
जनसंख्या की समस्या और वैदिक समाज
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(श्री रघुनन्दन जी शर्मा)
वर्तमान समय में संसार के सामने एक बहुत बड़ी समस्या जन-संख्या की है। प्राचीन काल की अपेक्षा शाँति का विस्तार होने, नवीन आविष्कारों द्वारा अनेक संहारक महामारियों का उच्छेद कर देने और रहन-सहन की सुविधाओं के बढ़ जाने से संसार की जन संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हो रही है और सौ वर्ष के भीतर ही लगभग दुगुनी हो गयी है। संसार के बड़े-बड़े विचारक इस अवस्था को देखकर चिंतित होते हैं और कहते हैं कि यदि जन संख्या की वृद्धि की ऐसी ही गति बनी रहेगी तो लोगों को शीघ्र ही रहने और खाने-पीने का ठिकाना नहीं रहेगा। इस लिये अनेक वर्षों से विद्वान लोग जन-संख्या को नियंत्रण में रखने की विधियाँ निकाल रहे हैं, पर अभी तक कोई सफल सिद्ध नहीं हुई है।
भारतीय विचारकों ने प्राचीन समय में ही इस समस्या पर विचार किया था। उनका मत था कि संतानोत्पत्ति का कोई एक स्थायी नियम नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि राष्ट्र की परिस्थितियाँ और आवश्यकताएँ समय-समय पर बदला करती हैं और उन्हीं के अनुकूल आचरण समाज को करना आवश्यक होता है। जिस समय समाज और राष्ट्र में शाँति रहती है उस समय मोक्षमार्मियों के अतिरिक्त शेष समस्त समाज को मृत्यु के परिणाम से संतानोत्पत्ति की आवश्यकता रहती है। परन्तु जिस समय युद्ध जारी हो जाता है अथवा समाप्त हो जाता है तो बहु संख्यक कार्यक्षम पुरुषों के मारे जाने से संतान की आवश्यकता बेहद बढ़ जाती है। इसी तरह जिस समय सुख-शाँति के कारण जन संख्या अधिक बढ़ जाती है उस समय संतान कम पैदा करने की आवश्यकता हो जाती है। ऐसी दशा में इच्छानुसार अधिक संतान उत्पन्न करने, या कम संतान करने, या बिल्कुल ही संतान बंद कर देने की शक्ति उसी जाति या व्यक्ति में हो सकती है जिसकी शिक्षा की दीवार अखण्ड-ब्रह्मचर्य व्रत की नींव पर उठाई गई हो। आर्यों ने अपनी इमारत की दीवार अखण्ड ब्रह्मचर्य पर ही खड़ी की थी। वैदिक सभ्यता के अनुसार ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के पिचहत्तर वर्ष तो अखण्ड ब्रह्मचर्य की अवस्था में बिताने का विधान किया ही गया था। गृहस्थ आश्रम के शेष 25 वर्षों में भी अधिक रति से बचने के लिए यज्ञोपवीत संस्कार के संस्कार के समय से ही सन्ध्योपासन, प्राणायाम, शृंगार वर्जन, सादगी, तपस्वी जीवन और मोक्षमार्ग का ध्येय बतलाकर अमोघ वीर्य होने का उपदेश दिया गया है। क्योंकि संतति निरोध की शक्ति अमोघ वीर्य पुरुष में ही हो सकती है और वही आवश्यकतानुसार एक, दो अथवा दस संतान उत्पन्न करना एक दम बन्द भी कर सकता है। आर्य-सभ्यता के इतिहास में इस प्रकार प्रजा को उत्पन्न करने के तीन सिद्धान्त हैं और तीनों के ही प्रमाण मिलते हैं।
पहिला प्रमाण उन व्यक्तियों का मिलता है जो जन्म से ही आत्मज्ञान की ओर झुके रहते हैं और मोक्ष साधन में लग जाते हैं। वे कभी संतान की इच्छा नहीं करते। बृहदारण्यक उपनिषद् में लिखा है कि “पूर्व विद्वानाँ प्रजा न कामयन्ते कि प्रजया करिष्यामः अर्थात्-पहले समय के विद्वान संतान की कामना नहीं करते थे, वे कहते थे कि प्रजा को बढ़ा कर क्या करेंगे?” ऐसे आजीवन ब्रह्मचारी इस देश में हजारों, लाखों हो चुके हैं। मनुस्मृति में लिखा है :-
अनेकानि सहस्राणि कुमार ब्रह्मचारिणाम।
दिवं गतानि विप्राणामकृत्वा कुल सन्ततिम॥
अर्थात्-हजारों ब्राह्मण ब्रह्मचारी बिना संतति के कुमार अवस्था से ही मोक्षगामी हो गये। इससे यही नहीं मान लेना चाहिए कि पूर्व काल में पुरुष ही इस तरह से ब्रह्मचर्य से रहते थे, प्रत्युत उस समय कन्याएँ भी कुमारी रह कर और आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करके मोक्ष गामिनी होती थीं। महाभारत में लोमश ऋषि युधिष्ठिर से कहते हैं-
“इसी स्थान पर शाँडिल्य ऋषि की कन्या घृतिवती ने आजन्म ब्रह्मचारिणी रहकर और विद्वानों से आदर पाकर मोक्ष लाभ किया था। (शल्य पर्व अ. 54) वहीं पर अध्याय 49 में भी लिखा है कि भारद्वाज की पुत्री श्रुतावती ने भी आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत पालन किया था।” इतना ही नहीं याज्ञवलक्य और मैत्रेयी ने विवाह करके भी संतान उत्पन्न नहीं की। इसलिये जो लोग विवाह के समय वधू को दश पुत्र होने का आशीर्वाद सुनकर यह समझते हैं कि प्राचीन आर्य संतान के पीछे दीवाने दीवाने फिरते थे, वे गलती पर हैं। वेदों में तो स्पष्ट कह दिया गया है कि ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत अर्थात् तपस्वी विद्वान आजीवन ब्रह्मचर्य-बल से ही मृत्यु को मारकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। परन्तु यह महाव्रत सब के वश का नहीं है। साधारण मनुष्य तो संतान की इच्छा करते ही हैं। इन प्रमाणों के अनुसार सन्तान उत्पन्न करने से दो प्रकार के लाभ हैं। एक तो संतान से गृहस्थाश्रम कायम रहता है जिसके आधार पर समस्त मनुष्य समाज जीविका प्राप्त करता है। दूसरा लाभ यह है कि वीर्य में पड़े हुए जीव बाहर आकर आत्मोन्नति का अवसर पाते हैं। इस लिये यह आवश्यक है कि योग्य पुरुष एक-दो सन्तान अवश्य उत्पन्न करे, और शिक्षा-दीक्षा द्वारा उनको सुयोग्य नागरिक बनाकर समाज के ऋण से उऋण हों। इसलिए साधारण समय में धर्म शास्त्रों में आर्यों को एक ही पुत्र उत्पन्न करना श्रेष्ठ बतलाया है। मनुस्मृति (9-106 व 107) में कहा गया है-
ज्येष्ठेन जातमात्रेण पुत्री भवति मानवः।
स एव धर्मजः पुत्रः कामजानितरान्विदुः ॥
अर्थात् “प्रथम पुत्र के उत्पन्न होते ही मनुष्य पुत्र वाला हो जाता है, अतः ज्येष्ठ पुत्र ही धर्मज है और दूसरे सब कामज हैं। वेद भी आज्ञा देते हैं कि मनुष्य को बहुत संतान उत्पन्न नहीं करना चाहिए। ऋग्वेद (1-164-32)में लिखा है कि बहुप्रजा निऋतिका विशेष अर्थात् बहुत संतान वालों को बहुत दुःख उठाना पड़ता है।”
किंतु कभी-कभी आवश्यकता पड़ने पर अनेक संतानों के उत्पन्न करने की आवश्यकता पड़ती है, इस लिये तीसरे प्रकार का विधान भी बनाया गया है। दीर्घकालीन युद्धों के समय अथवा युद्ध समाप्त हो जाने पर अनेक बार राष्ट्र युवा पुरुषों से शून्य हो जाता है। महाभारत के समय देश की ऐसी स्थिति हो गई थी, और सन 1914 में योरोपीय महासमर के समय वहाँ के कई देशों में भी ऐसी ही दशा देखने में आई थी। ऐसे समय में एक-एक पुरुष द्वारा अनेक विवाह करके अथवा नियोग करके भी अनेक सन्तानों को उत्पन्न करना देश के लिए हितकर बतलाया गया है। ऐसी विपत्ति के समय इस लिये वेद में दशास्याँ पुत्रानाधेहि अर्थात् दश पुत्र के उत्पन्न करने की प्रार्थना की गयी है। इस प्रकार वैदिक सभ्यता में सन्तानोत्पत्ति के तीन सिद्धाँत स्थिर किये गये हैं जिनके अनुसार समाज की आवश्यकतानुसार कम या ज्यादा बच्चे उत्पन्न करने की सहमति दी गई है। पर इस तरह इच्छानुसार संतान वही व्यक्ति उत्पन्न कर सकता है जो अमोघवीर्य है। यह शक्ति प्राचीन आर्यों ने ही खास तौर पर उत्पन्न की थी और इसके द्वारा काम-शक्ति पर पूरा काबू पा लिया था। अमोघवीर्य पुरुष वही है जब चाहे कितनी भी सन्तान उत्पन्न कर सके और जब न चाहे तब सन्तान उत्पन्न करना बिल्कुल बंद कर दे। यह उद्देश्य आजकल संतान-निरोध के नकली साधनों से पूरा नहीं हो सकता, क्योंकि प्रकृति के विरुद्ध होने के कारण उनसे अनेकों भयंकर परिणाम निकलते हैं। अमोघवीर्यत्त्व प्राप्त करने के लिये तो मनुष्य को शृंगार वर्जित, सादा, तपस्वी और मोक्षाभिमुख जीवन व्यतीत करना पड़ता है। इसके विपरीत आज कल के वैज्ञानिक शृंगार और वासना को तो नये-नये साधनों द्वारा बढ़ाते चले जा रहे हैं और कृत्रिम उपायों से संतान निरोध करना चाहते हैं जो एक असम्भव बात है। जब तक काम वासना का निरोध नहीं किया जायगा तब तक जन-संख्या की वृद्धि की समस्या हल नहीं हो सकती।