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Magazine - Year 1957 - Version 2

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नारियाँ ही हमारे समाज को उच्च पद पर आसीन करायेंगी।

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(श्री शिवदत्त जी ज्ञानी)

किसी भी जाति की सभ्यता को नापने के जो अनेक तरीके हैं उनमें ‘स्त्रियों की स्थिति ‘ भी एक विशेष स्थान रखती है। संसार में प्राचीन काल में तो स्त्रियों की स्थिति अनेक देशों में गुलामों के तुल्य थी और अब भी अनेक स्थानों में वही दशा देखी जा सकती है। अन्य देशों में से कोई उसको केवल विलास की चीज समझकर चैन की बंशी बजाता है, और कोई उसे खिलौना की तरह समझ कर खिलवाड़ ही करता रहता है। पर प्राचीन भारत में स्त्रियों का इतना उच्च स्थान था कि वे पूजा के योग्य समझी जाती थीं। प्राचीन भारतीय समाज में स्त्रियों का जैसा सम्मान किया जाता था और उनको जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जितना महत्व मिला हुआ था उसका उदाहरण संसार भर में कहीं नहीं मिलता।

भारतीय संस्कृति में स्त्री व पुरुष दोनों को एक गाड़ी के दो पहियों की तरह माना गया था। दोनों पहिए साथ-साथ और बराबर चलेंगे तभी जीवन रूपी गाड़ी भली प्रकार अग्रसर हो सकती है। इसी दृष्टि से स्त्री को पुरुष की अर्धांगिनी कहा गया था। शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि “पत्नी पुरुष की आत्मा का आधा भाग है। इसलिए जब तक पुरुष पत्नी को प्राप्त नहीं कर लेता तब तक प्रजोत्पादन न होने से वह अपूर्ण रहता है।” महाभारत के आदि पर्व (74 -40) में लिखा है “भार्या पुरुष का आधा भाग व उसका श्रेष्ठतम मित्र है। वही त्रिवर्ग की जड़ है और वही तारने वाली है।” मनु भगवान ने तो स्पष्टतः ही कह दिया है कि “जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता रहते हैं।” इस व्यवस्था में इस बात की आशंका नहीं थी कि पुरुष अपनी शक्ति का घमण्ड करके स्त्री पर अपना अधिकार दिखला सके। जबकि स्त्री उसी का आधा अंग है तब अधिकार का प्रश्न ही नहीं उठ सकता। वे दोनों ही बराबर हैसियत रखते हैं। स्त्री व पुरुष एक ही पारिवारिक जीवन के दो विभिन्न पहलू हैं। पारिवारिक जीवन में दो प्रकार की जिम्मेदारियां रहती हैं। एक घर के भीतर की और दूसरे घर के बाहर की। इनमें एक का संचालन विशेषतः स्त्री द्वारा होता है और दूसरा पुरुष द्वारा । पारिवारिक अभ्युदय के लिये दोनों पहलुओं का सुचारु रूप से संचालन होना आवश्यक है। यदि दो में से किसी एक में कमी रही तो जीवन दुखमय हो जाता है।

स्त्री-पुरुष के एक साथ रहने से ही पारिवारिक जीवन का श्री गणेश होता है। ज्यों-ज्यों संतान वृद्धि होती है, या अन्य प्रकार से परिवार के सदस्यों की संख्या बढ़ने लगती है, त्यों-त्यों उसका आन्तरिक जीवन भी विकसित होने लगता है। इस जीवन का सम्बन्ध पूर्णतया स्त्री से ही रहता है। प्राचीन समाज में उसे ही परिवार के छोटे-बड़े सब सदस्यों की चिंता करनी पड़ती थी। उसे अपने घर को साफ सुथरा रखना, भोजन की व्यवस्था करना और अतिथि-संस्कार के उत्तरदायित्व को पूरा करना पड़ता था। उसे अपनी संतान का पालन पोषण करके उन्हें योग्य नागरिक बनाने का प्रयत्न भी करना पड़ता था। इसी लिये उसे गृहिणी के पद पर सुशोभित किया गया था। महाभारत के शाँति पर्व (144-66) में लिखा है “घर, घर नहीं है, वरन् गृहिणी ही घर कही जाती है।” प्राचीन सामाजिक जीवन में गृहिणी-पद अत्यन्त महत्वपूर्ण था, क्योंकि उस समय पारिवारिक जीवन स्वावलम्बन के सिद्धान्त पर स्थित था। इस लिये स्त्री के ऊपर लिखे कार्यों के अतिरिक्त सूत कातने, कपड़ा बुनने, गाय दुहने, खेती सम्बन्धित कार्यों की जिम्मेवारी भी उठानी पड़ती थी। यदि स्त्री घर के सब कार्यों की जिम्मेवारी अपने ऊपर न उठाये तो स्पष्ट है कि पुरुष को कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।

गृहिणी पद के अतिरिक्त प्रकृति ने स्त्री को मातृ-पद के योग्य भी बनाया है। ‘माता’ शब्द तो पारिवारिक जीवन के लिये मानो अमृत का भण्डार है। माता, परिवार के लिए त्याग, तप और प्रेम की त्रिवेणी ही है। माता और पुत्र का जो प्रेम परस्पर रहता है, उसी से पारिवारिक जीवन अधिक सुखी बनता है। माता समाज-सेवा के ऊँचे से ऊँचे आदर्शों की साक्षात् मूर्ति ही है। अपने बच्चों को पालने-पोसने में वह सब कष्टों को हँस-हँस कर झेलती है। प्राचीन भारत में माता की महिमा सबसे अधिक बतलायी गयी थी और सूत्र तथा स्मृति ग्रंथों में इस सम्बन्ध में, बहुत कुछ लिखा गया है।

स्त्री को उपरोक्त दो पदों के अतिरिक्त एक और पद प्राप्त था और वह था पुरुष की सहचरी का। गृहिणी और माता की जिम्मेदारियों से उनका जीवन नीरस न हो जाय, और घर के बाहरी झंझटों में फँस कर उसके पति का भी जीवन कटु न हो जाय, इस लिये वह अपने पति की सहचरी बनकर उसे जीवन-सौख्य का आनन्द प्रदान करती थी। प्रकृति ने उसे जो सौंदर्य और माधुर्य दिया है, उसे वह अपने प्रयत्नों से -शृंगार आदि से- ललित कला में परिणत करके जीवन के दुःखों को भुलाने में समर्थ होती थी। उसका सौंदर्य और माधुर्ययुक्त प्रेम, जो उसके अंग-अंग से टपकता था, उसके पति की दिन भर की चिंताओं और झंझटों को दूर करने में समर्थ होता था। विवाह के समय जो वेद मंत्र पढ़े जाते थे, उनमें स्त्री के गृहिणी, माता और सहचरी के पदों का उल्लेख है। ये भाव पहले से ही वधू के मन पर अंकित कर दिये जाते थे, जिससे नये जीवन में प्रवेश करने के पहले वे अपनी जिम्मेदारियों को भली प्रकार समझ ले। विवाह स्त्री और पुरुष को एक आजीवन बन्धन में बाँध देता था।

प्राचीन भारत की स्त्रियाँ माता, गृहिणी आदि के उत्तरदायित्व का अच्छी तरह निर्वाह करती थीं। बालक के गर्भ में आते ही मातृत्व की जिम्मेदारियाँ शुरू हो जाती थीं। माता अपने दूध के साथ उत्तम-उत्तम आदर्शों का पान भी बालक को करा देती थीं। ध्रुव, प्रह्लाद, राम, कृष्ण आदि विभूतियों का बहुत कुछ गौरव उनकी बालपन में माता द्वारा शिक्षा को ही था। तारा, कौशल्या, मन्दोदरी, सीता, द्रौपदी आदि के गृहस्थ जीवन की सफलता का कारण गृहिणी के कर्तव्यों का वास्तविक रूप से पालन करना ही था। संयुक्त परिवार प्रथा में तो गृहिणी का उत्तर दायित्व और भी बढ़ जाता है। विद्याध्ययन आदि क्षेत्रों में भी प्राचीन स्त्रियों ने कम उन्नति नहीं की थी। वैदिक मंत्रों की रचियता, दार्शनिक, कवि, गणितज्ञ आदि के रूप में प्राचीन भारत की अनेकों स्त्रियों के नाम अभी तक अमर हैं। विश्ववारा आत्रेयी (ऋग. 5/28), अपाला आत्रेयी (ऋग. 8/80/91), घोषा काक्षीवती (ऋग. 10/39/40) सिकता निवावरीः यमी वैवस्वती आदि वैदिक ऋषि-महिलाओं के नाम आज भी ऋग्वेद में मौजूद हैं। दर्शन-शास्त्र के इतिहास में गार्गी व मैत्रेयी के नाम प्रसिद्ध हैं। शारीरिक शक्ति व वीरता के क्षेत्र में कैकेयी आदि ने गौरव प्राप्त किया था। सीता ने राम के साथ जंगल-जंगल में भटक कर पति प्रेम का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण उपस्थित किया। सावित्री, सीता, मन्दोदरी, द्रौपदी आदि सती महिलायें मानी गयी हैं।

भारतीय स्त्रियों में आज भी अपनी इन पूर्वज देवियों का कुछ प्रभाव पाया जाता है। इस गिरी हुई हालत में भी उनमें जो, तप, त्याग, प्रतिनिष्ठा आदि के भाव भरे हैं, वे अन्यत्र कहीं नहीं पाये जाते। स्त्रियों ने ही प्राचीन आदर्शों को बहुत कुछ सँभाल रखा है, यद्यपि पुरुषों के एक बड़े हिस्से ने उनको त्याग दिया है। यदि हम अपने कर्तव्यों का सच्चे भाव से पालन करने लगें तो भारतीय नारियाँ पुनः भारतीय-समाज को पुनः सर्वोच्च पद पर आसीन करा सकती हैं।

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