
जीवन का उद्देश्य कैसे सफल हो?
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(श्री आर. एस. मिश्रा)
प्रत्येक व्यक्ति संसार में आकर सफलता और सुयश की अभिलाषा किया करता है। अन्यथा जो लोग किसी प्रकार पेट भर कर जीवन के दिन पूरे कर लेते हैं उनमें और पशु, पक्षियों के जीवन में कोई विशेष अंतर नहीं समझा जाता। पर जीवन की सफलता तब तक सम्भव नहीं जब तक हम अपना एक विशेष उद्देश्य न बना लें और उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ व्यावहारिक सिद्धाँत निश्चित न कर लें।
प्राचीन और अर्वाचीन विद्वानों ने मानवीय अभिलाषाओं पर विचार करके उनकी सफलता के लिए पाँच बातें आवश्यक बतलाई हैं-(1) सुस्पष्ट आदर्श (2) दृढ़ अभिलाषा (3) विश्वासप्रद आशायें (4)अटल संकल्प (5)संतुलित क्षतिपूर्ति।
इन पाँचों भावनाओं की यदि हम सर्व साधारण के समझने योग्य व्याख्या करना चाहें तो हम कहेंगे कि यदि तुम किसी खास लक्ष्य तक पहुँचना चाहते हो तो (1) तुम्हें इस बात का ठीक-ठाक ज्ञान होना चाहिए कि तुम्हारी इच्छा का यथार्थ रूप क्या है? (2) तुम्हारी इच्छा हार्दिक हो और उसे पूरा करने के लिए तुम्हारे हृदय में सच्ची लगन हो। (3) तुम्हारे अन्तर में यह विश्वास और आशा भी हो कि वह इच्छा अवश्य पूरी हो जायेगी (4)तुम्हारा संकल्प पक्का हो जिससे तुम सदैव उसके लिए प्रयत्न करते रहो। (5)यदि आवश्यकता पड़े तो उसे प्राप्त करने के लिए तुम उसका मूल्य चुकाने-किसी प्रकार का त्याग करने को भी तैयार हो।
सुस्पष्ट आदर्श का अर्थ अपनी भावनाओं का यथार्थ रूप में व्यक्त होना है। तुम्हारे आदर्श की मूर्ति तुम्हारे दिमाग में, मन में साफ-साफ मौजूद हो। ऐसा सुस्पष्ट, आदर्श उसी समय प्राप्त हो सकता है जब कि लक्ष्य, आदर्श, उद्देश्य, उसका प्रारम्भ, विकास और प्राप्ति अपनी आशाओं, आकाँक्षाओं और अभिलाषाओं आदि सभी बातों की सुनिश्चित रूप-रेखा तुम्हारे सामने मौजूद हो। तुम्हारे मानसिक नेत्रों के सामने तुम्हारा लक्ष्य अथवा ध्येय ऐसे स्थूल रूप में दिखायी पड़ता हो कि अपनी कल्पना के हाथों से उसे छू सको। उसकी एक-एक भाव-भंगिमा, उसकी एक-एक रेखा तुम्हारे नेत्रों को सजीव दिखलाई पड़ती हो। जितना ही तुम्हारा आदर्श का ज्ञान यथार्थ होगा, जितने ही उज्ज्वल रूप से तुम्हारी भावनायें मूर्तिवती होंगी उतना ही तुम्हारी कार्य-प्रणाली भी शक्तिशाली होगी और उतने ही वेग से तुम उसकी सफलता के लिए अपनी समस्त शक्तियों को केन्द्रित कर सकोगे।
सुस्पष्ट आदर्श का हम जितना भी महत्व समझें वह कम ही है। क्योंकि अगर उपर्युक्त चार बातों में से शेष चार को पूरा कर भी लें, पर हमारा लक्ष्य अथवा ध्येय ही हमारे सामने स्पष्ट नहीं है तो हम कभी सफलता के दर्शन नहीं कर सकते। कितने ही लोग जो जन्म भर बड़े-बड़े उद्योग, प्रयत्न करते रहते हैं, लक्ष्य के अस्पष्ट या अस्थिर होने के कारण कुछ नहीं कर पाते। ऐसा व्यक्ति उस मनुष्य के समान है जो अपने निर्दिष्ट स्थान, उसके मार्ग और यात्रा के विवरण की जानकारी किये बिना ही यात्रा आरम्भ कर देता है। वह नहीं जानता कि किधर जा रहा है, पर मन में सोचता है कि मैं अपने गन्तव्य स्थान की ओर जा रहा हूँ। या वह ऐसे मनुष्य के समान है जो बिना निशाना लगाये ही बन्दूक छोड़ देता है और फिर भी आशा करता है कि गोली लक्ष्य पर लग ही जायेगी। या वह ऐसे मनुष्य के समान है जो मकान का ढाँचा बनवाना आरम्भ कर देता है बिना यह सोचे समझे कि उस मकान में कितने कमरे होंगे और उसकी लम्बाई-चौड़ाई क्या होगी?
अब तक मनुष्यों ने उसी वस्तु को पाने में सफलता पाई है जिसका यथार्थ चित्र उसके दिमाग में अंकित हो चुका है। हर एक कार्य जिसके करने में मनुष्य सफल हुआ है, वही होता है जो पहले उसके मानस-पट पर प्रत्यक्ष हो चुका होता है और इस प्रत्यक्षीकरण से उसकी इच्छा शक्ति को प्रोत्साहन मिला है। जितने उज्ज्वलतर रूप में वह अपने कार्य को अपने भीतरी नेत्रों के सामने मूर्तिमान करता है, उतना ही शक्तिमान और स्थायी उसका कार्य होता है। जो मनुष्य अपनी अभिलाषाओं के शिखर पर चढ़ना चाहता है, उसके लिये केवल यही आवश्यक नहीं है कि उसके सामने एक उत्तम आदर्श हो वरन् यह भी अनिवार्य है कि वह आदर्श सुस्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष भी हो। उसके सामने एक अस्पष्ट-सा विचार भर न हो जिसे वह वास्तविकता में परिवर्तित करना चाहता है। वरन् उसके सामने वे सुस्पष्ट भाव और विवरण हों जिनका वह स्थूल रूप से प्रकटीकरण चाहता है।
बहुत से मनुष्य सुस्पष्ट आदर्श की योजना अपने सम्मुख रखने में असमर्थ होते हैं, क्योंकि उनके मन में तरह-तरह की परस्पर-विरोधी इच्छायें संघर्ष किया करती हैं। वे मनुष्य, जो आज एक वस्तु की कामना करते हैं और कल दूसरी की, संभवतः दोनों में से एक भी नहीं पाते। उनके हृदय में इतनी अधिक इच्छायें होती हैं कि वे स्वयं निश्चित नहीं कर पाते कि वे किस वस्तु की कामना सबसे अधिक करते हैं। इस लिए उनके सामने कभी अपने आदर्श की सुस्पष्ट रूपरेखा नहीं आ पाती, जो प्रत्येक वस्तु की प्राप्ति के लिए पहली आवश्यक शर्त है।
दृढ़ अभिलाषा का अर्थ किसी भी कार्य में दृढ़ रूप से लगातार डटे रहना है। दृढ़तापूर्वक लगातार प्रयत्न करते रहने से समस्त आशायें, अभिलाषायें, इच्छायें, कामनायें-सभी की पूर्ति होती है और हृदय को भी संतोष होता है। अभिलाषा इतनी तीव्र होनी चाहिए कि जैसे मरमुख मनुष्य खाने को दौड़ता है, या जैसे प्यासा मनुष्य पानी के लिए लालायित रहता है, या जैसे पानी में डूबता मनुष्य वायु के लिए व्याकुल रहता है, या माँ अपने बच्चे की कुशल के लिए आकुल होती है। जब तुम्हारी इच्छा इतनी तीव्र होगी, तभी दृढ़ अभिलाषा का तुम्हारे मन में उदय होगा।
बहुत कम लोग जानते हैं कि बलवती कामना क्या वस्तु है। वे चाहे अपने मन में समझते हों और कहते भी हों कि उन्हें बलवती कामना है, पर वास्तव में उनकी कामना में तनिक भी बल नहीं होता। अभी उन्होंने उतनी तीव्रता से कामना करना नहीं सीखा है जैसा कि भूख की भीषण ज्वाला या पानी के लिये तड़पने वाले में होती है। कामना की यह तीव्रता ऐसे वेग से मानव में जागृत होती है कि उसकी तृप्ति के बिना वह रह ही नहीं सकता। ऐसे व्यक्तियों की अभिलाषाओं की अग्नि तीव्रता से जलती है और उसकी आहुति के लिए वे कहीं से भी सामग्री प्राप्त कर लेते हैं। जो कोई इस तीव्र ज्वाला का अवरोध करता है वह इस अग्नि के लिए समिधा बन जाता है या कम से झुलस तो जाता ही है। जिस व्यक्ति की ऐसी दृढ़ अभिलाषा होती है उसकी संकल्प शक्ति भी बड़ी प्रबल होती है, जिसके सम्मुख कोई कार्य असंभव नहीं रहता। उसमें आशा और विश्वास का भाव भी हद दर्जे का होता है क्योंकि वह यह कल्पना ही नहीं कर सकता कि उसकी कामना अपूर्ण रह जायेगी। ऐसी बलवती कामना और दृढ़ विश्वास एक मूलभूत एक आदिम शक्ति है, जिसके द्वारा ही आज तक सब बड़े-बड़े कार्य सम्पन्न किये गये हैं। यह सत्य है कि ऐसी बलवती कामना वाले व्यक्ति प्रायः महत्वाकाँक्षी होते हैं और उनके कारण प्रायः संसार में महान संग्राम और विप्लवों की उत्पत्ति हुई है, पर श्रेष्ठ कार्यों के लिये, परोपकार के लिये, कष्टों से पीड़ित जन समुदाय के उद्धार के लिये भी बलवती कामना की आवश्यकता है। आज तक जितने संसार के उद्धारक, समाज सुधारक, दूसरों का हित करने वाले हुए हैं, उन सभी में श्रेष्ठ कामना की तीव्र अग्नि मौजूद थी और उसी के प्रभाव से वे प्रलोभनों पर विजय प्राप्त करके अपना नाम अमर कर गये। इसलिए स्वार्थ या परमार्थ का कोई भी महान कार्य आप सम्पन्न करना चाहें उसके लिये सुस्पष्ट आदर्श, दृढ़ अभिलाषा और आँतरिक विश्वास का होना अनिवार्य है।