
मनुष्य अपने भाग्य का आप ही मालिक है।
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(श्री गोपाल दामोदर तामसकर)
भारतवर्ष में आप कहीं भी चले जायें और कैसे भी लोगों में पहुँच जायें आपको भाग्य की बात अवश्य सुनाई पड़ेगी। ‘भाग्य में बदा है वही होगा’-’दाने-दाने पर मुहर है’-ऐसी अनेकों उक्तियाँ आप को छोटे-बड़े लोगों के मुख से सुनने को मिल सकती हैं। पर क्या यह भाग्य की सर्वशक्तिमानता पूर्णतया सत्य है? क्या हमारे प्रयत्नों से कुछ नहीं हो सकता? क्या प्रत्येक व्यक्ति का और प्रत्येक राष्ट्र का प्रारब्ध हमेशा के लिए बन गया है?
उपर्युक्त प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए हमको मनुष्य के मन के विश्वास पर दृष्टि डालना आवश्यक है। पहले पहल नवजात शिशु प्रकृति के अधीन रहता है। प्राकृतिक नियमानुसार उसे जो कुछ प्रेरणा होती है उसी प्रकार उसका आचरण रहता है। भूख लगने से कष्ट होने के कारण वह रोता है। पहले-पहल स्तन मुँह में डालते ही वह दूध पीने नहीं लगता, उसे कुछ सिखलाना पड़ता है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि वह समझ-बूझ कर ऐसा करता है। यह एक भीतरी प्रवृत्ति (अन्तः प्रवृत्ति) का कार्य है-विचार की क्रिया उसमें कुछ नहीं होती। जो कुछ प्रेरणा होती है वह सब प्राकृतिक रहती है। बालक की निजी प्रेरणा कुछ भी नहीं होती। पर बार-बार के अनुभव से वह ज्ञान प्राप्त कर लेता है और स्तन के पीने से उसकी भूख मिटेगी इसे समझ लेता है। इसी प्रकार आस-पास की अनेक वस्तुओं के अनुभव से उसका ज्ञान-भण्डार बढ़ता रहता है। इसी ज्ञान से हमारे भीतर एक प्रेरणा शक्ति बढ़ने लगती है और उसी के द्वारा हम सब प्रकार के कार्य करने में समर्थ होते हैं।
पर इस आधार पर यह कहना कि मनुष्य में केवल प्रकृतिजन्य अथवा परिस्थितिजन्य ज्ञान ही पाया जाता है और उसमें स्वतंत्र प्रेरणा शक्ति बिल्कुल नहीं होती, ठीक नहीं है। यदि ऐसा होता तो बहुधा समान परिस्थिति में रहकर दो बालकों या दो सगे भाइयों में ज्ञान और नीति का बहुत अधिक भेद क्यों हो जाता? एक मनुष्य प्रतिकूल परिस्थिति में पैदा होने पर भी विद्वान हो जाता है; और दूसरा पढ़ने-लिखने की समस्त अनुकूल परिस्थिति रहने पर भी मूर्ख बना रहता है। क्या यह परिस्थिति अथवा प्राकृतिक रूप से ही होता है? बहुत से मनुष्य एक मनुष्य को भी काबू नहीं रख सकते, पर कितने ही मनुष्य विद्या न रहने पर भी सैंकड़ों को अधिकार में रख सकते हैं। इस प्रकार के प्रश्नों पर विचार करने से यह मानना पड़ता है कि मनुष्य में स्वतंत्र प्रेरणा शक्ति, इच्छा शक्ति या आत्म प्रवृत्ति भी होती है जिसके द्वारा वह प्राकृतिक वातावरण पर विजय पाकर विशेष कार्य करके दिखला सकता है।
इसी समस्या पर जब हम अध्यात्म दृष्टि से विचार करते हैं तो प्रत्येक धर्म के उपदेशों का यही सार मालूम पड़ता है कि इस दृश्य जगत के परे जो अनन्त-तत्व है उसकी प्राप्ति का प्रयत्न करो। आप चाहे किसी भी मजहब के अनुयायी हों, आपको इतना तो अवश्य मानना होगा कि हमको कोई उच्च स्थिति प्राप्त करनी है। अब यह उच्च स्थिति कैसे प्राप्त हो? क्या परमेश्वर कुछ मनुष्यों पर दया करके सब कुछ देता है और कुछ के प्रति क्रूर बन जाता है? ऐसा कहना तो परमेश्वर को हीन बनाना है। इसलिये यही मानना पड़ेगा कि हमारे कर्म ही हमको सुख-दुख देते हैं। इसलिये यह सिद्धाँत सर्वत्र माना जाता है कि जो कुछ करोगे वैसा पाओगे-जैसा बोओगे वैसा काटोगे। अर्थात् कर्म करना हमारे अधिकार में अवश्य है। यदि कर्मों के करने में तुम्हारी स्वतंत्र प्रवृत्ति नहीं है, तो कर्म भी तुम्हारा नहीं होगा और कर्म तुम्हारा नहीं है तो उसका फल भी तुम्हारा न होगा। ऐसी दशा में किसी की सद्गति या बुरी गति का कोई प्रश्न हो नहीं सकता। इस दृष्टि से स्वतंत्र आत्म-प्रवृत्ति के न मानने से सभी धर्मों के अध्यात्म शास्त्र निकम्मे हो जायेंगे। अगर सदाचरण द्वारा सद्गति का सिद्धाँत मानना है तो आत्म प्रवृत्ति, स्वतन्त्र प्रेरणा, स्वतन्त्र इच्छा शक्ति आदि का अस्तित्व स्वीकार करना ही पड़ेगा।
दुनिया की ओर देखने से भी यही प्रतीत होता है कि लोग अपने प्रयत्नों द्वारा उन्नति करते जा रहे हैं। प्रकृति के नियमों को समझ कर, उनका ज्ञान प्राप्त करके, उसे अपने काबू में कैसे ला सकेंगे, सभी भौतिक शास्त्र इसी उद्देश्य की पूर्ति में लगे हैं। हम सर्वथा प्रकृति के इशारे पर नहीं चलते। जिधर भाग्य ले जाय उधर ही जाने को सभी लोग तैयार नहीं रहते। हम अपनी ओर से सब प्रकार के प्रयत्न किया ही करते हैं। इस प्रकार हम अपने आचरण में आत्म-स्वातन्त्र्य का अस्तित्व अवश्य मानते आये हैं, इसमें त्रुटि इतनी ही जान पड़ती है किसी कारण वश हम उसका उपयोग नहीं करते। समाज में आलसी, निकम्मे और भाग्यवादी मनुष्य भी बहुत बड़ी संख्या में मौजूद हैं। उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि अपना उद्धार वे स्वयं ही कर सकते हैं। साधारण व्यवहार में कोई उन्हें दोषी न कहे, पर तात्विक दृष्टि से वे अपने कर्मों के कारण दोषी अवश्य हैं। प्रकृति के अधीन हो जाना और प्रयत्न से मुख मोड़ लेना कभी योग्य नहीं समझा जा सकता।
जब कोई भयंकर परिस्थिति हमारे सामने होती है, अथवा जीवन भर इस सृष्टि की अंधकारमय बातें ही दिखलाई पड़ती हैं तो मामूली लोग अपना साहस खो बैठते हैं, और उस परिस्थिति की तरफ से आँखें फेर लेते हैं। अथवा वे रात दिन निराश रहते और भय का अनुभव करते रहते हैं। ऐसी परिस्थिति में अपनी रक्षा या परिस्थिति को बदलने के लिए जो प्रयत्न करना चाहिए वह उनके साहस से परे है। पर वीर या सत्साहसी लोगों का मार्ग अलग होता है। उन्हें जो बातें अग्राह्य, इच्छा के विपरीत या हानिकारक जान पड़ती हैं, उनसे वे तनिक भी भयभीत नहीं होते और अपने निश्चित कार्यक्रम पर ज्यों के त्यों डटे रहते हैं। संसार ऐसे मनुष्यों की पूजा और चाह करता है वे ऐसी कठिन परिस्थितियों में भी मन को शाँत और स्थिर रखने का जो प्रयास करते हैं, उसी से उनके कार्य और महत्व को नापा जाता है। ऐसा आदमी अपने मार्ग में आने वाली इन भयंकर बाधाओं को भूलने अथवा उनकी तरफ से निगाह हटा लेने का प्रयत्न नहीं करता वरन् वह उनका सामना करता है। इस प्रकार वह प्रकृति या भाग्य के अधीन हो जाने के बजाए जीवन पर प्रभुत्व पा लेता है। तब वह इस दुनिया में सम्मान की निगाह से देखा जाने लगता है और अन्य लोग उससे कुछ शिक्षा ग्रहण करने लगते हैं पर जिन्हें अपने जीवन को खतरे में डालने से डर लगता है अथवा जो खतरे की बातों का विचार नहीं कर सकते, उनसे कोई कुछ आशा नहीं रखता और न कोई उनकी परवाह करता है। हम लोगों के जीवन के व्यवहार के लिए खतरा उठाने की आवश्यकता तो ज्यादा नहीं, पर धर्म के लिए खतरे में पड़ने का अवसर प्रायः आ जाता है। जिस प्रकार दूसरे की हिम्मत देखकर हममें हिम्मत आती है उसी प्रकार दूसरे की श्रद्धा देखकर हममें श्रद्धा उत्पन्न होती है।
साराँश यह कि प्रयत्न करने से आत्म-प्रवृत्ति इतनी बढ़ सकती है, कि मनुष्य अपने जीवन का सुधार करके दूसरे के जीवन का भी सुधार कर सकता है। आत्म-प्रवृत्ति अथवा स्वतंत्र प्रेरणा शक्ति के बिना हमारा उन्नति के शिखर पर चढ़ सकना असंभव है। केवल ज्ञान से सफलता नहीं मिल सकती, पर उसके साथ आत्म-प्रवृत्ति अथवा कर्म का भी सहयोग होना आवश्यक है।