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Magazine - Year 1957 - Version 2

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Language: HINDI
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विज्ञान की वर्तमान गति और उसका भविष्य

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(श्री जय प्रकाश एम.ए.)

मनुष्य के बौद्धिक विकास में विज्ञान का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। उसने मनुष्य की चेतना को बहुत आगे बढ़ाया है और उसे प्रकृति पर विजय पाने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली बना दिया है। परन्तु जहाँ यह लाभ हुआ है वहाँ एक बड़ी हानि भी यह हुई है कि पिछले दो सौ वर्षों की आँशिक सफलता ने मनुष्य को विक्षिप्त सा बना भी दिया है, और वह अपने आप को भूल कर गुमराह हो रहा है। कहाँ तो मनुष्य की भावना ये थी कि “आप मैं आत्म-रूप हूँ, ज्योति स्वरूप हूं, मैं कदापि जड़ पंच भूत नहीं हूँ” और कहाँ अब बड़े-बड़े विद्वान अपने को कार्बन, कैल्शियम, फास्फोरस आदि जड़ पदार्थों से बना एक चलता-फिरता पुतला मानते हैं, जो किसी भी समय टूट-फूटकर खत्म हो सकता है। इसमें संदेह नहीं कि इस समय विज्ञान विकास के उस काल से गुजर रहा है जब बहुत सम्भव है कि अपनी संयत प्रौढ़ता के सहारे विकास के उच्चतम शिखर पर चढ़ जाये या फिर डर है कि उच्छृंखलता के उन्माद में आत्महत्या न कर डाले। अगर ऐसा हुआ तो उसके आधार पर टिकी हुई और वर्तमान सभ्यता भी नष्ट हो जायेगी। वास्तव में इस समय मनुष्य के सामने यह समस्या उपस्थित है कि क्या आधुनिक विज्ञान विकास का अंतिम लक्ष्य है, अथवा उसकी बौद्धिक प्रगति के मार्ग में एक बड़ा कदम है जिसका अंतिम उद्देश्य एक महान आध्यात्मिक चेतना है। इन परस्पर विरोधी दो धारणाओं के कारण वैज्ञानिकों में बड़ा मतभेद उपस्थित हो गया है। एक दल जिसे विज्ञान की क्षमता पर संदेह नहीं है, विश्वास करता है कि विज्ञान ने अपने को सर्वशक्तिशाली सिद्ध कर दिया है। निर्माण के रूप में न सही, पर संहार के रूप में वह अवश्य सर्वोपरि हो गया है। ऐसे वैज्ञानिकों को भय है कि यदि विज्ञान की वर्तमान गति शिथिल न हुई तो सृष्टि का नाश अवश्यम्भावी है। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. ग्रीनहैड का कथन है कि विज्ञान के उन्नति के साथ हम ऐसे स्थान पर जा पहुँचे हैं जहाँ हम अपनी बर्बादी सहज में कर सकते हैं। इसी प्रकार एटम शक्ति के आविष्कारक प्रो.आइन्स्टीन ने कहा था कि अगर युद्ध के लिए वैज्ञानिक शस्त्रों का प्रयोग न रोका गया तो सृष्टि का नाश हो जायेगा। इस प्रकार की भयंकर सम्भावनाओं के कारण वैज्ञानिकों का यह दल विज्ञान से किसी प्रकार का कल्याणकारी फल मिलने की आशा नहीं करता और उनके मतानुसार विज्ञान का भविष्य बड़ा अंधकारमय है।

पर दूसरे दल की धारणा भिन्न प्रकार की है। उनका कहना है कि हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि विज्ञान हमारी सभ्यता और संस्कृति का विध्वंस करने की शक्ति रखता है। उनके मतानुसार विज्ञान के उत्कर्ष तथा संहार-शक्ति का जो चित्रण किया जाता है वह अतिशयोक्तिपूर्ण है। ऐसे वैज्ञानिकों का सिद्धाँत है कि अभी तो मनुष्य ने ज्ञान-विज्ञान के भवन की प्रथम सीढ़ी पर ही कदम रखा है। आगे चलकर वह मनुष्य को बहुत ऊँचा चढ़ायेगा। इसलिए विज्ञान से डरना और उसकी प्रगति को रोकने का विचार करना बुद्धिमत्ता नहीं है।

पर दूसरे दल के वैज्ञानिकों का ये भी मत है कि विज्ञान और दर्शन की प्रगति में समन्वय का भाव रखना आवश्यक है। वास्तव में दर्शन को छोड़ देने से विज्ञान का कोई अस्तित्व नहीं रहता क्योंकि विज्ञान में जो चेतना है उसका मूलाधार दर्शन ही है। दर्शन का ये मौलिक सिद्धाँत है। संसृति में जो कुछ है वह कदापि निरर्थक नहीं है। यद्यपि बहुत से वैज्ञानिक इस सत्य को मानने से इनकार करते हैं, पर अपने व्यावहारिक कार्य क्षेत्र में वे उसी के अनुसार आचरण करते हैं। प्रसिद्ध दार्शनिक बर्ट्रेण्ड रसल का ये कथन सर्वथा सत्य है कि विज्ञान का उत्कर्ष अंत में अपनी सीमा पर पहुँच जायेगा और मनुष्य के आगामी विकास के लिए मार्ग बना देगा। उस समय वैज्ञानिक इस तथ्य को भलीभाँति समझ जायेंगे कि विज्ञान की भौतिक प्रवृत्ति अपने ही लिए विनाशक है। उस समय विज्ञान की जो पर्यालोचना होगी उससे एक महान उद्देश्य की प्राप्ति होगी और विश्व की अनेकता में होकर एकता की स्थापना होगी। अनैक्य और अव्यवस्था से छटपटाती आत्माओं से अध्यात्म और ऐक्य अथवा समष्टि का मार्ग मिलेगा और उसी में वे शाँति प्राप्त कर सकेंगे।

वास्तव में यदि विज्ञान विकास के मार्ग पर अग्रसर होता हुआ अपने इसी आदर्श पर स्थित रहता है तो उसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। हम जानते हैं कि विकास की धारा का प्रवाह अर्धचैतन्य (इन्फ्रारैशनल) से चैतन्य (रैशनल) की ओर होता है और फिर चैतन्य (रैशनल) से अपर चैतन्य (‘सुप्रा-रैशनल’) की ओर अग्रसर होता है। विज्ञान अर्ध चैतन्य और अपर चैतन्य के बीच की कड़ी है। वर्तमान समय में वह एकाँगी और अपूर्ण है, जिसके लिए उसे सदोष माना जाता है। हमारी आँखें विज्ञान के चमत्कारों को देखकर अवश्य ही चकाचौंध हो जाती हैं और हम सोचने लगते हैं कि विज्ञान ही विकास का अंतिम गन्तव्य स्थान है। हमको यह ध्यान नहीं आता कि विज्ञान अपूर्ण है तो मानव का अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकता। विज्ञान का आरम्भ तो संदेह और घटना से होता है पर सृष्टि या संसृति एक घटना नहीं है, वरन् उसका एक उद्देश्य है। मनुष्य में जो चैतन्य है वह निरर्थक नहीं है। यदि हम मनुष्य के चैतन्य और उसके सूक्ष्म विकास का निरीक्षण करें तो ज्ञात होगा कि अपूर्णता का भाव ही उसके अब तक के विकास का मूलाधार है। मनुष्य को अपने मौजूदा चैतन्य से संतोष नहीं मिलता, क्योंकि उसमें उसे अपूर्णता की अनुभूति होती रहती है और ये अनुभूति ही उसे निरंतर आगे बढ़ने और पूर्णता के लिए प्रयत्न करने को प्रेरणा देती रहती है।

ये स्पष्ट है कि विज्ञान मनुष्य के चैतन्य का एक स्टेज है। उससे प्रतीत होता है कि मनुष्य विकास की ओर निरंतर अग्रसर हो रहा है और पूर्णता प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहा है। इस समय ये एक ऐसे मोड़ पर पहुँच गया है जो विकास की प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप बड़ा खतरनाक जान पड़ता है। यहाँ पर अगर वह भयभीत हो गया अथवा व्यक्तिगत स्वार्थपरता की भावना का विकृति रूप जोर पकड़ता गया तो वे अपने ही हाथों अपना सर्वनाश कर सकता है। इसलिए विज्ञान की प्रगति को रोकने की आवश्यकता नहीं है, पर उसे अनियंत्रित होने से रोका जाए तथा कुछ व्यक्तियों के स्वार्थ साधन की पूर्ति का साधन भी न बनने दिया जाए। आज इसी व्यक्तिगत स्वार्थ और प्रतिद्वन्द्विता के कारण विज्ञान ही नहीं मानव जाति का भविष्य अंधकारमय जान पड़ता है। क्योंकि अगर दो-एक देशों की महत्वाकाँक्षा इसी प्रकार जोर पकड़ती गयी और वे विज्ञान की शक्ति का प्रयोग करके विनाशकारी आयुधों को बनाते रहे तो उसके फल से नाशलीला पूर्ण वेग से आरम्भ हो सकेगी और वह कहाँ जाकर रुकेगी इसकी भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता। अधिक नहीं तो सौ-पचास वर्षों के लिए तो वह मानवीय-प्रगति की गति को अवश्य अवरुद्ध कर देगी, और दुनिया में ऐसे अभूतपूर्व युग का आविर्भाव करेगी जिसका अनुभव मानव जाति ने कभी नहीं किया। तो भी हम आशा करते हैं कि महान राष्ट्रों के कर्णधार इतनी बड़ी गलती न करेंगे। अनेक मानव हितैषी आत्माएँ इस समय भी इस महाविपत्ति को टालने के लिए अकथनीय परिश्रम कर रही हैं। उनके प्रभाव से सम्भव है लोगों की आँखें खुल जायें और विज्ञान का दुरुपयोग बंद होकर वह वास्तव में मानव कल्याण के लिए ही प्रयुक्त किया जाने लगे। इसमें संदेह नहीं कि विज्ञान के आगे कुछ है वही अध्यात्म है। मनुष्य के विकास का अंतिम लक्ष्य उसी विकास को प्राप्त कर लेना है। हो सकता है कि विज्ञान और उसके युग का मनुष्य कुछ समय तक अपने चमत्कारों से मोहित रहे, पर वह समय दूर नहीं है जब अध्यात्म का प्रकाश उनके मार्ग को प्रकाशित कर देगा।

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