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Magazine - Year 1957 - Version 2

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भोग रोग

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राम चरन पंकज अनुरागे। ते सब भोग रोग सब त्यागे॥

राम चरन पंकज अनुसरहीं। विषय भोग बस करहिं कि तिनहीं॥

रमा विलास राम अनुरागी। तजत वमन इव नर बड़भागी॥

जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब विषय विलास विरागा॥

उन ‘महापुरुष जी’ ने उत्तर में लिखा- “धर्म व्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणाँ च साहसम। तेजीयसो न दोषाय वन्हेः सर्वभुजो यथा॥”

“मैं समर्थ हूँ, मुझे कोई दोष या पाप नहीं”।

उनके प्रभावशाली विद्वतापूर्ण व्याख्यान पर बड़े-बड़े लोग मुग्ध होकर उन्हें अपने यहाँ ठहराते हैं, और उनका यही कार्य है कि भोली-भाली कुंवारियों के साथ दुराचार करना, यही कह कर कि तुम्हारी कामवासना को नष्ट करके तुम्हें भगवान का अनुभव कराऊँगा। अनभिज्ञ बालिकाएं क्या समझें। वह फँस जाती हैं उनकी प्रभावशाली बातों में। उनका यह अत्याचार सभी पर चल रहा है। बड़े-बड़े लोगों के यहाँ ठहरते हैं। उन बेचारों को इन सब बातों के देखने और समझने का समय भी नहीं मिलता।

उपर्युक्त पत्र में वर्णित आरोप बहुत गम्भीर हैं, पर इसकी सत्यता में हमको कोई संदेह नहीं। क्योंकि ऐसे अनेक महापुरुषों की करतूतों का हाल हम आये दिन सुनते और पढ़ते रहते हैं। पर इस सबके लिए हम किसको दोष दें। ये ढोंग रचाने वाले पापी तो प्रत्यक्ष ही दोषी हैं, पर जो लोग उनकी अनेक दूषित करतूतों को सुनकर भी उनका सम्मान करते हैं वे कम दोषी नहीं हैं। यह कहने की तो आवश्यकता ही नहीं कि ऐसे लोग छिपे हुए गुण्डे और ठग होते हैं जो स्वार्थ-साधन का अच्छा मौका देखकर धार्मिक क्षेत्र में घुस जाते हैं। वे न पाप, पुण्य को मानते हैं और न ही उनके हृदय में इन बातों का ख्याल है। उनका उद्देश्य तो धन कमाना और मौज उड़ाना है। उनसे बचने का उद्योग करना उन लोगों का काम है जिनको वे अपना शिकार बनाते हैं। अगर वे मूर्खतावश या भ्रम में पड़कर ऐसे दुष्टों को सम्मान योग्य समझते हैं और उनको अपने घरों में घुसाने में भी शंका नहीं करते, तो अन्य लोग क्या कर सकते हैं? पर उनको इतना अवश्य समझ लेना चाहिए कि ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें करना, आँसू बहाना, नाचना, मूर्छित होकर गिर पड़ना, आँखें मूँद कर समाधि सी लगा लेना, शास्त्रों की विलक्षण व्याख्या करना आदि बातों से ही कोई संत या महात्मा नहीं हो जाता। सिनेमा में अभिनय करने वाले ऐक्टर व्यास, शुक्रदेव, शंकराचार्य, बुद्ध, चैतन्य आदि का मनोमुग्धकारी अभिनय कर लेते हैं, पर इससे वे महात्मा या महापुरुष नहीं हो जाते। वे किसी को ठगते भी नहीं। पर जो वासना के गुलाम धूर्त लोग साधु, महात्मा का स्वाँग बनाकर जनता के धन, धर्म, सदाचार पर आक्रमण करते हैं वे तो बड़े ही भयंकर हैं, और उनसे सदैव सावधान रहने में ही भलाई है।

समाज-सेवा की भावना वाले नवयुवकों का भी कर्तव्य है कि वे संगठन बनाकर ऐसे धूर्तों से भोले और मूर्ख लोगों की रक्षा करें। कुछ वर्ष पहले तक हमारा देश पराधीन था और देश के उच्च आदर्श वाले नवयुवक उसे स्वाधीन कराने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा देते थे। अब देश की राजनैतिक दशा बदल गयी है और हमको राजनैतिक आन्दोलन में कष्ट सहन अथवा बलिदान की कोई खास जरूरत नहीं जान पड़ती। पर सामाजिक क्षेत्र में ऐसी हजारों समस्याएं हैं जिनके सुधार के लिए हम परिश्रम और आत्मत्याग करके बहुत बड़े यश और पुण्य के भागी बन सकते हैं। इस प्रकार के धूर्त लोग प्रायः सरकारी कानूनों के फंदे में नहीं आते,क्योंकि जिसको वे ठगते हैं या भ्रष्ट करते हैं उनको पहले ही अपना अंध भक्त बना लेते हैं। दूसरी बात ये भी है कि जो ‘बड़े आदमी’ इनके भक्त बनते हैं वे स्वयं और उनका परिवार भी प्रायः आचार की दृष्टि से भ्रष्ट होता है, और प्रकट में ‘धर्म’ का ढोंग करने पर भी स्वच्छंद काम-क्रीड़ा को बुरा नहीं समझते। कुछ भी हो ऐसे धूर्तों का प्रतिकार करना समाज हितैषियों का कर्तव्य है और आवश्यकता है कि जनता को उनके विषय में स्पष्ट शब्दों में सचेत किया जाए और निर्भय होकर उनकी करतूतों का भण्डा फोड़ सबके सामने किया जाए।

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