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Magazine - Year 1957 - Version 2

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तत्वज्ञान का मानव जीवन में उपयोग

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(महात्मा एपिक्टेरस)

तत्वज्ञान अथवा दार्शनिकता का भाव अपने जीवन में उत्पन्न करना एक महत्व का कार्य है। जीने को तो सभी जीते हैं और मूर्ख लोग तो अज्ञान के राज्य में रह कर प्रायः चैन का जीवन भी व्यतीत कर लेते हैं, पर संसार को भली-भाँति समझ-बूझकर उसके प्रभाव से मुक्त रहना तत्वज्ञानियों का ही काम है। वे ही संसार के भले-बुरे कामों को एक दर्शक की भाँति देखते हुए अपने निजी सिद्धान्तों के अनुसार जीवन निर्वाह कर सकते हैं। तत्वज्ञान का अभ्यास मनुष्य किस प्रकार कर सकता है, इस सम्बन्ध में रोम निवासी दार्शनिक एपिक्टेरस-जो अब से 1900 वर्ष पूर्व हुये थे,-के उपदेश बहुत स्पष्ट और व्यावहारिक हैं। उनका परिचय नीचे दिया जाता है।

जो लोग शिक्षित हैं और चतुर नहीं है वे पहले-पहल जब कोई विद्या सीखना आरम्भ करते हैं तो उन्हें वह बहुत कठिन जान पड़ती है। किन्तु उस विद्या के द्वारा जो सामग्री तैयार होती है उसकी आवश्यकता तथा लाभ लोगों को तुरन्त मालूम हो जाते हैं। कोई चमार जिस समय जूता बनाता है उस समय यदि कोई आदमी वहाँ खड़ा होकर उसका काम देखे तो वह सुखकर नहीं जान पड़ेगा, पर जूता जब तैयार हो जाता है तो बड़े काम की चीज होता है और देखने में भी वह बुरा नहीं जान पड़ता। इसी प्रकार बढ़ई का काम भी खड़े-खड़े देखने से बड़ा कष्टकर जान पड़ता है, पर काम के पूरा हो जाने पर उसकी उपयोगिता तत्काल ही प्रतीत हो जाती है। संगीत शिक्षा का उदाहरण तो इस सम्बंध में और भी स्पष्ट है। संगीत शिक्षा का आरम्भिक अभ्यास सुनना बड़ा खराब-सा लगता है किंतु भली प्रकार से सीख लेने पर संगीत किसे अच्छा नहीं लगता? अशिक्षित व्यक्ति भी उसकी मधुरता से प्रभावित हो जाता है। इसी प्रकार जो लोग तत्व-ज्ञान सीखते हैं उनका भी एक विशेष उद्देश्य होता है। इसके लिए हमको समस्त बाहरी घटनाओं के साथ अपनी इच्छा को इस प्रकार मिलाना होगा जिसमें हमारी इच्छा के विरुद्ध कोई घटना न हो जाय, अथवा हम जो इच्छा करें उसके सिवा और कोई घटना न हो। इसी शिक्षा और साधना के फल से तत्वज्ञानी जिस वस्तु की इच्छा करते हैं उसे ही प्राप्त करते हैं और जिसकी इच्छा नहीं करते उसका त्याग कर सकते हैं। इस प्रकार वे बिना कष्ट, भय और उद्वेग के जीवन व्यतीत करते हैं। यही तत्वज्ञानियों का काम है। अब आप प्रश्न कर सकते हैं कि यह कार्य किस उपाय से सिद्ध किया जा सकता है।

बढ़ई जो बढ़ईगिरी जानता है वह उसे सीखनी पड़ती है। इसी प्रकार मल्लाह नाव का कार्य सीख कर ही जान सकता है। तत्वज्ञानी के सम्बन्ध में यही बात घटती है। हम विद्वान हों, तत्वज्ञानी हों, क्या यह इच्छा करने से हो सकता है? नहीं, उसके लिए भी एक विशेष प्रकार की शिक्षा चाहिए,- साधना चाहिये।

तत्वज्ञानी लोग कहते हैं कि सबसे पहले जानना चाहिए कि ईश्वर हैं और वह सभी पदार्थों का निरीक्षण करते हैं। क्या कार्य, क्या विचार, क्या कामना कुछ भी उससे छिपाया नहीं जा सकता। इसके बाद यह जानना होगा कि देवताओं का क्या स्वभाव है? देवताओं की प्रकृति जैसी निश्चित होगी, यथासाध्य उनकी सेवा और अर्चना करके भक्त लोग उनके अनुरूप होने की चेष्टा करेंगे। यदि देवता सत्यनिष्ठ हो तो उनको सत्य का आचरण करने वाला होना होगा; यदि वह शुभंकर हों तो भक्तों को भी शुभंकर होना होगा; यदि वह महानुभाव हो तो लोगों को भी महानुभाव होना होगा। इस प्रकार देवताओं के समकक्ष होने की चेष्टा करनी होगी, उसी प्रकार की बातें कहनी होंगी, वैसे ही कार्य करने होंगे। तत्वज्ञान की शिक्षा के लिए पहली शर्त यह है कि हम उसके सिद्धान्तों के वास्तविक तात्पर्य को समझें। मान लो आप धन, मान, आयु सब दृष्टियों से एक बड़े आदमी हैं। आपको धन, ऐश्वर्य, संतान, दास दासियाँ सभी प्राप्त हैं। राज्य में भी आपका सम्मान है और आप एक ऊँचे पद पर आसीन हैं। तो भी हम कह सकते है कि जिन वस्तुओं की आपको आवश्यकता है उनमें से कोई आपके पास नहीं हैं, और जो हैं वे सब नीचे दर्जे की हैं। ईश्वर क्या है,-मनुष्य क्या है,-अच्छा किसे कहते हैं,-बुरा किसे कहते हैं इनमें से कुछ भी आप नहीं जानते। हम यहाँ तक कह सकते हैं कि आप अपने आपको भी नहीं जानते। संभव है कि ऐसा कहने से तुमको बुरा लगे, तुम अपना अपमान समझो। पर विचार करके देखिये कि हमारे कथन में क्या बुराई है? एक कुरूप मनुष्य के सामने आइना रखने से क्या उसकी बुराई होती है? एक चिकित्सक अगर रोगी से कहे “बाबू, क्या तुम समझते हो कि तुमको रोग नहीं हुआ है मैं देखता हूँ कि तुम्हें तेज ज्वर है। आज कुछ भोजन मत करना-केवल जल पीकर रहना।” इस प्रकार बात सुनकर कोई रोगी चिकित्सक से यह नहीं कहता कि “तुमने मेरा अपमान किया है।” किंतु यदि किसी से कहा जाय कि “तुम्हारे कार्य अज्ञानता सूचक हैं, तुम्हारी पसंद की बातें नीचे दर्जे की हैं, तुम्हारे विचार और मत खोखले और मिथ्या हैं” तो वह तुरन्त कह उठेगा कि ‘इसने मेरा अपमान किया है।’

किसी बड़े मेले में लोग जिस प्रकार से कार्य करते हैं, हम लोग भी संसार में ठीक उसी प्रकार से कार्य किया करते हैं। मेले में गाय, भैंस आदि बिक्री के लिये लाई जाती हैं। अधिकाँश मनुष्यों में से भी कोई खरीदने के लिए आता है और कोई बेचने के लिए। केवल मेला देखने कम लोग आया करते हैं। किस लिये मेला स्थापित हुआ, कौन इसका स्थापनकर्ता है, उसमें क्या-क्या काम किस विधि से होते हैं, इन सब बातों को जानने के लिये बहुत ही कम लोग आते हैं। यह संसार रूपी मेला भी ऐसा ही होता है। गाय, भैंस आदि की तरह अनेक तो केवल घास-दाना खाने में ही व्यस्त रहते हैं। जो लोग संसार में केवल धन-ऐश्वर्य का ही भोग करते हैं वे केवल गाय-भैंस की तरह घास दाना ही नहीं खाते तो और क्या? केवल दर्शन का सुख प्राप्त करने बहुत कम लोग आते हैं। संसार क्या पदार्थ है, संसार का कर्ता कौन है, यह तत्व जानने के लिए बहुत ही कम लोग उत्सुक होते हैं।

कोई एक छोटा सा राज्य, कोई एक सामान्य घर, मालिक के बिना, रक्षक के बिना एक क्षण भी कायम नहीं रह सकता। तब क्या इतनी बड़ी सृष्टि आकस्मिक घटना समूह द्वारा ऐसे उत्तम, सुव्यवस्थित रूप से परिचालित हो सकती है? इस लिये मानना पड़ता है कि जगत का एक कर्ता अवश्य है। किन्तु उनका रूप कैसा है। किस प्रकार वह शासन करते हैं, हम लोग क्या पदार्थ हैं, किस उद्देश्य से हम लोग उत्पन्न किये गये हैं, ईश्वर के साथ हम लोगों का कोई संपर्क है या नहीं इन सब बातों को समझे बिना संसार में मनुष्य का आना मेले में आने वाली गाय-भैंसों के समान ही है।

जो थोड़े से लोग इन सब तत्वों की खोजबीन में लगे रहते हैं, साधारण लोग उनकी हँसी उड़ाते हैं। मेले में भी यदि गाय-भैंसों में शक्ति होती तो वे भी कोरे दर्शकों का इसी प्रकार उपहास करतीं। वे निश्चय ही कहतीं कि ‘इन मूर्खों ने यहाँ आकर यदि घास-दाना का उपभोग नहीं किया, तो यहाँ आने से इनको लाभ ही क्या हुआ?’ संसार के भोगों में फँसे हुये साधारण मनुष्यों और तत्वज्ञानी में यही अन्तर है।

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