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Magazine - Year 1957 - Version 2

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विचारों की अमोघ शक्ति और उसका सदुपयोग

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(श्री एक जिज्ञासु)

संसार में उन्नति के अनेक मार्ग हैं। वर्तमान समय में लोगों ने भौतिक साधनों को ही सब प्रकार की उन्नति का मूल समझ लिया है। इन लोगों का ख्याल है कि पास में बहुत सा पैसा रहने से, अच्छा मकान, बढ़िया वस्त्र, स्वादिष्ट भोजन सामग्री, आज्ञाकारी नौकर चाकर होने से हम सुखी हो सकते हैं और किसी भी साँसारिक क्षेत्र में उन्नति कर सकते हैं। पर वे लोग यह विचार नहीं करते कि उन्नति और अवनति का वास्तविक आधार इन बाहरी चीजों में नहीं है वरन् हमारे मानसिक विचारों में है। मानसिक विचारों की रेखायें चाहे कैसी भी धुँधली क्यों न हों वे ही हमारे जीवन के व्यापारों का संचालन करती हैं। हमारे अन्तःकरण के संस्कार ही हमको ऊँचे चढ़ाते हैं, या पतन के गर्त में गिराते हैं। अपने आन्तरिक विचारों के प्रभाव से ही हम बाह्य जगत में शुभ या अशुभ परिस्थितियों के शिकार बनते हैं और तद्नुकूल दुख या सुख पाते हैं। हमारे विचार ही वास्तव में हमारे जीवन के निर्माणकर्ता हैं। फिर भी अनेक मनुष्य इस सचाई पर ध्यान न देकर दूसरे व्यक्ति को या दूसरे पदार्थों को दोषी ठहराते हैं। वे अपनी त्रुटियों और अभावों के कारण अपने अंदर खोजने के बजाय बाहर ही खोजते रहते हैं और दुनिया की अथवा भगवान की शिकायत करते रहते हैं। हम देखते हैं कि अनेक मनुष्य बड़े विद्वान और पंडित समझे जाते हैं, पर उनका मन किस क्षण क्या विचार करेगा, इसका उनको जरा भी ध्यान नहीं रहता। और न वे अपनी कही हुई बातों पर स्वयं चल सकने की सामर्थ्य रखते हैं। इसी प्रकार अनेक बड़े-बड़े धनवान हैं जिनके पास वैभव शाली व्यक्तियों के समान शान-शौकत और आराम के सब साधन हैं, पर वे प्रायः असंतुष्ट ही दिखलायी पड़ते हैं। इसके विपरीत ऐसे भी पुरुष हैं जिनको बहुत थोड़े साधन प्राप्त हैं पर वे चाहे जैसे प्रतिकूल वातावरण में रहें, चाहे कैसी प्रतिकूल परिस्थिति में पड़ जायें, कैसी भी अशाँति का संकट का सामना क्यों न करना पड़े, पर वे अपने विचारों को जरा भी दुर्बल नहीं पड़ने देते। अपनी आँतरिक सामर्थ्य के द्वारा वे अपने भीतर से प्रकाश उत्पन्न करते हैं और प्रकाश वाली स्थिति में रहते हैं। बाहर का वातावरण चाहे कैसा भी खराब या प्रतिकूल क्यों न हो, वे उस ओर निगाह भी नहीं डालते और निरंतर प्रसन्नता में ही रमते हैं।

इस प्रकार के पुरुषों ने अपने विचारों को ठीक मार्ग पर चलाने, उनको अवसर के अनुकूल बदल सकने की कुँजी प्राप्त कर ली है। इसके प्रभाव से दुख उनको स्पर्श भी नहीं कर सकता। इस प्रकार के मनुष्य दूसरों में भी विश्वास उत्पन्न कर देते हैं। वे पराजय से कभी नहीं डरते; निंदा, आलोचना, टीका-टिप्पणी से कभी कर्तव्यच्युत नहीं होते और न उत्तरदायित्व से भागते हैं।

यदि तुम जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहते हो तो उसके लिए सब से अधिक आवश्यक बात यह है कि अपनी स्वतंत्रता, अपने व्यक्तित्व, अपनी दृढ़ता का इस प्रकार विकास करो कि लोगों के बीच रहते हुए तुम अपने अस्तित्व का अन्त न कर दो, किन्तु अविचलित होकर अपने विचारों पर स्थिर रहो। दूसरे मनुष्य तुम्हारी गुत्थियों को नहीं सुलझा सकते, तुम्हारे प्रश्नों का निर्णय नहीं कर सकते, तुम्हारे ध्येय का निश्चय नहीं कर सकते। अपनी समस्याओं को तुम स्वयं ही हल कर सकते हो, तुम्हारे सुख, सफलता, कल्याण, सब का आधार तुम्हारे विचारों के बल पर निर्भर है। विचारों का बल ही तुम्हारी आँतरिक शक्ति का आधार है। अगर तुम दृढ़ विचार और निश्चय वाले न होगे तो तुम्हारी जीवन-नौका अपने लक्ष्य पर पहुँचने के बजाय लहरों में इधर-उधर डोलती रहेगी।

विचारों का प्रभाव केवल हमारे मस्तिष्क अथवा हृदय में ही सीमित नहीं रहता, वरन् शरीर के प्रत्येक हिस्से, एक-एक अणु में उनका असर काम करता है। वर्तमान समय के कितने ही शरीर शास्त्रियों ने खोज करके निर्णय किया है कि जो भूरे रंग का पदार्थ मस्तिष्क में है, वही अँगुली के एक पोरवा तक में भी पाया जाता है। इससे हम यह निर्णय कर सकते हैं कि हमारा दिमाग ही नहीं वरन् सारा शरीर ही विचारों के निर्माण में अप्रत्यक्ष भाग लेता है।

जिस प्रकार शक्तिशाली, ऊर्ध्वगामी विचारों से मनुष्य बलवान, प्रगतिशील, प्रभाव युक्त बनता है उसी प्रकार विरोधी विचारों से मनुष्य की दशा एक दम बिगड़ जाती है, वह बीमार पड़ जाता है, मर तक जाता है। आप लोगों ने भूत-प्रेतों के ऐसे किस्से अवश्य सुने होंगे जिनमें कितने ही हट्टे-कट्टे व्यक्ति सिर्फ काल्पनिक भय सामने आने से कुछ मिनटों में ही मर गये। यह विचारों की शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

मानस शास्त्र का यह निश्चित सिद्धाँत है कि जिस वस्तु का निरंतर ध्यान किया जाता है वह प्रत्यक्ष में भी दिखलाई देती है। तुम जिस अच्छी या बुरी स्थिति का सदैव चिन्तन करते रहोगे, वह एक दिन तुम्हारे सामने अवश्य आयेगी। एक नवयुवक जो सब तरह मजबूत था और जिसे किसी प्रकार का रोग न था, किसी भ्रम वश यह समझने लग गया कि मैं अधिक समय नहीं जी सकता। उसकी यह धारणा ऐसी पक्की हो गई कि वह रात दिन इसी मृत्यु के विचार में डूबा रहता और वास्तव में कुछ ही महीनों में वह मर गया। जो व्यक्ति सारे दिन दुःख, शोक, असहायता के विचारों में ही लगे रहते हैं और दुःखमय स्थिति का ही चिंतन किया करते हैं, वे दीन, दुखी और दरिद्रावस्था को प्राप्त होकर बड़ी बुरी दशा में अपने जीवन का अन्त करते हैं।

इस प्रकार अनिष्टकारी विचार दूसरों के द्वारा भी हमारे मन में उत्पन्न किये जा सकते हैं। जब किसी व्यक्ति से कुछ अधिक समय बाद मिलने पर उसके मित्र या सम्बंधी यह कहते हैं कि तुम तो बड़े कमजोर या बीमार से दिखायी पड़ते हो तो अनेक निर्बल विचारों के व्यक्तियों पर उसका बुरा प्रभाव पड़ता है। कल्पना शक्ति के प्रभाव का एक उदाहरण लंदन मेडिकल जर्नल में छपा था कि इंग्लैण्ड के एक नगर के किसी रईस ने एक दिन डॉक्टर को बुलाकर अपनी शारीरिक अवस्था की जाँच करने को कहा। उसने बतलाया कि मुझे आजकल बड़ी घबराहट और बेचैनी रहती है और जरा सा काम करने में मैं बेहद थकान का अनुभव करने लगता हूँ। डॉक्टर उसकी जाँच करके चला गया और कह गया कि मैं रोग का सब वृत्तांत और चिकित्सा कल लिखकर भेज दूँगा। दूसरे दिन जब डॉक्टर का पत्र आया तो उसमें लिखा था, तुम्हारा बायाँ फेफड़ा बिल्कुल नष्ट हो गया है, तुम्हारे हृदय की शक्ति क्षीण हो गयी है। तुम्हारा जीवन कुछ ही सप्ताह का है, इस लिये अपने घर की जो कुछ व्यवस्था तुम करना चाहते हो शीघ्र कर डालो। इन शब्दों को पढ़कर रईस ऐसा घबड़ा गया कि उसके शरीर से पसीना छूटने लगा, उसका सर्वांग शिथिल हो गया, श्वाँस लेने में तकलीफ होने लगी और वह एक दम मरणासन्न सा होकर बिस्तर पर पड़ गया। नौकर उसकी ऐसी बुरी हालत देखकर डॉक्टर के पास दौड़ा गया। डॉक्टर ने आकर देखा कि वह बोल भी नहीं सकता और छाती की तरफ अँगुली से इशारा कर रहा है। डॉक्टर को भी एकाएक उसकी दशा में ऐसा परिवर्तन देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। पर उसी समय उसकी निगाह पलंग के पास पड़े पत्र पर पड़ी और उसे पढ़ते ही वह सारा रहस्य और साथ ही अपनी भयंकर भूल को समझ गया। वास्तव में वह पत्र उसने एक दूसरे मरीज के लिए लिखा था, जिसकी हालत बहुत शोचनीय थी। पर गलती से उसने उस रईस के लिफाफे में रख दिया। जब डॉक्टर ने उसे अपनी गलती बतलाई और रईस को उसके नीरोग होने का विश्वास दिलाया तब कहीं जाकर वह बिस्तर से उठा और थोड़ी देर बाद उसकी हालत ठीक हो गयी।

इस उदाहरण से स्पष्ट जान पड़ता है कि विचारों की शक्ति बहुत बड़ी होती है और उसके द्वारा हम अपनी भलाई या बुराई दोनों ही बहुत अधिक परिमाण में कर सकते हैं। इसलिये विचारों को वशीभूत रखना और ऊर्ध्वगामी बनाये रखना ही हमारा कर्तव्य है।

हम पर जो दुख आते हैं, वे हमारे ही पसंद किये होते हैं। वे हमारे कर्मों के फल हैं। वे हमारे स्वभाव के ही अंग हैं। साठ साल तक जेल में रहने के बाद जब एक चीन निवासी को, नये बादशाह के राज्याभिषेक के उपलक्ष में जेल से छोड़ दिया गया तो वह चिल्ला उठा-अब मैं कहाँ जाऊँ? मैं तो कहीं नहीं जा सकता। मुझे तो उसी भयानक अँधेरी कोठरी में चूहों के पास जाने दो। मैं यह उजाला नहीं सह सकता। और उसने प्रार्थना की कि या तो मुझे मार डालो या फिर मुझे जेल में ही भेज दो। उसकी प्रार्थना के अनुसार वह फिर जेल में बंद कर दिया। सब मनुष्य की हालत ठीक ऐसी ही है। चाहे कोई भी दुख हो, उसे पकड़ने के लिए हम जी तोड़कर दौड़ लगाते हैं और उससे छुटकारा पाने के लिए बिल्कुल रजामन्द नहीं होते।

(स्वामी विवेकानंद)

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