
समाज के उत्थान और पतन का उत्तरदायित्व ब्राह्मणों पर है।
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(श्री रामकुमार शर्मा, कोटा)
महाभारत के शाँति पर्व (अध्याय 189) में महर्षि भारद्वाज ने भृगु ऋषि से पूछा-”हे द्विजोत्तम, ब्राह्मण कैसे होते हैं? क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कैसे होते हैं?” भृगु ने उत्तर दिया- “ब्राह्मण वही है जो यथा विधि सुसंस्कृत, पवित्र, वेदाध्ययन शील, सत्कर्मान्वित सदाचारी, विद्याव्यसनी, गुरुप्रिय, सत्य परायण हो। जिसमें सत्य, दान, अद्रोह (मैत्री), अक्रूरता, लज्जा, क्षमा, और तप है, वही ब्राह्मण है।” फिर शूद्र का लक्षण बतलाते हुये वे कहते हैं- “जो नित्य सब प्रकार की वस्तुएँ खाता है, जो अपवित्र है, जो सब तरह के कर्म करता है, जो वेद त्याग कर आचार हीन हो गया है, वही शूद्र है।” आगे चलकर महर्षि कहते हैं-”जन्म जात शूद्र यदि चरित्रवान और सुसंस्कृत हो तो वह शूद्र नहीं रहता और यदि उपर्युक्त लक्षण जन्मना ब्राह्मण में न हो तो वह ब्राह्मण नहीं रहता।”
इस प्रकार एक जमाना था जबकि हम ब्राह्मण मनुष्य-समाज में सर्वोपरि माने जाते थे। देवता तक हमारा मुँह ताकते थे और तीनों लोक में हमारी धाक जमी थी। हम आकाश में उड़ते थे, समुद्र के तल को छानते थे और पहाड़ों को भी हिला देते थे। समस्त संसार में हमारा आदर होता था और देश-विदेशों में हम गुरु मान कर पूजे जाते थे। हम अन्धकार में प्रकाश करते थे, सोते हुओं को जगाते थे, प्राणहीनों में जीवन डाल देते थे। हम बिगड़ों को बना देते थे, गिरे हुओं को उठाते थे, भूले हुओं को राह पर लाते थे। किसी भी धूर्त या चालाक व्यक्ति को हमारे आत्मबल के सामने पेश नहीं पड़ती थी। छोटे बड़े सभी लोग हमारी कृपा-कटाक्ष के लिए लालायित रहते थे।
पर ये सब गुजरे जमाने की बातें हैं। आज तो कोई इन पर विश्वास करने को भी तैयार नहीं। इतना ही नहीं इनका कहने वाला आज पागल समझा जायेगा। आज हमारा आचरण और रहन-सहन ऐसा बदल गया है कि हम स्वयं अपने को नहीं पहिचान सकते। लोग कहते हैं कि जमाना बदल गया है, दैव ही हम से रूठा है और इसीलिये हमारी ऐसी बुरी हालत हो रही। पर ये सब बातें मन को समझाने और अपने दोष पर पर्दा डालने वाली हैं, वास्तव में न दैव ही हमारे प्रतिकूल है और न हमारा भाग्य ही लौट गया है। हम जो कुछ भोग रहे हैं। वह सब हमारी करतूतों का ही परिणाम है। आज हमारे मुखिया कहलाने वालों की ही मति उल्टी नहीं हो गयी है, वरन् कर्मठ व्यक्ति भी उल्टे मार्ग पर चल रहे हैं। आजकल वीरता और साहस इसी में रह गया है कि अपने ही भाइयों की जड़ खोदी जाय, उन्हीं के साथ जूतम पैजार की जाय। हम अपने ही सगे-सम्बन्धियों का पेट काटकर अपना पेट भर रहे हैं, अपने पड़ोसियों का घर जलाकर अपने घर में रोशनी कर रहे हैं। धनवानों की तो बात ही मत पूछो, उनको अपना पेट भरने से ही फुरसत नहीं, चाहे उनके छोटे भाई भूखों मर जायें। संडे-मुसंडे डंडे के बल से भले ही माल वसूल कर लें, पर सीधे-सादे और भले आदमियों को वे किसी प्रकार की सहायता नहीं दे सकते।
यह तो सभी जानते हैं कि भारतवर्ष के पतन और उसकी दुर्दशा का कारण आपस की फूट ही रहा है। पर जब चारों वर्णों के नेता-सिरमौर-ब्राह्मणों में ही फूट घुस गयी तो फिर कल्याण की आशा कहाँ से की जा सकती थी। वास्तव में ब्राह्मणों में स्वार्थ-परता का भाव उत्पन्न हो जाने से ही देश को यह दिन देखना पड़ा। अन्यथा वे अगर अपने त्याग और तपस्या के व्रत पर कायम रहते तो हर तरह के विघ्न बाधाओं के होते हुए भी देश को नीचे गिरने से बचा सकते थे। अब भी यदि हम अपना और समाज का उत्थान करना चाहते हैं तो उसके लिए आत्म-बलिदान के प्राचीन भाव को ही जागृत करना पड़ेगा।