
अपने आप का स्वामी बन कर रहिये!
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(श्री रामचरण महेन्द्र)
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अपने आप का स्वामी बन कर रहिए ! आप कहेंगे, “हम तो स्वयं अपने स्वामी हैं ही; फिर आपका क्या तात्पर्य है?”
यदि आप अपनी इंद्रियों, मानसिक विकारों और अन्तर्द्वंद्वों के वश में हैं ; यदि मन के झकोरों में बह जाते हैं ; यदि आपको नाना क्षुद्र प्रलोभन नाच नचाया करते हैं और आप इनके वश में हैं, तो वास्तव में आप स्वामी नहीं, गुलाम ही हैं। अनियंत्रित इन्द्रियों की दासता ऐसी है, जैसे कठपुतली में बन्धे हुए सूक्ष्म तन्तु। जिधर को तन्तु हिले, उधर ही को कठपुतली ने हाथ पाँव हिलाए। स्वयं कठपुतली का कोई अस्तित्व नहीं है। उसी प्रकार इंद्रियों के दास का क्या ठिकाना!
मनुष्य के जीवन का पूरा विकास .गलत स्थानों, .गलत विचारों और .गलत दृष्टिकोणों से मन और शरीर को बचाकर उचित मार्ग पर आरुढ़ कराने से होता है। यदि इन्द्रियों को बेलगाम, यों ही जिधर चाहें चलने के लिए, छोड़ दिया जाए, तो निश्चय जानिए, ये आपको ऐसे गड्ढे में ले जाकर पटकेंगी, जहाँ से उठना असम्भव हो जायेगा। इसलिए भारतीय संस्कृति के संयम को विशेष महत्ता प्रदान की गई है।
मनुष्य की वासनाएँ अनन्त हैं ; इच्छाओं की कोई गिनती नहीं, तृष्णाओं की संख्या उतनी ही है जितने आकाश में सितारे। एक वासना, एक इच्छा या एक तृष्णा के पूर्ण होते ही दस नई तृष्णाओं का जन्म हो जाता है। इस प्रकार कामनाओं और नित नई आवश्यकताओं का मोह-बन्धन लगातार हमें बाँधे रहता है। हम साँसारिक भोग-विलास के हर दम दास बने रहते हैं; इच्छाओं के प्रपंच में जकड़े हुए हैं।
एक विद्वान ने सत्य ही लिया है, “दुनिया को मत बाँधो, अपने को बाँध लो।” अपनी इन्द्रियों को वश में कर लो तुम विजयी कहलाओगे।
अपनी इन्द्रियों की रखवाली वैसे ही करो, जैसे एक कर्तव्यनिष्ठ सिपाही खजाने के दरवाजे की रक्षा करता है। यदि चोरों को अवसर मिलेगा तो इन्हीं दरवाजों से घुसकर सारा खजाना खाली कर देंगे।
इसलिए खबरदार! दरवाजों पर गफलत न होने देना। इन्द्रियों पर पाप का अधिकार न होने पाये, अन्यथा धर्म, नीति, चरित्र, पुण्य, कीर्ति , यश, प्रतिष्ठा का खजाना खाली हो जायेगा।
मन में संयम से स्वर्ग मिलता है; किन्तु अनियंत्रित इन्द्रियाँ तो नरक की ओर ले दौड़ती हैं। क्या तुम नहीं जानते कि उत्तम स्वास्थ्य, दीर्घ जीवन, दिव्य बुद्धि और साँसारिक सम्पदाएँ इन्द्रिय-निग्रह से ही मिलते हैं। जिसने अपने ऊपर काबू पा लिया है, वह हर परिस्थिति में पर्वत की तरह दृढ़ और स्थिर रह सकता है।
संयम वह गुण है जिस पर भारतीय संस्कृति टिकी है। हम एक संयमी जाति हैं। हमारे यहाँ संयम का बड़ा व्यापक प्रयोग है।
हमें चाहिए कि खान-पान, वाणी, विचार, चिंतन, सर्वत्र ही आत्मसंयम का प्रयोग करें। हमारा मन जब फालतू, व्यर्थ के अनीतिकर चिंतन में फँसता है, तो हमको उस पर कठोर नियंत्रण करना चाहिए ; जब क्षुद्र अनुराग, मोह, शंका आदि मनोविकारों के बंधन में बंधता है, तब उसका निग्रह करना चाहिए, जब दूसरों की खराबियों की थोथी आलोचना में फँसता है, तब उसे संयम पूर्वक रोकना चाहिए।
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दैनिक जीवन में ही संयम का आत्मशिक्षण और अभ्यास होना चाहिए। यदि हम समझें कि दो-चार दिन के साधारण से अभ्यास से यह कार्य हो जायेगा, तो यह हमारी भूल है। संयम का क्षेत्र अति विस्तृत है। प्रत्येक मोर्चे पर संयम का अभ्यास आवश्यक है।
मान लीजिए, आपके मन में स्वादिष्ट भोजन की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। आप पहले अपना दैनिक भोजन करते हैं। उसके बाद कुछ दूध रबड़ी खाते हैं। फिर मिठाई सामने आ जाती है तो आप उस ओर आकृष्ट हो जाते हैं और स्वास्थ्य की कुछ परवाह न कर अनाप-शनाप मिठाई खा जाते हैं। यह असंयम आपके स्वास्थ्य को नष्ट करने वाला और आत्मिक पतन का द्योतक है। अनियंत्रित जिह्वा वाले व्यक्ति कभी जीवन का आनन्द नहीं ले पाते। अति भोजन का परिणाम अधिक आलस्य और अहितकर चिंतन है। इन्द्रियों की और भी उत्तेजित करने और विकारों को बढ़ाने का साधन है।
आप किसी मादक द्रव्य-मद्य, भंग, सिगरेट, गाँजा, चाय, काफी के बंधन में बंध गये हैं तो इनके बिना आपको शून्यता प्रतीत होती है। अतः, समझ लीजिए कि आपके चरित्र में संयम की कमी है।
आप के नेत्र घृणास्पद, वासना से भीगे दृश्यों को देखने को दौड़ते हैं। बड़े वेग से सिनेमा के चलचित्रों, नृत्यों, नग्न मानव शरीरों की ओर आकृष्ट होते हैं, तो यह मन की दुर्बलता के चिन्ह हैं।
आपके कान संगीत (प्रायः उत्तेजक निन्द्य गाने) की ओर भागते हैं, अपने वास्तविक उद्देश्य पर मन एकाग्र न कर आप उस सस्ते संगीत की ओर खिंच जाते हैं, तो आप बंधन में पड़ गए हैं।
आप को जहाँ बोलना चाहिए, वहाँ आप बोलते नहीं। जहाँ नहीं बोलना चाहिए, वहाँ निरन्तर बकवास करते हैं; भटक जाते हैं; आवेश में आ जाते हैं; अपशब्दों तक का उच्चारण कर बैठते हैं और सबके बुरे बनते हैं। इस अवसर पर भी आपको आत्मसंयम से ही लाभ हो सकता है।
साँझ से ही आप बिस्तर पकड़ लेते हैं और दस घंटे निद्रा या तन्द्रा में पड़े रहते हैं। मध्याह्न को भी भोजन के पश्चात् एक दो घंटे सो जाते हैं। निद्रा से ही पीछा नहीं छूटता। सारे दिन निद्रा ही सताया करती है। यदि अमर्यादित निद्रा हो, तो मनुष्य कैसे कुछ ठोस कार्य कर सकता है? अधिक भोजन का फल अधिक निद्रा, अधिक निद्रा का अर्थ आलस्य, और आलस्य का अर्थ आध्यात्मिक पतन और सर्वनाश है।
यदि संयम न हो, और हमारे कार्य ऊपर लिखे तरीकों से ही चलते रहें, तो मनुष्य समग्र जीवन खान-पान, व्यर्थ चिंतन, दोष दर्शन, इन्द्रिय-पूर्ति और निद्रा में ही समाप्त कर दे। पर ऐसा नहीं होता। ईश्वर ने हमें एक ऐसी शक्ति दी है, जिसे विवेक कहते हैं। यह विवेक हमें मर्यादा, नियम-बंधन और नाप तोल कर चलना सिखाता है। विवेक होने पर हम स्वयं अपने मन के द्रष्टा बन जाते हैं। अपने मन के व्यापार की अच्छाई- बुराई देखते हैं। निरुपयोगी और फालतू क्रियाओं का निरीक्षण करते हैं।
भीष्म एवं युधिष्ठिर के संवाद में से यह भाग विचारणीय है-
“आत्मा नदी संयमतोयपूर्णा
ज्ञानं हृदः शीलदया तटानि।
तस्यावगाहं कुरुपाण्डुपुत्र
न वारिणा शुध्यति चाँतरात्मा ॥”
“हे धर्मराज, तुम ऐसी नदी में स्नान करो, जिसमें आत्मा शुद्ध हो जाय। आत्मा रूप नदी में संयम रूप जल भरा हुआ है, ज्ञान रूपी गहराई है। शीलता और दया रूपी दोनों किनारे हैं। जल से आत्मा की शुद्धि नहीं हो सकती। “
तमोगुण अर्थात् प्रमाद, आलस्य, मोह, निद्रा, वासना, शिथिलता-आदि से मुक्ति के लिए केवल संयम के अभ्यास की आवश्यकता है। विषयों के ध्यान अथवा चिंतन से उसमें आसक्ति हो जाती है, उस आसक्ति से उसकी प्राप्ति की इच्छा होती है; और तमोगुण के इच्छित फल मिलने से सर्वनाश हो जाता है। अतः चौबीसों घंटों अपने आपको नियमों में बाँधना चाहिए।
नियम-बंधन एक मानसिक बंधन है। जब आप मन में यह दृढ़ निश्चय करते हैं कि अमुक नियमों से रहेंगे या अमुक-अमुक नियमों का जीवन में पालन करेंगे, तो आप मन ही मन एक गुप्त शक्ति से अपने जीवन और कार्यों को बँधा हुआ पाते हैं। नियमों के पालन का निश्चय ही एक साधन है। इसमें प्रारम्भ में मन और शरीर को कुछ कठिनाई अवश्य पड़ती है, पर बार-बार नियमों का पालन करने से मन का नियंत्रण हो जाता है।
नियम हमें संयम की शिक्षा देने वाले अमूल्य अंकुश हैं, जो हमें उच्च प्रकार के साँस्कृतिक जीवन की ओर ऊँचा उठाते हैं। नियम की जंजीरों में बंध कर मनुष्य व्यर्थ के निरुपयोगी कार्यों से छूट जाता है। मन व्यर्थ की क्रियाओं से बच जाता है। मन की स्वतन्त्रता की एक विशेष सीमा निर्धारित हो जाती है। इसकी मर्यादा के बाहर जाते ही हम चौंक जाते हैं। गुप्त मन हमें नियमोल्लंघन करने पर प्रताड़ित करता है। वस्तुतः, हम फिर मन की लगाम को खींचकर उसकी निर्बाध स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा देते हैं।
नियमों में बंध कर मनुष्य की शक्ति का विकास होता है। व्यर्थ-चिंतन, व्यर्थ के कार्य और इन्द्रियों के प्रलोभनों से बचकर आहार-विहार में संयम लाने से मनुष्य का शरीर श्रमी, बुद्धि विवेकवती और मन शक्तिशाली बनता है। जितेन्द्रियता व्यक्ति के निर्माण में सर्वाधिक महत्व रखती है।
प्रकृति अपने नियम नहीं छोड़ती। इस संसार की प्रत्येक गति कुछ गुप्त नियमों के अनुसार चल रही है। ऋतुओं का आना-जाना, वृक्षों के फल-फूल, पत्तियों का उद्भव; जीव विज्ञान के नाना कार्य, भौतिक विज्ञान के अनेक नियमों पर चल रहे हैं। सृष्टि अपने नियम नहीं छोड़ती। समस्त विज्ञान हमें नियमों का महत्व स्पष्ट कर रहे हैं। फिर, मनुष्य अपने नियमों को छोड़कर कैसे उन्नति कर सकता है? मनुष्य की अपरिमित शक्ति समस्त मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक नियमों के पालन में ही हो सकती है।
उदाहरण के लिए शारीरिक नियमों को ही ले लीजिए। शरीर एक पेचीदा यंत्र है। पर्याप्त श्रम, नियमित तथा संतुलित भोजन, मनोरंजन, आठ घंटे की गहरी निश्चिन्त निद्रा, पर्याप्त आराम, प्रसन्नता आदि आवश्यक हैं। यदि इनमें से किसी भी नियम को भंग कर लिया जाता है, तो जीवन अव्यवस्थित हो जाता है। फलतः, रोग और शारीरिक कष्ट उत्पन्न हो जाते हैं। यही कारण है कि सजा के डर से, कोई भी शारीरिक नियमों का उल्लंघन नहीं कर पाते। मानसिक और बौद्धिक नियमों का अनेक बार अतिक्रमण होता है और मन का संतुलन नष्ट हो जाता है। अतः, अपने आप को कठोर नियमों के बंधन में बाँधे रखिए। इससे आप की सभी शक्तियाँ बढ़ती रहेंगी और अपव्यय न होगा। नियम टूटते ही संयम नष्ट हो जाता है और शक्तियाँ नष्ट हो जाती हैं।