
यज्ञ का मुख्य उद्देश्य लोक कल्याण ही है।
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(श्री प्रेम नारायण)
‘यज्ञ’ शब्द का अर्थ व्याकरण के अनुसार ‘संगति और दान से देव पूजा करना’ होता है। देवता का अर्थ भी स्वर्ग में बैठे हुए किन्हीं देवों से नहीं है, पर पृथ्वी पर ही जो श्रेष्ठ व्यक्ति हैं उनसे ही इसका तात्पर्य होता है। इस प्रकार यज्ञ का आश्रय श्रेष्ठ व्यक्तियों के सहयोग और सम्मेलन से जन-समाज के कल्याणकारी कार्यों की योजना और उनका सम्पादन करना ही माना जा सकता है।
शास्त्रों में यज्ञ चार प्रकार के कहे गये हैं-
1-स्वाध्याय-यज्ञ (अर्थात् विद्या और ज्ञान प्रदायक शास्त्रों का पठन-पाठन)
2-जप-यज्ञ(सत्य ज्ञान के प्रदाता ग्रंथों का बार-बार पाठ करना और परमात्मा का नाम बारम्बार उच्चारण करना)
3-कर्म-यज्ञ (कर्मकाण्ड सम्बंधी यज्ञ अथवा वे सब परोपकार के कर्म जिनसे प्राणियों का कल्याण हो)
4-मानस-यज्ञ अर्थात् मन को वश में करना, योग साधन आदि।
इन चार तरह की यज्ञों की विधियों में पशु-बलि, दान आदि की कुरीति कहीं भी नहीं मिलती। वरन् इनका आधार “परोपकाराय सताँ विभूतयः” के उच्च आदर्श पर प्रतिष्ठित है। अब यदि पंच महायज्ञों पर भी विचार किया जाता है तो उनमें भी इस प्रकार की किसी दूषित प्रथा का चिन्ह नहीं मिलता। पाँच महायज्ञों का विवरण इस प्रकार है-
1-ब्रह्मयज्ञ-इसके प्रयोग से जीवात्मा सब शक्तियों के
भण्डार परमात्मा के संयोग से अपने को शक्तिशाली बनाता है, जिससे जगत की सेवा में समर्थ हो सके। वैसे तो ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ-सभी प्रतिदिन ब्रह्म-यज्ञ करते हैं, पर ये मुख्य रूप से संन्यासियों का कर्तव्य है। संन्यासी का एक मात्र उद्देश्य ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना ही होता है, और वह ब्रह्मयज्ञ के द्वारा जगत का अशेष उपकार कर सकता है।
2-देवयज्ञ-इसका मुख्य अंग अग्निहोत्र है, इससे वायु, जलवृष्टि, पृथ्वी और अनेक भौतिक पदार्थों की शुद्धि होती है। शुद्ध वायु मण्डल से सभी सत्पुरुषों तथा अन्य प्राणियों को भी लाभ पहुँचता है। इस प्रकार देवयज्ञ का करना परोपकार का और जनता की सेवा का कार्य है।
3-पितृयज्ञ-मनुष्य के कर्तव्य केवल अपने जन्म देने वाले माता-पिता की ही सेवा सुश्रूषा करना नहीं वरन्, अपने सभी पूर्वजों, निकट सम्बंधियों और देश के सच्चे जन-सेवकों की सेवा करना भी है। इस प्रकार देवयज्ञ का वास्तविक उद्देश्य देश को समृद्धिशाली बनाने का है, क्योंकि कोई भी जाति या राष्ट्र उस समय तक उन्नति नहीं कर सकता जब तक उसके ज्ञानी और माननीय पुरुष पूज्य न हों।
4-भूतयज्ञ- पतित, नीची श्रेणी के व्यक्ति, दीन, हीन, अपाहिज लोगों तथा पशु, पक्षी तथा अन्य छोटे जीवों पर करुणा का भाव रखकर उनकी सहायता करना। इसमें गीता के ‘दुख तप्तानाँ प्राणि नामार्ति नासनम्’ की भावना निहित है। इससे व्यक्तियों और समाज में अहिंसा की वृद्धि होती है और सहानुभूति का उदय होता है।
5-अतिथि यज्ञ-अतिथि से तात्पर्य विशेष रूप से उन ज्ञानी महात्माओं से है जो परोपकार के लिए सदुपदेश देते हुए देश में भ्रमण करते रहते हैं। ऐसे पूज्य पुरुष जब अकस्मात द्वार पर आ जायें तो यथाशक्ति उनका सम्मान करना गृहस्थ का कर्तव्य बतलाया गया है।
इस विवेचन से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सर्व साधारण के लाभार्थ जो कार्य परोपकार बुद्धि से किया जाता है वही ‘यज्ञ’ है और उसका आचरण करना सभी सज्जन पुरुषों का कर्तव्य है।