ में थोड़ा-सा सामान लिए खड़े भद्र पुरुष की ओर वे संकेत कर रहे हैं। यकायक विश्वास ही नहीं हुआ कि जिनके लिखे शब्द मन-प्राण को तरंगित करते रहे हैं, वे पूज्य गुरुदेव यही होंगे। ‘‘अखण्ड ज्योति’’ और पूज्य गुरुदेव के साहित्य से तब कुछ ही समय पहले परिचय हुआ था और उसे पढ़कर लेखक की मेधा, साधना, चिंतन और सूक्ष्म दृष्टि ने भीतर तक झकझोर कर रख दिया था। लेखनी के उस धनी मनीषी के आगे साहित्य देखकर ही नतमस्तक हो जाना पड़ा था। गुरुदेव के संबंध में वह प्रभाव भी था और अब कार्यकर्त्ता जब बता रहे थे कि यह रहे गुरुदेव तो अभिभूत होने का एक और प्रसंग बन गया था। अब तक उन्हें महान लेखक के रूप में जाना था। सामने खड़े गुरुदेव को देखकर सादगी में छिपी उनकी महानता के दर्शन हुए। उनके प्रवचन सुनकर, वार्त्ताओं में भाग लेकर महसूस किया कि इस युग के महान विचारक को सुनने का अवसर मिल रहा था।
यज्ञ कार्य संपन्न हो गया। गुरुदेव से प्रत्यक्ष परिचय भी थोड़ा प्रगाढ़ हुआ और उन्होंने कभी समय निकाल कर मथुरा आने के लिए कहा। उनका आमंत्रण मन को आदेश की तरह बांध गया लेकिन अब तक का अभ्यस्त स्वभाव बाधक भी हो रहा था। गुरुदेव के संबंध में सोचते, उनका स्मरण आते समय कई बार इस तरह के भाव भी आते कि धर्म-अध्यात्म की उस दुनिया से वास्ता क्यों रखें, जो अपना ऐश-आराम का जीवन छोड़ने और सादगी का जीवन जीने के लिए प्रेरित करती हो। गुरुदेव की सादगी ने प्रभावित किया था जरूर, लेकिन उसे स्वयं भी अपनाया जाए, ऐसी कोई इच्छा-आकांक्षा नहीं थी। ‘‘अखण्ड-ज्योति’’ तब नियमित रूप से पढ़ी जाने लगी थी। हर महीने उसकी आतुरता से प्रतीक्षा रहती और जब वह मिल जाती, तो उसे आद्योपांत पढ़ लेने तक चैन नहीं मिलता था। ‘‘अखण्ड ज्योति’’ के अलावा उनकी लिखी पुस्तकें भी एक-एक कर पढ़ लीं और पढ़ने से ज्यादा सुन लीं। उनकी प्रेरणाओं को आत्मसात् करने लगे—अपने व्यवहार में उबारने की चेष्टा करने लगे। इस प्रकार पूज्य गुरुदेव की प्रेरणाओं से संस्कारित होने का क्रम चल पड़ा।
समय निकाल कर एक दिन मथुरा गए। घीया मण्डी स्थित पूज्य गुरुदेव के निवास ‘‘अखण्ड ज्योति’’ कार्यालय पहुंचे, तो वंदनीया माताजी से भेंट हुई। माताजी से यह प्रथम परिचय था। गुरुदेव तब थे, तो मथुरा में ही पर कार्यालय में नहीं थे। अतः वंदनीया माताजी से ही बातचीत करने लगे। माताजी ने बातचीत में कुशलक्षेम ही पूछा और उसके तुरंत बाद भोजन का प्रबंध करने रसोई में चली गयीं। अपने हाथ से भोजन तैयार किया और जैसे मां सामने बैठकर बच्चे को भोजन कराती है, उसी प्रकार स्नेह से भोजन कराने लगीं। यह वृत्तांत कहने, लिखने में जितना आसान है, अनुभव करने में उतना ही गूढ़ भी है। हमने तो कभी जाना भी नहीं था कि मां का प्यार कैसा होता है? बचपन में अपनी उम्र के बच्चों से ही सुना-जाना था कि मां ऐसे लाड़-लड़ाती है और मां वैसे दुलार करती है। सुन-सुनकर उन बच्चों के भाग्य से ईर्ष्या होती थी और अपने आप से ग्लानि भी। ऐसे कई प्रसंग आंखों के सामने से चलचित्र की भांति घूम गए, जब अपने को मां का अभाव खला था और उस खलने को एकांत में जाकर रो-रोक हल्का किया था। उन सारे प्रसंगों में हुई पीड़ा को माताजी के प्रथम संपर्क ने जैसे धो-पोंछ दिया और लगा कि कौन कहता है कि अपनी मां नहीं है। मां यह सामने बैठती तो है। जन्म के बाद से तब तक अनुभव होती रही मां की कमी कुछ ही पलों में समाप्त हो गई और तरसते पुत्र को मां का स्नेह, वात्सल्य मिला। मजे की बात यह है कि कुछ देर बाद गुरुदेव आ गए, तब उन्होंने माताजी को हमारे बारे में बताया। इससे पहले हम अपना सामान्य परिचय नाम, गांव आदि ही बता पाए थे।
गुरुदेव ने बातचीत के दौरान बताया कि वे सहस्रकुण्डीय गायत्री महायज्ञ करने जा रहे हैं। महायज्ञ गायत्री तपोभूमि के क्षेत्र में होना है और उस अवसर पर तुम्हें भी आना है। गुरुदेव ने अब तक बुद्धि चेतना को प्रभावित किया था, कुछ देर पहले माताजी के स्नेह, ममत्व ने अपनी भाव श्रद्धा को भी समर्पित करा लिया। गुरुदेव ने सहस्रकुण्डीय यज्ञ में समय से पहले आने के लिए कहा तो न करने का कोई प्रश्न ही नहीं था। समय से पूर्व ही मथुरा पहुंच गए और निवेदन किया कि काम बताया जाए। गायत्री महायज्ञ अति विशाल था। बताया गया था कि इसमें लाखों लोगों को निमंत्रण भेजे गए हैं। सब नहीं आए, तो भी पांच लाख लोगों का आना निश्चित है। इतने बड़े आयोजन में स्वयं सेवकों की एक पूरी फौज चाहिए। पता नहीं इस संबंध में क्या तैयारी हुई है। लेकिन स्वयं भी उस फौज का एक सदस्य होना चाहिए। यह सोच कर अपने आपको प्रस्तुत कर दिया। पूज्य गुरुदेव ने कहा—तुम आयोजन का हिसाब-किताब देखना। जिसे जहां खर्च की जरूरत पड़े, उसकी पूर्ति करना और जहां से जो सहयोग प्राप्त हो उसे संभालना।
हिसाब लगाकर देखा, महायज्ञ में पांच लाख लोग आएंगे। ये लोग चार दिन रहेंगे। चार दिन तक दो समय भोजन करेंगे और एक व्यक्ति पर एक समय के भोजन का खर्च दो रुपया भी मानें तो सिर्फ भोजन पर ही चालीस लाख रुपए खर्च होगा। उन्हें ठहराने, यज्ञ कराने, पण्डितों को दक्षिणा देने, आयोजन स्थल की व्यवस्था करने और दूसरे खर्च तो इस सब के अलावा थे। जो पैसा आया था, वह टैन्ट वालों को दे दिया, चिन्ता हुई कि बाकी का इंतजाम कहां से होगा? गुरुदेव के सामने इसकी चिंता रखी तो उन्होंने बड़ी सहजता से कहा—इसकी चिन्ता हम क्यों करे? यह काम भगवान का है, भगवान ही इसका प्रबन्ध करेंगे और सचमुच भगवान ने प्रबंध किया। चार दिन का यह विराट आयोजन-अभिनव महाकुंभ इतनी कुशलता से संपन्न हो गया कि जिन लोगों ने उसमें भाग लिया वे आज भी ‘‘न भूतो न भविष्यति’’ कहते हुए उसका गुणगान करते नहीं थकते हैं। गुरुदेव के व्यक्तित्व का भागवत पक्ष यहीं हमारे सामने खुलकर आया। यह आस्था गहराई तक जड़ जमा गई कि पूज्य गुरुदेव व्यक्ति नहीं शक्ति हैं। स्वयं भगवान उनके रूप में अवतरित हुए हैं। एक समय में जो राम थे और एक युग में जो कृष्ण थे, वही भगवान समन्वित रूप से उनके कलेवर में प्रकट हुए हैं। अपनी मान्यताओं में यह चौथा मोड़ था। पहले हमने गुरुदेव को एक महान लेखक के रूप में जाना, फिर उन्हें क्रान्तिकारी विचारक के रूप में समझा, फिर वे भारतीय संस्कृति के जीते-जागते प्रतीक लगे और अब वे साक्षात् भगवान के रूप में दिखाई दिए।
पूज्य गुरुदेव का भाष्य किया हुआ आर्ष साहित्य तब तक प्रकाशित हो चुका था। इस साहित्य का एक सैट उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल विश्वनाथदास को भेंट किया गया। राज्यपाल महोदय गायत्री तपोभूमि आए हुए थे और उनकी आवभगत में हम भी लगे हुए थे। तपोभूमि और उनके संस्थापक अधिष्ठाता पूज्य गुरुदेव से वे बहुत प्रभावित हुए। जाते-जाते उन्होंने कहा कि ‘हम यहां भगवान कृष्ण की नगरी में तीर्थ दर्शन करने आए। भगवान के साक्षात् दर्शन तो नहीं हुए, पर आपको देखकर आप में भगवान कृष्ण के दर्शन अवश्य हो गए।’ राज्यपाल महोदय की यह टिप्पणी सुनकर अपनी आस्था और पुष्ट हुई कि पूज्य गुरुदेव व्यक्ति नहीं शक्ति हैं, वे साक्षात् भगवान हैं।
इसके बाद गुरुदेव के सान्निध्य में दिनों दिन अपने आपको घुलाने-मिलाने की तत्परता बढ़ने लगी। शिविर आयोजनों का क्रम महायज्ञ के बाद ही चला। प्रत्येक शिविर में उपस्थित होने की चेष्टा होती और इस चेष्टा में कदाचित ही कोई शिविर वर्ग छूटा हो। जातीय सम्मेलन, नवरात्रि साधन, पंचकोशी साधना, शिक्षा सम्मेलन, स्वास्थ्य-आयुर्वेद-प्राकृतिक चिकित्सा, योग, सूर्य चिकित्सा, संस्कार शिविर, गीता शिविर, रामायण शिविर, भागवत सत्र आदि कितने ही वर्गों की शिविर श्रृंखला चली और प्रत्येक वर्ग में सम्मिलित रहने का अपना क्रम भी बना रहा। पूज्य गुरुदेव के साधना कक्ष में जल रहे अखण्ड दीपक से प्रभावित होकर हमने भी अपने घर में अखण्ड दीपक की स्थापना की थी। अज्ञातवास से लौटने के बाद गुरुदेव ने हमें जब गायत्री तपोभूमि आने का आदेश दिया तो उसकी तैयारी में वह अखण्ड दीपक भी गुरुदेव ने अपने कक्ष में स्थानांतरित कर लिया। शिष्य की चेतना जिस प्रकार गुरु की चेतना से तदाकार होनी चाहिए उसी के प्रतीक रूप में उस दीपक की ज्योति गुरुदेव के साधना कक्ष में जलने वाली ज्योति में समा गई। स्वतंत्र रूप से दीपक कोई दस वर्ष तक प्रज्ज्वलित रहा था।
मथुरा आने की तैयारी के दिनों में अच्छी तरह याद है कि गायत्री तपोभूमि में शिविरों की श्रृंखला अनवरत चलने लगी थी। लेकिन तब शिविरार्थियों की संख्या सीमित ही रखी जाती थी। एक शिविर में सौ-पचास परिजनों को लिया जाता था। संख्या जानबूझ कर सीमित रखी जाती थी। साधक तब गायत्री तपोभूमि में ठहरते थे। पूज्य गुरुदेव और वंदनीया माताजी प्रतिदिन प्रातः अखण्ड ज्योति कार्यालय से तपोभूमि आते। पूज्य गुरुदेव एक घण्टे का प्रवचन करते। प्रवचन से पहले वंदनीया माताजी संगीत देतीं। प्रवचन समाप्त होने के बाद सभी साधक गुरुदेव के निवास पर जाते और वहां भोजन कर वापस लौटते। साधकों के साथ तपोभूमि से चलकर अखण्ड ज्योति तक गुरुदेव के साथ जाना और वापस लौटना एक अनूठे अनुभव से गुजरना था। लौटकर हम लोग भावी कार्यक्रमों और योजनाओं पर विचार विमर्श करते थे।
सन् 1967 में हम स्थाई रूप से मथुरा आ गए। पूज्य गुरुदेव के हरिद्वार जाने की तैयारी चलने लगी थी। तय हुआ था कि बाद में उनके प्रवासीय कार्यक्रम लगभग नहीं होंगे। देश भर में फैली युग निर्माण परिवार शाखाओं में इसीलिए होड़ मची हुई थी कि पूज्य गुरुदेव शांतिकुंज में एकान्त वास से पहले एक बार उनके यहां अवश्य आएं। इस कारण देश भर से गायत्री महायज्ञ और युग निर्माण सम्मेलनों के प्रस्ताव आते। यथा सुविधा उनकी स्वीकृति और व्यवस्था दी जाती। इन आयोजनों में प्रायः गुरुदेव के साथ जाना होता तब यह कल्पना भी नहीं थी कि इस प्रकार साथ रहकर वे अपने परिवार से मिला-जुला और परिचय करा रहे हैं। मथुरा आने से पूर्व हम अपने पारिवारिक दायित्वों को लगभग पूरा कर चुके थे। एक पुत्री का विवाह काफी समय पहले ही हो गया था। दो पुत्र थे—उन्हें स्वावलंबी बनने की राह पर लगा दिया। विवाह दोनों में से एक का भी नहीं हुआ था।
मथुरा आने के बाद यह इच्छा तो बनी ही रही कि दोनों का विवाह कर दें। बड़ा पुत्र राम था, छोटे सतीश का विवाह तो बाद में होता रह सकता है, राम का तो हो ही जाए। इस संबंध में गुरुदेव से निवेदन किया तो उन्होंने न जाने क्या सोचकर कहा कि राम का विवाह रहने दो। शादी करना हो तो सतीश की कर दो। राम बड़ा था, बड़ा पुत्र कुंवारा ही रहे और छोटे की शादी पहले कर दें, कुछ समझ में नहीं आया। हवाला भी दिया कि लोग क्या कहेंगे? राम की शादी नहीं की और छोटे की शादी कर दी। अपनी बात गुरुदेव के सामने बार-बार रखी और हर बार वे यही कहते।
सन् 1971 में पूज्य गुरुदेव के विदाई समारोह की तैयारियां चल रही थीं। इसी समारोह में आदर्श विवाह भी संपन्न होने थे। आदर्श विवाहों का निर्धारण हो ही रहा था कि हमने इस बार फिर निवेदन कर दिया। कहा कि गुरुदेव राम की शादी भी इसी अवसर पर करवा दीजिए। हमारी बड़ी इच्छा है। वंदनीया माताजी वहीं विराजमान थीं। उन्होंने कहा ठीक है, राम का आदर्श विवाह कर दो। मेरी निगाह में लड़की भी है। मृत्युंजय (पूज्य गुरुदेव के पुत्र) की साली इन्दिरा से संबंध तय समझो। राम भी वहीं मौजूद था। और जून 1971 में दोनों का विवाह संपन्न हो गया। पूज्य गुरुदेव और वंदनीया माताजी के आशीर्वाद से बनी यह युगल जोड़ी देखकर हम पति-पत्नी अपने भाग्य पर इठलाने लगे।
विदाई समारोह में पूज्य गुरुदेव और वंदनीया माताजी को मथुरावासियों ने भारी मन से विदाई दी। उस समारोह में गुरुदेव ने घोषित किया था कि लीलापत को हम अपने मिशन का संगठनात्मक उत्तराधिकारी घोषित किए जा रहे हैं। सब लोग उन्हें अपना बड़ा भाई समझें। अपने व्यक्तिगत पत्रों और निजी चर्चाओं में तो उन्होंने यह बात अनेक बार दोहराई थी। विदाई से पहले लगभग तीन साल क्षेत्रों में गायत्री महायज्ञ और युग निर्माण सम्मेलनों के धुआंधार आयोजन हुए। इनमें प्रायः सभी में गुरुदेव के साथ रहना हुआ। कार्यकर्त्ता गोष्ठियों में वे परिचय कराते और कहते कि हमारे बाद संगठन का काम लीलापत ही देखेंगे। सन् 1971 में गायत्री जयंती के दिन पूज्य गुरुदेव मथुरा से चले गए। उस दिन के बाद से अब तक ऐसी कोई घटना हमें याद नहीं है, जग लगा हो कि परिजनों ने पूज्य गुरुदेव के इस निर्देश की अवहेलना की है। अपने संबंध में भी ऐसा कोई क्षण याद नहीं पड़ता, जिसमें अपना कर्तव्य पूरा करने में प्रमाद किया हो।
विदाई से पूर्व पूज्य गुरुदेव ने यह भी स्पष्ट किया कि हमारे ज्ञान यज्ञ के विचार क्रान्ति अभियान के दो पक्ष हैं। एक पक्ष है सत्संग और दूसरा स्वाध्याय। पक्षी के दो पंखों की भांति, गाड़ी के दो पहियों की तरह, गायत्री के दो पांवों की तरह और सिक्के के दो पहलुओं की भांति दोनों ही महत्वपूर्ण हैं और हमारे दोनों प्रतिष्ठा इनमें से एक-एक पक्ष का निर्वाह करेंगे। इस निर्धारण में सत्संग का पक्ष शांतिकुंज के जिम्मे आया और स्वाध्याय गायत्री तपोभूमि के हिस्से। परिजनों की विदाई के बाद शांतिकुंज में पूज्य गुरुदेव के सान्निध्य में एक के बाद एक असंख्य महत्वपूर्ण शिविर चले और गायत्री तपोभूमि ने सैकड़ों नई पुस्तकों का प्रकाशन किया। सौ पुस्तकों का एक सैट तो पूज्य गुरुदेव की विदाई के साल भर के भीतर ही प्रकाशित हुआ था और इसे हाथों-हाथ लिया गया। तब से अब तक दोनों प्रतिष्ठान अपना दायित्व कुशलतापूर्वक निभाते आ रहे हैं।
पुत्रों की ओर से हम लोग निश्चिंत हो ही गए थे। राम का व्यवसाय ठीक-ठाक चलने लगा। छोटे बेटे सतीश का घरबार भी यथासमय बस गया। डाक्टरी पास कर उसने चिकित्सा कर्म अपना लिया। दोनों की गृहस्थी भलीभांति चलने लगी और बीस वर्ष तक सब कुछ निर्बाध चलता रहा है। कहीं कोई गतिरोध नहीं आया। हाल ही में कुछ माह पहले ग्वालियर से एक दिन खबर आती है कि राम की तबियत बहुत खराब है। दौड़े हुए वहां गए, देखा वास्तव में राम की हालत चिंताजनक थी। श्वांस लेने में भारी कठिनाई हो रही थी। पेट में कुछ टिक नहीं रहा था। दवाएं भी निकल जातीं। ग्वालियर में अच्छे डॉक्टरों को दिखाया। डाक्टरों ने कहा—हालत बहुत बिगड़ी हुई है, जीवन खतरे में है, तुरंत अच्छी चिकित्सा उपलब्ध कराएं। ग्वालियर से मथुरा लाए, वहां से आगरा और आगरा से दिल्ली के अस्पतालों में इलाज कराया। खतरे की घड़ी तो आरंभ में ही टल गई। डाक्टरों ने जैसे निराशा व्यक्त की थी, उसे देखते हुए राम का बचना मुश्किल ही था, पर जैसे चमत्कार हुआ और खतरा टल गया। फिर भी ठीक होने में चार महीने लगे।
राम और इंदिरा समेत बच्चों को हमने तब ग्वालियर नहीं जाने दिया, मथुरा में ही रोक लिया। हालांकि राम तब लगभग स्वस्थ ही थे कि एक दिन अचानक तबियत बिगड़ी। पिछली बीमारी को ध्यान में रखते हुए इलाज के लिए उन्हें दिल्ली ले गए। डॉक्टरों ने आश्वस्त किया कि चिंता की कोई बात नहीं है। सब ठीक हो जाएगा। सोचा, जब डॉक्टर प्राण संकट बता रहे थे, तब कुछ नहीं बिगड़ा तो अब क्या बिगड़ेगा? लेकिन अघटित इसी समय हुआ। बीमारी की हालत में राम की तबियत अचानक बहुत बुरी तरह बिगड़ी और संभालने का कोई प्रयत्न करें, डॉक्टर आएं, इसके पहले ही उनके प्राण-पखेरू उड़ गए। अस्पताल में तब हमारे अपने अलावा हमारी बहू इंदिरा ही थी। मृत्युंजय कोई दवा लाने अस्पताल से बाहर गए थे। इंदिरा ने राम के चले जाने का वज्रपात किस प्रकार सहा, कहना कठिन है। उल्टे हमें ढांढस बंधाया, कहा—कि पिताजी अब मैं ही आपके लिए राम हूं। तभी मृत्युंजय भी आ गए और बहू ने कहा कि अब इन्हें घर ले चलूं। इंदिरा को इतना निश्चल और दृढ़ हमने पहले कभी नहीं देखा था। पुत्र के असमय स्वर्गवास से कोई भी पिता टूट सकता है और पति की असमय मौत पत्नी के लिए उससे भी ज्यादा त्रासद होती है, लेकिन बहु इंदिरा ने हमें जिस तरह संभाला, धीरज बंधाया, उसे हम ही जानते हैं।
वज्रपात के इन क्षणों में कई बार यह विचार भी आया कि अब तक की गई उपासना का, किए गए समर्पण का क्या यही परिणाम मिलना था? किस मुंह से हम कहें कि अध्यात्म का मार्ग उन्नति और सुख-शांति का सुनिश्चित मार्ग है? कई परिजनों ने गायत्री उपासना पर ही प्रश्न चिन्ह लगाते हुए पत्र लिखे। लेकिन अपना मन यह सब मानने के लिए तैयार नहीं था। गायत्री की कृपा पर किंचित भी संदेह नहीं होता बल्कि अपनी ही त्रुटि के कारण यह अनहोनी हुई लगती थी। फिर भी मन में दरार तो आई ही। एक नहीं अनेक बार कभी अपनी निष्ठा पर तो कभी अपनी साधना-उपासना की, सेवा-समर्पण की महत्ता पर मन में संदेह के बादल उठते रहे। दिन-रात इस मनोदशा से गुजरना होता। नियमित उपासना और गायत्री माता के दर्शन को जाते समय भी यही पीड़ा सालती, पूज्य गुरुदेव की पादुकाओं को प्रणाम करते हुए भी मन इन्हीं बिजलियों की गड़गड़ाहट से कांपता रहता।
उपासना के क्षणों में एक बार व्यथा इतनी घनीभूत हुई कि लगा सिर फट जाएगा। उस घनघोर पीड़ा के क्षणों में अंतःकरण में पूज्य गुरुदेव की आवाज गूंजी। वे कह रहे थे—न साधना उपासना मिथ्या है और न समर्पण। लोग सेवा का जो मार्ग तुमने अपनाया है, वह भी खरा है। यह क्यों सोचते हों कि राम इस सबके बावजूद तुमसे बिछुड़ गया। सचाई यह है कि राम इस सबके कारण ही तुम लोगों के साथ इतने समय तक रहा वरना उसे तो काफी समय पहले चला जाना चाहिए था।
उनकी वाणी सुनते-सुनते ही बोध हुआ कि विदाई सम्मेलन के समय पूज्य गुरुदेव राम की शादी के लिए क्यों मना कर रहे थे? लगा कि माताजी ने अपने विशेष अधिकार का प्रयोग कर राम की शादी करवा दी और पूज्य गुरुदेव ने अपने बेटे की या पौत्र की आयु बढ़वा दी। अंतःकरण में वही आवाज फिर गूंजी, प्रकृति के नियमों को कौन बदल सकता है? भगवान कृष्ण अपनी मौत को नहीं टाल सके, हम स्वयं अपने पर आया संकट स्थगित नहीं कर सके। इस होनहार को टालना क्या उचित होता और कहां तक टालते रहते?
उन्हीं की वाणी अन्तर्मन में गूंज रही थी। कहा—प्रकृति के नियमों में हस्तक्षेप कर, विधान को उलटकर, कर्म संस्कारों को रोककर राम की आयु जितनी बढ़ाई जा सकती थी, उतनी बढ़ा दी गई। यह अवधि बीस वर्ष से ज्यादा तक जाती है। बढ़ाई गई आयु तो अप्रैल 1991 में ही पूरी हो गई। ग्वालियर में उसी समय राम का जीवन पूर्ण हो रहा था, लेकिन इसे वंदनीया माताजी का ही अनुग्रह मानना चाहिए कि उन्होंने अपने तप का एक अंश दे कर चार माह का समय और बढ़ाया। इसके पीछे उनकी दृष्टि यही थी कि बच्चे अपने पूर्व स्थान से हटकर सुरक्षित जगह में जम जाएं। वह स्थान मथुरा के सिवाय और कहां हो सकता था। चार माह की अवधि में वह कार्य सम्पन्न हो गया। आयु के इस विस्तार के लिए माताजी को क्या विशेष अनुष्ठान और तप करने पड़े, इसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। बस यही जानना और संतोष करना चाहिए कि ग्वालियर से मथुरा तक का आयुदान माताजी का ही विशिष्ट अनुग्रह है।
पूज्यवर की आवाज सुनाई दे रही थी, तुम्हारा हृदय भग्न हुआ है, यह स्वाभाविक है, पर अपने दुःख को इंदिरा के दुख की तुलना में रखकर देखो। उसका दुःख कितना भारी है। तुम्हारा दुःख तो भावनात्मक ही ज्यादा है। बेटी इंदिरा के सामने तो अपना और अपने तीन बच्चों के भविष्य का भी सवाल है। उस सवाल और अनिश्चितता से जूझते हुए भी वह चुप और गंभीर है। उसकी तुलना में तुम्हारा क्षोभ हल्का ही है। अतः इस दुःख को सहना सीखो। याद है हमने तुम्हें हमेशा अपने साथ दौरों में रखा। विदाई सम्मेलन से पूर्व के दौरों में भी तुम साथ रहते थे और बाद में शक्तिपीठों के उद्घाटन कार्यक्रमों में भी तुम साथ रहे। तुम्हारा साथ चलना संभव न रहा, तो हमने उद्घाटन कार्यक्रमों में जाना स्थगित कर दिया। तुम मुझसे अभिन्न रूप से जुड़े हुए हो।
हमने पूछा कि अब क्या आदेश है। उत्तर अन्तःकरण में ही मिला-लिखो। हमने कहा—‘‘गुरुदेव हमें स्कूल जाने का कहां मौका मिला। किताब पढ़ लेते हैं और चिट्ठियों का जवाब दे लेते हैं, इतनी योग्यता है......।’’ अपनी बात पूरी करते इससे पहले ही उन्होंने कहा—‘‘इसकी चिन्ता क्यों करते हो? कबीर कहां पढ़े-लिखे थे? उन्हें अक्षरज्ञान तक नहीं था। फिर भी उनकी अन्तःचेतना में दिव्य आलोक का अवतरण हुआ और प्रेरणा जगी कि वे अपनी अनुभूतियों को गाएं। उन्होंने गाना शुरू किया, तो ऐसा साहित्य सामने आया कि आज विश्व विद्यालयों के प्रकाण्ड विद्वान भी उसे समझने में अपना पूरा समय और पूरी प्रतिभा झोंक देते हैं, फिर भी उन्हें संतोष नहीं होता कि कबीर के उद्बोधन की वे हृदयंगम कर पाए हैं।’’
पूज्य गुरुदेव की वाणी सुनाई दी—‘‘अंतस् में प्रेरणा उमगने लगे, मार्गदर्शक सत्ता अगर माध्यम चुन ले और युग की पुकार किसी कण्ठ का वरण कर ले तो दूसरी किन्हीं योग्यताओं की जरूरत नहीं है। कबीर की तरह, सूर की तरह और मीरा की तरह तुम भी अपने आपको बांस की पोंगरी समझो, जो किसी के अधरों पर सिर्फ रखी जानी है और जिसे उस मुख से निकली वायु को अपने भीतर मार्ग भर देना है। स्वर लहरी तो फिर अपने आप गूंजेगी।’’
बहू इंदिरा के संबंध में भी भीतर से आश्वासन मिला—‘‘जब चौबीस वर्ष पहले तुमने अपना समर्पण कर दिया, अपना योगक्षेम हमें सौंप दिया तो फिर अब चिंता क्यों करते हो? इंदिरा के प्रति तुम्हें नहीं, हमें अपना दायित्व निभाना है। वह मिशन के काम में लगेगी। बहू होने के नाते परोक्ष रूप से तो वह पहले भी मिशन का ही काम कर रही थी लेकिन अब प्रकट रूप से भी वह युग निर्माण की गतिविधियों में सहयोगी सिद्ध होगी।
लिखने के संबंध में निर्देश था कि सुबह के समय कुछ देर बैठा करो। हम स्वयं बताएंगे कि तुम्हें क्या लिखना है? एक दिन इसी प्रयास क्रम में प्रेरणा हुई कि विदाई सम्मेलन से पहले शिविरों में पूज्य गुरुदेव जो प्रवचन देते थे, उन्हें ही इसके लिए लिपिबद्ध कर लिया जाए। उन शिविरों में दिए गए प्रवचनों के नोट्स कहां रखे हैं? यह सब भी याद नहीं था। लग रहा था कि मथुरा में आई 1978 की प्रचण्ड बाढ़ के समय कहीं वे भी बह गए हैं। परिजनों को ध्यान होगा कि तब मथुरा में कई महत्वपूर्ण रिकार्ड यमुना की बाढ़ में बह गए थे या नष्ट हो गए थे। लेकिन अन्तःकरण में गूंज रही उनकी वाणी उनका उल्लेख कर रही थी, तो निश्चित था कि वे नष्ट नहीं हुए होंगे। ढूंढ़ा, तो उन्हें एक जगह सुरक्षित पाया। लेकिन वह लिखावट और संदर्भ समझना मुश्किल था। गुरुदेव ने यहां भी आश्वस्त किया और एक बार जमकर बैठना भर पर्याप्त बताया।
उस प्रेरणा के बाद से नियमित बैठना जारी है। निश्चित समय पर वे नोट्स लेकर बैठ जाते हैं। गायत्री माता, पूज्य गुरुदेव और वंदनीया माताजी का स्मरण करते हैं, तो अनुभव होता है कि जिन तारीखों में ये नोट्स लिए गए हैं, उन तारीखों के प्रवचन पूज्य गुरुदेव के श्रीमुख से ही सुन रहे हैं। यही नहीं वही लिखा भी रहे हैं और कभी कोई अंश छूट जाता है तो उसे पूरा भी कराते हैं।
पूज्य गुरुदेव के इन प्रवचनों में धर्म और अध्यात्म का व्यावहारिक पक्ष मुखरित हुआ है। उनके प्रवचनों की भाषा इतनी सुबोध और मर्मस्पर्शी है कि सीधे अंतःस्थल तक पहुंचती है। यह भी उल्लेखनीय है कि प्रवचन उस समय के हैं, जब पूज्य गुरुदेव जीवन के विभिन्न पक्षों को अध्यात्म की दृष्टि से देख और अपने चिंतन को उद्घाटित कर रहे थे। इसलिए भी इनका महत्व विशेष है।